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कम्मठु-गठि श्रद्ध-अहिं वरिसेहिं सच्छ जोगेणं । संखवियं जेण मुणीसो - सिरिचन्दो तित्थयरपासतित्थे, पण पन्नस्याउ सिद्धि पत्तो जो तं, सिरिसिरिचंदं
V
केवली जयउ ॥ पालिता ।
च
णमह खिच्चं ॥
आयंबिल वद्धमाणं महातवं वद्धमाणं- सुभावेण । सययं कुएंतु भव्वा ! लहंतु लहुयं सिवंसोक्खं ॥
अर्थात्–तीन खण्ड के सैकडों राजाओं से सेवित चरण श्रीचन्द्रराज ने कुछ अधिक सो वर्ष तक एक छत्र साम्राज्य का स्वामित्व किया। दीक्षा लेकर स्वच्छ योगों
आठ वर्ष में आठ कर्मों के आधे चार घनद्याती कर्मोंका अन्त करके जिनने केवल ज्ञान पाया, एसे मुनीश्वसे श्रीचन्द्र केवली की जय हो। इस प्रकार एक सो पचपन वर्ष की पूर्णायु को पालकर तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी के तीर्थ में सिद्धि को पाये उन श्रीचन्द्र महाराज को हमेशा प्रणाम करो । हे भव्यात्माओं ! बढते हुए भावों से श्रीचन्द्रराज के जैसे आयंबिल वर्द्धमान तपको करो और जल्दी से शिव-सुख को प्राप्त करो ।
श्री चन्द्र, केवली के परिवार में जो साधु साध्वी हुए उनमें से कई मोक्ष गामी, कई अनुत्तर विमानवासी देवता, और कई एकावतारी हुए। जो भवान्तर में मोक्ष जावेंगे ।
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