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श्री सुखसागर-ज्ञान बिन्दु नं० ५०
॥ वन्दे वीरं सुखोदधिम् ॥ आयंबिल-द्धमान-तप माहात्म्योपरि पूर्वाचार्य लिखित
प्राकृत संस्कृत भाषातः हिन्दी भाषा-निबद्ध
NNN
श्री चन्द्र-चरित्र
प्रकाशक :
श्रीमजिनहरिसागरसूरि जैन ज्ञान भण्डार
जाटावास मु० लोहावट (मारवाड़)
ॐ वि० स० २००८
वीर सं० २४७८
सुख सं० ६६
मूल्य २) रुपैया । इसको आय दूसरे ग्रन्थों के प्रकाशन में लगेगी।
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पुस्तक प्राप्ति स्थान
१ - श्रीमज्जिन हरिसागर सूरि जैन ज्ञानभ जाटावास मु० लोहावट ( मारवाड )
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२ - श्रीफलोदी पार्श्वनाथ महाविद्यालय म्रु० मेड़तारोड' ( मारवाड )
३ - श्रीमती दयाश्रीजी महाराज ज्ञानभंडार - महावीर मण्डल सेठियों को गवाड
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०
• बीकानेर (राजस्थान )
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श्री फलोदी पार्श्वनाथ महाविद्यालय के संस्थापक जैनाचार्य पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय श्री श्री १००८ श्री
*本卡五不中不卡卡木卡卡卡卡卡卡中本中本本本本本本本卡本本本本本本本本本书
多车平本季卡卡卡卡卡卡卡农本來本本本本事本中卡卡木卡卡卡卡本本本太太本不卡车吊
忠不孝不孝李李李李李李李李个个本本多个本本本本本本
श्रीमज्जिन हरिसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब
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प्रातः स्मरणीय सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र जैनाचार्य * श्रीमज्जिन-हरिसागर सूरीश्वर सद्गुरु-वन्दनम्
(शिखरिणी वृत्तम् )
विनिर्धूयाज्ञानं निज- गुणमपि ज्ञानमतुलं वितीर्यात्म-ज्योतिर्जगति जनतायायुपकृतम् । सदा यः संसाराम्बुनिधि - तरणोपाय- पटुभि
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरिगुरुभ्यो विनयतः ॥ १ ॥ हृतं यैर्मिथ्यात्वं स्फुट - जिनमतोद्बोध-विधिना,
कृतं कल्याणं च स्व पर विषयि प्रौढ - चरितैः । प्रशान्त-स्वान्तत्वादपगतभया ये ह्य् भवतो
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरिगुरुभ्यो विनयतः ॥२॥ कलङ्की नो चन्द्रः प्रखरतरतापो नहि रविः
न वा चिन्तारत्नं नदुपलमिहैधः सुरतरुः । अहो ! यायद्येषामुपमिति पदं नो कथमतो
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरि - गुरुभ्यो विनयतः ॥ ३॥ अपि ध्वान्त-ध्वंसे सुविहित- लसद्वत्ति-विशदाः,
स्थिरा निर्धूमा ये प्रकृति - मधुरस्नेह-सहिताः । प्रकाशं लोकानां सुगुरु-कुलदीपा विदधतो,
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरि - गुरुभ्यो विनयतः ॥४॥
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[ २ ] स्त्रयं विष्णुः सूर्यः सुरपतिरथो सिंह इति किं गुणैर्नानाप्येषां हरिरिति जनैस्तर्कित-पदम् । विभात्येवं येषां स्फुरदुरु-यशोराशिरभितो
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरि - गुरुभ्यो विनयतः ||५|| पुरे रोहीणाख्ये जनक - जननी-हर्ष - बहुलं, महाज्ञाते वंशे जननमिह येषां समभवत् । जगज्जातं सर्वं तदनु वत चित्रं सुखमय,
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरि-गुरुभ्यो विनयतः ॥६॥ सुखाम्भोधि - श्रीमत्सुगुरु--भगवत्पूज्य-पदगा
उक
गृहीत्वा प्रव्रज्यां प्रवचन- सुधास्वाद- सुभगाः । प्रसत्तेः पूज्य- श्रीछगन-सुगुरोर्ये जनमता,
नमस्तेभ्यः श्रीमज्जिनहरि-गुरुभ्यो विनयतः ॥७॥ महाराजस्थाने सुजन - बहुले गुर्जरवरे सुराष्ट्रे बङ्गेऽङ्गे जनपद - विहारं विदधताम् । यशोगाथा गीता सुकवि - विबुधैः प्राप्त सुवृषै
नमस्ते यः श्रीमज्जिनहरि-गुरुभ्यो विनयतः ||८|| ( शार्दूलविक्रीडितम् )
इत्थं षट् ख ख युग्म सम्मित पदे वर्षे सुपौषेऽसि तेऽ ष्टम्यां श्री गुरवः समाधि - सहिताः स्वर्गं गतास्ते मम । तीर्थे श्रीफलवृद्धि - पार्श्व - सुपुरे विद्यालय -स्थापकाः साहाय्यं कलयन्तु साम्प्रत मलं नित्यं कवीन्द्र - स्तुताः ॥६॥
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-प्राक्कथन
- मानव जीवन में भोग और त्याग की परस्पर विरोधी भावनाओं का संमिश्रण दिखाई देता है। दोनों के चित्रण से ही चरित्र यथार्थ चरित्र बनता है । यदि एक को छोडकर दूसरे को ही दिखाया जाय तो वह सत्य से परे की अव्यवहार्य चीज होगी। रंगों की विविधतावाला चित्र ही चित्ताकर्षक हुआ करता है, इकरंगा चित्र उतना सुन्दर और सर्वग्राही नहीं होता। विरोधी भावनाओं में समीकरण और सामंजस्य पैदा करने वाले एक तत्त्व आत्मा को जो पहिचान पाता है, वही सम्यग्दर्शन संपन्न मानव महामानव बन कर संसार से उपर उठ जाता है।
इस पुस्तक में ऐसे ही एक महामानव श्रीचन्द्रराज का चरित्र अङ्कित किया गया है। श्रीचन्द्रराज जहां अपार सम्पत्तियों का स्वामी, महान् विजेता और कई अप्सरा जैसी रूपसी कन्यामों का स्वामी था वहां लाखों का दान करने वाला, हारने वालों के साथ उदार स्नेह सद्भाव से बरतनेवाला और संयमी संतों की सेवा भक्ति से त्याग के प्रति अनन्त अनुराग रखने वाला दिखाई देता है। ___ जीवन एक भव की ही आकस्मिक घटना नहीं हुआ करता । उसके बनने और बिगड़ने में कई जन्मजन्मान्तरों के संस्कार काम करते हैं। प्राकृत चरित्रकार श्रीसिद्धर्षि महाराज ने लिखा है
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एरवय खित्तम्मि चंदण-मवम्मि णुट्ठिय तव-समाहप्पा ।
अच्चुय-इंदो जाओ, तह रायहिराय-सिरिचंदो ॥ अर्थात्-भारत वर्ष के जैसा ही एक ऐरवत नाम का क्षेत्र है। वहां बृहण नाम के किसी एक नगर में चन्दन नाम का एक सेठ हुआ। उसने आयंबिल बद्ध मान तप. का अनुष्ठान किया। उस के माहात्म्य से वह बारहवे अच्युत नाम के देवलोक का इन्द्र हुआ। बाद में वही आत्मा राजाधिराज श्रीचन्द्ररूप में अवतीर्ण हो कर संसार की सर्वोत्कृष्ट सम्पत्तियों का स्वामी हुआ। अंत में संसार को सम्पत्तियों का सर्वथा त्याग करके एकान्तिक
और प्रात्यन्तिक मोक्ष को पा गया । यावत् परम पुरुष परमात्मा हो गया।
जिस चरित में ऐतिहासिक साधन उपलब्ध हों रसे ऐतिहासिक चरित कहते हैं । यह श्रीचन्द्र चरित्र भगवान् श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के शासन में हुआ है. इस नाते ऐतिहासिक सीमा में आ जरूर जाता है । पर साधनों के अभाव में इसे ऐतिहासिक न कह कर पौराणिक मानना अधिक युक्ति संगत है ।
महामानव श्रीचन्द्र राजाधिराज, राजर्षि और केवलज्ञानी परमात्मा रूप इस इस चरित्र में हमारे सामने आते हैं। प्रत्येक चरित्र में हेय ज्ञेय और उपादेय वस्तुयें होती हैं । पाठक-गण हेय छोड दें, ज्ञेय को जान लें, और उपादेय को स्वीकार कर आत्मा का कल्याण करें।
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इस चरित्र को पूर्वाचार्यों ने प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखा है । भाविक लोग वर्द्धमान तप की साधना करते भी हैं । सर्व साधारण हिन्दी भाषा-भाषी लोगों के हित का ख्याल रखते हुए श्रीपरमगुरु जैनाचार्य श्रीमजिन हरिसागर सूरीश्वरजी महाराज साहन के शिष्य रत्न सार्थक नामा श्रीकबोन्द्र सागरजी महाराज की प्रेरणा से मैने इस चरित्र को हिंदी भाषा में लिखा है । इस को लिखने की शरुआत मैने मेरी पूज्य-गुरुवर्या श्रीमती दयाश्रीजी महाराज साहिबा के साथ सं० १६६३ के अजमेर के चतुर्मास में की थी। इसकी पूर्णता सं० १६६५ की वसंत पंचमी को बीकानेर के चतुर्मास में हुई । ___ इस चरित्र के लिखने में पूज्या श्री कंचन श्रीजी महाराज एवं श्रीमती सुरेन्द्रश्रीजी का सहयोग और अजमेर बीकानेर की श्राविकाओं का उत्साह सदा सराहनीय और स्मरणीय रहेगा। इसमें कहीं दर्शन से विपरीत लिखा गया हो, भाषा में और भावों में त्रुटियाँ रह गई हों तो विद्वज्जन कृपया उनका परिमार्जन करें।
गच्छतः स्खलन क्वापि, भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति. दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ।
इति प्राधिकाजैनाया-बुद्धिश्री
बीकानेर
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अभिप्राय
भगवान श्री महावीरदेव के शासन में स्त्री पुरुष दोनों को सेवा करने का समान अधिकार प्राप्त है । स्त्रियों में जैन साध्वियाँ त्याग-तपश्चर्या और ज्ञान की साधना के क्षेत्र में पुरुषों से किसी भी प्रकार से कम नहीं रही हैं। विदुषी-परमविदुषी साध्वी बुद्धिश्रीजी जैन शासन-गगन की एक परम प्रकाशवाली ज्योति थी। उनका स्थूल शरीर विद्यमान न होने पर भी उनका मूर्तिमान साहित्य आज भी जनता में स्फूर्तिप्रद प्रस्तुत है । उपाध्यायजी श्री धमाकल्याणजी महाराज की संस्कृत चैत्यवन्दन चतुर्विशतिका का हिन्दी अनुवाद आपने बड़े सुन्दर ढंग से किया है, जो मुद्रित हो चुका है। उनकी यह दूसरी कृति श्रीचन्द्र चरित्र हिन्दी साहित्य की शोभा में अपूर्व वृद्धिकारक ही हुई है। इसके प्रकाशन में प्रेस सम्बन्धी प्रयत्न करने वाले मुनिराज श्री प्रेमसागरजी को मैं धन्यवाद दूंगा जिन्होंने पूरी कोशिस करके बारह वर्ष पहिले लिखे हुए इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाया। अन्त में मैं पाठकों से प्रेरणा करूगा कि श्रीचन्द्र चरित्र से जीवन को ऊंचे उठाने वाले आदर्श स्वीकार करें ! इत्यलं विस्तरेण
निवेदक :बृहद् भट्टारक खरतर गच्छाचार्य
श्री जिनधरणीन्द्रसूरि जयपुर (राजस्थान)
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प्रचार हिन्दी
___ ध्यान से पढ़ें!
श्री फलोदी पार्श्वनाथ महाविद्यालय मेडतारोड (मारवाड़) में करीब तीन साल से आपके विद्यार्थी-धार्मिकव्यवहारिक हिन्दी-संस्कृत--इंग्लिश-महाजनी आदि की ऊँचीकोटि की शिक्षा प्राप्त करते हैं। बोर्डिङ्ग में विद्यार्थी भोजन फीस पन्द्रह रुपये देते हैं और बिना फीस के शिक्षा प्राप्त करते हैं । आप अपने लड़कों को शिक्षा पाने के लिये अवश्य भेजें। यहां ये परीक्षाकेन्द्र हैं-१ हिन्दी साहित्य-सम्मेलन प्रयाग-मुनीमो, प्रथमा, विशारद । २-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा-प्रारम्भिका, प्रवेशिका, कोविद । ३-संस्कृत हिन्दी विद्यापीठ लखनऊ-संस्कृत परिचय, संस्कृत कोविद, हिन्दी प्रवेशिका हिन्दी प्राज्ञ, प्राज्ञविशारद, प्राज्ञाचार्य । ४-होमियोपैथिक-डाक्टरी कोलेज देहली।
कई गरीब विद्यार्थी बिना फीस दिये भी भोजन पाते हैं। उनका और शिक्षा विभाग का खर्चा संस्था उठाती है। इसलिये दानवीरों से प्रार्थना है कि वे अपने दान का प्रवाह इस मारवाड़ के अति प्राचीन अतिशय-तीर्थ क्षेत्र में बहाकर जीवन में लाभ उठावें।
प्रार्थी :-- श्री फलोदी पार्श्वनाथ महाविद्यालय कमेटी
सेक्रेटरी--जवरीमल डौसी खजवाना (मारवाड़)
वशि
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।। अहॅनमः ।। १ परम पूज्या गुरुवर्या श्रीमती विवेकश्रीजी ___महाराज साहिबा के पुनीत
कर कमलों में
सप्रेम सविनय !
सादर
सप्रेम
समपण
-
ADDITISHNIRHI
जिनका गुण गौरव सुना, जिनका लूं नित नाम । उन गुरु के पद-पद्म में पहिले करू प्रणाम ॥ जिनका पहिले ध्यान धर, पूर्ण किया यह नेक । उनही को अर्पण करू, दें वे मुझे विवेक ॥ मैं हूं इक लघु बालिका, गुरु चरनन की धूल । करो दया गुरुदेव सब, मिट जावें भव शूल ॥
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सद्गुरुपद धूली
बुद्धिश्री
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पूज्या परमपूज्या प्रभाते स्मरणीया स्वनाम धन्या स्वर्गीया
परम गुरुवर्या श्री श्री १०८ श्रीमती
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श्री विवेकश्रीजी महाराज साहिबा
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साध्वीश्रेष्ठा पूज्या श्रीमती दया श्रीजी महाराज
आपकी शिष्यारत्न
FAEZZERure
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श्रीचन्द्रचरित्र की सफल लेखिका * श्रीमती बुद्धिश्रीजी महाराज *
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ऊँग्रह नमः श्रीमत्सुखसागर-भगवजिनहरि-पूज्य-परमगुरुभ्यो नमो नमः
साध्वी श्रेष्ठा श्रीमती विवेक श्री जी महाराज की शिष्या-रत्न परम दयावती श्रीमती श्री दया श्री जी महाराज की परम विदुषी . शिष्या
रत्न श्रीमती बुद्धिश्रीजी महोदया द्वारा हिंदी भाषा में
लिखित एक अतिपौराणिक
श्रीचन्द्रराजचरित्र
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ॐ श्री परम गुरुभ्यो नमो नमः *
卐 मंगला चरणम् धन
本本案
(दोहा)
ॐ अर्ह पहिले नम् सुखसागर भगवान 1 जिन हरि पूजेश्वर नम्वीर करें कल्याण ॥
पुण्य विवेक दयामयी जिन काणी जयकार । बुद्धि शुद्धि मेरी करें वाणी-विशद-विचार ।।
महा महिमशाली हुए महाराजा श्रीचन्द । यह चरित्र उनका लिखु पढो सुनो सानन्द ।।
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आज वैशाली में काफी चहल पहल दिखाई दे रही है। वहाँ के निवासी सुन्दर वस्त्रालंकारों को धारण कर उत्तरासंग किये शीघ्रता से नगर के बाहिर चले जारहे हैं। चलिये ! पाठकगण ! हम भी इनके साथ चलें, और जिन पूजनीय महात्मा के दर्शन करने को ये लोग इतने उत्साह एवं उमंग में दौड़े चले जारहे हैं, उनके दर्शन कर हम भी कृतार्थ बनें।
नगर के बाहिर ईशान कोण में विशाल उपवन है, जो नाना प्रकार के आम्र, जामून, कदम्ब, नींबू, नारंगी, अनार, अमरूद आदि फल वाले वृक्षों, तथा बकुल चम्पा, कोरंट आदि पुष्प वाले तरुओं एवं मालती, यूथिका, रजनी आदि लताओं के मंडपों से नन्दनवन के साथ स्पर्धा कर
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( ४ ) रहा है। सभी वृक्ष फलित और कुसुमित हो रहे हैं। क्योंकि
आजकल ऋतुराज बसन्त का आगमन हो रहा है, और प्रातः कालीन मन्द सुगन्धमय वायु ने उसके रूप सौन्दर्य एवं मधुरिमा को द्विगुणित कर दिया है, मानों अति मधुर रसालरस में अमृत घोल दिया हो , और उधर देखियें ! उस ऊँचे पाम वृक्ष पर बैठी कोयल पंचम स्वर में पालाप लेती हुई प्रकृति को मुखरित बना रही है। जरा इधर भी दृष्टिपात करिये ! पुष्पों वाले पौधों की ओर मधुकरों के समूह सुमनों की मधुर गन्ध से आकर्षित हो लपके चले जारहे हैं।
..। वह सामने ऊँचा अशोक वृक्ष है, उसके अधो-भाग में तपोधन महामुनियों से घिरे हुए देवरचित स्वर्ण कमल पर भगवान् महावीर के प्रथम गणधर उज्ज्वल गौरवर्ण भव्य शरीर प्रशस्त ललाट और शान्त मुख मुद्रा वाले भगवान् इन्द्रभूति गौतम स्वामी विराजमान है । अहा कैसी पवित्र मूर्ति है। त्याग और तप ही जैसे शरीर धारण किये बैठा हो। उनके पुनीत पादपों के निकट ही वैशाली के गणतन्त्राधिपति परमाहत महाराजा चेटक नम्रभाव से बैठे हैं । पास ही उनका परिवारवर्ग एवं नगर निवासी गण अपने २ योग्य स्थानों पर बैठे हैं। ...
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.. गणधर महाराज श्री गौतम स्वामीजी ने राजा प्रजा को लक्ष्य करके धर्मदेशना देते हुए फरमाया.. देवानुप्रियों ! धर्म, दान, शील, तप और भाव रूप से चार प्रकार का होता है। उन चारों में भी इच्छारोधन रूप तपोधर्म आत्मविकास में सर्वाधिक लाभदायक माना गया है । शास्त्रों में उसके अनेक भेद बताये गये हैं। उनमें श्री "आयंबिल वर्द्धमानतप" निकाचित कर्मों का भी नाश करने वाला है। उसका स्वरूप इस प्रकार है:
एगाइआणि आयंबिलाणि इक्कक्क वुढिमंताणि । पजन्तमब्भतहाणि, जाव पुण्णं सर्य तेसिं।। इयमंबिलवड्ढमाणं, नामं महातवचरणं । वरिसाणि तव चउदस, मास तिगं वीस दिवसाणि ।।
अर्थात्-एक आंबिल एक उपवास, दो आंबिल एक उपवास, तीन आंबिल एक उपवास यावत् सौ आंबिल एक उपवास हो तब यह तप पूर्ण हो जाता है। यह आंबिल बर्द्धमान तप लगातार करे तो चौदह वर्ष तीन मास और बीस दिन में पूरा होता है।
ज चंदणेण तइया, भविश्र अइ गरुय वद्धमाणतवं । तस्स फलेण हुओ, सोइ सिरिचन्द निवो सया मुहिओ।" अर्थात्-ऊपर बताये हुए उस बड़े भारी वर्द्धमान
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आयंबिल तप को चन्दन नाम के एक भाग्यशाली पुरुष ने आराधन किया। उससे वह भाग्यशालो चंदन महाराजा श्रीचन्द्र हुए । वे ही श्री चन्द्रराज महाराज्य के सुख भोग को पाकर उतरोत्तर मोक्ष सुख के अधिकारी हुए। ___ महाराजा चेटक ने बड़े विनीत भाव से श्री गौतम स्वामी जी से पूछा भगवन् !-श्रीचंद्रराज महाराजा के हुए ? उनके पवित्र चरित्रामृत का पान आप श्री के पुनीत मुखारविन्द से करने की हमारी उत्कट अभिलाषा है। क्या आप दयालु हम पर दया करके फरमायेंगे ? इस प्रार्थना को लक्ष्य करके श्री गुरु गौतम स्वामी जी महाराज ने जो श्री चंद्र चरित्र फरमाया उसका पाठक अगले अंकों में रसास्वाद लें।
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प्राचीन काल के भारतवर्ष में कुशस्थलपुर नाम का एक बड़ाभारी सुन्दर नगर था। उसमें एक लाख गाँवों पर शासन करने वाले न्यायी प्रतापी यशस्वी श्री प्रताप सिंह नाम के महाराजा राज्य करते थे। उनके अंतःपुर में रूप-सौन्दर्य-शीलादि सद्गुणों से अप्सराओं को जीतने वाली पांच सौ दिव्य राणियाँ थीं उनमें मुखिया पट्टराणी जयश्री नाम की थीं। उनके जय, विजय, पराजय, और जयंत नाम के चार राजकुमार थे। एक करोड सुभट, दश लाख घोड़े, दश हजार हाथी और उतने ही रथों से सम्पन्न उनका सैन्य बल था। मंत्री,महामंत्री, सामंत मादि प्रशस्त साधनों से श्रीमान् प्रतापसिंह सुचारु ढंग से राज्य का पालन करते थे।
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एक दिन महाराजा अपनी सुविशाल राज सभा में विराजमान थे । उस समय प्रति हारी द्वारा श्रज्ञा प्राप्त एक सार्थवाहने उस सभा में बड़े अदब के साथ प्रवेश किया । शिष्टाचार के बाद महाराजा ने उससे परिचय पूछा तब उसने कहा कि देव १ मैं दीपशिखा का रहने वाला हूं । मेरा नाम वरदत्त है। व्यापार के निमित्त मेरा यहां आना हुआ है। आज आपके दर्शन पा मैं कृतार्थ हुआ हूँ ।
महाराजा प्रतापसिंह ने आगंतुक व्यापारी का स्वागत करते हुए पूछा कि क्या आप अपनी उस दीपशिखा नगरी का परिचय भी देंगे ? सार्थवाह वरदरा ने बड़ी प्रसन्नता से कहा क्यों नहीं । देव ? ऐसे तो भारतवर्ष में कई नगर हैं परन्तु दीपशिखा का ठाठ पूर्व है । देवाधिक सौन्दर्य को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों से वह इन्द्रपुरी को भी मात देती है। भगवान के मंदिरों से कोट और बुर्जों से एवं राज महलों से शोभायमान इस नगरी के समान दूसरी कोई नगरी शायद ही कहीं होगी ! जिसके बीच में चार दरवाजों वाला, कनक कलशों से मंडित श्री यदि नाथ भगवान का एक बड़ा ही रमणीय विशाल जैन मंदिर है । जो उसे तीर्थ स्थान का महत्व प्रदान करता है ।
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( ६ )
चारों दरवाजों से प्रारम्भ होकर चारों दिशाओं में दुकानों की श्रेणियों से विराजित चार बड़ी सड़कें जगह जगह चौराहों से मेल खाती हैं ।
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दीपशिखा के ईशान कोण में राज - वर्गियों के अग्निकोण में व्यापारियों के वायु कोण में क्षत्रियों के और नैऋत्य कोण में सब प्रजाजनों के निवास स्थान बने हुए हैं । उसके बाहिर पत्थरों से बंधा हुआ कमलों से राज हंसों से विराजित एक बहुत बड़ा पद्म सरोवर नाम का तालाब बना हुआ है । जगह जगह मधुर स्वादिष्ट जल से पूर्ण बावड़ियां कुएँ प्याउ एवं फल फूलों से लदे पढ़ेपेड़ पौधों वाले हरे भरे उद्यान नगर की शोभा को चौगुनी बढ़ा रहे हैं ।
हे महाराज ! दीपशिखा को तारीफ मुह से नहीं की जा सकती । देखने से ही पता चलता है कि कैसी है वह ? अच्छा होता यदि आप वहां पधार कर उसे देखते । मैं मानता हूं आपके आतित्थ्य -सत्कार को करने में दीपशिखा के निवासी हमें भी बड़ा आनन्द प्राप्त होगा। आप एक बार जरूर २ वहां पधारें ।
इस प्रकार व्यापारी वरदत्त द्वारा दीपशिखा की विशिष्ट तारीफ को सुन कर एवं उसके भाव पूर्ण आमंत्रण
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का खयाल करके महाराजा प्रतापसिंह का चित्त वहां जाने के लिये उत्कंठित हो गया । कई दिनों के बाद उसी उत्कण्ठा से प्रेरित हो देश दर्शन के बहाने अपनी अंग रक्षक सेना को तैयार होने की आज्ञा दी । बात की बात में सारी सामग्री जुट गई । भारी उत्साह के साथ अपने सामन्तों के व योग्य मंत्रियों के साथ दीपशिखा की दिशा में महाराजा ने प्रस्थान कर दिया ।
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दिशाएँ शान्त हों । वायु अनुकूल बहता हो । आकाश निर्मल हो । पक्षी मधुर बोलते हों। ये सब भावी की शुभ सूचनायें हैं । महाराजा प्रतापसिंह भावी की मंगल प्रेरणा से प्रेरित हुए, अपने लक्ष्य-दीपशिखा की तरफ अबाधगति से जा रहे थे । मार्ग में आये हुए सुरम्य वनस्थल ने फिर भी उन्हें कुछ समय के लिये अपनी मनोरम लीला दिखाने के लिये रोक ही लिया। - महाराजा की आज्ञा से तंबू गाड दिये गये। विश्राम के लिये हाथी घोड़े खोल दिये गये । अपने २ डेरों में सभी आराम करने लगे । बढिया कीनखाब के बने तंबू में जिसमें मखमली फर्श और इरानी कालीने बिछी हुई थीं जो चारों ओर रेशमीन रस्सियों से चांदी के खुटों में
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(१२ ) बंधा हुआ था उसमें एक रत्नजटित सुवर्ण पलंग पर लेटे हुए महाराजा अपनी थकावट को दूर कर रहे थे। सुन्दर जरी की पोशाक पहने हाथों में सोने चांदी के दण्ड लिये द्वार-पाल मौन मुद्रा में खड़े थे । डेरे के चारों ओर हाथों में नंगी तलवारें लिये हुए सेना के चुने हुए सैनिक पहरा लगा रहे थे।
चारों ओर का वातावरण शान्त था। कभी २ आम के पेड़ों पर बैठी हुई मदमाती कोयल की कूक और मकरंद के लोभी भँवरों की गूज कुछ क्षण के लिये शान्ति को अवश्य भंग कर देती थी। ऐसे प्रसंग में कोई चार कला वान् द्वारपाल के पास आकर बोले कि हम महाराज के दर्शन चाहते हैं। उनकी इस बात से प्रेरित हो द्वारपाल ने महाराज को सूचित किया । महाराजा प्रतापसिंह गुणियों का समादर करने वाले थे, अतः उन्हें अपने पास लाने की माज्ञा देदी । राजाज्ञा से वे चारों बड़े विनीत भाव से महाराजा के पास पहुँचे। स्वागत-शिष्टाचार के बाद महाराजा ने उनसे परिचय पूछा, तब उन कलाकारों ने अपनी ओज भरी वाणी से निवेदन किया, कि महाराज ! हम श्री गुणन्धर कलाचार्य के शिष्य हैं। आपके श्री चरणों की सेवामें रहना चाहते हैं । हम में से एक पक्षियों
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( १३ )
की भाषा जानने वाला, दूसरा स्वामी के चित्त को पहचानने वाला, तीसरा स्त्री-पुरुषों के लक्षणों को समझने वाला और चौथा रथ को चलाने की कला में प्रवीण है ।
महाराजाने कलाकारों को बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पास रख लिया । ठीक है गुणों का आदर कहां - नहीं होता ? कहा भी है
" गुणाः पूजा-स्थानं गुखिषु न च लिङ्गं न च वयः " अर्थात् सर्वत्र गुणों की ही पूजा होती है । गुणियों में वय या चिन्ह नहीं देखा जाता ।
थकावट से और भोजन आदि कर्मों से निवृत्त होकर महाराजा उस रमणीय वन- प्रदेश में स्वतंत्रता के साथ घूमते हुए प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने लगे । निर्मल जल से लहराती नदी प्रवाहों में जल क्रीड़ा का अपूर्व आनंद लेने लगे । अनेक तरह के फल फूलों से लदे हुए पेड़ों की सघन छाया में बन - विनोद करते हुए महाराजा प्रतापसिंह अपने सामंतों मंत्रियों परिचारकों के साथ वापस अपने डेरे में लौट आये ।
सूर्य अस्ताचल की ओट में छिपने लगा। आकाश लाल पोले बादलों से घिरता हुआ अन्धकार के मुंह
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( १४ ) जाने लगा । तारे मार्ग दिखाने लगे। चंद्रदेव ने भी धीरे धीरे अपनी प्रियतमा चांदनी के साथ अग्रसर हो अमृत वषोना शुरू किया । लोग भी ग्रामोद प्रमोद में प्रसन्नचित्त होते हुए, भावी मंगल की सूचनावाले स्वप्नों के सफल दर्शन के लिये निद्रा देवी की गोद में सो गये। . रात्री बीतने लगी। पौ फटी। लाल साड़ी पहिने
प्रकृति की लाडिली बेटी उषा-रानी हाथ में सोने का थाल • लिये पूर्व की तरफ से आने लगी ।। संसार के समस्त प्राणी जगने लगे और अपनी २ भाषा में स्वागत करने लगे। मंगल बाजे बजने लगे। चैतालिक लोग स्तुति पाठ करने लगे । जय २ शब्दों से शिविर गूंज उठा। महाराजा ने भी अंगड़ाई लेते हुये उठ कर प्रातः कालीन आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो आगे प्रस्थान का आदेश दिया। बात की बात में सब तैयार हो गये और वहां से आगे को चल दिये। ____ महाराजा का सारा साथ मार्ग में आने वाली नदियों में, बड़े २ पद्म सरोवरों में, मुक्ता के समान निर्मल जल वाली बावड़ियो में अपनी रुचि के अनुसार क्रीड़ा करता हुआ, रमणीय वनो-उपवनों में कमनीय लता कुजों उद्यानों में विहार करता हुआ आगे बढ़ रहा था। रास्ते में
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अनेक छोटे बड़े राजागण महाराज प्रतापसिंह के दर्शनार्थ आये, सभी ने अपनी २ योग्यता के अनुसार भेंट न्योछावर की । महाराज ने उन सब को स्वीकार करके उन लोगों का सम्मान सत्कार किया । अनेकों निर्धन याचकों को अनर्गल दान देते हुए अनेकों प्रकार के कौतुकों को देखते हुए वहां तक पहुंच गये जहां से दीपशिखा की दर्शनीय च्छटा दूर २ से दिखाई देती थी।
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महाराजा प्रतापसिंह का शिबिर दीपशिखा से थोर्डी दूर पर लग गया। प्रकृति अपने माननीय अतिथि के स्वागत में पचियों के मंगल गान सुना रही थी, मंद २ हवा के चँवर दुला रही थी, सूर्य की सुनहरी किरणों से मिल मिलाते हुए वृक्ष की फैली हुई छाया छत्र का काम कर रही थी। पड़ोस में ही पद्म सरोवर निर्मल जलकमल से महाराजा का पूजोपचार कर रहा था। ऐसे सुखमय समय में भोजनादि कार्यों से निवृत्त होकर महाराजा प्रतापसिंह की आभ्यन्तर सभा जुड़ी हुई थी। अधिकारी लोग यथा स्थान बैठे हुए थे । चारों कलाविज्ञ अपनी २ कलाओं के सम्बन्ध में चमत्कारपूर्ण घटनाओं को सुना रहे थे, इतने में किसी पक्षी के बोलने की आवाज
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सुनाई दी। पक्षियों के स्वर को जानने वाले कलाविद् ने उसी समय विनय के साथ निवेदन किया महाराज ! आप । को निकट भविष्य में भारी प्रिय लाभ होने वाला है। कलाविद् की बात को सुनकर महाराज प्रतापसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
__ इसी समय दीपशिखा के स्वामी राजा दीपचन्द्र देव अपने मुख्य सामन्तों और मन्त्रियों को साथ लेकर वहां स्वागत के लिये आ पहुँचे । महाराजा का अभिवादन करते हुए बड़े नम् शब्दों में अभिनंदन किया और कहने लगे
___ हे देव ! आज आपके शुभागमन से हमारा देश पवित्र होगया है। हमारी चिरसंचित अभिलाषायें आज पूर्ण होगई हैं । आपकी उज्ज्वल कीर्ति कथा से हमारे कान तो पवित्र थे ही, पर आज आपके पुनीत दर्शनों से हमारी आंखें भी कृतार्थता का अनुभव करने लगी हैं। आप जैसे अतिथि का स्वागत करते हुए हम अपना अहोभाग्य समझते हैं। महाराज आइये हम लोगों पर कृपा करके अपने पदार्पण से दीपशिखा को पवित्र बनाइये।
राजा दीपचन्द्र देव की विनीत प्रार्थना को सुनकर
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( १८ )
महाराजा बहुत प्रसन्न हुए, और उन्होंने इष्टं वैद्योपदिष्टम् के न्याय से उनका अतिथि होना स्वीकार कर लिया ।
राजा ने बड़ी सज धज के साथ महाराज को नगर में प्रवेश कराया । दर्शनार्थी प्रजा - जनों का समुद्र उमड़ पड़ा । सारे शहर में आनन्द की लहर दौड़ गई । सवारी देखने की लालसा से ललित ललनाओं ने राजमार्ग की सारी ऊँची नीची अट्टालिकाओं को, झरोखों को अलंकृत कर दिया । नाना प्रकार के मंगल बाजे बज रहे थे ।
महाराजा प्रतापसिंह कलाविज्ञों के साथ लक्षण संपन्न सफेद घोड़ों से जुते हुए सुवर्ण - सुन्दर रथ में बैठे हुए, सजे हुए मकानों, मन्दिरों, और बाजारों की शोभा को निहारते हुए जा रहे थे । चारों ओर से जयध्वनि उठ रही थी । नागरिक कन्याएँ केसरिये रंगे हुए अक्षत और सुगंधी फूलों को महाराज पर बरसा रही थीं । अकस्मात् महाराजा की दृष्टि एक उत्तुंग राजमहल के झरोखे से टकरा गई । उनने वहां एक अत्यन्त रूपवती कमलमुखी कन्या को देखा । उनका मन वहीं उलझ गया । महाराजा क्षण भर के लिये समाधिस्थ योगी की तरह निस्संज्ञ होगये ।
इधर चित्त के भावों को जानने वाले कलावान् ने
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( १६ ) महाराज के मन की बात जानकर कहा कि महाराज !
