Book Title: Shreechandra Charitra
Author(s): Purvacharya
Publisher: Jinharisagarsuri Jain Gyanbhandar

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Page 475
________________ ५) महाराजाधिराज श्रीचन्द्र ने हजारों जिन-मंदिर लाखों धर्मशालायें कुवे- तलाव - बावडिया दानशालायें बाग बगीचे आदिकों का निर्माण कराया। हमेशा श्रीजिनेश्वर भगवान की पूजा, आवश्यकादि नित्य-कृत्य, गुरु-भक्ति, : सत्संग, दानशील तप और भाव रूप चतुर्विध धर्म की आराधना में अपनी शक्ति का सदुपयोग किया । सिद्धाचल गिरनार सम्मेतशिखर आबु अष्टापद आदि तीर्थोंकी संघ यात्रायें कर के जन्म को सफल बनाया। म साधर्मियों में तन-मन-धन से वात्सल्य दिखाते हुए धर्म भावना बढाई। कुव्यापारों का निषेध किया । कोई किसी को न सता सके ऐसा अभय-अमारी का ढिंढोरा पिटवा दिया। इस प्रकार धर्म अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थो को साधते हुए महारानी चन्द्रकला की कूल से उन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। महाराजा प्रतापसिंह ने पौत्रदर्शन का आनंद लाभ पाया । उसका नाम पूर्णचन्द्र रखा। दूसरी रानियों के गर्भ से भी पुत्र पुत्रियाँ पैदा हुए। इस प्रकार अनेक सुयोग्य पुत्रों से राजाधिराज श्रीचन्द्र अतीव शोभा पाये । कुमार एकांगवरवीर भी युवावस्था को पाया । महाराजा महामल्ल की महारानी शशिकला से पैदा हुई

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