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धर्म : जीवन का नाता : ३०५
को निराधार होकर क्या वन-वन में भटकना नहीं पड़ा ? कर्मों का आवरण दूर होते ही विपत्ति के बादल छंट जाएँगे और उसी धर्म के प्रताप से, जिसका तुमने पालन किया है— तुम्हारा संकट दूर हो जाएगा, तुम्हारे जीवन में सुख-शान्ति व्याप्त हो जाएगी । तुम्हारा जीवन स्वस्थ एवं विकासमान हो जाएगा ।"
धर्म का सम्बल जिसके पास रहता है, उसमें संकटों और कष्टों के समय प्रबल सहनशक्ति आ जाती है । उन कष्टों और संकटों को धर्मपालन के लिए उत्साह और शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है । कष्टों और दुःखों को सहने से आत्मशक्तियाँ भी बढ़ जाती हैं । इस प्रकार धर्म रक्षा ही नहीं करता, सब प्रकार से उस धर्मनिष्ठ व्यक्ति के जीवन का सर्वांगीण विकास कर देता है । धर्म उसके जीवन को, उसके अन्तःकरण को पवित्र एवं निर्मल बना देता है । उसमें निखार और तेजस्विता लाता है ।
सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने धर्म की रक्षा के लिए स्त्री, पुत्र, राज्य आदि सर्वस्व का परित्याग कर दिया, परन्तु अन्त में ऋषि विश्वामित्र को उनके समक्ष घुटने टेकने पड़े । दुःख और संकट की अंधेरी रात्रि व्यतीत हो गई, सुख-शान्ति की किरणों और सत्य के तेज से तेजस्वी धर्मसुख का सूर्य प्रकाशमान हुआ । राजा हरिश्चन्द्र का नाम धर्म ने अमर कर दिया, उनकी जो लोक व्यवहार में क्षणिक अप्रतिष्ठा हुई थी, उसके बदले कई गुनी प्रतिष्ठा से वे चमक उठे । इसीलिए भारतीय संस्कृति का यह मुद्रालेख है—
यतो धर्मस्ततो जयः
'जहाँ धर्म है, वहीं विजय है ।'
धर्म कैसे रक्षा करता है
आप पूछेंगे कि धर्म कैसे रक्षा करता है ? कभी हमें वह प्रत्यक्ष तो रक्षा करता दिखाई नहीं देता, फिर कैसे मान लें कि धर्म धार्मिक पुरुष को रक्षा करता है ? और रक्षा भी करता है तो उस व्यक्ति के शरीर की करता है, उसके स्त्री- पुत्रों की करता है, उसके धन या साधनों की करता है अथवा उसकी आत्मा की रक्षा करता है ?
वास्तव में ये प्रश्न बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । इन पर विचार किये बिना जो अन्धश्रद्धावश निश्चिन्त होकर या तो यह मान लेता है कि धर्म मेरी रक्षा करने ही वाला है, मैं चाहे जैसे चलू, चाहे जैसा व्यवहार करूँ ? इस प्रकार व्यक्ति धर्म या नीति का मार्ग छोड़कर धर्म से रक्षा की आशा करता है । अथवा कई लोग भ्रमवश यह मान बैठते हैं कि धर्म हमारे शरीर, परिवार, बाल-बच्चों की, धन एवं साधनों की रक्षा करेगा, उसे आत्मा की रक्षा की चिन्ता कतई नहीं होती । वास्तव में, शुद्धधर्म की रक्षा के लिए जी-तोड़ प्रयत्न किये बिना आत्मरक्षा या जीवन की रक्षा नहीं हो सकती । धर्म चाहे प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी रक्षा करता न दिखाई देता हो, परोक्ष रूप से रक्षा करता ही है | वह कैसे-कैसे रक्षा करता है ? यह हम पहले बता चुके हैं । परन्तु एक बात
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