आपके अनुपम पुण्योदय से आपका चिंतित बहुत जल्दी सफल होगा । उस समय सावधान होते हुए महाराज ने कहा मालूम होता है मेरे हृदय को तुम जान चुके हो । बताओ यह किसका महल है ? और यह सुमुखी कन्या कौन है ? तब उस चितज्ञ चतुर ने कहा कि महाराज यह
आपके अनन्य भक्त राजा दीपचंद्रदेव की महारानी प्रदीपावती का नवखंडी महल है। उन्हीं की कूख रूप सरोवर में कलहंसी के समान पैदा होनेवाली सर्वाङ्गसुन्दर सूर्यवती नाम की यह उन्हीं की पुत्री है।
राजा दीपचन्द्रदेव, इस समय महाराज को कौन से अद्भुत समर्पणों से प्रसन्न करू ऐसा सोच रहे हैं। इस कन्या के लिये भी वे चिंतित हैं कि कौनसे कुलीन गुणी और श्रीसंपन्न वर के साथ पाणिग्रहण कराकर कर्तव्य पालन करूं । अतः इस काम में कोई देरदार नहीं है। दूध शक्कर के समान यह सुखद संबंध होने ही वाला है आप निश्चित रहें । कलावान की मन के अनुकूल बातों को सुनकर महाराजा बहुत प्रसन्न हुए । राज मार्गों में होते हुए वहां के तीर्थ रूप भगवान श्रीऋषभदेव स्वामी के दिव्य मंदिर के दर्शन किये । भाव भरे स्तोत्रों से भगवान की
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( २० ) स्तुति कर महाराजा ने परमानंद पाया । इस प्रकार आगे बढती हुई सवारी अपने पूर्व निर्धारित स्थान-रामा दीपचन्द्र देव के राजमहल में पहुँची।
राजमहल में अपने आदरणीय अतिथि के सत्कार में बड़ी सुन्दर सजावट की हुई थी। अद्भुत कला-कौशल से निर्माण किये हुए गलीचे बिछे हुए थे। उन पर मखमली गद्द तकिये लगे हुए थे। पास ही सभा भवन में रत्न जटित स्वर्ण-सिंहासन महाराजा के लिये लगाया गया था। अधिकारियों के लिये भी योग्य ग्रासन लगे हुए थे। सवारी से उतर कर महाराजा प्रतापसिंह राजा दीपचंद्रदेव के द्वारा सत्कारित सन्मानित होते हुए बड़े ठाठ के साथ सभा-भवन में रत्न सिंहासन पर आकर विराजमान होगये । यद्यपि महाराज सिंहासन पर विराजमान थे पर उनका मन मधुकर उस भाग्यवती राज कन्या के मुख-कमल का ध्यान कर रहा था।
_ अवसर पाकर चित्तज्ञ कलावान् ने राजा दीपचंद्रदेव से कहा कि आज यह कितना सुन्दर समय है। महाराजा प्रतापसिंह के प्रताप से आज के सूर्य का आलोक संबंध कितना सुहावना प्रतीत होता है । चिनज्ञ की इस बात में अपना मानसिक संकेत पाकर राजा दीपचन्द्र ने महाराज
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( २१ )
से प्रार्थना की कि हे महाराज ! कुदरत की अकल क़ला से प्रेरित हो आपके श्री चरणों का संबंध इस देश के साथ इस नगरी के साथ और इसके निवासी हम लोगों के साथ हुआ है यह एक अभूतपूर्व घटना है । अब मैं अपनी राज कुमारी सूर्यवती जो मेरी एकमात्र लाडली बेटी है, उसका संबंध मैं चाहता हूँ आपसे हो जाय । सूर्य और प्रताप के प्राकृतिक संबंध के जैसे यह संबंध संसार में प्रकाश देने वाला हो । मेरी इस भावना का श्रीमान भी आदर करेंगे ।
राजा दीपचन्द्र की इस बात को सुन महाराजा ने बड़ी प्रसन्नता के साथ कहा कि भला ! प्राकृतिक संबंध की बात का कौन हितैषी आदर नहीं करेगा ? आपके इस स्वाभाविक सद्भाव के लिये हम आपको धन्यवाद देते हैं ।
महाराजा की स्वीकृति से दोनों ओर मंगल किये गये । बाजे बजने लगे । याचकों को दान दिया गया । ज्योतिषी लोगों से मुहूर्त निश्चित किया गया। विवाह की खूब जोरों से तैयारियां होने लगी । आखिर वह शुभ घड़ी भी आ पहुँची जिसमें महाराज का विवाह राजकुमारी सूर्यवती के साथ बड़े आनन्द समारोह के साथ संपन्न हो गया । प्रजाजनों और राजकर्मचारियों ने पूरा २ योग दिया । महा
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( २२ ) राजाने सबको यथायोग्य दान-मान-सन्मान-सत्कार से संतुष्ठ किया । इस कार्य से जहां महाराज की इच्छा पूर्ण हुई वहां राजा दीपचन्द्र के सिर से एक बड़ा भारी बोझ भी हल्का होगया।
सामुद्रिक-अंगविद्या को जानने वाले कलावान् ने रानी सूर्यवती के सुलक्षणों को देखकर महाराजा से प्रेरणा की कि ये अद्भुत स्वरूप वाली देवी पट्टरानी बनने योग्य हैं । इनके शुभ लक्षण स्वामी के स्वसुर के पिता के पितामहके नाना के एवं पुत्र पौत्रों के छत्रपतित्व को सूचित करते हैं । ये बड़ी योग्य होगी। इनकी कूख में चिंतामणी रत्न के समान दो पुत्रों की उत्पत्ति होगी । सामुद्रिक की इस बात को सुनकर एवं रानी सूर्यवती के प्रत्यक्ष अनुपम गुण गौरव को देखकर महाराजा ने उन्हें अपने अंतःपुर में पट्टराणी पद पर प्रतिष्ठित किया। लोको में यह बातअहो भाग्य ! अहो रूप !! अहो सौभाग्य !!! पूर्व जन्म में बोये धर्म रूप कल्पवृक्ष के ये प्रारम्भिक फल हैं-इस प्रशंसा के रूप में खूब फैल गई।
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सूर्य उदयाचल से ऊपर उठता हुआ आकाश के मध्य-प्रदेश में जा पहुंचा था । कड़ी धूप से तपी हुई। जमीन लोगों के गमनागमन में बाधा पैदा करती थी । लोगों के शरीर से पसीना निकल कर गर्म हवा के झोंको को ठंडा कर देता था । ऐसे मध्याह्न में महाराजा प्रतापसिंह दीपशिखा के देवोपम वैभव संपन्न सुसराल में
आनन्द-मौज कर रहे थे । खस की टट्टियां लगी हई थी गुलाब जल छिड़का जा रहा था । गुलाब के इत्र की महक दूर २ तक के पदार्थों को सुवासित कर रही थी। महाराजा अपने आराम गृह में आराम कर रहे थे।
इस प्रसङ्ग में राजा दीपचन्द्र देव अपनी भतीजी चन्द्रवती के पति राजा शुभगांग के भेजे हुए दूत को लेकर
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( २४ ) महाराजा की सेवा में उपस्थित हुए । परस्पर में एक दूसरे का अभिवादन करते हुए राजा दीपचन्द्र ने महाराजा से दृत का परिचय कराया । दूत ने राजकीय ढंग से महाराजा को प्रणाम किया। अपने आगमन का कारण बड़े रोचक ढंग से महाराजा की सेवा में इस प्रकार निवेदन किया:
देव ! यहां से कुछ दूर वासुतिका नाम की एक बड़ी अटवी है। उसमें भीलों का स्वामी शूर नाम का पल्लोपति शासन करता है । आज तक कोई राजा उसे परास्त नहीं कर सका है । उसी अटवी के पश्चिम की ओर सिंहपुर नाम का एक सुन्दर नगर है। उसमें श्री शुभगांग नाम के राजा राज्य करते हैं । राजा दीपचन्द्र देव की भतीजी श्रीमती चन्द्रवतीदेवी उनकी पट्टरानी हैं ।
एक समय कुछ चोर मौका पाकर राजा के महल में घुस गये, और रानीजी के एकावली हार को चुराकर ले गये । मालूम होने पर सिपाहियों ने पद चिन्हों के आधार पर उनका पीछा किया, और कुछ दूर पर माल सहित वे पकड़ लिये गये । दण्ड के लिये राजा के सामने उनको पेश किया। राजा ने उन्हें काफी कड़ा दण्ड देने की आज्ञा दी। तरह तरह की कठोर यातनाओं से व्याकुल होश में चोरों ने साफ २ कह दिया कि हम शूरपल्ली
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(२५)
पति के अनुचर हैं । उसी की आज्ञा से हमने यहां चोरी
की है ।
चोरों की इस बात को सुनकर राजा साहब को बड़ा क्रोध चढा | चोरों से एकावली हार को लेकर शहर कोतवाल को यह आदेश दिया कि इन्हें कारागार में बन्द करदो | कोतवाल ने भी "महाराज की जो श्राज्ञा"कह कर उन सबको जेल भेज दिया।
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जब ये समाचार पल्लीपति को मालूम हुए वहबहुत बिगड़ा ! एकदम एक बहुत बड़ी सेना लेकर उसने सिंहपुर को घेर लिया । ऐसी स्थिति में रक्षा का कोई दूसरा उपाय न देखकर मुझे दूत बना कर आपकी सेवामें भेजा है। मैंने भी आपके सामने वास्तविक स्थिति को रखकर अपना कर्त्तव्य पालन किया है । इसके आगे जैसा आप उचित समझें वैसा करें | आप हमारे शिरोमणि हैं ।
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" इतना कह कर 'दूत के चुप हो जाने पर राजा दोपचन्द्रदेव ने भी उसके वचनों का समर्थन करते हुए कहा महाराज ! वास्तव में वात ऐसी ही है । इस दुष्ट पल्लीपति के आतङ्क से यह दीपशिखा भी अत्यन्त भयभीत है । इसका सारा कारोबार करीब २ ठप्प सा होगया है । लोग इच्छानुसार व्यापार नहीं कर पाते । मार्ग इतने
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( २६ ) दुर्गम बन गये हैं, कि यात्री उधर से निकलने का साहस नहीं करते ।
इस प्रकार दोनों की बातें सुनकर महाराजा प्रतापसिंह को अांखें लाल हो गई । भौंहें धनुष की तरह तन गई। भुजायें फडकने लगी और अपने दांतों से औष्ठ काटते हुए वे बोले-राजन् ! दुष्ट लोग बिना किसी घोर प्रतिक्रिया के शान्त नहीं होते अतः इस जंगली भील को आगे बढ़ने से पहिले पील देना चाहिये । रण मेरी बजाने की आज्ञा दे दीजिये मेरी ओर आपकी सेनाओं को आक्रमण के लिये तैयार कीजिये।
महाराजा को आज्ञा पाते ही राजा दीपचन्द्र ने प्रधान सेनापतियों को अपनी २ सेनाः सजाने के लिये आदेश दिया । बस फिर क्या था ? रणभेरी बज उठी रण बांकुरे सिपाही अपने अस्त्र शस्त्रों से सुसजित सैनिक वेश में नियत स्थान पर एकत्रित होने लगे । सूर्य की रोशनी में उनके कवच और शस्त्र चमाचम चमक रहे थे। हाथियों की चिंघाड और घोडों की हिनहिनाहट के साथ सुभटों की सिंह गर्जना से दशों दिशायें मुखरित हो उठी। थोड़ी ही देर में चतुरंगिणी फौजें प्रयाण के आदेश की प्रतीक्षा में तैयार हो गई । विशाल काय तोपें अपनी
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भयानक मूर्तियों से दर्शकों के दिल को दहला देती थीं।
इधर महाराजा प्रतापसिंह और राजा दीपचन्द्र भी अपने सैनिक वेश में वहां आ पहुँचे । उनके सन्मान में तोपचियों ने तोपें दाग कर दोनों का स्वागत किया। सैनिकों ने सैनिक ढंग से दोनों का अभिवादन किया । महाराज की आज्ञा पाते ही सेना ने अबाधगति से सिंहपुर की तरफ कूच कर दिया। सिंहपुर के समीप एक सुन्दर नदी के किनारे शत्रुओं की चोट बचाकर डेरे डाल दिये गये। __ भील राजा शूर के गुप्तचरों ने इन समाचारों से अपने स्वामी को परिचित किया। उसने भी अपने बूढ़े भील सरदारों को एकत्रित करके पूछा कि क्या करना चाहिये ? उन्होंने कहा बलवान शत्रु के सामने से भाग जाना ही उचित होता है । भील राज शूर को उनकी यह सलाह पसंद न आई । वह स्वयं एक वीर योद्धा था । कायरता पूर्ण भाग जाने की अपेक्षा शत्रु से दो दो हाथ करके रणभूमि में सदा के लिये सो जाना ठीक समझता था । उसने अपने सैनिकों को अपना निर्णय सुना दिया। स्वामी की उत्तेजनात्मक प्रेरणा से प्रेरित हो सभी लड़ने को तैयार हो गये। श्रेष्ठ गंधहाथी की पीठ पर चढा हुआ
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( २८ ) भीलराज शूर अपनी शबर सेना के साथ बड़े वेग से समर भूमी में जा पहुंचा। .. इधर महाराजा प्रतापसिंह भी अपने शत्रु को परास्त करने के लिये रण-भूमी में आ डटे । ज्योंही उन्होंने अपनी. फौज को देखा तब उन्हें मालूम हुआ कि सेना के सारे हाथी मद रहित निद्राग्रस्त से हो रहे हैं । आश्चर्य में डूबे महाराज ने राजा दीपचन्द्र से इसका कारण पूछा कि यह क्या बात है ? उनने कहा देव ! भीलराजा शूर का हाथी- गंध हाथी है जिसकी गंध से ये सारे हाथी मद रहित हो गये हैं । महाराजा इस बात को सुनकर कर्तव्य मृढ से हो गये।
- इसी समय रथ विद्या में निपुण कलावान ने महाराज से अर्ज की, आप रथ पर सवार होकर मेरी भी कला देखियें । उसकी इस बात को सुनकर महाराजा बहुत प्रसन्न हुए और अपना दिव्य धनुष लेकर रथ पर सवार हो गये । अब क्या था ! रण का बाजा बज उठा। युद्ध प्रारम्भ हो गया। रथियों से रथी, पैदलों से पैदल और सवारों से सवार भिड़ गये । तोपें भी भीषण आग उगलने लगी। जिस हाथी के गोला लग जाता था वह वहीं ढेर हो जाता था। घोड़े सवार सहित घायल हो जाते थे और
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पैदलों से तो मैदान का मैदान साफ हो जाता था। - सारथी ने महाराजा के रथ को शत्रु की ओर बढाया। महाराजा की वाण वर्षा से परेशान हुआ भीलराजा शूरः । भागने की चेष्टा में हाथी को प्रेरणा करने लगा पर सारथी ने रथ को उसके चारों ओर इस प्रकार घुमाया कि वह भाग न सका । दोनों वीरों में घोर घमासान युद्ध होता रहा । दोनों एक दूसरे को हराने की चेष्टा में थे, . पर अन्त में महाराज ने उसे अपने बाणों से क्षत-विक्षत करके हाथी पर से गिरा दिया और जीवित पकड़ कर उसे लकड़ी के पीजड़े में डाल दिया। उसके जयकलश नाम: के गधहाथी को अपने वश में करके महाराजा ने दूसरे भील सामन्तों को भी काबु में किया । बिना नायक की भील सेनायें हताश होकर भाग गई।
चारों ओर विजय दुंदुभियाँ बजने लगी । जय ध्वनि सुनाई देने लमी घेरा टूटने पर शुभगांम राजा ने भी नगर के बाहर आकर महाराजा को बड़े आदर के साथ प्रणाम किया । महाराजा ने भी उन्हें अनेक प्रकार से सन्मानित करके अपनी उदारता का परिचय दिया।
... बाद में उस भीलराजा शूर को अपने साथ लेकर
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( ३० ) महाराज ने उस वासुतिका अटवी में प्रवेश किया। उस पल्ली पर अपना आधिपत्य जमा कर एक मुड़ा (१६मण) - मोती और छप्पन करोड़ सोना मोहरें दण्ड रूप में प्राप्त की। शेष सब धन राजा दीपचन्द्र और राजा शुभगांग को दे दिया । पल्ली से प्राप्त बहु मूल्य वस्तुएँ कपड़े और धन सैनिकों में भी यथा योग्य रूप से वितीर्ण किया गया । इस प्रकार विजय-वरमाला पहन कर माहाराजा प्रतापसिंह अपने साथियों के साथ बहुत प्रसन्न हुए । ___ महाराजा ने अपने सभासदों के सामने उन चार कलाविज्ञों की भूरि २ प्रशंसा की । उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए महाराज ने फरमाया-आप लोगों की कला के कारण ही हमें कन्या का लाभ और विजय प्राप्ति हुई है। आप लोग अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये हैं । हम आपकी इस सेवा को सदा काल याद रखेंगे। इस प्रकार कृतज्ञता का परिचय देते हुए महाराजा ने उन चारों को बहुमूल्य पुरस्कारों से पुरस्कृत किये ।
उस अटवी को महाराजा ने साफ करवा दी। वहीं रानी सूर्यवती के नाम से सूर्यपुर नाम का एक सुन्दर नगर बसा दिया । दोनों राजाओं को बड़े २ भूखण्ड भेंट किये । राजा शुभगांग के आतिथ्य को स्वीकार करते
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( ३१ ) हुए महाराजा सिंहपुर पधारे। वहां थोड़े दिन विश्राम करके शुभगांग से विदा लेकर राजा दीपचन्द्र देव के साथ पुनः दीपशिखा नगरी में महाराजा लौट आये।
दीपशिखा में विजयी योद्धा के वेष में प्रवेश करते हुए महाराजा का भारी स्वागत हुआ। शूर दस्यु के संताप की समाप्ति से सब की अन्तरात्मा हृदय से आशीर्वाद दे रही थी। पुष्पवृष्टि और जयनादों के बीच महाराज अपने निवास स्थान पर पहुँचे । महारानी सूर्यवती ने मांगलिक वस्तुओं से भरे थाल को लेकर द्वार पर महाराज को बधाये । विशाल भाल पर तिलक किया। अक्षतों के स्थान पर मोती चिपकाये । आरती उतार कर महाराजा को महल में प्रवेश कराया । दान-मान-सन्मान से संतुष्ट हुई प्रजा ने अपने जीवन को उस रोज धन्य माना ।
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मास्क
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मनुष्य के जीवन में जननी और जन्म भूमि की महत्ता अवर्णनीय है । जन्मभूमि का आकर्षण हृदय में इतना अधिक हुआ करता है इसका प्रधान कारण है वहां अपने आदमी रहते हैं । अपनों से रहित देश काणीपीठ कहा जाता । इसी लिये जन्म भूमि के मुकाबले स्वर्ग कमजोर माना जाता है। जैसे कि
जनम भोम री जोड़, बुधिया कोइ न कर सके । सुरगां भारी खोड़, उठे न कोइ आपणो ।
उसी जन्म भूमी की याद महाराजा को भी आने लगी। अपने श्वसुर राजा दीपचन्द्र देव से कुशस्थल को लौटने की इच्छा प्रकट की। राजा ने कुछ दिन ओर
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( ३३ )
ठहरने का अनुरोध किया । मगर उन्होने अधिक ठहरने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए राजा दीपचन्द्र के प्रति अनुपम आदर की भावना व्यक्त की ।
राजा ने अपने सामर्थ्यानुसार अपनी पुत्री को हाथी घोड़े दास दासियां सोने और रत्नों के आभूषण, बहुमूल्य पोशाकें आदि देने योग्य वस्तुओं को दहेज में देकर सैन्द्र आदि सखियों के साथ उसे विदा किया | राजा रानी राज्य के उच्च कर्मचारी और प्रियजन सभी अपनी राजकुमारी महारानी सूर्यवती को पहुँचाने के लिये साथ चले । शास्त्र वचन और लौकिक रिवाज के अनुसार पद्मसरोवर के आने पर सब वहां ठहर गये ।
यथास्थान पड़ाव पड़ गया। सभी अपने २ काम में लग गये । महारानी सूर्यवती अपने माता-पिता से दिल खोल कर मिली । अपने प्रियजनों को रुलाती हुई स्वयं आंसू भर लाई । सबने उसे अंतःकरण से अनेकों प्रकार के आशीर्वाद दिये । उसने अपने स्नेहमय हृदय को कड़ा करके अपने माता-पिता से अस्फुट स्वर में बिदा मांगी।
माता-पिता उस अपनी लाडली बेटी की वियोग व्यथा से विह्वल हो उठे । उन्होंने जिसे आज तक प्यार 1 से पाला पोसा था, जिसे देखकर वे फूले न समाते थे,
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( ३४ ) जिस पर वे प्राणों को भी न्योछावर करने में नहीं हिचकिचाते थे, वही आज उनके स्नेह कर उनसे प्रथमवार विदा हो रही थी ।
बन्धन को ढीला
दृश्य बड़ा करुणोत्पादक था । सबकी आंखों में आंसू थे । सबकी वाणी मारे सिसकियों के मूक हो गई थी । राज कुमारी माता-पिता के चरणों का अपने अश्रू जल से प्रक्षालन कर रही थी । उसके सिर के बाल माता पिता के नेत्रों से गिरे हुए सुओं से गीले हो चुके थे । आखिर राजा ने अपने अन्तस्तल को कड़ा करके राजकुमारी के सिर पर हाथ रखते हुए कुलीन स्त्रियों के योग्य शिक्षा देते हुए बोले बेटी !
