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( ३४ ) जिस पर वे प्राणों को भी न्योछावर करने में नहीं हिचकिचाते थे, वही आज उनके स्नेह कर उनसे प्रथमवार विदा हो रही थी ।
बन्धन को ढीला
दृश्य बड़ा करुणोत्पादक था । सबकी आंखों में आंसू थे । सबकी वाणी मारे सिसकियों के मूक हो गई थी । राज कुमारी माता-पिता के चरणों का अपने अश्रू जल से प्रक्षालन कर रही थी । उसके सिर के बाल माता पिता के नेत्रों से गिरे हुए सुओं से गीले हो चुके थे । आखिर राजा ने अपने अन्तस्तल को कड़ा करके राजकुमारी के सिर पर हाथ रखते हुए कुलीन स्त्रियों के योग्य शिक्षा देते हुए बोले बेटी !
शुश्रूषस्व गुरून्कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नी-जने, भतुर्विप्रकृतापि शेषणतया मास्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येस्वनुत्से किनी, यान्त्येवं गृहणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ॥ गुरुजनों की सेवा करना । सौतों के साथ प्रियसखियों का सा व्यवहार करना । कदाचित् पति द्वारा तिरस्कृत होने पर ईर्ष्या से कभी उनके विपरीत मत चलना । परिजनों में चतुराई से बरतना साथ ही सेवकों पर अनुग्रह रखना । अपने बड़े भाग्य पर कभी गर्व मत करना । ऐसा