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( १०) कौतु भव-मावि-भायः
कर्मचमदेव भवेद्धि मोहः ।। . अर्थात्-जो कर्मों को करता है वही उन कर्मफलों को भोमता है । भक-संसार में होने वाले भावों का कर्म ही एक मात्र हेतु है जो भाग्यशाली कर्मों का चय कर देता है उसीका मोक्ष हो जाता है।
क्या राजा क्या रंक संसार में सभी अपने कर्मों से सुख दुःख भोगते हैं। अतः अयभव्यात्माओं ! आत्मा का ख्याल करके कर्मों पर काबु प्राप्त करो । कर्म को धर्मरूप में परिणत करने वाले धर्मात्मा धन्य होते हैं ।
. सद्गुरु देव के उपदेश को सुनकर महारानी सूर्यवती ने हाथ जोड़कर बड़े नत्र-शब्दों में गुरु से पूछा-भगवन् ! जयकुमार के भय से सद्य उत्पन्न मेरे पुत्र-रत्न को बगीचे में फूलों के ढेर में छिपा दिया था। बादमें हूँढने पर भी वह नहीं मिला, उसका मुझे बड़ा दुःख है। आप ज्ञानी हैं अतः कुषा कर बताइये कि उसका क्या हुमा १।
रानी की प्रार्थना पर उपयोग लगाकर दयालु-शानीगुरु ने सबके सामने कहना शरु किया-महामाये ! ये सब पूर्वत कर्मों के ही खेल हैं। तुम्हारा पुत्र बड़ा भागशाली है। तेजस्त्रियों में शिरोमदिहै। तुम्हारो