शुश्रूषस्व गुरून्कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नी-जने, भतुर्विप्रकृतापि शेषणतया मास्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येस्वनुत्से किनी, यान्त्येवं गृहणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ॥ गुरुजनों की सेवा करना । सौतों के साथ प्रियसखियों का सा व्यवहार करना । कदाचित् पति द्वारा तिरस्कृत होने पर ईर्ष्या से कभी उनके विपरीत मत चलना । परिजनों में चतुराई से बरतना साथ ही सेवकों पर अनुग्रह रखना । अपने बड़े भाग्य पर कभी गर्व मत करना । ऐसा
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( ३५ ) करने वाली स्त्रियाँ ही गृहिणी पद के अधिकार को प्राप्त करती हैं। इसके विपरीत आचरण करने वाली दूसरी स्त्रियाँ उभय कुल को लजानेवाली होती हैं।
बेटी ! मेरे इस उपदेश को हृदय में सदा धारण रखना । अपने अच्छे आचरणों से उभय कुल की कीर्ति को बढाना । कभी २ हमको भी अपना स्वजन जानकर अवश्य याद करती रहना।
महाराजा प्रतापसिंह की तरफ मुख करके उन्हें भी अपनी बेटी की भोलावण बड़े भाव भरे शब्दों में की । इस प्रकार स्नेह की सरिता बहाते हुए राजा दीपचन्द्र अपनी बेटी को बिदा दे दीपशिखा की ओर परिवार के साथ लोट पड़े। वे सर्वस्व खोये हुए व्यक्ति की तरह बेसुध चले जाते थे । चलते २ रुक गये, घूमकर पीछे की ओर देखा सूर्यवती अांखों से ओझल हो चुकी थी। वे लम्बी और गरम सांस लेते हुए बोले :
अर्थोहि कन्या परकीय एव तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः । जातो ममायं विसदः प्रकामं
प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ॥ निश्चय ही कन्या-धन पराया-धन है। आज उसे अपने पति के घर भेज कर धरोहर वापस लौटा देनेवाले
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के जैसे मेरी अन्तरात्मा अत्यन्त प्रसन्न और बोझ से हन्को हो गई है।
महाराजा प्रतापसिंह महारानी सूर्यवती को साथ लेकर कुशस्थल को ओर चल पड़े। थोड़े ही दिनों में कुशस्थल के बाहरी उपवन में जा पहुँचे उनके आगमन की खुशी में सारा शहर तरह तरह से सजाया गया। भारी उत्सव मनाया गया ।। महाराज शुभ मुहूर्त में नई महारानी के साथ नगर में प्रविष्ठ हुए। जनता ने उनका हृदय से स्वागत किया । महाराज नगर के मुख्य राज-मार्ग से होकर अपने विशाल महल में जा पहुँचे । वहां एक बड़ा भारी दरबार लगा और राजकीय रीत रिवाज संपन्न होने पर सब अपने २ घर चले गये।
राज-काज में फिर पहले की ही तरह महाराज व्यस्त हो गये । उनकी प्रशस्त न्याय नीति से सारी प्रजा पहले से भी अधिक उन्हें चाहने लगी। अपने प्राचीन पुण्यों के प्रभाव से माननीय भोग भोगते हुए महाराज बड़ी ही निश्चिन्तता से राज-काज चलाने लगे। सच है पुण्य से क्या नहीं होता ?
सुकुल जन्म-विभूतिरनेकधा, प्रिय-समागम-सौख्य-परम्परा ।
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( ३७ ) नृपकुले गुरुता विमलं यशो,
भवति पुण्य-तरोः फलमीदृशम् ।। उच्चकुल में उत्पत्ति, अनेकों प्रकार के ऐश्वर्य, प्रियजनों का समागम, निरन्तर रहने वाला सुख, राज-कुल में गौरव और निर्मल यश ये सब पुण्य रूपी वृक्ष के ही लो
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सुखी-दुःखी भोगी-योगी रोगी-निरोगी धनी-निधन ऐसे स्त्री-पुरुषों की टोलियां की टोलियां जिसकी छाती पर पग रखते हुए जाती हैं । जो मूक भाव से सबको अग्रसर होने के लिये मार्ग देती है ऐसी कुशस्थलपुर की सड़क पर उत्सुक आदमियों का झुण्ड जा रहा था। महाराजा प्रतापसिंह के चारों राजकुमार अपने बड़े भाई जयकुमार के साथ अपने महल के झरोखे में इच्छानुसार क्रीड़ा कर रहे थे। उन्होंने सेवकों से पूछा अाज इतनी भीड़ क्यों इकट्ठी हो रही है । सेवकों ने कहा स्वामिन् ! इन दिनों नगर में एक भारी निमित्त जाननेवाला पण्डित आया हुआ है । उसी के आस-पास आदमियों का यह समूह जा रहा है।
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( ३६ ) कुतूहलप्रिय राज-कुमारों ने अपने सिपाहियों को भे. कर उस निमित्त को अपने पास बुलाया। पारस्परिक स्वागत विधि होने पर निमित्तज्ञ से पूछा- आपका क्या परिचय है ? नैमित्तिक ने कहा मेरा परिचय एक कहानी रूप है । आप लोग सुनना ही चाहते हैं तो सुनियें ।
यहां से पश्चिम में राजा शुभगांगदेव की राजधानी सिंहपुर नाम का नगर है। उसमें श्रीधर नाम का एक धनी ज्योतिषी था । उसके नागिला नाम की स्त्री थी। उनके धरण नाम का पुत्र था । वहीं प्रियंकर नाम का एक जैन ज्योतिषी रहता था। उसके शीलवती नाम की स्त्री और श्री देवी नाम की पुत्री थी। वह जैन धर्म में अनुरागिणी और परम रूप लावण्य शालिनी थी।
श्रीधर की मांगणी से प्रियंकर ने बड़े ठाठ के साथ सुमुहूर्व में धरण के साथ श्रीदेवी का विवाह कर दिया । प्रियंकर ने शक्त्यनुसार दहेज और कुलोचित शिक्षा देकर श्रीदेवी को ससुराल में विदा की। .
श्रीदेवी अपने नये संसार-ससुराल में लज्जा रखती हुई लगन से सारे काम काज करने लगी। फुरसत से धार्मिक कृत्यों में भी उपयोग देने लगी। मित और मधुर भाषण से उसने अपनी ओर से ससुराल वालों को प्रसन्न
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करने में कोई कोर कसर नहीं रखी, पर उसकी सासु नागिला क्रोधी, कुटिल और निष्ठुर स्वभाव वाली थी। इसलिये वह कुँए पर रहंट के निरंतर चलते रहने पर भी खट २ करने वाली लकड़ी की तरह खट खट किया करती थी। अकारण ही डांटना डपटना, बुरा भला कहना उसका नित्य कर्म होगया था। सच है वहुओं का जीवन बड़ा हो कष्टमय होता है :
शय्योत्पाटन-गेहमार्जन-पयः-पावित्र्य-चुल्ली-क्रिया, स्थाली-तालन-धान्य-पेषण, भिदा गोदोह-तन्मन्थने । डिम्भानां परिवेषणादि च तथा पात्रादि-शौच-क्रिया, श्व भर्तृ-ननान्त-देवृविनयः कष्टं वधूर्जीवति ।
शय्या उठाना, घर में झाडु लगाना, पानी भरना, चौका लगाना, रसोई बनाना, थालियां धोना, धान पीसना, गायें दोहना, बिलोणा करना, बच्चों को खिलाना पिलाना, बरतन मांजना, और सास पति ननंद एवं देवर आदि को सेवा तथा आज्ञा का पालन करना । इन कामों से ठीक बात है कि बेचारी बहुएँ बड़े कष्ट से संसार में जीती रहती हैं। . . - जिनेश्वर भगवान के बचनों में श्रद्धा रखने वाली वह सास के अत्याचारों से पीड़ित होने पर भी माता-पिता या पड़ौसी उसको कुशल पूछते तो वह यही कहती थी कि मैं सब तरह से सुखी हूं।
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( ४१ )
इधर उसकी सास उसे दुःख देने पर ही उतारू हो चुकी थी । वह घर की नई पुरानी टूटी फूटी वस्तुएँ अपने पुत्र को दिखाती और बहू के विरुद्ध कान भर २ उसे क्रोधित करती और रुष्ट हुआ वह भी उसे पीटता एवं तरह २ के दुःख दिया करता था । इतना होने पर भी वह कुलीन बहू दूसरों को दोष न देती हुई अपने पूर्व कर्मों के फल को ही इसका कारण मानती थी ।
इस प्रकार उसी दशा में रहते उसके कई दिन बीत गये । एक समय रात्री में स्वसुर की अँगुठी घर में कहीं गिर गई । किसी को पता तक न चला । प्रातःकाल जब श्री देवी ने घर में बुहारा लगा कर कूड़े करकट को एक स्थान पर जमा किया तो उसमें वह गुठी मिली, और उसको उसने अन्दर के कोठे में रखदी । इसके बाद वह गोबर इकट्ठा करने पशुओं के बाड़े में चली गई ।
" प्रभाते करदर्शनम् " के नियम से श्वसुर ने दोनों हाथों को मुख पर फेर कर रेखा दर्शन करते समय उंगली गुठी न देख घड़ाई हुई अवाज से कहा कि क्या करू ? मेरी तो अंगुठी कहीं गिर पड़ी, क्या किसी ने देखी है ? यह सुन सब एक दूसरे को आपस में पूछने लगे, इधर उधर खोजने लगे पर अ ंगुठी का पता न चला तब वे सब निराश होकर बोले कि वह तो गई अव
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( ४२ ) मिलने की नहीं। यह बात बाड़े में स्थित बहू के कान में सुनाई दी, और उसने शीघ्र ही आकर अंगुठी को अन्दर के कोठे से निकाल कर ससुर के हाथ में रख दी। सब प्रसन्न हुए।
नागिला को पता चला तब उसे एक ओर छिद्र मिल गया । वह चिल्लाकर बोली अरे ! जिस घर की वहएँ ही चोर हों वह घर कहां तक टिक सकता है। ऐसे तो एकर करके सारी वस्तुएँ चली जायेंगी। अरे लोगों ! इसके आचरणों को तो देखो ऐसी बहू तो मुझे किसी के घरमें दिखाई नहीं देती । अरे इसकी धीठाई तो देखो यह अपने पूज्य श्वसुर से भी नहीं चुकी। इसने उनकी अंगुठी भी चुरा ली। क्या करू ! कहां जाऊँ !! मेरो तो कोई बात ही नहीं सुनता । इस राक्षसी ने मेरा सारा घर चौपट कर दिया। यदि मुझे यह पहले से ही ज्ञात होता तो मैं इसके साथ अपने बेटे का विवाह ही न करती।
- जब धरण घर लौटा तो मां-नागिला ने उसे खुब बहकाया। सारी बात इस प्रकार कही कि उसका क्रोध भड़क उठा । उसने बिना सोचे समझे उस सती स्त्री को पीटना शुरू कर दिया। डंडे की चोट उसके सिर में बड़े जोर से लगी। सिर फट गया। फिर भी वह श्रीदेवी ।
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समभाव को धारण करती हुई ‘णमो अरिहंताणं'-मंत्रको जपती हुई पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़ी। ____ यह बात हवा की तरह सारे शहर में फैल गई। किसी ने उसके मां बाप से भी कह दिया। वे भी सिर पीटते रोते चिल्लाते वहां आ पहुंचे । भारी विलाप करने लगे । श्रीदेवी के बूढ़े मां बाप को रोते बिलखते देख कर पति धरण की आंखों में भी आंसु आ गये । वह मन ही मन अपने किये पर पछता रहा था । वह भी दुःख के वेग से विलाप करने लगा। ___ अरे ! बिना विचारे क्रोध के वश हो मैंने यह कैसा अनर्थ कर दिया । कान के कच्चे मनुष्यों की यही दशा होती है । हे प्रिये ! तूने कभी मेरी सेवा से मुख नहीं मोड़ा । कठोर से कठोर आज्ञा को सहर्ष पालन किया। यह अनर्थ मेरी अज्ञानता से हो गया है । तेरा कोई दोष नहीं है। तू सदा शांति-युक्त और क्षमामयी रही है। यह सब मेरा ही दोष है । अरे मुझ अपराधी के अपराध को उमा करदे । धरण की हालत बड़ी शोक पूर्ण थी।
. इधर लोगों ने नागिला को बहुतेरा धिक्कारा और उसकी तीव्र निंदा की । लोग बोले-यह बड़ी दुष्टा है। श्रीदेवी को इसने बहुतेरा दुःख दिया है । यह इसकी जान
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( ४४ )
लेकर ही संतुष्ट हुई। विधाता ने ठीक किया जो श्रीदेवी को इस दुष्टा के फंदे से उठा लिया, क्यों कि उसके दुःखों की हद हो चुकी थी ।
लोगों में इस प्रकार बातें हो रही थी कि कोई वैद्य उसके भाग्य से प्रेरा हुआ उधर से आ निकला । उसने मंत्रौषधि से अधिवासित जल उस पर कई बार सिंचन किया । कुछ होश आया । फिर भी खतरा दूर न होता हुआ देख वैद्य ने धर्मोपचार करने की मां बाप को सलाह दी। मां बाप भी उसे अपने घर ले गये ।
श्री देवी ने भगवान के बचनों पर श्रद्धा रखते हुए आराधना आलोचना की । चोरासी लाख जीवायोनि से खमतखामणा किये | पुण्य की अनुमोदना की । चतुर्विध संघ ४ ज्ञान मन्दिर ५ जीर्णोद्धार ६ और नये मंदिर निर्माण, रूप सात क्षेत्रों में धन का व्यय किया । संघ भक्ति, नवकार मंत्र का जाप, तपस्या की भावना- मारे जाने वाले प्राणियों को अनुकम्पा से छुड़ाना, ममत्व का त्याग, सम्यक्त्व, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों को उच्चारण विधि यदि सुकृत साधना करती हुई पण्डित मरण से सद्गति को हुई ।
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( ४५ ) श्रीदेवी के मां बाप बहुत दिन तक शोक ग्रस्त रहे । आखिर धर्म-ध्यान के आलंबन से अपने विचारों को स्थिर किया। सारे शहर में इस चर्चा के फैल जाने से श्रीधर को बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया। धरण भी पत्नी वियोग से दुःखो रहने लगा।
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क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के चुंगल में फंसा हुआ जीव क्या २ अनर्थ नहीं कर देता ? सब कुछ कर देता है । इसीलिए ज्ञानी विवेकी लोग कषायों से बचते रहते हैं। कषाय ही जीवन को विडंबना पूर्ण बना देते हैं। श्रीवर नागिला और धरण इन्हीं कषायों के चक्कर में पड़कर दुःख पाते हुए अपनी जन्म भूमि को छोड़ने को मजबूर हुए और किसी नये नगर में जा बसे ।
नये नगर में रहते हुए श्रीधर का परिचय बढ़ा। व्यवसाय भी उन्नत हुआ। लक्ष्मी देवताकी भी कुछ कृपा हुई । इस हालत में धरण की सादी करने का विचार हुआ । इसी विचार से प्रेरित होकर भद्रंकर नाम के एक ज्योतिषी की लड़की उमादेवी के साथ बात चीत हुई।
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( ४७ )
शुभ मुहूर्त में धरण ने उमादेवी का पाणिग्रहण किया ।
उमा बड़ी ही उद्धृत क्रोधी और सबसे अप्रिय भाषण करने वाली थी । घर के काम काज में कभी हाथ नहीं बँटाती थी, और पद २ में घर के मर्म को प्रकाशित करती रहती थी । घर का सारा काम काज सासु- नागिला को ही करना पड़ता था । शेरनी के सामने बकरी की सी दशा उमा के सामने नागिला की थी। उसी के दुःख में दुःखी रहते हुए श्रीधर और नागिला कालान्तर में काल कवलित हो गये । उमा की कपट लीला में धरण भी चौंधिया गया । सब तरह से उसके हृदय में इतना दृढ़ विश्वास पैदा कर दिया कि कहीं संदेह नाम मात्र को भी नहीं रहा। थोड़े ही दिनों में वह उमा का भावुक बन गया ।
एक दिन सोमदेव नाम के अपने मित्र के सामने धरण ने अपनी स्त्री उमा की बड़ी तारीफ की। उसने कहा भाई तुम जो कहते हो ठीक हो सकता है, परन्तु नीति-शास्त्र में कहा है कि गुरुओं की स्तुति प्रत्यक्ष में, मित्र- बन्धुओं की परोक्ष में, कर्मचारियों की और नौकरों की काम हो जाने पर, स्त्रियों की उनके मरने के बाद में और पुत्रों की तो कभी करनी ही नहीं चाहिये १ कहां तक कहूं । स्त्रियाँ तलवार की धार से भी तेज, हिरण के सींग से भी अधिक टेढी, नदी की तरह नीच गामिनी और
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( ४८ ) वज्र के समान कठोर हृदय वाली होती हैं। स्त्रियों का मन कहीं होता है, वचन कहीं होता है, और क्रिया में कुछ और ही भाव होते हैं । ऐसी हालत में इनके स्नेह और भोलेपन की क्या व्याख्या करते हो ?
यह क्या कहते हो ? ऐसा धरण से पूछे जाने पर मित्र ने कहा ठीक कहता हूँ। तुम बहुत सीधे हो इतना एक दम सीधा होना भी एक प्रकार से अपराध है। तुम सुनना चाहते हो लो सुनों-तुम्हारी स्त्री उमा कभी घर पर नहीं रहती है । इसने बाहरी प्रेम से तुम्हें वश कर लिया है। उस मायाविनी का तुम से सच्चा स्नेह नहीं है। मेरी बात का विश्वास न हो तो बाहर गांव जाने के बहाने से परीक्षा कर लो।
मित्र की बात से शंकाशील धरण ने उमा को समझा बुझा कर बाहर गांव जाने की आज्ञा ली। स्त्री की आज्ञा से वह अपने मित्र के घर चला गया। दिन भर वहीं ठहरा । साम को मित्र के कहने से चोर की तरह अपने घर में जा छिपा। उस समय उमा बाहर गई हुई थी।
कुछ ही समय के बाद उमा लौट आई। प्रसन्नता से पक्वाम-सक्तो तैयार की। इतने में कोई मनुष्य
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( ४६ ) गुप चुप उसके घर आया । छिपे हुए धरण ने विस्फारित नेत्रों से उसे देखा । मन में कहने लगा अरे ! यह पापी क्षत्रिय रणधीर मेरे घर पर कैसे आया ? ___उमा ने घर का द्वार बंद कर रणधीर को प्यार से स्नान कराया । बढिया तेल फुलेल लगाये । वस्त्र पहिनाये बाद दोनों ने तैयार रसवती का रसास्वाद लिया। खा पी कर प्रसन्न हुए । भारी प्रेम और उमंगसे दोनों नेरमण किया । रति खेद से खिन्न दोनों को निद्रा आगई। दोनों को सोया हुआ देख कर धरण क्रोधित होकर नीचे आया। विचारने लगा दोनों को मारना ठीक नहीं । क्यों कि स्त्री को मारने का पाप तो मुझे पहिले ही लग चुका है। ऐसा विचार कर उसने कोतवाल के पुत्र रणधीर को तलवार से मार दिया । स्वयं किंवाड़ खोल कर वहीं आगे होने वाली घटना को देखने के लिये ठहर गया।
इधर रणधीर के खून से लथपथ होने पर उमा जाग उठी । अरे ! यह क्या हुआ ? किसी ने इसे मार डाला । ऐसा कहती हुई वह द्वार की ओर देखती है तो द्वार खुला पड़ा था। उसने निश्चय किया कि किसी दुश्मन ने मेरे प्यारे को मार डाला है। उसने तत्काल शोच विचार कर उस मुर्दे और को तलवार को एक मजबूत चादरे में बांध कर
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(५० ) गठरी सिर पर लादे घर से निकल पड़ी धरण भी पछे २ हो लिया। शहर के बाहर किसी शून्य कूप में उस लाश को फेंक कर जल्दी ही घर लौट आई।
घर के बाहर खड़े धरण ने अपने मनमें उमा के इस धृष्टता-पूर्व कुकर्म की जी भर कर निन्दा की । इधर उमा ने घरमें जाकर जल्दी से पक्वान्न आदि को एक बड़े बर्तन में भर कर बाहर निकली, और घर के द्वार मजबूती से चंद कर उस बर्चन को सिर पर उठाये चल पड़ी।
धरण ने गुप्त रीति से उसका पीछा किया जल-मार्ग से नगर की सीमा को पार करके श्मशान में होती हुई, वह एक पहाड की गुफा में जा घुसी। उस गुफा में एक बहुत बडा सुन्दर विशाल भवन था । स्थान २ पर रखी हुई दीपमालाओं से वह जगमगा रहा था। उसके मध्य भाग में एक सुन्दर सिंहासन पर जोगणियों के समूह से घिरी हुई खर्परा नाम की प्रमुख योगिनी विराजमान थी।
उमा को देख जोगणियाँ मारे प्रसन्नता के उछल पडी और उमा आगई इस प्रकार हर्षधनि करने लगी । उमाने अपने साथ लाई हुई मिठाइयों द्वारा उन सब को संतुष्ट किया, और फिर सादरनमस्कार करके उस प्रधान योगनी के चरणों में बैठ गई । खश ने इधर उधर की बात चीत के
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( ५१ ) बाद उमा से पूछा कि क्या तुमने उस हमारे दिये मंत्र की साधना करली ? उमाने उत्तर देते हुए कहा स्वामिनि ? मन्त्र आपकी कृपा से सिद्ध हो चुका है। अब मैं तरुत्पत पेड से उडने की-विद्या चाहती हूँ अगर आप देंगी तो बड़ी कृपा होगी।
खर्परा ने कहा, यदि तेरी यह इच्छा है तो तू मुझे। महाबली दे। यह सुन उमाने कहा कि काली चौदस को .. मैं अपने पति की बली आपको दूंगी । ठीक कह कर योगिनी ने उसे विदा की। रवाना होती हुई उसने योगिनी से वशी करण चूरण मांगा। योगिनी ने पूछा कि पहले दिये का क्या हुआ ? उमाने कहा माँ ? उससे एक आदमी को मैंने वश किया था, पर वह बिचारा आज मर गया। इसी लिये मुझे उस वश्य चूर्ण की आवश्यकता हुई है। उस की याचना से खपरा ने उसे वैसा ही चूरण दिया। वह खर्परा को नमस्कार कर, वहां से चल कर उसी मार्ग से अपने घर लौट आई।
इधर धरण भी उसके इस प्रकार के चरित्र को देख कर और जोगणियों की बातें सुन कर दिल में बहुत डरा उसके रोम २ खड़े हो गये । कलेजा धक धक करने लगा। उसके भाचर्य की सीमा न रही। उसके हृदय में कभी
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( ५२ )
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वीर रसका कभी बीभत्स रस का संचार होने लगा । हास्य और श्रृङ्गार रस तो लुप्त प्राय होगये । परम सुखदायी । शान्तरस की तरफ झुकते हुए उसने अपनी स्त्री के प्रति घृणा दिखाते हुए कहा कि धिक्कार है इस के कर्मों पर लानत है इस के विचारों पर, और धू है इस के दुराचारों पर । बली देने के लिये यदि यह वश्य चूर्ण से मुझे वश कर लेगी तो सांकल से बंधी गाय की तरह मैं अन्यत्र कैसे जा सकूंगा ?
इस प्रकार विचार कर वह वहां से सीधा मित्र के घर पहुँचा । मित्र के पूछने पर जो घटनायें घटी थी वे सभी सचाई के साथ उसने कह सुनाई । मित्र ने कहा - हेमित्र ? दुखः, भय, निन्दा से क्या है ? स्त्रियां स्वभाव से ही चंचल होती हैं । कहा भी है:
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रवि चरिय गह चरियं, ताराचरियं च राहु चरिर्यच । जाति बुद्धिमन्ता महिला चरियं न याति ॥ जल मज्मे मच्छपयं, आकासे पंखियाण पयपंती । महिला हियय मग्गो, तिन्हिवि लोए न दीसंति ॥
सूर्य ग्रहों के वारा के और राहु के चार को पण्डित लोग जानते हैं पर स्त्रियों को नहीं जान सकते । पानोमें मछलि यों के पदचिन्ह, आकाश में पंखियों के पदचिन्ह
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। ५३ ) और कुलटा स्त्रियों के हृदय का मार्ग ये तीनों लोक में दिखाई नहीं देते हैं। ___ अब तुम क्या करोगे ? इस प्रकार मित्र द्वारा पूछे जाने पर गद् गद् स्वर से धरण ने कहा कि मैं इस स्त्री उमा का मूह देखे विना ही कहीं अन्यत्र चला जाऊँगा । मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ इस लिये अब मैं ज्यादा जिना नहीं चाहता । अब कहीं जाकर शांति से प्राण त्याग करना हो मेरे लिये श्रेयस्कर है।
मित्र ने कहा ऐसा मत करो। अपने घर जाम्रो । वहां से किसी प्रकार धन ग्रहण करो फिर कहीं जाकर किसी सुविहित गुरु से प्रायश्चित्त करो । नहीं तो जिस प्रकार द्ध पीकर नागनी उन्मत्त हो जाती है इसी प्रकार वह उन्मत्त हो जायगी और ओर भी अधिक अनुचित कार्य करेगी।
मित्र की प्रेरणा से धरण डरे हुए भावों से अपने घर गया। पति को आया हुआ देख उमा बडे आदर के साथ बनावटो प्रेम दिखाती हुई एक दम खडी हुई और सम्मुख जाकर बोली प्राणेश ? आइयें पधारिये यह विर हानल से संतप्त दासी आपका स्वागत करती है। इस प्रकार कहती हुई पति का हाथ पकड बड़े प्रेम से अंदर ले
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श्राई। यह देख धरण के आश्चर्य की सीमा न रही । वह मन ही मन जल रहा था, फिर भी उसने अपना मनोभाव तनिक भी प्रकट न होने दिया। उल्टा प्रसन्नता पूर्ण विश्वासी के जैसे कुछ इधर उधर की बातें करके अपने काम में लग गया।
. इधर रणधीर के पिता ने रणधीर की खोज शरु की। शहर का कोना कोना छान डाला, पर कहीं पता न चला। अंतमें शून्य, कुँए से निकलती दुर्गन्धसे उसका पता चला शव निकाला गया। सर्वत्र हाहाकार मच गया। उसने भी इसकी चर्चा पति के सामने की । उसने भी दुनियावी ढंग से शोक प्रदर्शित किया । इस प्रकार करते धरते कुछ दिन बिते । एक दिन मौका पाकर मायाविनी उमा से विरक्त हुआ धरण घरका सारा धन बटोर कर घर से निकल गया।
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- संसार की रंग भूमि में जीव नाना प्रकार की अब स्थाओं में परिणत होता हुआ अनेक विध खेल खेलता है। धरण भी उन्हीं खिलाडियों में से एक खिलाडी होने के नाते उमा को छोड कर मित्र की सलाह से विदेश के लिये चल पडा । रास्ते में अपने लिये अवधूत का वेश निरापद समझ कर उसने अपने कपडे गेरुए रंग में रंग लिये । किसी सच्चे गुरु की खोज में कई नगरों में घूमता हुआ किसी गांव की प्याउ पर जा पहुँचा। वहां रहे हुए एक सिद्ध पुरुष से उसका परिचय हुआ । वह नमस्कार कर उसके पास बैठ गया।
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धरण को विनयादि गुणों से युक्त देख कर उस सिद्ध पुरुष ने पूछा कि हे भाई ! तुम कौन हो ? इस प्रकार पूछे जाने पर उसने अपना आदि से लेकर अन्त तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और पूछ बैठा, कि मेरे द्वारा की गई दोनों हत्याओं के पाप से मेरा छुटकारा किस प्रकार होगा ?
