Book Title: Shreechandra Charitra
Author(s): Purvacharya
Publisher: Jinharisagarsuri Jain Gyanbhandar

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Page 474
________________ "र (४५४ ) चन्द्रावली-रत्नकान्ता और धनवती आदि रूप लावण्यवत्ती एकसो सोलह रानियाँ हुई । चतुरा कोविदा आदि हजारों भोग-पत्नियाँ बनी। प्राचीन पुण्यों और भोग-कर्मों की महिमा से एवं अनेक-रूपकारिणी महाविद्या से उतने ही रूफ बना कर श्रीचन्द्रराज उनके साथ प्रानन्द पूर्वक समय बीताने लगे। सुग्रोव-विद्याधरेन्द्र को उत्तर-श्रीणि का एवं रत्नध्वज और मणिचूड-विद्याधर को दक्षिण-श्रोणि का साम्राज्य प्रदान किया। अपने जय आदि चारों भाईयों को उनके मनपसंद देशों का स्वामित्व प्रदान किया। सर्वत्र धर्म और सुख-शान्ति का सौराज्य हो गया। उनके गुणचन्द्र बुध्दिसागर लक्ष्मण प्रादि सोले हजार महामात्य और अमात्य हुए । उनकी सेना में बयालीस हजार हाथी दश क्रोड घोड़े अडतालीस क्रोड पदातियों की बड़ी तगड़ी संख्या थी। महासेनाधिपति का पद धनंजय को दिया गया। . . राजराजेश्वर श्रीचन्द्र की राजसभा-वीणारव जैसे गायकों से हरि-तारक-मंगद आदि भट्टों से सुबुद्धि जैसे विद्वानों से विराजमान थी। सर्वत्र शांति का साम्राज्य छागया। सारी पृथ्वी को अनृणी बना दी। तब सभी ज्योतिषियों ने संसार में चन्द्र संवत्सर की स्थापना की ।

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