मुझ अपरिचित को भी अपनी गुप्त बात कह देने वाला यह निश्चय ही निष्कपट और भोला व्यक्ति है। ऐसा अपने मन में सोच कर सिद्ध पुरुष ने कहा “ हे भाई ! इस समय मैं स्वयं चिन्तित हूँ। बुद्धि स्वस्थ मनुष्यों की ही काम देती है। अतः मैं तुम्हें उपाय नहीं बता सकता ।"
सिद्ध की बात को सुन कर धरण ने पूछा श्रीमानजी! आपको कौनसी चिंता सता रही है। प्रश्न का उत्तर देते हुए सिद्ध ने कहा । " मेरे गुरु ने पहले मुझे संतुष्ट होकर एक विद्या दी थी । वह विद्यासोने के पुतले के सामने सिद्ध होती है। सोना उतना मेरे पास है नहीं। पुतला बनता नहीं, विद्या सिद्ध होती नहीं। बस यही चिंता आज भी मुझे कांटे की तरह कष्ट पहूँचा रही है। __धरण बोला "मेरे पास अनेकों रत्न हैं जिनसे सोना खरीदा जा सकता है। आइये इन्हें बेचकर सोना खरीदें
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और प्राप्त वचनानुसार सुवर्ण पुरुष बनवा कर आप विधिपूर्वक विद्या सिद्धी के लिये प्रयत्न करें।
उसके इस उदारता मुख से अत्यधिक प्रसन्न हो कर और अपरिचित मनुष्य में मी सहसा विश्वास कर लेने की स्वाभाविक वृचि को देख कर प्रशंसा करके उस सिद्ध पुरुष ने कहा "मुके रत्नों से कोई प्रयोजन नहीं है, तुम इन रत्नों को सुरक्षित रखलो' मैंने तो. सिफ तुम्हारी परीक्षा ही की है। क्यों कि एकदम किसी पर विश्वास नहीं किया जावा.। सुवर्ण पुरुष का मतलब भी सोने के पुतले से यहां नहीं है, किन्तु श्रेष्ठ-वणाले उत्तम-पुरुष की पात्रता से ही देखी जाती है । इस लिये तुम्हें पात्र देख कर और तुम्हारी नम्रता से संतुष्ट होकर गुरु द्वारा दी हुई उस श्रेष्ठ विद्या को मैं तुम्हें दे रहा हूं। अच्छे भाग्य से प्रेरित हो तुम यहां आये हो।
सिद्ध कहता है-मै वृद्ध हो गया हूँ। मेरे पास कर्म पिशाचिनी नाम की सिद्ध विद्या है उसे तुम भक्ति पूर्वक ग्रहण कगे। जो तुम्हें त्रिकाल संबंधी समी वस्तुओं का ज्ञान देगी । घरल ने उस विद्या को विधि पूर्वक आदर से ग्रहण की। विद्या-सिद्धि होने पर उसकी चारों तरफ प्रसिद्धि हो गई। कुछ दिन उस सिद्ध पुरुष की सेवामें
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रह कर बाद में वह उसकी आज्ञा पाकर पृथ्वी पर घूमने लगा। १. जंगलों, पहाड़ों, मगरों, और गावों में तरह तरह के कौतुक देखता हुश्रा, अपनी इच्छानुसार घूमते हुए उसने एक दिन किसी आम के पेड़ की छाया में पैठे हुए एक साधु-महात्मा के दर्शन किये। बड़ी ही श्रद्धा और भक्ति के साथ वंदन किया एवं अपनी आत्मा को धन्य धन्य समझता हुआ. उन साधुराज के श्रीचरणों में बैठ गया। मुनिराज ने उसे 'धर्मलाम'-का पाशिर्वाद दिया। साथ ही परम विजयी: जैन-धर्म को उपदेश देना शुरु किया ।
हे भव्यात्मन् ! दुर्गति में पड़ते हुए प्राणी को जो बचाता है, और सन्मार्ग में लगाता है। उसी का नाम धर्म है। वह अहिंसा संयम और तप के द्वारा प्राप्त होता है। जिस प्रकार मेरे पास मुझे प्यारे हैं, उसी प्रकार दूसरे शरीरधारी को भी उसके पास इतने ही प्यारे हैं। ऐसा । समझ कर बुद्धिमानों को चाहिये कि प्राणी-मात्र की रचा. करें। अहिंसा का ठीक से पालन जीवन को संबम में रखने से होता है। संयमी अनदली ही सदा सुखी रहता है।... संयम रखने के लिके मन वचन काबा की चंचलता, पर
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नियंत्रण करना पड़ता है वह नियंत्रण विवेक पूर्वक की हुई तपथ से होता है।
हे देवानुप्रिय ! इस संसार में नवकार के समान कोई मन्त्र नहीं है । प्राणियों की रक्षा-अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है, और श्री शत्रुजय तीर्थ के समान कोई तार्थ नहीं है। ये तीनों त्रिलोकी में अद्वितीय माने जाते हैं । नमस्कार मंत्र के प्रभाव से प्राणी पापों से छूट जाता है आपत्तियां मिट कर संपत्तियां हो जाती हैं। अहिंसा से जीवन अभय होकर अजरामर-पद का अधिकारी हो जाता है । शत्रुजय-तीर्थ के स्पर्श से अनन्त आत्मा बाह्याभ्यन्तर शत्रुओं को.जीत कर विजयी हो जाते हैं। श्री शत्रुजय-सिद्धाचल तीर्थ. पर जाने से पापी आत्मा भी निष्पाप हो मोक्ष में जाने हैं
इस प्रकार उन मुनिराज की देशना को सुन कर धरण धर्म में बहुत प्रभावित हुआ और अपने दोनों हाथ जोड़ कर किये हुए पापों को प्रकाशित करता हुआ अपनी मात्मा की निन्दा करने लगा । हे पूज्य ! मैं हत्यारा बड़ा पापी है। कर्मों को करने वाला हूँ। मेरे से जो दो हल्लायें हुई हैं इससे मेरी क्या गति होगी-- अमः कृपा कर मेरे मार्ग-दर्शक बनें।
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धरण की बात को सुन कर उत्तर देते हुए मुनीश्वर ने फरमाया हे भव्यात्मा ! तुम पापभीरू हो इसलिये निश्चय ही लघुकर्मा हो । तपश्चर्या से सारे पाप कर्मों की निर्जरा हो जाती है । अतः तुम श्रीसिद्धाचल तीर्थाधिराज जो कि सौराष्ट्र देश में वर्त्तमान है-वहां जाकर तपश्चर्या करते हुए विधि पूर्वक श्री नवकार मन्त्र का जाप करो जिससे तुम्हारा परम कल्याण होगा ।
मुनि महाराज के वचनों को सुनकर उनमें श्रद्धा को रखता हुआ वीतराग दर्शन में आत्म शांति को देखता हुआ मुनिमहाराज को वारंवार वन्दना की। अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिये वह श्री तीर्थाधिराज शत्रु जय की तरफ चल पडा । चलते २ अनेक ग्राम-नगरों को पार करता हुआ इस कुशस्थल- पुर में या पहुँचा हूं। मैं वही धरण हूँ। उन सिद्ध-पुरुष की कृपा द्वारा मन्त्र-विद्यासिद्धि से मैं भूत-भविष्य और वर्त्तमान ऐसे तीन काल की बातों को जानता हूँ। इसी लिये सब लोग मुझे निमिचिया कह कर पुकारते जानते हैं ।
धरण के विस्तृत चरित्र को सुनकर चारों राज - कुमार बड़े विस्मित हुए और आपस में कुछ विचार करने लगे । कुछ सोच कर उनमें से ज्येष्ठ राजकुमार जय ने उस नैमितिक
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( ६१ ) के सामने फल और द्रव्य रखकर पूछा कि हम चारों में से पिता का राज्य किसे मिलेगा ?
इस प्रकार पूछे जाने पर उसने शास्त्र की विधि से एवं अपने इष्ट से विचार करके सिर हिलाते हुए कहा कि "आप लोग ऐसा अनिष्टकारी प्रश्न क्यों करते हैं? नाराज होने की बात नहीं है। आप चारों में से किसी को भी पैत्रिक-राज्य मिलने की संभावना भी नहीं है। राज्य तो तुम्हारी विमाता सूर्यवती से उत्पन्न होने वाला राजकुमार ही भोगेगा । इसमें सन्देह की कोई बात नहीं है।
इस प्रकार उस कालज्ञ के कडुए बचन को सुन कर चारों राजकुमार क्रोधित हुए से बोले। अरे ! तुम कुछ नहीं जानते । देखा तुम्हारा शास्त्र ! और देखी तुम्हारी इष्ट शक्ति ! तुममें सोचने समझने की शक्ति की दिवाला ही मालूम होता है । वीराग्राणी जयकुमार के रहते और हम लोगोंके रहते दूसरा कौन राजा हो सकता है ? इस प्रकार राज कुमारों के क्रोधावेश को देखकर वह बोला कुमारों ! इस समय मेग चित्त स्थिर नहीं है। अभी मैं जा रहा हूँ पिर अब वापस लौटुगा तब भली प्रकार इस बात पर विचार कर भार लोगों से कहूँगा। ऐसा कह वह उठा, धन की वहीं छोड़, बड़ी शीघ्रता से वहां से चल दिया, और नाम
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से शत्रुजय पर पहुँच कर साधु द्वारा बतलाई हुई विधि से तपस्या करने लगा। ___ इधर निमितज्ञ के कथन को सुनकर राजकुमार बड़े सोच विचार में पड गये। वह बात सत्य है, या असत्य है ? इसका निर्णय कर न सके । उनमें से एक ने कहा कि निमितज्ञ पाहे सत्य वक्ता हो और देवताओं की तरह सफलवाणी वाला ही क्यों न हो कोई न कोई उसकी बात अस त्य भी हो सकती है। किसी की बात को सहसा अांख बन्द करके मितान्त सत्य मान कर चिन्तित हो जाना यह कोई बुद्धिमानों का काम नहीं है।
मंत्री-पुत्र रोहिणेय देवी द्वारा बतलाये हुए भावी-संकट से बचने के लिये भूमीगृह में जा कर बैठ गया, और वह संकट उसका वाल बांका किये बिना ही आकर चला गया। इस.लिये..हमें भी कोई सफल उपाय सोचना चाहिये। जिस से हम अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें।
इस बार को सुनकर बुद्धिमान जय कुमार कहने लगे भाई ! ववर्ष की चिंता क्यों करते हो जो होनी होगी सो तो होकर ही रहेगी कह तो किसी के हाथ की लान नहीं है वह कोई ऐसा सर्वज्ञ भी नहीं था, जिससे उसकी बात क्विान के श्रकों की तरह अमिट और ध्रुवसत्य मानी
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( ६३ )
जाय । अगर ऐसा होना ही है तो उसे रोक भी कौन सकता है ।
अवश्यं भाविनो भावा, भवन्ति महतामपि ।
नम्रत्वं नीलकएठम्य महाहि-शयन हरेः ॥
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कहा है, अवश्य होने वाले भाव बड़े आदमियों के भी हो के रहते हैं। जैसे नीलकण्ठ महादेव की नवावस्था, और हरि का शेष की शय्या पर सोना ।
ऐसा होने पर भी इतना तो अवश्य करना होगा कि हमारी विमाता सूर्यवती के पुत्र हो तब उसे गुप्तरीति से' मौत के घाट उतार देना चाहिये ।
जब ये चारों भाई इस प्रकार एकान्त में आपस में विचार विमर्श कर रहे थे, उस समय रानी सूर्यवती की सखी सैन्द्री सीढी के नीचे खडी उनकी ये सब बातें सुन रही थी । उसने अपनी स्वामिनी रानी सूर्यवती को निमि राज्ञ की बात से लेकर अब तक की सारी घटना जल्दी से सुना दी । यह सुन रानी हर्ष और विषाद से मुक्त हो, अपनी सुखी सैन्ट्री से बोली "हे सखि ? तुम हो बताय अब मैं क्या करू ं ?" न मालूम अत्र क्या होगा ? अगर तू कहे तो मैं यह सारा हाल महाराजा से कहूँ ? अथवा इस सोच विचार से क्या जो होना होगा सो तो होगा,
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ही । मला ऐसी किसमें शक्ति है जो इस कर्म रेखा को मिटा सके १ | अतः धैर्य और शान्ति ही इस चिन्ता के भार को हलका कर सकती है।
ऐसा कह वह अपने कार्य में लग गई, और दिनों दिन परमेष्ठी स्मरण, तपस्या, एवं देव-दर्शन में उत्साह
और उमंग बढाने लगी। .. . ____एक समय रात्री में सुख-पूर्वक नींद में सोयी हुई, महारानी : सूर्यवती ने चार भिन्न २ स्वप्न देखे । प्रथम स्वप्न तो उसने यह देखा कि-निर्मल पूर्णिमा की रात्री में आधी रात के समय चन्द्रमा का बिम्ब वेग से अपने स्थान से चलकर फिर वहीं अपने नियत स्थान पर प्रा गया। दसरा स्वप्न उसे यह दिखाई दिया कि किसीने लाकर एक खिला हुआ कमल उसके हाथ में दिया, और उसने मुरझाते हुए उस कमल को अपने हाथ से विकसित किया। तीसरे स्वप्न में उसने देखा कि अमृत के समान सफेद जिन मन्दिर वर्षा के कारण स्याम पड़ गया और वारंवार मन्दिर का यह हाल न हो ऐसा विचार कर महाराजा ने उसे मणिमय बना दिया। चौथे स्वप्न में वह क्या देखती है कि किसी ने कहीं से आकर एक बन्द छत्र उसके सिर पर रखा, और वह छत्र अपने आप खुलकर तन मया ।
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- इस प्रकार इन चारों स्वप्नों को देखकर वह जाग उठी और उमने राजा को बड़ी नम्रता से वे चारों स्वप्न कह सुनाये । राजा ने भी इन स्वप्नों को सुनकर और पृथक २ उनके फलों का विचार करके रानी से कहा कि हे देवि ! तुमने बड़े ही सुन्दर स्वप्न देखे हैं अतः तुम्हारे घड़ा भाग्यशाली पुत्र होगा।
१ यह बात सुन कर वह बड़ी प्रसन्न हुई, और धर्म की
महिमा गाती हुई अपने महल को चल दी।
. दूसरे दिन प्रातःकाल दरबार के समय महाराजा प्रतापसिंह अपनी राज-सभा में पधारे । सभा में पहले से ही उपस्थित अमीर उमरावों सरदार और सामन्तों ने तलवारें निकाल कर महाराजा का मूक अभिवंदन किया । अभिवन्दन के बाजे बज उठे। चारणों और बन्दीजनों के स्तुति पाठ और जय जयाराव से सभा-मण्डप गूंज उठा। कुछ ही क्षणों में वे रत्न-जटित-सिंहासन पर आ विराजे । संकेत पाकर सब यथा-स्थान बैठ गये।
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इसके बाद सभी मंत्रियों निमित्तज्ञों और स्वप्न के फलों को बताने वाले-स्वप्न पाठकों को बुलाकर राजा ने विधि पूर्वक महारानी द्वारा देते हुए स्वप्नों के फल पछे।
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- उन्होंने उत्तर दिया कि हे राजन् ! स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमा के देखने के कारण कलाविज्ञ, कमल के देखने से लक्ष्मीवान मन्दिर के देखने के कारण अद्भुत. धर्मात्मा छंत्र देखने के कारण संपूर्य पृथ्वी का एक छत्र शासक ऐसा मायके छत्रपति पुन होगा । यद्यपि इन स्वप्नों के भाव अतीव दुज्ञेय हैं फिर भी ये बातें तो जरूर होकर रहेंगी। . यह सुन राजो बहुत हर्षित हुए और उनने स्वप्न पाठकों का खूब सत्कार किया। अनंता महाराणी को इन स्वप्नों के भावी फलों से जल्दी ही सूचित किया।
इधर, रोहणाचल में रत्न, के जैसे. महारानी श्रीमती सूर्यवती की ख में गर्भ बढ़ने लगा । एक समय रानी को चन्द्रपान का दोहला-इच्छा हुई। लेकिन उसकी पूर्ति न होने के कारण वह, अतीव निस्तेज और दुर्बल हो गई। एक दिन राजा ने रासी, की, ऐसी दशा, देखकर पूछा कि क्या बात है, तब उसने राजा को अपना मनोरथ कई सुनाया। कैसे पूर्ण किया जाय, इस प्रकार मन में चिंतित राजा ने शीघ्र हो इस कार्य की पूर्ति के लिये मन्त्री को आदेश दिया
मंत्री ने कुछ सोच विचार कर राजा से कहा कि यह मनोरथ तो जल्दी से पूर्ण होमा श्राप चिन्ता न करें।
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उसने नई व्याई हुई गायों के मधुर और पौष्टिक दूध में थोड़ा सा पानी मिलाकर लघु और सुपाच्य बनाते हुए उसमें मिश्री मिलाकर बहुत स्वच्छता के साथ उबाल लिया । एक बन्द कमरे में ऊंची कनारवाले चांदी के थाल में दूध पिरस कर सुन्दर पर्णकुटी में चन्द्रमा की चांदनी को आने योग्य गुप्त छेद कर दिया । चन्द्रमा से प्रतिविम्बित दूध को ब्राह्म-मुहूर्त में बड़ी चतुराई के साथ महारानी को पिला दिया। वह इस प्रकार के चन्द्रपान से बड़ी संतुष्ट हुई। . चन्द्र पान के दोहद की पूर्ति से प्रसन्न हुए राजा रानी ने अपने पुत्र का नाम गर्भ में रहते हुए ही उस स्वप्न के अनुसार श्री चन्द्रकुमार रखें दिया । नामाक्षरों से अंकित हीरे से जड़ी हुई एक सोने की अंगूठी भी बनवा दी। इस सरह माकी पुत्र की सालाना के राजा रानी इतने खुश हो रहे थे कि उनकी सुकी विलोकी में भी समाधी-सही ।
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एक समय महाराजा प्रतापसिंह वन विहार के लिये मये हुए थे । वहां उनके सामने बड़ी तेजी से कुछ गुप्तचर प्राये और इस प्रकार अपनी पुकार महाराजा को सुनाने लगे।
हे देव ! नैऋत्य कोल के समुद्रतट पर रत्नपुर और कण-कोहपुर नाम के दो नगर हैं। वहां के मल्ल और महामल्ल नाम के दोनों राजाओं ने मिलकर अपनी सीमा का उल्लंघन कर देश गांव और पुरों को नष्ट कर दिये हैं। साथ ही बड़े वेग से उनकी फौजे इधर की तरफ बढ रही हैं।
यह बात सुनकर महाराज एकदम राजमहल को लौट भाये । सेनाधिपति को सेना सनाने और रण दुदुभि
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बजाने का आदेश देकर सीधे अन्तःपुर में महारानी सूर्यबती के पास पहुँचे और बोले, हे प्रिये ! यह रण-पात्रा अचानक आ खड़ी हुई है। इसलिये तुम सुख पूर्वक रहना, मैं शत्रुओं को बहुत शीघ्र ही जीत कर वापस लौट
आउंगा।
महाराज की इस बात को सुनकर रानी ने महाराज से प्रार्थना का, कि देव ! गर्भवती होने के कारण यद्यपि मेरा आपके साथ चलना उचित नहीं है तोभी मैं आपकी अनुपस्थिति में क्षण भर के लिये भी यहाँ नहीं ठहर सकती ! क्योंकि मुझे मेरे गर्भ के लिये अमंगल का भय श्राठों प्रहर सताता रहता है। इतना कह उसने उस निमित्तज्ञ की भविष्यवाणी और जयादि चारों राजकुमारों की बातचीत भी राजा को कह सुनाई ।
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महारानी के वचनों को सुनकर कुछ क्षण तक विचार कर महाराज बोले प्रिये ! दुःखी मत हो । सब ठीक होगा। मैं इन चारों राजकुमारों को अपने साथ ले जाऊंगा । तुम शेरनी की तरह निर्भय होकर यहीं सुख से निवास करो ।
इधर वे चारों राजकुमार महाराज का बुलावा पाकर परस्पर में सलाह करके जयकुमार को महल में ही छोड़कर जहां सामन्त यदि खड़े थे क्रम पूर्वक जा पहुँचे। राजा ने
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केवल तीन ही पुत्रों को आड़े हुए देखकर जय के अनासमन का कारण पूछा। उन्होंने निवेदन किया कि महाराज १ जयकुम र बीमार हैं । अतः आने में अशक्त हैं । कुमारों के कहने पर विश्वास न करते हुए महाराज ने उसे बुलाने को फिर सिपाही भेजे । जय ने उनको भी कुछ घूस देकर और बीमारी का बहाना बनाकर वापस लौटा दिया ।
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वारंवार बुलाने पर भी जब वह महाराज के पास न आया,
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तो उन्होंने सारी बात भावी पर छोड़कर उसकी उपेक्षा कर दी | एक बड़ी सेना के साथ प्रयाग भी कर दिया - कहा भी
यति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नि । विकसति यदि पद्म पर्वताम्र शिलायां, तदपि चलति नो या भाविनी. कर्म-रेखा ।।
यही वर्ष पश्चिम दिशा में उदित हो जाय, यदि मेरु चलायमान हो जाय, यदि आग शीतल हो जाय, और यदि पकी शिक्षा पर कमल खिल उठे वो भी भविष्य की कर्म ऐसा कभी नहीं टल सकती ।
नाना देशों के मालिक राजा स्थान २ पर अपनी २ सेनाओं के साथ आकर महाराज की सेना में मिलने लगे । इस तरह महाराजा प्रतापसिंह की फौज एक बड़ी वेगवती
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नदी को तरह इठलाती हुई शीघ्र ही समुद्र के किनारे पहुँच गई । सेना को विश्राम करने की आज्ञा प्रदान करके उन्होंने अपने गुप्तचरों द्वरा उन दोनों शत्रुओं का पता लगवाया और ससैन्य उन्हें जा घेरा। ____ मोर्चे लग गये। युद्ध के नगाड़े बज उठे। दोनों सेनायें. समर भूमि में आमने सामने आ डटी । दोनों
ओर से तीरों की बोडार होने लगी । तलवार चमक उठी । बर्के और भालों की चमक से सांग रणस्थल चमचमाने लगा। इधर महाराज भी प्रधान शत्रुओं के साथ भयंकर रूप से जा भिड़े। रणचण्डी के खप्पर भरे जाने लगे। भाले वाले भाले वालों से, तलवार वाले तलवार वालों से, गदाधारी गदाधारियों से जुथ गये । रथी रथियों से सामन्तों से सामन्त, घुड़सवारों से घुडसवार, हाथीचों से हाथीचढे दिल खोल कर बडी बहादुरी के साथ लडने लगे।
दुश्मन चोरों नामकई के मैदान में से सुखर का 4 दिखलाये कि महाराज की सेना में एक बारंगी भारो मामा मच गई। परम्सुम्हाथी पर सवार तीनोविनय बादि राजकुमारों ने अपनी औजस्लिी गयारी में भानी सेना का साहत बहाकर फिर से शो परा बोल दिया । इस बार शत्रुओं की सेना राजकुमारी
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बाणों की बौछार को सहन न कर सकी । एवं उसके पैर उखड गये । अपने वीरों को भागते देख क्रोध से अपने होठों को दांतों से काटते हुए मल्ल और महामल्ल ने राजकुमारों पर धावा बोल दिय । बहुत देर तक घमासान युद्ध हुआ। अवसर पाकर मल्ल ने विजय कुमार को तलवार की चोट से मूर्षित कर दिया।
इधर महाराज अपने पुत्रों व सिपाहियों को कुछ खिन्न देख उसी जगह आ धमके और अपना चन्द्रहास खङ्ग निकाल कर मल्ल पर टूट पडे । कुछ हो क्षणों में महाराज प्रतापसिंह ने मल्ल का सिर काट डाला । यह देख कुशस्थलीय फौज ने अपने महाराज की जयध्वनि से आकाश को गूजा दिया।
इधर मल्ल की मृत्यु के समाचार पाते ही महामल्ल अपने जीवन को और बची खुची सेना को लेकर रत्नपुर की ओर भाग गया। महाराज प्रतापसिंह ने भी कणकोट्टपुर आदि उसके सम प्रदेश अपने प्राधीन करके क्रमशः रत्नपुर को और महामल्ल को घेर लिया। शत्रु को बलवान और नमर को अभेद्य जानकर महाराज आक्रमण के अवसर की प्रतीक्षा में वहीं डटे रहे । वहां समुद्र के किनारे नौवन विहार आदि क्रीडा करते हुए अपना समय बिताने लगे।
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( ७३ ) .. उधर सूर्यवती महाराज के चले जाने से हृदय में उत्पन्न होने वाले दुःख को वीतराग भगवान के वचनों से दूर करके स्वाभाविकतया धार्मिक कृत्यों में लग गई । एक दिन उसने अपने महल के बाहर सशस्त्र सिपाहियों को देखकर अपनी सखी से कहा हे सखि ! देखो ये सिपाही किसके हैं ? और ये यहां क्यों आये हैं ? यह सुन सैन्द्रीने उनके पास जाकर उन्हें पूछा कि तुम कौन हो ? उसके इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे बोले 'हे सैन्द्री ! हम महाराजा के नौकर हैं रानीजी के गर्भ की रक्षा के लिये हमें रत्नपुर से यहां भेजा है। तुम किसी बात की अपने मन में शंका मत करो" । उनके इस प्रकार के वचन सुनकर और उनकी अलग २ अच्छी तरह जांच करके वापस लौटी हुई उसने रानी से कहा- "हे स्वामिनी ! सुनो द्वार पर खडे ये सिपाही जयकुमार के प्रतीत होते हैं और झूठमूठ में अपने को महाराज के सवक बता कर हमें धोखा देते हैं । ऐसा मालूम होता है कि जयकुमार ने गभरक्षा के बहाने अपनी दुष्ट-बुद्धि से गर्भ-हत्या के लिये इन्हें नियुक्त किया है।
सैन्द्री के मुख से इस दुःखद वृत्तान्त को सुनकर रानी ने एक लम्बी सांस भर कर कहा-हा सैन्द्री ! मैं अब क्या करू?। कहां जाउं ? तुमने जो उस निमित्तज्ञ के वचन,
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और इनकी आपसी सलाह को सुना था, वह तुम्हें इस समय याद है ? प्रयाण के समय महाराजा के वारवार बुलाने पर भी यह कुटिल जयकुमार बिमारी के बहाने यहीं पर अड़ा रहा । न मालूम इस दुष्ट के यहां रहते क्या २ अनिष्ट होगा ? रानी इतना कह कर शोक में लीन हो गई।
इधर जयकुमार ने बाल-हत्या के लिये तरह २ के कई उपाय किये लेकिन वे सब भाव-रहित धर्म, और जल रहित अंकूरों की तरह निष्फल हुए । अन्त में वह शुभ दिन आ पहुँचा जिसकी प्रतीक्षा बडी उत्कण्ठा से की जा रही थी । पूर्ण समय में और शुभ लग्न में अधरात्री के समय महारानी सूर्यवती ने पुत्र-रत्न पैदा किया ।
उसके जन्म समय में सभी ग्रह उच्च के थे । वह अपने तेज से दीपक की आभा को निस्तेज कर रहा था । स्वरूपधारी सूर्य की तरह सुन्दर और तेजस्वी पुत्र रत्न को देखकर रानी का हृदय- रूपी सरोवर हर्ष-रूपी जल से भर गया, और वह उसके शरीर से रोमांच के बहाने बाहर निकल कर बहने लगा।
__उस सुन्दर सौभाग्यशाली सम्पूर्ण-सामुद्रिक शुभलक्षणों से युक्त पूर्णचन्द्र के जैसे मुख वाले खिले हुए कमल
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को पाखड़ी के समान विशाल नेत्रवाले और अष्टमी के चन्द्रमा के जैसे सुन्दर ललाट वाले बालक को देखकर रानी प्रसन्नता के अतिरेक से अपने को भूल गई । उसका मन मयूर नाच उठा, हर्ष के आंसू और शरीर में रोमांच हो आया । पर क्या करती बाहर यमदूतों की तरह खड़े जयकुमार के सिपाहियों को देख उसकी बड़ी २ उमंगें और शायें विलीन होगई । उसने अपनी प्यारी सखी सैन्द्री और दूसरी सखियों को गद्गद् स्वर से कहा" सखियों ! मेरे हीन - कर्मों की ओर तो नरा निहारो, देखो ऐसे सुअवसर में महाराज भी यहां नहीं हैं। पितृ वर्ग भी उपस्थित नहीं हैं। मैं बधाई द्वारा किसको मानन्दित करू | मुझ भाग्य - हीना को धिक्कार है । सखि ! नाच गान आदि महोत्सव तो दूर रहे आज थाली का बजाना भी खतरे से खाली नहीं है । यद्यपि यह पुत्र सत्र गुणों की खान है, फिर भी इसका यह जन्म समय संपूर्ण प्रकार के हर्षो का शोषण करने वाला है ।
यह सुनकर सब सखियाँ उसके दुःख से बड़ी दुःखी और अपनी स्वामिनी से बोली "महारानीजी ! अपने चित्त में दुःख मत कीजियें, अभी प्रसूति समय है । बुद्धि हीन हो जाती है । इसलिये आप जैसे विवेकियों को चिंता नहीं करनी चाहिये । इस दुःख से, ऐसे विकल्पों से, ऐसी
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( ७६ ) हार्दिक चिंताओं से क्या होता है ? भाग्य से ही आपके इस कुमार का सब कुछ ठीक होगा। आज पुत्र जन्म से तुम्हारा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष पुष्पित और फलित हुआ है। अतः इस नामाङ्कित मुद्रा से इसे विभूषित कर दो"।
ऐसा कहकर सखियों ने कुमार को नहला-धुला कर बेश कीमती सुन्दर वस्त्राभूषण पहना दिये । श्रीचन्द्र नाम से अंकित अंगुठी से उसे विभूषित कर दिया । उसको इन्द्र के समान सर्वाग सुन्दर और अद्भुत रूपवान देखकर सैन्द्री ने सखियों से कहा "बहनों ! देखो तो सही विधाता ने इस कुमार 'के सुन्दर शरीर को मणि-रत्नों के सारतत्वों का संग्रह करके ही बनाया मालूम देता है । दही को मन्यन कर निकाले हुए मक्खन के पिण्ड की तरह इसका कोमल और स्निग्ध शरीर है। महाराजा प्रतापसिंह के घर कल्पवृक्ष के समान आज यह राजकुमार पैदा हुआ है । अतः बड़े २ प्रयत्नों से इसकी रक्षा होनी चाहिये। बताओ, इसकी रक्षा का शीघ्र कोई उपाय बतायो। नहीं तो प्रातःकाल होते ही जयकुमार के सेवक हूँढकर इसे शीघ्र ही हस्तगत कर लेंगे । हम अनाथ हैं अतः उपाय के सिवाय हम कोई कुछ नहीं कर सकती हैं। इतना कह वह सैन्द्री रुक गई।
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उसके रुकते ही उनमें से एक ने कहा, "पुत्र को किसी सन्दुक आदि में छिपा देना चाहिये"। इस बात को सुन दूसरी बोली यह उपाय तो ठीक नहीं। क्योंकि ये लोगजब बालक को खोजने के लिये बल पूर्वक प्रविष्ट होंगे तब हममें से कौन इनको रोक सकेगा ? । इन घातियों के सामने हमारा बालक कब तक छिपा रह सकता है। क्या बादलों से घिरे हुए चन्द्रमा को राहु नहीं ग्रसता ? अतः हे सैन्द्री ! तुम बडी बुद्धिमती हो। तुम्हीं इसबाल-रक्षाका कोई उपाय बतायो । क्योंकि जो काम बुद्धि से होता है वह न तो बल से होता है, न भाई बन्धुओं की सहायता से ही हो सकता है अतः तुम कोई अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखा दो।
इस पर सूर्यवती ने कहा 'सखि ! मैंने पूर्व जन्म में कोई . बडा भारी पुण्य किया था जिमसे मैंने इस जन्म में ऐसे पुत्र-रत्न को पैदा किया है । अब उसकी रक्षा के उपआय को तुम्हारी प्रशस्त बुद्धि ही निश्चित कर सकती है।
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- भावी-भाव एक अद्भुत शक्ति है। वैसे ही सहायक और वैसी ही बुद्धियां मनुष्य को प्राप्त हो जाती हैं जैसी भवितव्यता होती है। नव-प्रमृत राजकुमार श्रीचन्द्र के लिये भी प्रकृति का यही अटल नियम लागु हो गया।
रानी सूर्यवती की परम-सखी सैन्द्री ने सोच विचार कर यह राय निश्चित की कि राजकुमार को महल के बाहर किसी अच्छी जगह रख दिया जाय । ऐसा करना भी बडा कठिन है । क्यों कि द्वार पर खडे सिपाही जाने वालों की पूरी छानबीन करते हैं। बाद बाहर जाने देते हैं । पर जो दासी हमेशा उपवन में से सायंकाल के समय शय्या के लिये ताजेफूलों का टोकरा भरकर लाती है और प्रातः वापस काम में लाये हुए फूलों को लेजाकर उपवन में एक
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( ७६ ) तरफ डाल आती है । उसे ही राजकुमार को बाहर ले जाने का काम सौंपा जाय । प्रतिदिन के व्यवहार से उस फूल लाने वाली मालन पर सिपाही शक न करेंगे।
सूर्यवती ने सैन्द्री की राय की प्रशंसा करते हुए कहाँ हे सखि ! तुम धन्य हो । तुम्हारी बुद्धि देवताओं से भी बढकर है। तुम्हारी सलाह ने मुझमें जीवन ला दिया है । वास्तव में तुम भारी शोक को भी हरने वाली हो ।
इस प्रकार की मंत्रणा करते २ रात्री बीत गई। मानों उस कुमार के दर्शन के लिये उदयाचल के ऊंचे शिखर पर सूर्य देवता अपनी सुनहरी किरणों को फैंकने लगे। सखियों ने कुमार को हाथों हाथ अपनी २ गोदी में लेकर किसी ने तिलक, किसी ने अंजन और किसी ने वस्त्राभूषण से सुसज्जित किया। महागनी सूर्यवती ने भी अपने पुत्र को गोद में लेकर बड़े प्रेम से बहुत देर तक वृषित नयनों से निहारते हुए खूब दूध पिलाया । वह अपने आप कुमार को सम्बोधित कर कहने लगी-"प्यारे श्रीचन्द्र ! कैसे तुम अकेले रहोगे ? पहाड़ों-जंगलों में कौन तुम्हारी रक्षा करेगा ? अपने कमल के समान कोमल मुख के जल्दी दर्शन देना"-इत्यादि वचन वह कह ही रही थी कि इतने में पहिले से आज्ञा-प्राप्त वह वन-मालिन
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( ८ः )
आ खड़ी हुई । उसने बड़ी चतुराई से कुमार को फूलों के टोकरे में रखकर हमेशां की तरह बेरोकटोक सिपाहियों के सामने से उपवन में पहुँच गई ।
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रत्न-कंबल में छुपाये हुए राजकुमार को टोकरे में से निकालकर उसने उन फूलों के ढेर में सुरक्षित रख दिया, और बोला - "हे कुमार ! भेद खुलने के भय से मैं यहां क्षणमात्र भी नहीं ठहर सकती हूँ, आप चिरंजीवी - प्रसन्न रहें । मै फिर आऊंगी - ऐसे कहती हुई वह वार २ सिंहकी तरह घूम २ कर देखती हुई महारानी के पास चली आई इतने में दिन भी पुरी तरह से निकल आया ।
प्रातः काल में जय कुमार के सिपाहियों ने महारानी के प्रसव के निशान देखकर उन्होने सारा हाल जय से जा सुनाया । सुनते ही साथियों के साथ जय कुमार वहां या धमका और सावधानी से शोध करने पर भी कुछ न मिलने से उसने सैन्द्री से पूछा कि बता - रानी के क्या हुआ ? तब सैन्द्रीने महारानी के गर्भाशय के निकले हुए मैले को दिखाते हुए रोनी सी सूरत से कहने लगी- मालिक ! गजब हो गया ! हमारे तो सारे मनोरथ मिट गये !! आशायें अधूरी रहीं !!! क्या बताऊं महारानीजी के पुत्र होना तो दूर रहा पुत्री भी नहीं हुई 1
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( ८१ ) जयकुमार मन ही मन प्रसन्न होता हुआ सोचने लगा लगा। चलो बिना औषधि के रोग मिट गया। परंतु बाहरी दिखावे के लिये शोक करता हुआ कहने लगा सैन्द्री ! अगर सचमुच ऐसा ही हुआ है तो बहुत बुरा हुआ। मैने तो सोचा था भाई का जन्मोत्सव बड़े ठाठ से मनाउंगा। पर दुष्ट विधाताने मेरी अभिलाषायें पूर्ण नहीं होने दी। ऐसे बनावटी शोक को करता हुआ सिपाहियों के साथ वह वहां से चला गया।
जय कुमार के चले जाने पर सर्वत्र शांति हो जाने से रानी ने सैन्द्री से कुमार को लाने के लिये आज्ञा दी। उसने उपवन में फूलों के ढेर को खूब हूँढा पर दरिद्री को निधान के जैसे कुमार को न पाकर रोती बिलखती वापस घर लोट आई। उसकी बात सुनकर रानी सूर्यवती बेहोश होकर गिर गई । समय के अनुकूल उपचार से रानी को होश में लाया गया। पुत्र स्नेह से व्याकुल रानी संकटापन्न अवस्था में भी साहस कर के सखियों के साथ उपवन में पहुंची और चारों ओर कुमार को ढूढना शुरु किया । वन-मालिन से भी पूछा कि बत्तानो राजकुमार को कहां छिपाया है ? उस बेचारी ने रोते हुए फूलों के ढेर की तरफ अंगुली निर्देश करते हुए कहा स्वामिनो ! यहीं, इसी ढेर में मैंने तो कुमार को छिपाया था, पर न जाने
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( ८२ ) क्यों कुमार के दर्शन नहीं मिल रहे। रानी और उसकी सखियों ने बड़ी होशियारी के साथ चारों ओर श्रीचन्द्रकुमार को ढूढा, मगर कहीं भी उसका पता न चला । सच है पुण्य-हीन-प्राणी के लिये कल्पवृक्ष कहां रखे हैं ? दैवयोग से चिन्तामणि रत्न किसी निर्धन को प्राप्त हो जाय पर वह उसके पास थोडे ही ठहरला है ? हाय मेरे वेटे का क्या हुआ ? क्या किसी ने उसे मार दिया ? अथवा कोई उसे चुरा ले गया ? सखियों ! मुझ अभागिनी के भाग्य में ऐसे पुत्र रत्न का टिकाव कैसे हो सकता है ! । हा ! दुर्दैव मैं तो जींदा भी मरी हुई हूँ। ऐसे रानी सूर्यवती मुक्तकण्ठ से विलाप करने लगी। लडखडाती हुई रानी को सैन्द्री हाथ पकड कर महल में ले आई । वहां भी रानी का विलाप जारी रहा
हायरे दुर्दैव ! मैने तेरा क्या बिगाडा है ? जो तैने मुझे पहिले ऐसा पुत्र रत्न दिया और देकर वापस छिन लिया ? क्या मुझ पर अनर्थ परम्परा प्रारम्भ करने के लिये ही ऐसा अनिष्ट शरु किया है ? अथवा हे दैव ! तुम्हारा इसमें क्या दोष है ?
सुखम्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः स्व-कर्म-सूत्र-प्रथितो हि लोकः ।।
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( ८३ )
कोई किसी को सुख या दुख पहुँचाता है यह धारणा ही गलत है । मैंने उसे ऐसा कर दिया, यह भी एक भू ठा अभिमान है । वस्तुतः सारा संसार अपने २ कर्मों से गूंथा हुआ है ।
पूर्व जन्म में अबोध अवस्था में मैंने ही कभी शील भ्रष्ट किया होगा । या किसी जीव को सताया होगा ? किसी की कोई बडी भारी चोरी की होगी ? किसी के बच्चे को उसकी मां से जुदा किया होगा ? करडके मोड़े होंगे या किसी पक्षी के अंडे फोडे होंगे ? द्व ेष वश किसी कोठे कलंक दिये होंगे ? अथवा ऐसे हो घोर पाप मैंने किये होंगे ? जिनको जिनेश्वर भगवान ही जान सकते हैंउन पापों का दुष्परिणाम आज मैं इस प्रकार भोग रही हूँ ।
महारानी के विलाप से दुःखी हुए निकट रहनेवाले स्वजन स्वयं दुःखी होते हुए भी उनको धीरज बंधाने लगे "स्वामिनि ! भावी किसी के टाले नहीं टलती । संयोग वियोग सुख दुःख ये सब अपने किये कर्मों का ही फल है । ये अवश्य भोगने होते हैं इस में किसी का किन्तु परन्तु नहीं चलता । आप स्वयं तत्त्व को जानती हैं अधिक शोक करने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । आये हुए दुःख को मिटाने का उपाय धीरज से शोचना चाहिये ।
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' ८४ ) स्वजनों के आश्वासन से विवेकवती रानी सूर्यवती ने आखिरकार दिल को मजबूत बनाया। अपने इष्ट के ध्यान में लीन होगई । उसी समय कुछ देर के लिये आंखें लग गई। उस अर्धनिद्रित अवस्था में उनने स्वप्न में सफेद वस्त्र धारण की हुई अपनी कुल देवी के दर्शन किये । प्रसन्नवदना देवी दिव्य वाणी से कहतो है बेटि ! दुःखी मत हो । मैने ही तेरे भाग्यशाली बेटे को फूलों के ढेर से हटाकर सुरक्षित स्थान में पहुंचाया है। तेरे पास रहने में उसे अधिक कष्ट उठाना पडता । आज से बारह वर्ष बाद वह तेरा बेटा श्रीचन्द्र राजाधिराज बन कर अचानक ही तुम लोगों को मिलेगा । मैं तुम्हारी कुल देवी हूँ"।
इस प्रकार दिव्य स्वप्न देखकर सहसा रानी जागृत हो जाती है, और बडे प्रसन्न मन से सैन्द्री आदि सखियों को सारा सुखद स्वप्न वृत्तान्त कह सुनाती है । सखियों ने भी रानी का अभिनंदन करते हुए बड़ी खुशी के साथ मंगलाचार किया। ____ पुत्र मिलन की पुनीत आशा से सखियों के साथ रानी सूर्यवती दान-पुण्य देव पूजन, जप-तप, नवकारमन्त्र स्मरण आदि धर्मकृत्य विशेष रूप से करने लगी। धर्म में पहिले से भी कई गुनी अधिक श्रद्धा उसकी होगई।
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पुण्यैर्विना नहि फलन्ति समीहितार्थाः ।
पुण्य से मनुष्य को मनचाहे फल मिलते हैं अतः अपना हितचाहने वालों को चाहिये कि हमेशा पुण्य कार्य करते रहें ।
महाराजा प्रतापसिंह के न्यायी राज्य में नगर सेठाई भोगने वाला राजा - प्रजा में सन्मान प्राप्त लक्ष्मीदत्त सेठ अपने विशाल वैभव के साथ कुशस्थल नगर को सुशोभित करता था । उसके पास सौन्दर्य शालिनी शीलालंकार धारिणी लक्ष्मीवती नाम की सेठानी थी। पति-पत्नी दोनों ही बड़े प्रेम और आनंद से अपना सुखमय जीवन बीताते थे । दान और सन्मान में उनका मुकाबला करने वाला कोई नहीं था। सभी तरह के सुख होते हुए भी संतान का
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( ८६ ) अभाव उन्हें कांटे की तरह रात दिन खटकता था । पुत्र प्राप्ति के लिये उन्होने कोई भी शक्य-प्रयत्न बाकी नहीं छोडा था । तदर्थ कोई न कोई देवी देवता को वे मनाते ही रहते थे।
. जिस रात महारानी सूर्यवती को स्वप्न में देवी ने दर्शन दिये थे उसी रात में उसी समय में सेठ लक्ष्मीदत्त को भी स्वप्नमें देवी ने दर्शन दिये, और कहा-"सेठ ! सुनो, प्रातः काल तुम्हारे घरमें सत्पुत्र रूप कल्प-वृक्ष की पधरावणी होगी उसके लिये तुम अपने यहां भारी महोत्सव के मंडाण मंडात्रो इस दिव्य संदेश को सुनकर सेठ जग जाता है। सेठानी से कहता है आज मैने पुत्र रूप कल्प वृक्ष की प्राप्ति का संकेत स्वप्न में पाया है। सेठानी के भी प्रसन्नता का पार न रहा। - प्रातःकाल सेठ ने अपने कुटुम्बियों को एकत्रित कर. खुशी का भोजन करवाया । आमोद-प्रमोद नाच-गान करवाये । मंडप सजाने के लिये राजाज्ञा से राजवाडी से फूल लाने के लिये वह महाराजा के उद्यान में पहूँचा । सेवकों से मन पसंद फूल इकट्ठा करवाते हुए सेठ ने फूलों के ढेर में रत्नकंबल में लपेटे हुए नामांकितमुद्रा से मुद्रित तुरत के जन्मे तेजस्वी बालक को बाल-क्रीडा करते हुए देखा । सेठ ने चुप चाप उसे उठालिया रात्री में गोत्र
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(.८७ )
देवता के दिये हुए स्वप्न को याद करते हुए फूलों के टोकरे में छिपा कर सेठ उसे अपने घर ले आया । एकान्त में उसकी प्राप्ति के समाचार सुनाते हुए सेठ ने सेठानी की गोद में बालक को सुला दिया। - पुत्र जन्म के समय का मंगल थाल स्त्रियों ने बजाया बधाइयाँ बांटी जाने लगी । सेठने सेठानी के गूढ गर्भ था-की बात चारों ओर फैला दी । लोग भी सुन २ कर बडे प्रसन्न हुए । बाजे बजने लगे। स्थान २ पर मंगल गीत गाये जाने लगे । भाट चारण याचकों की प्रशंसात्मक घनि से सारी दिशायें गूंज उठी । हजारों सोने चाँदी के थाल-सजा कर फल-फूल मेवा-मिठाई आदि • इधर उधर भेजे जाने लगे। कुटुंबियों, बन्धुओं, साधर्मियों
का बडी ही श्रद्धा भक्ति और प्रेम से आदर करते हुए सेठने पुत्र जन्मोत्सव बडे ठाठ से मनाया। ___ अंगुठी में अंकित मन पसंद नाम को देखकर सेठ ने सब लोगों के सामने-"श्रीचन्द्रकुमार" ऐसा उसका नाम संस्कार किया । इस प्रकार एक ओर राजकुमार संकटों को पार कर पुण्य के योग से सेठ के महल में नन्दन वन में कल्पवृक्ष के जैसे प्रतिदिन बढने लगा। दूसरी ओर धन
धान्य रत्न-सुवर्ण आदि लक्ष्मी से दिन दूना और रात चौगुना .. सेठ बढने लगा। मणि-रत्नों के दिव्य-सुन्दर-खिलोनों से
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( ८८.) खेलता हुआ श्रीचन्द्रकुमार धोरे धीरे चलने के लिये भी कदम उठाने लगा बन्धुजन उसको एक के बादएक गोदी में लेते हुए नहीं अघाते थे। जिसके पास वह जाता था, उसी के सुख का कारण वह बन जाता था उसने कभी किसी वस्तु के लिये न हठ किया, न मुह ही बिगाडा । सदा प्रसन्न रहने वाला वह कुमार जब पांच-वर्ष का हुआ तब उसमें बल-बुद्धि और तेजो-लक्ष्मी का संचार अपने आप होने लगा । एक बार सुना, देखा, ज्ञान-विज्ञान पहले अभ्यास की हुई विद्या के जैसे आसानी से ही उसे आ जाता था ।
.. एक समय श्रीचन्द्रकुमार कौतुक देखने की इच्छा से अपने पिता के साथ रथ पर सवार हो उद्यान की ओर चला । फल फूलों से लदे हुए हरे भरे पेड़ों को संगमरमर से बने हौज, बावड़ियों को देखता हुआ वह घूम रहा था इतने में ही वह क्या देखता है-बाजे बज रहे हैं। खुले हाथों दान दिया जा रहा है। नाटक हो रहे हैं। हटो हटो की अवाज लगाते हुए छड़ीदार प्रजाजनों को हटाकर सडक साफ कर रहे थे। सबके आगे हाथी पर राष्ट्रध्वज फहरा रहा था। उसके पीछे कई तरह के बाजे बजाने बालों की टोलियां चल रही थी। सजे सजाये कोतल घोडे चलते थे। घुड सवार अमीर उमराव सामंत मन्त्री अपनी २
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८)
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राजकीय पोशाकों को पहने बडी आन बान और शान के साथ चल रहे थे । इनके पीछे मदमस्त चाल से चलता हुआ, खरेमोतियों की कालरों वाली भूल से सजा हुआ, सोने चांदी के गंगा-जमुनी हौदे को रेशम के रस्सों से कसा हुआ मनोहर चित्र कारो से सजाई हुई सूडवाला माथे पर कानों में दांतों में, और पावों में सुनहले रत्न जडित आभूषण पहना हुआ गजराज जरीकी पोशाक पहने अंकुश लिये महावत से प्रेरित होता हुआ धीरे धीरे चल रहा था । उसके हौदे में रानी की तरह आदर प्राप्त एक-सारिका बैठी थी । उसके सिर पर छत्र था । दोनों और दासियाँ चामर ढाल रही थीं । विस्मय पैदा करने वाली ऐसी सवारी को देख कर वह स्तंभितसा होकर सोचने लगा कि यह क्या घटना है ? |
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देखते २ वह सारिका हाथी के हौदे से उतर कर श्री आदीश्वर भगवान के भव्य मन्दिर में प्रविष्ट हुई। उसके पीछे पालकी से एक सुन्दर स्त्री उतरती है और वह अपने सेवकों को आज्ञा प्रदान कर रही है। पिता की आज्ञा से कुमार ने उसे पूछा कि हे देवि ! तुम कौन हो और यह पक्षी होती हुई भी मानवी के समान आचरण करने वाली सारिका कौन है ? भगवान के मन्दिर में आने का व इस
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बडे भारी इस ठाठ का वृत्तान्त अगर छुपाने योग्य न हो तो मैं सुनना चाहता हूँ।
कुमार की ओर ललचाई हुई निगाह से देखती हुई वह स्त्री कहती है कुमार ! मैं महारानी सूर्यवती की मुख्य दासी हूँ। मेरा नाम सैन्द्री है। यह सारिका मेरी स्वामिनी सूर्यवती की परम-प्रेम-पात्र है। इसका जन्म कर्कोटक द्वीप में हुआ है। किसी जहाजी व्यापारी ने इसे महा राजा प्रतापसिंह को यहां भेट की थी । यह अपने ज्ञानी गुरु के प्रसंग से प्राप्त कला के द्वारा महाराज का मनोरंजन किया करती है।
कुमार ! सुना होगा ? महारानी को पुत्र वियोग का असह्य दुःख हुआ था। महाराज दुश्मन को जीतने गये थे। पत्र द्वारा दुःखद समाचार को पाकर महाराजा भी बड़े दुःखित हुए थे। उस समय महारानी के मन को शांत कर ने के लिये इस सारिका को महाराजा ने यहां भेजी थी। तब से यह महारानीजी को समय २ पर उपदेश देकर और श्री वीतराग की वाणी को सुना कर धर्म ध्यान में प्रेरित करती है, और दुःख का समय काटने में साथ देती है।
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इस सारिकाने किसी ज्ञानी गुरु से यह सुन रखा है कि तू राजकुमारी होगी, बस तवं से ज्ञानी भगवान की वाणी पर श्रद्धा रखती हुई तीव्र तपस्या कर रही है महारानी जी के मना करने पर भी परम श्रद्धा से इसने आठ दिन के व्रत किये हैं। उसीका उद्यापन-निर्वाण समारोह कर के रानीजी ने अपने जन्म को सफल माना है । इस प्रकार कह कर सैन्द्री रुक गई ।
सैन्द्री की बात सुन कर श्रीचन्द्र-कुमार सारिका की प्रशंसा करते हुए बोला-अहो, इसकी शक्ति-निर्मल श्रद्धावैराग्य और भाग्य सभी प्रशंसनीय हैं । तिर्यंच योनी में रहते हुए भी शुभ कर्मों का उदय होने से इसने धर्म की कितनी सुन्दर अराधना प्राप्त की है ।
कुमार भी मन्दिर में पहुँचा। भगवान को भावपूर्वक नमस्कार किया । सारिका की क्रियाओं को कौतुक भरी दृष्टि से देखता हुआ वह वहीं पर ठहर गया । सारिका ने चोंचसे विधिवत् जल चंदन पुष्प आदि चढा कर भगवान को अष्ट प्रकारी पूजा की। स्तुति स्तोत्र और चैत्य-चन्दन करके भाव पूजा भी संपन्न की। बाद ज्यों ही मन्दिर में से रवाना होने के लिये वह घूमी त्यों ही अचानक उस की दृष्टि उस दिव्य कुमार पर पड़ी । सुन्दर स्वरूपवाले उस
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(६२ ) कुमार को देख कर वह बापिस भगवान श्री आदिदेव के चरणों में विनय-वंदन कर जोर से प्रार्थना करने लगी। .." हे भगवन् ? मैं आत्म-भाव से श्री वीतराग परमात्मा को देवरूप निर्ग्रन्थ महात्मा को गुरु रूप, और केवली भग वान प्ररूपित विधि विधान को धर्मरूप मानती हूँ। यही सम्यक्त्व जन्म-जन्मान्तरों में भी आपकी दया से प्राप्त होता रहे और यह सुन्दर सुकुमार-कुमार ही मेरा स्वामी होवे । ऐसी प्रार्थना करके उसने अनशन व्रत ग्रहण कर लिया, और भगवान श्री आदीश्वर के चरणों का ध्यान लगा कर वहीं बैठ गई।
यह सब देख सुन श्रीचन्द्र कुमार ने उस सारिका से कहा-मैना ! तुम्हारा ऐसा करना उचित नहीं है। श्री जिनेश्वर देवने इस प्रकार से नियाणा-भावीफल की मांगणी-करने का निषेध किया है। ऐसा करने से जीव सद्गति से वंचित हो जाता है। ___ कुमार के ऐसे वचन को सुनकर सारिका कहने लगी हे कुमार ! मुझे नियाणा-करने की कोई आवश्यकता नहीं है पर कुत्सित-स्वामी के मिलने पर सुचारु धर्म का आराधन नहीं होता । इस धार्मिक सहूलियत के विचार से ही मेरी यह प्रार्थना है-और मैंने आमरण अनशन कर लिया है।
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सारिका की इस भावना से परिचित हो सैन्द्रीने महारानी सूर्यवती से सारिका के आमरण अनशन लेने की बात कही । तब वह घबराई हुई सी वहां आई, और उसने सारिका को ऐसा आमरण अनशन न लेने के लिये बहुतेरा समझाया । परन्तु उसने रानी को उत्तर दिया-"स्वामिनि ! मेरे लिये ज्ञानी गुरु की ऐसीही भविष्यवाणी है। उसी प्रेरणासे आज जो मैने भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी के सामने जो प्रतिज्ञा की है, वह कभी मिथ्या नहीं होगी। अब आप कृपा करके इस कार्य में सहायक बनें । बस, इतना कहकर मैना मौन करके स्थिर हो गई।
उसकी ऐसी धारणा को देख रानी गदगद स्वर से कहने लगी। प्रिय सखि ! तेरे विना मेरे ये दुःख के दिन कैसे कटेंगे ? मैं तेरे इस शुभ संकल्प को तुडाना नहीं चाहती । तेरा कल्याण हो । ऐसा कहकर रानी ने, सखियों ने और नगर निवासियों ने मिलकर अनेक प्रकार से उस अनशन को भारी महिमा की । तीन दिन के अनशन को करके सारिका ने अपने इस नश्वर-शरीर को त्याग दिया । रानी की आज्ञा से चंदन की चिता में उसका अंतिम संस्कार बडे समारोह से हुआ रानी उसकी मृत्यु से शोक-संतप्त हो उसके महान गुणोंको रह रह कर याद करने लगी।
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( ६४ ) सब लोग सारिका के गुणों को याद करते हुए अपने २ स्थान पर चले गये। श्रीचन्द्र कुमार भी अपने पिता श्री लक्ष्मीदत्त सेठ के साथ चकोरों को प्रसन्न करने वाले चन्द्रमा के जैसे-अपने घर पर पहुँच कर अपने दिव्य गुणों से सब का मनोरंजन करने लगा।
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कुशस्थल नगर में धीधन मंत्री के मतिराज और सुषि रान नाम के दो पुत्र थे । दोनों मंत्री-पद से विभूषित थे। छोटे भाई सुधीराज के कमला नाम की रूपवती गुणवती सती-पतिव्रता पत्नी थी।। उसने गुणों के सामर रूप गुणचन्द्र नाम के पुत्र-रत्न को जन्म देकर अपने श्वसुरकुल में सन्मान प्राप्त किया था । मन्त्री-पुत्र गुणचन्द्र श्रेष्ठी-पुत्र श्रीचन्द्रकुमार के साथ पूर्व-जन्म के पुएससंस्कारों से अभिन्न-मित्र बन गया था। उन दोनों में क्षीर-नीर के समान घनिष्ठ प्रेम हो गया था। विनय विवेक-विचार-भक्ति और निस्वार्थ सेवा के गुणों से गुसचन्द्रने श्रीचन्द्र का मन अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। दोनों परस्पर में परम विश्वासी और एक मन वाले थे ।
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( ६६ )
श्री लक्ष्मीदत्त सेठ अपने चिरंजीवी कुमार श्रीचन्द्र को पुरुषों की बहत्तर कलाओं में निपुण देखना चाहते थे । संपूर्ण कलाओं की शिक्षा देने वाले कलाचार्य को खोज करते हुए उन्हें सद्भाग्य से गंगा तट की तरफ से यात्रा करते हुए श्री गुगंधर नाम के कलाचार्य की भेंट हुई ।
श्री गुगंधर - उपाध्याय सब विद्याओं में पारंगत जितेन्द्रिय, स्पष्ट वक्ता, शान्त स्वभाव वाले, जैन दर्शन के अनन्य उपासक और बृहस्पति के समान सब शास्त्रों के ज्ञाता थे। अधिक क्या जितने गुण एक गुरु में होने चाहियें वे सब उनमें मौजूद थे ।
लक्ष्मीदश सेठ को एक दिन अचानक श्रीगुगंधर उपाध्याय से मुलाकात हो गई । एक दूसरे के परिचय के बाद सेठ ने अपने पुत्र को पढाने के लिये उनसे प्रार्थना की । उपाध्यायजी ने भी कुमार श्रीचन्द्र को विनयादि
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गुणों से संपन्न और सामुद्रिक शास्त्र के शुभ लक्षणों से युक्त योग्य - सुपात्र समझ कर अन्यत्र जाने का विचार स्थगित करते हुए विद्या पढाना स्वीकार कर लिया ।
सेठ ने उपाध्याय को प्रसन्न करने के लिये धन देना चाहा पर उनने इस बात का निषेध करते हुए कहा सेठ !
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६७ }
उपकार के सामने धन क्या चीज है ? मैं कोई तुच्छधन पर उच्च विद्या को न्योच्छावर करने वाला श्रोछा आदमी नहीं हूँ ।
पढ़ते सहस्र शिष्य हैं पर फीस ली जाती नहीं, वह उच्चशिक्षा तुच्छ धन पर बेच दी जाती नहीं । दे वस्त्र भोजन भी स्वयं कुलपति पढाते हैं उन्हें, बस भक्ति से सन्तुष्ट हो दिन २ बढाते हैं उन्हें ||
विद्या के बदले में विद्या देने वाले और धन से विद्यादेने वाले दोनों लोभी कहलाते हैं । विनय से सन्तुष्ट हो मुफ्त में विद्या प्रदान करने वाले गुरु होते हैं और वेही सच्चे पुण्य के अधिकारी होते हैं ।
उपाध्याय की उदारता और निस्पृहता से परिपूर्णवाणी को सुनकर सेठ बहुत प्रसन्न हुआ । बहुमूल्य वस्त्राभरणों से स्वागत करते हुए उपाध्याय से निवेदन किया कि हे मान्यवर ! हम आपकी क्या सेवा करें ? हम और यह कुमार सदा आपके आभारी रहेंगे । आप इसे पढ़ानाप्रारम्भ कर और इसे कलावान बनावें ।
श्री गुगंधर उपाध्याय ने सेठ लक्ष्मीदत्त से कहा विद्याभ्यास एकान्त में निरुपद्रव ठिकाने पर ही ठीक होत | अतः ऐसा स्थान खोजना चाहिये । तब सेठ ने कहा भूदेव ! राजा की आज्ञा से मैने लक्ष्मीपुर नाम का एक
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. ( ६८ ) नगर बसाया है। वहां मेरे कई मकानात हैं। आप वहां पधार और विद्याभ्यास के योग्य स्थान निर्धारित करें।
प्राचार्य ने सेठ के साथ लक्ष्मीपुर में जाकर अपनी इच्छानुसार सुविधाजनक एक सुन्दर स्वच्छ और विशाल भवन विद्याभ्यास के लिये चुन लिया । स्थान का निश्चय हो जाने पर सेठ ने शुभ मुहूर्व में चन्द्रमा आदि का प्रशस्त विचार करके विद्याभ्यास के समस्त उपकरणोंसे उपयुक्त लेखशाला का निर्माण करा दिया ।
उस विद्यालय में श्री गुणधराचार्य की अध्यक्षता में शुद्ध-वस्त्रा भूषणों से सज-धजकर गुणचंद्रादि मित्र छात्रोंके साथ श्रीचन्द्रकुमार ने बड़े भारी विनय भाव से-ओंकार के उच्चारण के साथ शिक्षा प्रारम्भ की । सेठ ने भी इस प्रसन्नता के उपलक्ष्य में उपस्थित छात्रों को बहुमूल्य वस्तुएँ प्रदान की।
__ श्रीचन्द्रकुमार गुणधर उपाध्याय की एवं विद्या की उपासना इस प्रकार करने लगा कि उसे अल्पकाल में बहुतेरी कलायें प्राप्त हो गई। नम्रता के कारण सारे गुण अपने आप उसमें आकर रहने लगे। विद्यालय में बहुत से विद्यार्थियों के रहते हुए भी लोग उसी की ओर देखा
ते थे । सच हे, आकाश में चन्द्रमा के रहते बिचारे
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( ) तारों को कौन देखता है ? श्रीचन्द्र केवल पढने के लिये ही गुरु की उपासना नहीं करता था, बल्कि उनके गुणों के प्रेम के कारण उनका तनिक समय के लिये भी विछोह सहन नहीं कर सकता था। - थोड़े ही काल में कुमार श्रीचन्द्रने लक्षण शास्त्र छन्दः शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र में निपुणता प्राप्त की। उसने साहित्य शास्त्र एवं गणित शास्त्र का गहरा ज्ञान प्राप्त करलिया। सामुद्रिक शास्त्र, अश्वविद्या, शास्त्रार्थ-विद्या, आयुर्वेद, काल-ज्ञान, स्वरोदय-विज्ञान, रसायन-विद्या और नाट्यशास्त्र आदि सांगोपांग अभ्यास किया। रत्न-परीक्षा, गज-शिक्षा, लेखन-कला आदि विद्यायें विना किसी महिनत के जान ली । आचार्य ने अपनी संपूर्ण विद्याओंको कुमार के हृदय रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित कर दी। ____पुत्र की इस ढंग की पढाई को देखकर सेठ फूला न समाया । उसका हृदय वांसों ऊंचा उछलने लगा।
आनन्द की लहरों से लहराता हुआ वह प्राचार्य के पास जाकर बोला-"प्राचार्य मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि आपने मेरे पुत्र को सभी शास्त्रों में पारंगत कर दिया। मैं और मेरा पुत्र कभी आपके इस उपकार-भार से मुक्त नहीं हो सकेंगे। मेरी आपसे एक और प्रार्थना है, कि आप इसे अनुर्वेद (अस्त्र-शस्त्र विद्या) का भी अभ्यास करा दें।
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( १०० ) - मैं विद्वान के साथ साथ बलवान होना भी जरूरी समझता हूँ। दुश्मनों से, गुण्डों से देश की, समाज की
और धर्म की रक्षा करने के प्रसंगों में केवल कलम चलाने वाला ही काफी नहीं होता । तलवारें भी उठानी पडती हैं। निर्बल आदमी दूसरों की रक्षा तो दूर, अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता । ऐसे कंगलों से उनके पूर्वजों की कीर्तिकथायें भी कलङ्कित होती हैं। ... मैं अहिंसा में मानता हूँ। आतताइयों के मुकाबले में उनसे हाथ जोड कर प्राण बचा लेने या भाग जाने को मैं ठीक नहीं मानता हूँ । इस प्रकार की अहिंसा को मैं हिंसा ही मानता हूँ । अत्याचार करनेवाले हमेशा बुरे होते हैं। पर अत्याचारियों के अत्याचार को प्रतिरोधक शक्ति के रहते हुए चुपचाप सहन करनेवाले को मैं बहुत बुरा मानता हूँ । प्रसंगों के उपस्थित होने पर पुरुष को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र सब कुछ होना चाहिये । ऐसा होने के लिये भी उस अवस्था के शास्त्रों का अभ्यास जरूर ही करना चाहिये।
इसीलिये आपसे मेरी प्रार्थना है कि श्रीचन्द्रकुमारको आप धनुर्वेद की ऊंची-शिक्षा देने की कृपा करें । सेठ की इस बात को सुनकर श्रीगुणंधराचार्य ने बडी प्रसन्नता से कहा सेठ ! आपकी इस भाव-भरी-प्रार्थना से
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। १०१ ) मेरा मन बहुत प्रसन्न हो रहा है। आप ठीक ही कहते हैं कि कायर कपूतों के होने से न होना ही अच्छा है । कहा भी है
जननी जणे तो भक्त जण, कां दाता का शूर। नहीं तो रहिजे वांझणी, मती गमावे नूर ॥
अब आपकी प्रेरणा से मैं श्रीचन्द्रकुमार को धनुर्वेद की-राधावेध पर्यन्त की सारी शिक्षा उच्च स्तर पर दूंगा।
उपाध्याय ने सेठ की प्रार्थना से प्रेरित हो दुगुने उत्साह से कुमार को शस्त्रास्त्र-विद्या में पूर्णतया निपुण किया । जल में तैल के जैसे कुमार की बुद्धि में पहुँचा हुआ गुरु का ज्ञान भारी विस्तार को पाया।
कुमार की शिक्षा पूर्ण होने पर एक दिन श्रीगुणंधराचार्य ने स्वदेश लोटने की अपनी इच्छा अपने शिष्य के प्रति प्रकट की। उस समय जैसे कोई बड़ा भारी निधान कोई हठात छिन लेता है। ऐसा दुःख कुमार के मन में उपस्थित हुआ । उसका खाना पीना सोना आमोद प्रमोद सभी तो छूट गये । अपने लाडले बेटे की ऐसी हालत को देखकर सेठ लक्ष्मीदत्त पूछते हैं बेटा ! क्या बात है ? क्यों अनमने उदास हो रहे हो ? क्या किसी वस्तु का प्रभाव मालूम देता है ? क्या बात है ? मैं तुम्हारे इस उदास चेहरे को देख नहीं सकता हूँ।
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( १०२ )
इस पर कुमार ने बडे करुण स्वर में कहना शुरु किया पिताजी ! आपने जो बातें फरमाई, उनमें से एक भी कारण मेरी उदासी का नहीं है। मेरे हृदय में ज्ञान प्रकाश फैलानेवाले प्राचार्य मुझे छोड कर अपने देश की ओर प्रस्थान करने का कहते हैं। उनके वियोग-दुःख के विचार-मात्र से मैं दुःखी हूं। उनके बिना मुझे कौन नेक सलाह देंगे ? कौन मेरे संशयों को दूर करेगा ?
पिता पुत्र के बीच इस प्रकार का वार्तालाप हो ही रहा था, कि इतने में आचार्य भी वहां अपने घर जाने की अनुमति लेने आगये । उन्होंने कुमार को जब इस अवस्थामें देखा तो वे उसकी भक्ति, गर्वशून्यता, नम्रता आदि गुणों से प्रभावित हो उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।
सेठ ने कलाचार्य का आदर करते हुए अपने शिष्य की हालत पर गौर फरमा कर कुछ समय तक ओर ठहरने के लिये प्रार्थना की । प्राचार्य ने भी प्रार्थना स्वीकार कर ली। यह देख श्रीचन्द्रकुमार का मन मन्दिर प्रसन्नता के प्रकाश से आलोकित हो गया ।
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वीर पुरुष की हुई प्रतिज्ञा को और प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूरा करके ही छोड़ते हैं । आनेवाली विघ्नबाधाओं से उनका मन मूर्च्छित नहीं हुआ करता है ।
महाराजा प्रतापसिंह ने अपने शत्रु रत्नपुराधिपति के साथ आठ वर्ष के घोर संग्राम के पश्चात् उसे हरा दिया । रत्नपुर पर अपना अधिकार जमा लिया । वहां अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर अपनी शासन-सत्ता स्थापित कर दी। बाद में अपनी विजय - वाहिनी - विशाल फौज के साथ निरन्तर प्रयाण करते हुए अपनी राजधानी कुशस्थलपुर में आ पहुँचे ।
राज - मन्त्रियों ने महाराज की पधरावणी में नगर को खूब सजाया । सामंत -सेनापति - सभासद - सेठ साहुकार -
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लोग महाराज के स्वागत में उनके सामने गये । नगरसेठ लक्ष्मीदत्त अपने पुत्र के साथ एक अपूर्व भेंट लेकर उनके सत्कारार्थ उपस्थित हुए। महाराज ने भी क्रमशः उपाधि और योग्यतानुसार सारे सामन्तों- मन्त्रियों-नागरिकों के साथ हाथ मिला २ कर अभिवादन किया ।
नगर सेठ लक्ष्मीदत्त के सर्वांग सुन्दर कुमार श्रीचंद्रके अनुपम आकर्षण से आकृष्ट हुए महाराज ने पूछा कि यह अद्भुत बालक कौन है ? तब सेठ ने कहा महाराज ! यह आपके सेवक का उत्तराधिकारी है । कुमार ने बड़ी वीरोचित वृत्ति का प्रदर्शन करते हुए, महाराज को विनीत प्रणाम किया । अपने पुत्र चन्द्र को देखकर समुद्र जैसे उमड़ता है ठीक उसी प्रकार महाराज प्रतापसिंह भी श्री चन्द्रकुमार को देखकर अन्तररंग स्नेह से आन्दोलित हो उठे । उन्होंने उसे ताजिम के साथ कणकोट्टपुर की जागिरी बक्षिस कर दी। दूसरों को भी यथायोग्य पुरस्कार दान किया | महाराजा अपने महल में चले गये । जरूरी कामों को निपटाते हुए सुख से आराम करने लगे ।
इधर श्रीचन्द्रकुमार का विद्याभ्यास सर्वतो -भावेन पूर्ण होगया । गुणंवर गुरु ने उसे प्रेमपूर्वक शस्त्र - धारा को बांधनेवाली दिव्य जडी प्रदान की और वे स्वदेश लौट
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___ ( १५ ) गये। संपूर्ण कलाओं में कुशल कुमार कामदेव के समान सुन्दर रूपवान नवजवान होगया । कुशस्थल में रहने वाले धनप्रिय, धनमित्र आदि आठ व्यापारी सेठों ने अपनी धनवती लक्ष्मी आदि आठ कन्याओं का सम्बन्ध कुमारसे करना चाहा । लक्ष्मीदत्त सेठ ने उनकी प्रार्थना से प्रेरित हो अपने कुल के योग्य उन कन्याओं को जानकर बडी धूमधाम से कुमार को परणा दिया। कलाओं से चन्द्रमा के समान वह उन पतिव्रता गुणवती पत्नियों को पाकर विशेषतया सुशोभित हुआ। ... कमला कमल को छोड कर कुमार के कर कमलों में आवसी । चन्द्र अपनी क्षीणता को मिटाने कुमार के मुखमें लीन होगया । हमेशा चन्द्र के उदय से कमल संकुचित
और श्री हीन रहेगा ऐसा समझ कर श्री कुमार के नामके अग्रभाग में रहने लगी । अन्तर्निहित गुण रूप रत्नों से कुमार रोहणाचल पर्वत के समान गौरव पाया । विबुधों से सेवित ऐश्वर्य संपन्न इन्द्र के समान कुमार सब की आंखों को आनन्द देने वाला हुआ । सुमेरु के समान धीर, सागर के समान गंभीर-गुणी श्री चन्द्रकुमार सर्वत्र सत्कार पाता हुआ भी भगवान श्री जिनेश्वर देव के शासन का अनन्य अनुरागी सेवक बना रहा। नित नये कवीश्वर नित नयी कविताओं द्वारा उसकी यशोगाथा गाया करते थे। दान
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पुण्य से प्रेरित उसकी लक्ष्मी दिन-दुणी रात चौगुणी बढती जाती थी । दुर्जनों को उसकी पुण्य-लीला खटकती थी। कई बार सेठ लक्ष्मीदत्त के कान भरे जाते थे । पर सेठ सुनी अनसुनी करके कुमार के प्रति अपने स्नेह भाव को बनाये रखता था । - एक दिन अपने अभिन्न मित्र गुणचंद्र को साथ लेकर श्रीचन्द्र कुमार हवाखोरी के लिये उपवन में गये । वहां उनने तालाब के किनारे डेरे डाले हुए घोड़ों के सौदागरोंको देखा। उनके पास शोभा और चंचलता में सूर्यरथके घोडों को भी मात करने वाले अद्भुत घोडों को देखा। अपने अभिन्न मित्र को प्रेरित करते हुए कुमार ने कहा प्रिय मित्र ! इन व्यापारियों से इन घोडों का मूल्य तो पूछो । गुणचंद्रने मित्र के कथनानुसार घोडों का मूल्य पूछा तब एक वृद्ध व्यापारी ने कहा आज तक हमने बहुत घोड़े बेचे हैं, लेकिन ये सोलह घोडे बहुत ही उत्तम जातीके और बेशकीमती हैं।
इस बात को सुनकर कुमार घूम घूम कर एक एक घोड़े को देखने लगा। मित्र के पूछने पर उसने उन घोडों को जाती और गुणों का वर्णन बड़े पाण्डित्य-पूर्ण-ढंग से किया। वह कहने लगा, मित्र ! मुख चरणों में सफेद रंगवाला यह अष्ट-मंगल-जाती का अश्व है। लालवर्ण का
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( १०७ )
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किराह और श्याम रंग का खुगाह जाती का है। घी की कांति के समान सुन्दर यह सराह जाती का, और यह कबरे रंगवाला हलाह जाती का घोडा है । यह सब घोडों में श्र ेष्ठ उराह जाती का अश्व है । हल्के पीले रंग का और काले घुटनों वाला यह बडा ही वेगवान कुलाह जाती का है । कुछ लाल कुछ पीला काले घुटनोंवाला यह रोकहै । यह हो, और यह हरिक जाती का घोडा है । ये दोनों पंचभद्री जाती के अश्व हैं । ये सबसे अधिक वेगबान हैं । इनके हृदय मुंह और बाजुओं में भँवर पडते हैं । ये दोनों सुंदर लक्षणों से संपन्न हैं । दीखने में पतले दुबले दीखनेवाले ये घोड़े लाख लाख देने पर भी मिलने मुश्किल हैं।
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इतने में वहां कई राजकुमार और राजवर्गी लोग आते हैं, और अपनी २ पसंद के कोई पचास, कोई सित्तर, और कोई पिचहत्तर हजार रुपया दे देकर घोडे ले जाते हैं । श्रीचंद्रकुमार भी वायुवेग और महावेग नाम के पंचभद्रजाती के पतले दुबले दीखने वाले दो घोडों को दो लाख रुपये देकर खरीद लाया ।
दुर्जनों की बन आई, उन्होंने लक्ष्मीदत्त सेठ के कान भर दिये कि सेठ ! देखो तो आपके घर की लक्ष्मी किस कदर कचरापट्टी के घोड़ों की खरीद में बहाई जा रही है ।
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( १०८ ) आपके धनघेले बेटे को कुछ होश हवास नहीं है। अगर ठीक प्रबंध न किया तो आपको भीख मांगनी पडेगी। दूसरे लोगों ने जहां मोटे ताजे तगडे घोड़ों की कीमत थोडी दी है वहां आपके इस कुमार ने पतले दुबले घटिया दर्जे के घोड़ों की कीमत लाख लाख रुपया देकर चुकाई । उसमें भी तुर्रा यह कि आप को पूछा तक नहीं। अरे बाबा ! आपको वह कुमार तिनके के बराबर भी कब मानता है ? हम तो आपके हित के लिये कहते हैं कि सावधान हो जाओ । नहीं तो बुढापे में तकलीफ उठानी पडेगी। वह बेटा किस काम का जो बाप की आज्ञा न माने । इस कार्य के लिये उसे उचित शिक्षा जरूर दीजिये तभी ठीक होगा।
यह सब सुनकर सेठने उन लोगों को डांटते हुए कहा-अधिक बकवाद मत करो। यह जो कुछ ऋद्धि सिद्धि है वह इसी के पुण्यों का प्रताप है। वह चाहे जितना धन खर्च करे, कर सकता है। उस भाग्यशाली के धन की कमी कमी न होगी। सेठ की इन बातों से वे विघ्न-संतोषी चलते बने, और कहते गये सेठजी ! हमने तो आपके भले के लिये ये बातें बताई थी न मानो आपकी मरजी है।
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इधर कुमार घोडों को लेकर आता है, और सेठ से निवेदन करता है, कि पिताजी ! दो लाख में ये दो घोडे लाया हैं। 'बहुत अच्छा किया' इस प्रकार कहते हुए सेठने उसे स्नेहामृत से सिंचन किया। बाद में पिता की आज्ञा लेकर गारुडी मणियों से जडा हुआ सुवेग नाम का एक सुन्दर रथ तैयार करवाया । उसके लिये कुल क्रमागत रथ हांकने की विद्या में निपुण धनंजय नाम के सारथी को नियुक्त किया। ____एक दिन सुमुहूर्त में उन दोनों घोड़ों को रथ में जोत कर उनकी चाल ढाल और स्वभाव की परीक्षा के लिये कुमार अपने मित्र के साथ किसी एक दिशा को लक्ष्य करके बड़े वेग से चला । घोड़े इतने वेग से दौड़े कि रथ में बैठे तीनों को पेड़, पहाड़, नदी, नाले सब दिखाई दिये। प्रत्येक वस्तु आंखों के सामने आने के साथ ही उसी क्षण में प्रांखों से ओझल हो जाती थी। इस प्रकार आधे प्रहर में कोई पनरह योजन-साठ कोस तक चले गये । वहां विश्राम कर वापस उसी वेग से लौट आये।
इस प्रकार श्रीचन्द्रकुमार हमेशा अपने मित्र के साथ रथ में बैठ अपनी इच्छानुसार नये २ पहाडों वनों और प्रदेशों आदि को देखता हुमा अपना. मनोरंजन करने
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। ११० ) लमा । दूर २ चले जाने पर देरी से आये हुए कुमार को सेठ ने एक दो वार बड़े प्यारभरे शब्दों में कहा बेटा ! तुम्हारे दूर चले जाने से देरी से आने से तुम्हारे विरह में हमारा मन जल बिना मछली के जैसे तडफता है । बड़े विनीत भावसे कुमार हाथ जोडकर अपने पिता से कहता है पूज्य पितानी ! क्या बताऊं रथ में बैठे बाद स्वतन्त्रता के साथ घूमने में जो आनन्द आता है उसको छोडने में मेरा मन भी बहुत दुःख पाता है। पर अब मैं जल्दी आनेकी चेष्टा करूगा।
पुत्र के विनीत वचनों को सुनकर सेठ गदगद होता हुआ कहता है बेटा ! यदि ऐसा है तो जिस प्रकार तुम प्रसन्न हो वैसा ही करो । मैं तो तुम्हारे दुःख में दुःखी
और तुम्हारे सुख में सुखी हूँ। मेरी ओर से तुम्हारी क्रीडाओं में आज से कोई बाधा न होगी।
पिता को आज्ञा को पाकर कुमार बहुत प्रसन्न हो गया। एक रोज वह त्रिकूट पर्वत की शोभा देखने गया। वहां पद्मासन लगाये हुए किसी भैरव नाम के योगी को ध्यान करते हुए देखा । कुमार ने योगी को नमस्कार किया। उसके गुणों से और लक्षणों से प्रसन्न होकर योगी ने उसे कहा बेटा ! तुम अभी छोटे हो इस डरावने जंगल में अकेले कैसे आये हो ?। . .
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कुमार ने कहा योगिराज ! मैं मनोरंजन के लिये घर से निकलता हूं। आप जैसे महात्माओं की दया से मुझे कहीं कोई भय नहीं होता है।
· योगी ने कुमार की वीरवाणी को सुनकर कहा कि भाग्यशाली मुझे कोई मंत्र सिद्ध करना है, अाज अर्धरात्री के समय तुम मेरे उत्तर साधक बन सकोगे क्या ? कुमार ने बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार कर लिया । योगी ने अपनी साधना कुमार के उत्तर साधकत्व में की मंत्र जापाहुति आदि से वह सफल मनोरथ होगया । उसने मधुर स्वर में कहा कुमार ! मैं तुम्हारे साहस से सन्तुष्ट हुआ क्षुद्र प्राणियों को अन्धा बनानेवाली यह दिव्य जडी देता हूँ। तुम इसे ग्रहण करो । एक बात और कहता हूं, आगे से तुम कभी किसी योगी का विश्वास मत करना।
श्रीचन्द्रकुमार ने कहा महात्मन् ! आपकी बड़ी कृपा है जो हित शिक्षा के साथ इस दिव्य जडी की बक्षिस मुझे दी । विधि पूर्वक जड़ी को लेकर योगी को नमस्कार कर और आज्ञा पाकर कुमार अपने घर को लौट आया।
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इस प्रकार वह कुमार अपने मित्र के साथ रथ के योग से नये २ स्थानों की यात्रा, महारंमाओं के दर्शन सिद्ध पुरुषों से सिद्धियां अपूर्व जडी बुटी मणि मन्त्र औषधियाँ प्राप्त करता जाता था। इस तरह बड़े श्रानन्द और सुख से निश्चिन्त समय बिताने लगा।
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वसंत का समय था । आम के वृक्षों पर मंजरियाँ फूट रही थी। उनकी महक चारों ओर फैल रही थी । लाल आँखों वाली काली कोयलें कषाय कण्ठों से पंचमस्वर में कुहू कुहू कर रही थी । सारे वन और उपवन ऋतुराज का स्वागत करने के लिये मस्ती में झूमते हुए हरे भरे इठलाते खडे थे । मकरंद के लोभी भौंरे पुष्पों की प्याली में रखे हुए रस को बार बार पीकर उन पर मंडरा रहे थे ।
श्रीचन्द्र कुमार अपने मित्र के साथ झूला झूल रहा था । मलयाचलकी शीतल मंद और सुगन्धित पवन उनके ललाट से पसीने की बूंदों को पोंछकर उनके वस्त्रों और बालों को हिला रही थी । दोनों दोस्त बडी प्रसन्नतासे सामने के बड़े झरोखे की राह से एक टक वसंत की
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( ११४ ) शोमा को निहारते थे। इतने में श्रीचन्द्र के मुंहसे ये भाव निकलने लगे।
कूलनमें केलिमें कछारनमें कुंजनमें क्यारिनमें कलिन कलीन किलकत है। कहे 'पद्माकर' परागनमें पान हू में पानन में पीक में पलाशन पगंत है । द्वार में दिशान में दुनी में देश देशन में देखो दीप दीफन में दीपत दिगंत है। वीथिन में ब्रजमें नवेलिन में वेलिन में वनन में बागन में बगरो बसन्त है।
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.इन भावों को सुन कर गुण चन्द्र भी अपने को रोक न सका, और बोल उठा
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्म, स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः । सुस्वाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः, सर्वे सखे ! चारुतरं वसन्ते ।।
मित्र! क्या बताऊं ? विकसित फूलों वाले पेड़, कमलों से परिपूर्ण जलाशय सकामा स्त्रियें, सुरभित पवन, सुखकारक सायंकाल, और रमणीय दिन अधिक क्या वसंत में सभी सुन्दर हो जाते हैं।
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( ११५ )
इस प्रकार उनमें परस्पर विनोद वार्तालाप हो रहा या कि अचानक उनके कानों में बाजों को आवाज सुनाई दी । चतुरंगिणी सेना मंत्रियों और सामंतों के साथ जय आदि राजकुमारों को नगर से बाहर जाते देखा । श्रीचन्द्रगुणचन्द्र से से पूछा कि मित्र ! कहो यह किस बात का जलूस है ? गुणचन्द्र को इस बात का पहिले से पता था अतः उसने मित्र के प्रश्नका उत्तर विस्तार पूर्वक देना प्रारंभ किया । वह बोला
ने
मित्र ! यहां से दक्षिण की ओर तिलकपुर नाम का एक नगर है। वहां तिलकसेन नाम का राजा राज्य करता है। उसके सुतिलका नाम की पटराणी है । उस महारानी के तिलकमंजरी नाम की कन्या है जो स्त्रियों की चौसठकलाओं में प्रवीण हैं । इस समय वह पूर्ण तरुण अवस्थामें होने से पाणिग्रहण के योग्य हो गई है। एक समय राज सभा में अपनी प्रतिज्ञा प्रकाशित की थी कि जो कोई वीर राधा - वेध करने में समर्थ होगा वही मेरा स्वामी होगा ।
राजा तिलकसेन ने उसे विवाह योग्य समझ कर स्वयंवर का शुभ मुहूर्त्त निश्चय कर लिया है। राधावेव के आचार्य की देख रेख में शास्त्र की विधि से राधावेध
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आदि को सारी सामग्री जुटाली है। देश देशान्तरों के राजाओं के पास निमंत्रण-पत्र भेजे गये हैं। अतः उस स्वयंवर में सम्मिलित होने वाले सभी राजा लोग अपने राज्यों से चल कर निश्चित तिथि पर वहां पहुँच जायेंगे। आजसे सत्रह दिन बाद राधावेध का मुहूचे है । विलकपुर यहां से लगभग अस्सी योजन दूर है । ये जयकुमार आदि वहीं पहूँचने को जा रहे हैं।
इस प्रकार दोनों मित्रों को स्वयंवर सम्बन्धी बातचीत करते हुए अचानक आये हुए सेठ लक्ष्मीदत्त ने सुना। गुणचन्द्र को अलग बुलाकर कहा कि पुत्र ! तिलकपुर में राधावेध आदि होने वाले हैं। अगर श्रीचन्द्र जाना चाहे तो पूछो।
मित्रने पिता की इच्छा पुत्र के सामने प्रकट कर दी लेकिन कुमार ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया। सोलहवें दिन की संध्या को कुमार ने सारथि को रथ जोतने को
आज्ञा दी । अपने मित्र को साथ लेकर पिता को विना पूछे ही वह वायुवेग से तिलकपुर की ओर चला गया। मार्ग में आने वाले पहाड़ जंगल नदी नाले आदि सब को पार करता हुआ सुबह होते २ तिलकपुर के उद्यान में जा पहूँचा। सारथि को रथ सौंप कर, अपने मित्र को साथ ले वह
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(११७) धावेध मंडप की और चला । चारों ओर लोगों के झुड के मुड खडे राधावेध की साधना के सम्बन्ध में तरह २ की बातें कर रहे थे । स्थान २ पर आश्चर्यकारी दृश्यों को देखता हुआ वह समित्र स्वयंवर मण्डप में प्रविष्ट हुआ।
योग्य सिंहासनों पर देवताओं की शोभा को हरने वाले राजा लोग बिराजमान थे । बीचमें राधावेध स्तम्भ खडा था। उस पर शास्त्र सम्मत उल्टे सीधे आठ २ चक्र चक्कर काटते थे। उनके बीच में एक मछली लगी हुई थी जिसकी बांयी आंख का तारा राधा कही जाती है। खंभ के पास ही तेल से भरा कडाह रखा था। उसमें घुमते चक्रों के बीच रही राधा का प्रतिबिंब पड रहा था । उस खम्भे के पास धनुष बाण रखे हुए थे । कडाह में नीचे परछाँई को देखता हुआ उल्टे सीधं चक्रों के बीच की राधा को बाणसे वींधने वाला वीर राधावेध को सिद्ध करनेवाला माना जाता है। श्रीचन्द्र कुमार ने अपने मित्र को ये सारी बातें समझा कर उचित स्थान पर बैठ गया।
इतने में वहां बाजे बजने लगे । चलो, हटो की अवाजें आने लगी। सब एक तरफ हो गये । सुन्दर वैवाहिक वेश पहिने परिवार के साथ राजकन्या पालकी में बैठ कर सभा मण्डप में आई । पालकी से अभ्रान्त भाव
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( ११८ ) से उतर कर हाथों में वरमाला लिये वह खम्मेकी जिमणी तरफ आकर खड़ी हो गई। हजारों आंखें एक साथ उस पर आकृष्ट हो गई। उसके सौन्दर्यामृत पान में राजा लोग इतने लीन हो गये जो उन के मन शरीर से बाहर हो गये । सिंहासन पर केवल शरीर मात्र ही रह गये ।
श्रीचन्द्र ने मित्र से कहा मित्र! अलौकिक सौंदर्यमयी इस राज-बाला का कहां तक वर्णन करें यह तो
अनाघ्रातं पुष्पं किसलय मलूनं कररुहै: अनाविद्ध रत्नं मधुनव मनास्वादितरसम् । अखण्ड पुण्यानां फल मिवच तद्रप मनघ,
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः।। बिना सूघा हुआ फूल है। नखों से अछूता यह कोमल पान है । अणवींध रत्न है। विना चखा हुआ यह नवीन पुष्प रस है । इसका निष्पाप रूप, पुण्यों का मानों अखण्ड फल ही है । न मालूम विधाता किसको इस का भोक्ता नियत करेगा ? मित्रने जवाब दिया अभी सब कुछ सामने ही पाया जाता है। । स्वयंवर मण्डप में श्रीषेण हरिषेण आदि बहुत से राजा और राजकुमार आये हुए थे। तिलकसेन की आज्ञासे वहां के भने उन सूर्यवंशी चन्द्रवंशी राजाओं के नाम
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( ११६ ) पिता वंश जाति देश और पुरादि कों का परिचय कराया। अपनी ओजस्विनी वाणी से उन सब को राधावेध के कार्य में प्रोत्साहित किया । भट्टवाणी से प्रोत्साहित राजा लोग क्रमशः राधावेध के खम्भे के पास आते और उस विधि को न जानने के कारण हंसी के पात्र बन कर चले जाते ।
__ जय आदि राजकुमार भी अपनी अपनी बारी से वहां आये परन्तु लक्ष्य भ्रष्ट रहने के कारण लजित और निराश होकर मुह नीचा किये वहां से हट गये । नरवर्मा राजा ने एक चक्र को तो वींध दिया, पर बाण टूट जाने के कारण वह भी शर्मीन्दा होगया । शेष बचे कामपाल वामांग शुभगांग का पुत्र श्रीमल्ल वरचन्द्र और दीपचंद्र के पुत्र आदि जो प्रवीण और विचारवान थे वे लोग तो पहेले से ही इस कार्य की गुरुता को सोच कर अपने स्थानों पर ही बैठे रहे । ___ जब यह दुष्कर कार्य किसी से पूरा न हुआ तो राजा तिलक सेन उसकी कन्या उसका परिवार और अध्यापक
आदि सभी बड़े चिंतित हुए। तब भट्ट ने फिर जोशीली भाषा में कहना शुरु किया-"उपस्थित लोगों में क्या कोई वोर नहीं है, जो प्रण को पूरा करके सबको चिंता मुक्त
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( १२० ) करे ? क्या पृथ्वी निर्वीरा हो गई है ? क्या राजकन्याको आजन्म क्वाँरी रहना पड़ेगा ? ठीक है पृथ्वी वीरों से खाली हो गई है। अब भविष्य में ऐसे कठोर प्रण करने का किसी को साहस नहीं करना चाहिये।
भट्ट की उस तर्जना भरी वाणी से श्रीचन्द्रकुमार की वीरता जाग उठी । मित्र की प्रेरणा ने उस उठती आगमें घृत की आहुति का काम किया ! वह शीघ्र ही उठ खडा हुआ। खंभे के सन्मुख जा पहूँचा और धनुष टंकार करके धनुष पर बाण को चढा लिया । शास्त्रोक्त विधि से उसने बाण चला कर सबके देखते लक्ष्य-भूत-राधाको वींध दिया । चारों और जयर ध्वनि से आकाश गुज उठा। प्रसन्नता से कन्या का परिवार बाँसों उछलने लगा। पुरवासी आनन्दातिरेक से "जय चिरंजीव" कह कर फूल बरसाने लगे। राज कन्या का मुख उज्जवल हो उठा । उसकी चिंता मिट गई । बडी उत्सुकता से आगे बढकर उसने कुमार श्रीचन्द्र के गले में वर माला पहिना दी।
..यह कौन है ? किसका पुत्र है ? इस प्रकार कहते हुए और उसके भाग्य-विद्या-बल-बुद्धि ओर मन्त्र विधि की प्रशंसा करते हुए राजादि सभी लोग वहां आ उपस्थित
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( १३१) हुए, और वहाँ बडीमारी भीड़ भोर कोलाहल मच गया। भीड़ में अवसर पाकर श्री चन्द्रकुमार अपने मित्र का हाथ पकड कर अपने रथ के पास आ पहुंचा। मित्रने उसे बहुत समझाया कि मित्र ! यहां ठहरो और विवाह करके राजपरिवार और माता पिता को आनन्दित करो।
मित्र को उत्तर देते हुए श्रीचन्द्रकुमार ने कहा-"हे सखे ! तुम्हें इस बात का तो पता ही है कि हम पिताजी को सूचित किये विना ही चुपचाप यहां आये हैं । अतः अब देर मत करो शीघ्र रथ में बैठो"। इतना कह उसने मित्र के रथ में बैठ जाने पर घोड़ों की लगाम ढीली कर दी। घोड़े हवा से बातें करने लगे। . ___ इधर बन्दी जनों ने श्रोष्ठी-पुत्र श्रीचन्द्रकुमार को पहचान लिया, और सबके सामने उसके दिव्य चरित को प्रकट कर दिया कि यह–'कुशस्थलपुर निवासी सेठ लक्ष्मीदत्त का श्रीचन्द्र नाम का कुमार है । इसके आठ पत्नियां हैं । सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री गुणधर गुरु के पास सारी विद्यायें पढी हैं और सारी कलाओं का अभ्यास किया है । इसके पास सुवेग नाम का रथ है जिसमें पवनवेग और महावेग नाम के घोड़े जोते. जाते हैं। वह महाराज प्रतापसिंह द्वारा प्रदान किये गये कणकोहपुर का अधिपति है।
दी। घोड़े होने
के दिव्य चार
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( १.२२ )
यह सुनकर राजा तिलकसेन ने अपने अपने सिपाहियों को कुमार को खोज लाने की आज्ञा दी । राजाकी आज्ञा को पाकर कई घोड़ों पर और कई रथों पर सवार होकर उसके पीछे दौड़े परन्तु वह उनके हाथ नहीं आया । वहां उपस्थित राजा लोग उसके दुष्कर कार्य की और त्याग की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे ।
·
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: भेजे हुए सिपाही खाली हाथ लौट आये । राजा बड़ा दुःखी हुआ। वह राजकुमारी तिलक मंजरी बेहोश होगई । होश में थाने पर वह इस प्रकार विलाप करने ली ।
हा प्राणनाथ ! आप मुझ अभागिनी को विना वरण किये ही क्यों चले गये । अगर विवाह की इच्छा न थी तो राधावेध जैसे दुष्कर कार्य को करने का साहस ही क्यों किया ? | स्वामिन ! इस प्रकार रोती बिलखती मुझ अविवाहित अवस्था में ही छोड़ कर चले जाना आप जैसे प्रणपूरकों का धर्म और कर्त्तव्य नहीं है । देव ! आपने मुझे किस अपराध पर यह दण्ड दिया है ? | वायु faar से भी अधिक तेज उस रथ से मेरी दृष्टि से श्रीमल होंगये हो पर मेरे हृदय से आप कभी दूर नहीं हो सकते हे स्वामिन ! जलहीन मछली के समान तड
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( १२३. ) फती हुई मुझे दर्शन रूप जल से जीवन प्रदान करने की, कृपा करिये।
- इस प्रकार पत्थरों को भी पिघला देने वाले क्लिाम करती हुई राजकन्या को उसके पिता और जयकुमार आदि लोगों ने समझा बुझा कर शान्त किया। . . जयकुमार ने सबके सामने कहना शुरु किया ओह !. वह तो · हमारे नगर का रहने वाला, सेठ लक्ष्मीदत्त का. कुमार, हमारे पिता का स्नेहपात्र, कणकोट्टपुर का जागीरदार है। उसके लिये अधिक दुःखी मत होओ । यदि राजकुमारी मेरे साथ चले तो हमारे नगर में वह अष्टिकुमार आसानी से मिल सकता है। मैं भी राजकुमारी को बडी प्रसन्नता से ले जा सकता है। इसमें अफसोस करने जैसी कोई बात नहीं है आप सब लोग शान्ति रखें। जयकुमार की इस प्रकार आश्वासन मरी बातों से रोमा और राजकन्या बड़े ही सन्तुष्ट हुए मानो प्यासे को शीतल जल मिल गया हो। - स्वयंवर में आये हुए राजाओं को राजकुमारों को हाथी घोड़े और वस्त्राभूषणों से उचित सत्कार करके उनकों अपने २ नगरों की तरफ विदा किये । तिलकमंजरी भी बड़ी सजधज के साथ तैयार हुई. । ,त्यों हो मंत्री ने राजा
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(१२४) से प्रार्थना की कि राजन् ! जयकुमार के डेरे से गुप्तचरों द्वारा जो समाचार जानने को मिले हैं मालूम होता है दाल में कुछ काला है। विना सोचे समझे जय के साथ राजकुमारी को भेजेंना, खतरे से खाली नहीं।
.. मंत्री के इस प्रकार चेतावनी भरे वचन सुनकर राजा तिलकसेन ने राजकुमारी तिलकमंजरी को भेजने का विचार स्थगित कर दिया और अपने धीर नाम के मंत्री को श्रीचन्द्रकुमार को लाने के लिये भेज दिया। ... इधर श्रीचन्द्रकुमार मित्र के साथ जल्दी से अपने नगर में पहुँच गया। सेठ लक्ष्मीदत्त उसकी राह में अपनी आंखे विछाये बैठा था । दज के चन्द्रमा के जैसे कुमार को घर पर आया देख सेठ ने उसे बड़े प्रेम से स्नेहालिंगन किया। पिता के देरी से आने का कारण पूछने पर इधर 'उधर के कोई खेल का बहाना बताकर उत्तर को टाल दिया। - कुछ दिनों बाद जयकुमार आदि स्वयंवर से लौट माये । राधावेधे श्रादि की साधना का सारा वृत्तान्त अपने महाराजा को विस्तार पूर्वक कह सुनाया । सुनकर महाराजा ने प्रसन्नता के साथ कहा कि आज मुझे श्रीचंद्रके सफल होने पर उतनी हो खुशी हुई है जितनी की
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तुम्हारी सफलता, पर होती । आज इसने अपने यश के साथ मेरे नाम को भी देश देशान्तरों में सुप्रसिद्ध कर दिया है । इसने इन सब विद्याओं को कब किस श्रेष्ठ
आचाये से सीखी हैं । छोटी अवस्था वाले इस श्रीचन्द्रकुमार का पौरुष प्रशंसनीय है। __मंत्रिराज श्रीमतिराज ने विनय के साथ महाराज से अर्जे की कि-महाराज ! श्री गुणंधरोपाध्याय ने इस कुमार को कलायें सिखाई हैं । यह मेरे भतीजे का दोस्त है। इसका चरित्र सदा एक आश्चर्य रूप में देख रहा हूँ। यह कब तो स्वयंवर में गया और कब वहां से लौट आया ? कुछ पता नहीं । महाराज ने आश्चर्य करते हुए यह सब जानने के लिये उन पिता पुत्र को आदर के साथ बुलाने का आदेश दिया। ___ इधर राधावेध की अद्भुत बात सुनकर सेठ लक्ष्मीदल ने प्यार भरे शब्दों में श्रीचन्द्र से कहा- "बेटा बारह प्रहर में तिलकपुर तक जाकर कैसे लौट आये हो" ज्यों ही कुमार अपनी यात्रा के वृत्तान्त को सुनाने लगा उसकी माता सेठानी लक्ष्मीवती भी सुनने की इच्छा से वहां आगई । कुमार कहने लगा-"पिताजी ! आपकी कृपा से, गुरुदेव के आशीर्वाद से, और पूर्व पुण्यों के प्रभाव से ही मैं ऐसा करने में समर्थ हो सका हूँ। दूसरी
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(१२६ ) बात यह है कि मेरे पास जो घोड़े हैं वे बैग में वायु का भी तिरस्कार करने वाले हैं। वैसा ही सुन्दर सुदृढ उनके उपयुक्त रथ है जिसमें बैठकर मैं चार प्रहर में सौ योजन जा सकता हूँ।
, उसके वचन सुन प्रसन्न चित्र माता-पिता ने कहा "ओ हमारे वीर बेटे ! तूने राधावेध करके राजकन्या के साथ विवाह कर हमें पूज्य क्यों नहीं बनाया ? । बीच में ही उचर देते हुए मित्र गुणचन्द्र ने वरमाला आदि के वृत्तान्त को विस्तार पूर्वक कह कर उन्हें और भी अधिक प्रसन्न किया । आपकी आज्ञा के विना यह काम संपन्न न हो सका। आज या कल में राजकुमारी या तिलक नरेश का कोई मंत्री आने ही वाला है। . .मित्र की बातों को सुन खुश हुए माता-पिता कहते हैं-हमारा यह सौभाग्य है जो ऐसा धीर वीर उदार गुणी पुत्र मिला । राजकन्या जैसे अमूल्य रत्न को विना ब्याहे
आजाना क्या कुछ कम निस्पृहता है ? इस प्रकार पुत्र * की प्रशंसा करते हुए घर में भारी महोत्सव करके लोगों में बधाइयाँ बांटी।
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. . सज्जन साधु पुरुषों के सत्संग में, देश विदेश की लोकोत्तर घटनाओं के दर्शन में, परोपकार करने में, और निष्पाप मनोविनोद की साधना में उत्तम पुरुषों का समय सदा बीतता रहता है।
चरित नायक श्री चन्द्रकुमार अपने अभिन्न मित्र श्री गुणचन्द्रकुमार के साथ हमेशा की तरह रथ में बैठ कर क्रीडा के लिये पूर्व की ओर एक दिन सायंकाल के समय निकल पड़ा। उनके माता पिता अपने योग्य पुत्र के इस प्रकार के हमेशा के कार्य क्रम को जानते थे अतः चिंतासे मुक्त रहा करते थे।
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( १२८ ) कुमार घर पर नहीं था उस समय महाराजा प्रतापसिंह के मंत्री ने आकर सेठ से संदेश सुनाया कि आपके चिरंजीवो को बड़े आदर के साथ बुलाया है । सेठ ने बडी प्रसन्नता से कहा कि कुमार तो क्रीडार्थ गया हुआ है, चलिये मैं ही महाराज की आज्ञा का पालन करता हूं। छत्र चामर आदि राजकीय लवाजमे से सन्मानित हुए सेठ मंत्रियों के साथ राज--महल में पहुंचे । महाराज ने उनका अनुपम स्वागत करके पूछा सेठ ! कहियें आपके कुमार ने किस साधन से ऐसे अद्भुत कार्य किये ?
सेठने बडे विनय से उत्तर दिया महाराज ! मेरे बेटेके पास न तो कोई यंत्र और न कोई मंत्र न कोई जादुटोना है और न कोई देव की साधना ही। वह तो गुणंघर गुरु के पास सब विद्याओं में पारंगत हो बड़े धीर वीर और साहसी कामों को करता है। उसके पास पवन वेग महावेग नाम के घोड़ों वाला सुवेग नाम का दिव्य रथ है । इसी पर बैठकर वह असंभव कर्यों को संभव कर देता है । मुझे भी इसकी इस अद्भुत लीला का पता थोडे ही दिन हुए लगा है । एसा कहते हुए सेठने तिलकपुर की राधावेध की घटना विस्तार के साथ बडे रोचक ढंग से कह सुनाई और कहा कि देव ! आज भी वह अपने मित्र के साथ वैसी ही कोई क्रीडा के लिये रथ में बैठ कर गया है।
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इसीसे आपकी सेवा में वह न सका और समे उपस्थित होना पड़ा है। ___यह सुन महाराजाने कहा सेठ ! तुम्हारा पुत्र बड़ा
भाग्य शाली और लोकोत्तर चरित वाला है । जब वह क्रीडा से वापस लौटे तब मुझसे ज़रूर मिलाना । मैं उसे अपने पुत्रों से भी बढकर महत्तम पद प्रदान करना चाहता हूँ। ऐसा कह कर सेठ द्वारा की हुई भेठ को स्वीकारते हुए महाराज ने सेठ को कुमार के लिये वस्त्रालंकार
और जागीर प्रदान की । इस प्रकार महाराजा से सन्मानित हो सेठ जगह २ कुमार के गुणग्राम को सुनता हुआ और याचकों को दान देता हुआ घर लौट आया।
इधर कुमार को रथ में धूमते २ जंगल में आधी रात का समय हो गया। उसे निद्राने आ घेरा । सारथि को - रथ खोलने की आज्ञा दी। रथ एक सघन वृक्ष के नीचे
खोल दिया गया। मित्रने शय्या तैयार कर दी । कुमार .. सो गया। मित्र जगता हुआ पहरा देने लगा। उसी वृक्ष की
डाली पर बैठे एक शुक युगल ने कुमार के तेजस्वी चेहरे को देख आपस में बातें करना शरु किया । शुकीने कहा
हे प्यारे ! इस राज कुमार को दो बीजोरे के फल देकर ... अतिथि सत्कार करके हमें अपना जीवन सफल बनाना । चाहिये । बड़े फल के खाने से राज्य प्राप्ति और लोडे के
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( १३० ) खाने से मंत्रीपद को प्राप्ति होती है। ऐसा कह उस शुक युगल ने उडकर कहीं से दो बीजोरे के फल वहां लाकर कुमार के सामने रख दिये और उडकर कहीं अन्यत्र चला गया । गुणचन्द्र ने उठाकर उन फलों को अपने पास रखलिया।
राजकुमार के जगने पर-मतिमान् गुणचन्द्र ने उन दोनों फलों को उसके सामने रखकर बडी प्रसन्नता से शुकयुगल का वृत्तान्त कह सुनाया । कुमार ने कुशल मनाते हुए उन फलों को सुरक्षित रखने का कह सारथि से रथ जुडवा कर मुसाफरी शुरु की । चलते २ वे एक बड़े तालाब के किनारे पहुंचे । प्रातःकाल होगया था। सबने वहां रुक कर प्रातःकालीन कृत्य किये । यहीं पर मित्र द्वारा दिये राजयोग कारक पहले बीजोरा फल को कुमार ने खाया। मंत्री पद कारक दूसरे बीजोरा फल को गुणचन्द्र और सारथि-दोनों मित्रों में बांट दिया । .
• भोजन कार्य से निपट कर कुमार मित्र के साथ उस "सुन्दर वन को देखने के लिये इधर उधर घूमते२ वहां शान्त स्वरूप दयालु जितेन्द्रिय और संयम साधना में रमण करनेवाले श्रीसुव्रत नाम के एक मुनीश्वर को देखा। . साधुओं का दर्शन पुण्यकारी होता है । साधु जंगमचलते फिरते तीर्थ रूप होते हैं। दूसरे तीर्थ तो समय पर
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( १३१ )
फल देते हैं। पर साधुओं का सत्संग तत्काल फल देने वाला होता है । इसीलिये कहा है
साधूनां दर्शनं पुण्यं - तीर्थ-भूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन – सद्यः साधु-समागमः ॥
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कुमार साधु दर्शन से आत्मा को कृतार्थ मानता हुआ बड़े विनय से उन साधु महाराज को नमस्कार करके अपने उचित स्थान पर बैठ गया । उन मुनिराज ने भी धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देकर उन्हें अधिकारी समझ समयोचित धर्मोपदेश दिया |
भव्यात्माओं । मानव जीवन बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है। उसमें भी आर्यदेश और श्रावककुल में जन्म पाना और भी कठिन होता है । उसके पा लेने पर भी आरोग्यमय दीर्घ आयुष्य, सद्गुरु का समागम, शास्त्र - श्रवण, ताश्विक बातों की श्रद्धा और सदाचार में शक्ति को लगाना किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है।
महानुभावों ! अप्राप्य सामग्री को पाकर के भी प्रमादी मानव धर्माचरण से वंचित रह जाता है । इसलिये प्रमाद को छोडकर दान शील तप और भाव रूप धर्म में पुरुषार्थ को लगाना चाहिये । धर्माराधन से ही प्राणी
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अनन्त संसार सागर को पार कर जाता है। अनादिकाल से आत्मा मोह से बेहोश रहता पाया है । उसे होश में लाकर व्रत साधना से जीवन को ऊंचा उठाना चाहिये।
सर्वथा हिंसा-झूठ-चोरी-विषयसंग औ त्याग से पंच महाव्रतों को धारण करने वाला व्यक्ति साधु होता है । जो साधु-जीवन नहीं बीता सकते, उन्हें गृहस्थ धर्म-मर्यादित जीवन रूप सम्यक्त्व मूल बारह व्रतों को धारण करने चाहिये। ___हे कुमार ! तुम्हारे शरीर में छत्राकार तीन रेखायें हैं । इससे पता चलता है कि तुम छत्रधारी पिता के पुत्र
और छत्रधारी नाना के दोहिते कोई छत्रधारी राजा होने योग्य लक्षणों वाले दीखते हो । इस हालत में अगर अधिक साधना तुमसे न होसके तो भी समय पर सामायिक व्रत की साधना और अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय
और साधु रूप पंच परमेष्ठी नमस्कार मन्त्र का नित्य स्मरण तुम्हें अवश्य करना चाहिये । शास्त्रों में कहा है
सामाइयं कुएंतो, सम भावं सावो घडिय दुगं। आउं सुरेसु बंधइ, कम्माण य निज्जरं कुणइ ॥१॥ समो य सव्व भूण्सु, तसेसु थावरेसु य । ..
तम्हा समाइयं कुज्जा, इइ केवलि भासियं ।। २॥ ..... दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवरणस्स खंडियं एमो। . इयरो पुण समाइयं, करेइ न पहुप्पए तस्स ॥३॥ ..
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( १३३ ) अर्थात्-जो भव्यात्मा कच्ची दो घड़ि अडतालीस मिनीट तक समभाव से सामायिक करता है वह कर्मों की निर्जरा करता हुआ कम से कम वैमानिक देवता के आयुप्य का अधिकारी होता है । ॥१॥ जो त्रस और स्थावर बीवों के प्रति शत्रु मित्र भाव की विषमता न रखता हुआ समभाव रखता है। वही व्यक्ति सामायिक करने का अधिकारी होता है ॥२॥ एक आदमी हमेशा एक लाख खांडी(सोलह मण की एक सांडी) सोना दान करता है और दसरा केवल सामायिक करता है । वह सोना देने वाला सामायिक करने वाले की बराबरी नहीं कर सकता ॥३॥
जह अहिणा दठ्ठाणं, गारुडमंतो विसं पणासेइ। . तह नवकारो मंतो, पाव विसं नासेइ असेसं ॥१॥ : न य तस्स किंचि पहवइ, डाइणि देयाल रक्ख मारीयं । न कार पहावेण य, नासंति असेस दुरियाई ॥२॥ थंभइ जल जलणं चिंतियमित्तो वि पंच नमुक्कारो। अरि-मारि-चोर-राउल-घोरवसग्गं पणासेइ ॥३॥ जे के वि गया मुक्खं, गच्छंति य केइ कम्ममल मुक्का । ते सव्वे विय जाणसु, जिण नवकार पहावेण ॥४॥
अर्थात्-सांप डसे आदमियों के विष को जैसे गारुडि.मंत्र नष्ट कर देता है उसी प्रकार नवकार मंत्र मनुष्यों के पाप रूपी विष को मिटा देता है । ॥१॥ नवकार मंत्र
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( १३४ )
के जाप करने वाले का डाकिनी वेताल राक्षस और महामारी कुछ नहीं बिगाड़ सकते और सारे पाप अपने आप नष्ट हो जाते हैं ||२|| पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र के चिंतन मात्र से जल - आग - दुश्मन - प्लेगचौर - राजा यादि के किये घोर उपसर्ग मिट जाते हैं ||३|| जो कोई भव्यात्मा कर्म मल मुक्त हो मोक्ष में गये हैं जाते हैं और जायेंगे वे सभी नवकार मंत्र के प्रभाव से ही जाते हैं ।
यतः हे महानुभाव कुमार ! नवकार मंत्र का स्मरण सदा करते रहना चाहिये जिससे जीवन मंगलमय बन जाता है ।
इस प्रकार गुरुमहाराज के उपदेश को सुन कर प्रतिबोध पाये हुए उन श्री चन्द्रकुमार ने गुणचन्द्रने और सारथि ने गुरुदेव से आत्मदर्शन रूप सम्यक्त्व स्वीकार किया, और श्रावक धर्म के अधिकारी हो गये। अमृत रसास्वा दन से भी अधिक आनन्दित हुए कुमार ने हाथ जोड कर कहना शरु किया - गुरुदेव ! आप जंगम तीर्थ रूप हैं । आपके दर्शन पाकर आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ । गुरु की दया के विना बुद्धिमान पुरुष भी धर्म तत्व को जानने में समर्थ नहीं हुआ करता है । इस तरह सिद्धि - कलायें - सब प्रकार की विद्यायें और आत्म हितकारी धर्मतत्व ये सब गुरु कृपा से ही प्राप्त होते हैं । संसार के सुख और संबंधी तो मिला
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( १३५ ) ही करते हैं पर तारणहार तीर्थरूप सद् गुरु का समागम भारी भाग्य से ही मिलता है । मैं आज धन्यों से भी धन्य जीवनवाला आप के श्री चरणों के दर्शन से हो गया हूँ ।
हे भगवन् तत्व ! भरे आप के प्रवचन ने मुझे नवजीवन प्रदान किया है। हृदय की आंखें आज मेरी खुल गई हैं । मैं आज पंच परमेष्ठी महा मंत्र का जाप करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। इस प्रकार श्री गुरु महाराज की स्तुति
और वंदना करकं कुमार ने वहां से आगे के लिये प्रस्थान किया।
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१८
भुवन भास्कर दिन मणि सूर्य प्राणि मात्र को अपनी प्रखर किरणों से संतप्त कर रहा था । आकाश से आग बरस रही थी। गरम हवा के झोंके शरीर पर जलते अंगारों के सामान लगते थे । सभी पेड पौधे झुलस गये थे । गर्मी के मारे पृथ्वी तवे के समान तप रही थी । ऐसे समय में श्रीचन्द्र कुमार अपने मित्र के साथ सुवेग रथ में बैठ नदी नालों वनों उपवनों को पार करता हुआ एक गहन जंगल में जा पहुँचा था।
गर्मी की अधिकता ने कुमार को भी आधेरा था। उस का मुख मुरझा गया था, और प्यास के मारे उसका
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( १३७ )
कण्ठ सूखने लगा था। पानी का कहीं पता नहीं लगता था। मित्र बहुत दुःखी थे। वे आपस में कहने लगे, न मालूम आगे क्या होने वाला है ?" कुमार सूखे पत्ते की तरह कुम्हला गया है। केवल एक यही उपाय शेष रह गया है कि इस ऊंचे पेड पर चढ कर जल की तलास की जाय।
. सारथी झपट कर पेड पर चढ गया । उस ने इधर उधर चारों ओर नजर दौडानी शरु की । थोड़ी ही देर में दक्षिण की ओर उसे एक सरोवर दिखाई पडा । वह बडी प्रसन्नता से नीचे उतरा और गुणचन्द्र से बोला " मित्र यहां से दक्षिण की ओर बगुले और चकवे उडते नजर आते हैं। अतः अवश्य ही उधर कोई तालाव है। सारथि स्थ पर बेठ गया और बात की बात में वे तीनों वहां पहुच गये । सरोवर के किनारे पर आमों का एक सुन्दर वन था। वहीं पर एक सघन आम के पेड़ के नीचे रथ ठहराया गया। दोनों मित्र दौड़कर स्वादिष्ट और शीतल जल ले आये । कुमार ने खूब धाप कर पानी पिया । कुछ स्वस्थ होने पर सरोवर की पाल पर आया, और वहां बैठ कर वलाव की शोभा निहारने लगा । कला पूर्ण पत्थरों की सुन्दर बांधनी को देख कर वह अचरज में डूब गया।
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( १३८ ) थोडी देर बाद मित्रों के साथ तालाब के किनारे २ FIE घूमने समाएक-जमह उसमे देखाकि कोई धोबी सुन्दर और बहुमून्या प्रस्त्रों को धो धो कर धूप में शूवारहा है। कुमार की दृष्टि धूपध्में सूखती. एक बहुमूल्य और पारीक साड़ी पर साड़ी उसे देख उससे मारहा गया, और असनोमारनेमिक गुणवन्द्र से कहाँ मित्र ! इस साड़ी की
ओर देखो । गंध के वशीभूत हुए भौरे इस पर मंडरा रहे हैं । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह किसी पमिनी स्त्री की साड़ी है । जिसके पसीने की पद्मगंध से प्रेरित ये भौरे इसपर मंडरा रहे हैं। कहा भी है१. पद्मिनी पद्म-गंधा च मदगंधा च हस्तिनी।
चित्रिणीं चित्र गंधाच, मत्स्य गंधा च शंखिनी ।
अर्थात-मदिनी स्त्री के शरीर में कमल के समाम सुगंध होती है.। हस्तिनी स्त्री के शरीर में हाथी के मद् केसी 'गंध होती है। चित्रिणी के शरीर में तरह २ की गंध निकलती है, और शंखिनी स्त्री के शरीर में मछती की सी गंध होती है
कुमार की बात से नारार्या माकित हुए गुणचन्द्र ने धोनी तो मला हे माई ! इस समान का नाम क्या है ? और ये बालम वस्त्र किस के हैं ? धोबीने, उत्तर दिया "भाई!
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( १३९ ) कम विदेशी आलम देखे हो सोलिये मानो। यह दोममिका नाम को नगरी है । महाराज दीपचन्द्रदेव यहां के शासक हैं। मैं उन्हीं का नल नाम का धोबी हूँ । जिसके किनारे पर आप खडे है-यह यहाँ का सुप्रसिद्ध पद्मसरोवर नामका तालाब है। ये वस्त्र तो महारानी प्रदीपवती के है, और जो ये साड़ियां हैं, वे उनकी भतीजी और भतीजी की पुत्री की हैं।
गुणचन्द्र ने पूछा महाराज की भतीजी कौन है ? इस पर धोबीने कहा देध ! सुभगांग राजा की रानी श्री चन्द्रबतीजी महाराज दीपचन्द्रदेव की भतीजी हैं। उनके वामांगनाम का एक कुमार और शशिकला तथा चन्द्रकला नामकी दो पुत्रियां हैं । शशिकला को तो उसके पिता-राजा सुभगांगने रत्नपुर के स्वामी महामल्ल नरेश के साथ व्याह दी थी। छोटी कुमारी चन्द्रकला बडी है। रूपवती सौन्दर्य से काम प्रिया रतिका भी तिरस्कार करनेवाली परम गुणवती कन्या है।
. महाराजा दीपचन्द्र देव कुल-देवी के कथनानुसार पदमिनी चन्द्रकला को अपने यहां ले आये हैं, और यहीं ननिहाल (नानेरे ) में विवाह महोत्सा करेंगे। किसी ज्ञानी मुनि की यह भविष्यवाणी है कि-"यह पदमिनी
है
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(१४० ) चन्द्रकला किसी राज राजेश्वर की राजमहिषी-पटराणी होगी"।
पद्मिनी चन्द्रकला माता-भाई आदि के साथ इस समय यहां रह रही हैं । इनके नानाजी ने व पिताजी ने विवाह योग्य सारी तैयारियाँ कर ली हैं। केवल वरकी प्रतीक्षा में दिन बीत रहे हैं।
. धोबी के ऐसे बचन सुनकर रथको वहीं छोड कुमार अपने मित्र के साथ उस नगरी को देखने के लिये चला। तालाब के एक ओर उसने बड़े २ तम्बू गड़े देखे। पास खड़े एक व्यक्ति को उसने पूछा कि यह किसका पड़ाव है ? उस व्यक्ति ने कहा-'महानुभाव ! तिलकपुर के प्रधान मंत्री'धीर' अपने स्वामी तिलक नरेश की आज्ञा से दलबल
के साथ कुशस्थल की ओर जारहे हैं। विश्राम के लिये .यहां ठहरे हैं। इस समय मंत्रीराज यहां की राज-सभा में अपने 'वीणारव' नाम के गायक के साथ गये हुए हैं।
इस प्रकार सुनकर कुमार मित्र के साथ आगे बढे । मित्र ने कहा सखे ! लो आपके तो एक और निमंत्रण प्रा पहुँचा मालुम देता है। इस तरह वे दोनों परस्पर में बातें करते हुए मार्गमें आये हुप उद्यान को देखने के लिये अन्दर प्रविष्ट हुए । उनके देवोपम सौंदर्य से आकृष्ट
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( १४१ ) हुए उद्यान रक्षकने उनको शकुन के लिये अनुपम पके हुए
आम का फल भेंट किया कुमार ने बड़े आदर के साथ उस फलको लेते हुए, उसे यथायोग्य इनाम देकर सन्तुष्टकिया। भीतर की ओर आगे बढे । ___ कहीं आमों पर कोयल बोल रही थी, तो कहीं चम्पा 'अपनी सुनहरी आमा के साथ सुगंधी बखेर रहा था । कहीं कचनार और कदम्ब फूल रहे थे, तो कहीं गुलाब
और बकूल की बहार दर्शकों के मन को मोह रही थी। कहीं अशोक वृक्ष अपनी मस्ती में फूल रहा था, तो कहीं नीबू और लींची के पेड़ लहलहा रहे थे। जगह २ बड़ नीम अजुन सरल ताल-हिंताल-मंदार-जामुन-शहतूतआंवला-कटहल-जम्बीर नारंगियों के हरे भरे पेड खडे
हुए थे।
तरह तरह के फल-फूलों से लदे हुए पेड़ों की अनुपम छटा को देखते हुए कुमार ज्यों ही किसी निकुज के पास पहुँचे, त्यों ही उन्हें रूप-लावण्यवती लीलावती सखियों के साथ पुष्प क्रीडा करती हुई साक्षात् वनश्री के समान कोई दिव्य कन्या दिखाई दी। ___ कमल पर जिस प्रकार भौरे मंडराते हैं उसी प्रकार उसके अलौकिक शरीर पर भौरे मंडरा रहे थे। यह देख
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( १४२ ) कुमार ने यह निश्चय किया कि निस्संदेह यह पविनी है। उसे सकाम भाव से देखता हुश्रा कुमार धीरे २ मित्र के साथ उद्यान से बाहर निकल आया। ___ उधर वह राज कन्या भी धीर. ललित, गति,वाले वीर कुमार को देख कर मोहित हुई अपनी चतुरा सखी से बोली प्रिय सखि ! मेरे चित्त के सर्वस्व को चुराने वाले ये पुरुषसिंह कौन हैं ? और कहां के निवासी हैं ? । उनके साथीं को पूछ कर परिचय तो प्राप्त करो। . . आज्ञा पाते ही चतुरा गुणचन्द्र के पास जा पहुंची और बड़ी नम्रता से बोली-हे. आर्य ! मैं चन्द्रकला नाम: की राजकन्या की चतुरा नाम की दासी हूं.। कुमारी ने यहां आप लोगों के दर्शन किये हैं। स्निग्ध भाव से मेरे द्वारा स्वागत करती हुई वे कुमार के नाम और निवास स्थान को जानना चाहती हैं। अतः आप बताने की कृपा करें। और अपना परिचय दें। चतुरा के पूछने पर ज्यों ही मित्र गुणचन्द्र ने प्रसन्न होकर कुमार का कुछ परिचय दिया, त्यों ही कुमारने उसे बलपूर्वक रोक कर नगरी की ओर आगे बढना जारी रखा। नगरी की विशाल सड़कें, कोट कांगरों की कारीगरी सजी हुई सुन्दर दुकानों की श्राणियां, आकाश से बात करनेवाले उंके
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.. ( १४३ ) उंचे राजमहल और चतुरशिल्पियों के कला कौशल को प्रकट.. करनेवाले श्रोणिबद्ध- भव्यम्भवन... इन सबको देखता हुमा कुमार भगवान श्रीआदिनाथ के मंदिर के पास पहुँचा । श्रीजिन दर्शन की भव्य भावना से उसने विधि पूर्वक मन्दिर में प्रवेश किया।
उधर'चतुरा से सारा हाल सुनकर कुमार की उपेदावृत्ति से दुखी हुई चन्द्रकला ने दृढता से कहा कि मैंने अपने मन से इन कुमार के प्रति पति-भाव धारण कर लिया है। ये कुमार ही इस जन्म में मेरे पति होंगे । मेरा अन्तःकरण ही इसमें पक्का प्रमाण है । इनका पता जानने. के लिये हमें इनके पीछे चलना चाहिये। ऐसा कह वह सखियों के साथ कुमार के पीछे पीछे चली । कोविंदा नाम की सखी को अपने मन की बातें बताने के लिये अपनी मां चन्द्रवतीजी के पास भेज दी। . . इस प्रकारः पमिनी चन्द्रकला श्रीचन्द्र कुमार कार अनुसरण करती हुई श्रीजिन मंदिर में पहुँची। वहां कमार द्वारा कराती हुई भाव भरी भगवान की स्तुति को सुन कर वह बड़ी प्रसन्न हुई। उसने भी भगवान को विधि पूर्वक वंदन किया। वहां चतुराने गुणचन्द्र को इशारे से कुमार का नाम 'व'स्थान पूछा । उसने भी इशारे से ही कुमार
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( १४४ )
का परिचय - " कुशस्थलपुर के रहने वाले लक्ष्मीदत्त सेठ का पुत्र श्रीचन्द्र कुमार नाम " - बता दिया । चतुरा ने चन्द्रकला को सारे संकेत सुना दिये उसने भी गुणचन्द्र को कुछ विलम्ब करने का संकेत किया । एवं कुमार का परिचय अपनी माता को भी सूचित कर दिया ।
इधर कुमार भगवान की चैत्य-वंदना विधि - पूर्वक करता हुआ मूल मन्दिर से निकल कर बाहर मंडप में लौट आता है । वहां कुशल कारीगरों के द्वारा निर्माण किये हुए हाथी सिंह, शुकसारिकाओं के जोडले, पेड - लता व पूतलियों के दिव्य दृश्य देखता हुआ कुमार अपने मित्रको भी बड़ी बारीकी से दिखाता हुआ द्वार देश के पास आता है। वहां मित्र ने प्रेरणा की कि 'सखे ! इस स्वगोपम स्थान की अवर्णनीय सुन्दरता को कुछ देर के लिये बैठ कर देखने को जी चाहता है" - इष्टं वैद्योपदिष्टं के न्याय से कुमार भी मित्र की बात को मंजूर करता हुआ वहां बैठ जाता है। उतने में पद्मिनी चंद्रकला उसके दृष्टि पथ की अतिथि हुई ।
वह बोला – प्रिय गुणचन्द्र ! देखो तो सही कितना सुन्दर रूप है ? इस कन्या के प्रत्येक अंग से अमृत के झरणे भरते हैं । प्रकृति का यह अनुपम निर्माण नहीं
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( १४५ ) है क्या ? मैंने बहुत सी स्त्रियों को देखी हैं परन्तु ऐसा मनोहर रूप किसी का भी नहीं देखा । इस प्रकार स्नेहभरी दृष्टि से प्रशंसा करते हुए कुमार को देख कर गुणचन्द्र ने मन ही मन राजकन्या की मनोरथ सिद्धि मानी । - इसके बाद कुमार फिर अपने मित्र गुणचन्द्र से कहने लगे कि भाई ! संसार में सिर्फ मन ही एक ऐसी वस्तु है जो मोक्ष और बंधन का कारण है। यह बड़ा ही चंचल है बडे २ योगी महात्माओं के लिये भी दुर्जेय है। इसी मन के कारण
विमुच्य दृग्लक्ष्यगतं जिनेन्द्र', ध्याता मया मूढधिया हृदंतः । कटाक्ष-वक्षोज-गमीर-नाभि-,
कटीतटीयाः सुदृशां विलासाः॥ सामने विराजमान जिनेन्द्र देव का ध्यान छोडकर मृढबुद्धिवाले मैंने अपने मनमें स्त्रियों के कटाक्ष स्तन-नाभि
और कटि आदि अंगों के विलासों का ध्यान किया। ___मित्र ! वेही मनुष्य धन्य हैं जो इन लीलावतियों के चक्कर में न फंस कर अपने मन पर काबू रखते हैं। मेरी राय में अब यहां अधिक ठहरना उचित नहीं है। ऐसा कह कर कुमार वहां से चल पड़ा।
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( १४६ ) इधर गुणचन्द्र ने कुमार श्रीचन्द्र को कुमारी के संकेत से प्रेरित हों कछ देर ओर ठहरा ने के लिये राजभवन श्रादि दर्शनीय स्थानों को देखने का प्रस्ताव रखा । परन्तु स्त्रीलाम की ओर से निस्पृह वृत्ति वाले कमारने उसके प्रस्तावाको ठुकरा दिया। जल्दी से रथाकी. और चलते हुए उनने राजमहल-बाजार--चौराहे प्याउाँम्बाक डियाँ दुकान-मकान आदि सरसरी निगाह से देख लिये और सोधे रथ की ओर जा पहुंचे।
कुमार की इस निस्पृहवृत्ति को मन ही मन सराहता हुआ गुणचन्द्र इस प्रकार के उदार और आदर्श गुणी दोस्त को पाने के कारण अपनी आत्मा को धन्य मानता हुआ, अपने भाग्य को अत्यधिक मानने लगा। उसने सोचा अभी तक न वह कन्या आई न वह दासी ही यहां कहीं दिखाई देती हैं । चलने की उतावल करनेवाले कुमार को कैसे ठहराउं ? इतने में उसे बडी मथुर, मुरभवनि के साथ संगीत सुनाई दिया। उसमे कुमार से: कहा-देवः? इस मधुर संगीत में भारी आकर्षण है। इसः देश के इस प्रकार के संगीत का रसास्वादन बार २ कहां होगा ? मेरी राय में इस आनंद का रसास्वाद लेकर फिर पीछे. अपन रथ की ओर चलेंगें। कुमारने भी मित्र के इस प्रस्ताव पर सहमति प्रकट की। संगीत की सुधामधुर स्वर लहरी में दोनों दोस्त लीन होगये।
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१६ संसार में आदमी सोचता कुछ है। प्रकृति में कुछ ओर ही निर्माण होता जाता है। इसी लिये ज्ञानी लोग फरमाते रहते हैं कि निरमिमान भावसे संसार के प्रत्येक काम को करते जायो। होना है वह होकर के ही रहता है और नहीं होना है वह कितना ही संकल्प विकल्प करते रहो नहीं होगा। संसार का प्रत्येक प्राणी प्रकृति की. अनंत श्रृंखला की एकः २ कडी रूप है। प्रत्येक कडी दूसरी कडीथों से जुड़ी हुई हैं। अपेक्षा रहित कहीं कुछ नहीं है।
दीपशिखा के सेंठ वरदत्त को स्वप्न में भी खयाल नहीं था कि मेरे बच्चे के लेखशाला समारोह में मेरे माननीय सेठ लक्ष्मीदत्त या उनके कुमार श्रीचंद्र आसकेंगे।
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( १४८ ) न कुमार श्रीचन्द्र को ही पता था कि इस समारोह में अपने को पहुंचना है। प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण से खींचे हुए ही कुमार दीपशिखा में केवल मनोरंजन के लिये पहूंचे थे । अपने दोस्त के साथ दीपशिखा की अपूर्व च्छटा को देखते हुए अपने पिता के अनन्य अनुरागी वरदत्त सेठ के घर में होनेवाले समारोह संगीत को अनजान अवस्था में देख सुन रहे थे । इतने में अचानक सेठ वरदत्त की दृष्टि श्रीचन्द्र कुमार पर जा पडी । उसने कुमार को पहचान लिया । भारी प्रसन्नता से बडे आदर के साथ स्वागत करते हुए उसने कहा-" अहा ! सेठ लक्ष्मीदत्त के उदार कुमार श्रीचन्द्र के दर्शन पाकर मेरे नेत्र मेरा जन्म और मेरा यह घर आंगन पवित्र होगये हैं। कुमार
आप कहां ठहरे हैं ? क्या आप मुझे नहीं जानते जो इस प्रकार अजनबी के रूप में दूर २ खडे हैं। यह विशाल वैभव सब आप लोगों की कृपा का ही तो फल है फिर इस प्रकार परायेपन का भाव क्यों प्रकट किया जा रहा है। आइये आज मेरे बच्चे के लेखशाला-प्रवेश संस्कार का समारोह चल रहा है। हे कुमार ! इस प्रकार अचानक
आपके पुण्य पदार्पण से मेरे घर में सोने के सूर्य का उदय हुआ मैं मानता हूं।
कुमार ने वरदत्त को पहचान लिया । यों ही क्रीडा
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(१४६ )
करने के लिये घर से निकलना हुआ है और अतर्कित भाव से यहां आना हुआ है ऐसा कहते हुए कुमार को वरदत्तने वडे अनुनय विनय और आदर के साथ घर में लिया । स्नान- भोजन आदि से पूर्व सत्कार किया ।
गुणचंद्र इस प्रकार रुकने से बहुत प्रसन्न हुआ । कुमार की आज्ञा से वरदत्त की प्रेरणा से गुणचंद्र सुवेग रथ को इसी जगह ले आया ।
दीपशिखा के व्यवहारियों को पता चला कि कुशस्थल के नगर सेठ - लक्ष्मीदत्त के चिरंजीवी श्रीचंद्र कुमार यहां आये हैं। सबने उन का सुंदर स्वागत किया । सब के बीचमें बैठा श्रीचंद्र शरद् ऋतु के पूर्ण चंद्र की तरह शोभा पाने लगा | वहां उपस्थित भाट चारणों ने कुमार को पहचान कर उन के दिव्य गुणों से भरे कीर्ति काव्य कहने शरु किये। उस समय कुमार और वहां का दृश्य बडा ही दर्शनीय हो रहा था ।
उधर दीपशिखा के स्वामी दीपचन्द्र देव राजसभा में अपने मन्त्री सामंत सेठ साहूकारों के साथ विराजमान थे । तिलकपुर के मंत्री 'धीर' भी बडे आदरणीय स्थान पर महाराजा के सामने बैठे थे । उन्हीं के साथ आया हुआ वीणारव नाम का मुख्य गायक दूसरे सोलह गयकों के
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साथ तरह २. की कला-बाजियों से राजा को बन कर रहा था | अंत में उसने अनेक भाषाओं और राग रागगियों से युक्त श्रोताओं के कानों में अमृत जैसा श्रीचंद्र का निर्मल चरित्र गामा शरू किया।
सभी सभासद उपर को गर्दन उठाये कान देकर मंत्र मुग्ध सुन रहे थे। राजा के पीछे की तरफ परदे की प्राड में बैठी हुई महारानी प्रदीपवती महाराजा की भतीजी राजा सुभगांग की रानी चन्द्रवती आदि रानियां भी बंडे चाव से सुन रही थी।
इस बीच में कोविदा और चतुरा.नाम की दसियों ने आकर कुमारी चन्द्रकला के संकल्पों को स्पष्ट किया। कुशस्थानपुर के श्रीचन्द्रकुमार के प्रति कुमारी का स्नेह हो चुका है। उद्यान में-मिन्दर में कुमार के देखे बाद कुमारी ने दृढ संकल्प कर लिया है कि इस जन्म में यदि पति होगा तो वह कुमार ही होगा । अतः आप लोग उचित प्रबंध करें ।
इस बात को सुन कुमारी की माता चन्द्रवती ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है । कुल-शील का पूरा पता लगे विना अज्ञान अवस्था में कैसे यह संबंध हो सकता है । चलो चाचाजी के पास चलें और उन्हें इस समाचार से अवगत करें।
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( १५१ )
बामा दीपचन्द्र के सारस पहूंच कर उनकीमतीजीरानी चन्द्रवती ने अपनी सन्या चन्द्रकला के सारे विचार ह सुनाये । सुनकर राजा कुछ हंसते हुए बोले-"विवाह संबंध-जीवन संबंध कहा जाता है। बच्चों के बनाये मिट्टी के घर जैसा वह नहीं है जो जब चाहा बनाया, किाडा जा सके विना कुल, शील, प्रभुत्न, विद्या, शरीर, धन आदि के विचार किये, विवाह को बात करनी भी हमें शोभा नहीं देती। एक अपरिचित मुसाफिर को कन्या दान करने में हमारा कोई यश न होगा। मेरे कंवर सहान राजा सुभगांग देव क्या कहेंगे..१ राजन्यों में हम कैसे मुह दिखायेंगे ? ! बेटा चन्द्रवती ! क्षमा करो। चन्द्रकला का विवाह तो स्वयंवर से किसी राज-राजेश्वर के साथ ही करेंगे।
- उधर चन्दकला-जिनमंदिर में दर्शन पूजन विधि को करके अपनी माता के मास मइल में पहुंची। रास्ते में हवाशमलाली, चतुराने माता और मानमाह के द्वारा बारविषय में जो अरुचि प्रकट की थी उसे राजकुमारी को सुना दी । सुनते ही चन्द्रकला के हाथ पैर शिथिल हो गये। सिर घूमने लगा। वह बेहोश होकर भूमी पर गिर पड़ी। पास में सेवा में खडी सखियों ने बहुत प्रकार के'.
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( १५२ ) शीतल उपचार कर के बडी कठिनता से उसे होश में लाई । सारे राज महल में भारी तहलका मच गया। ____यह सारी घटना दौड़ कर प्रियंवदा ने राजकुमारी की माता से कही । वह भी बहुत जल्दी से पुत्री के प्रेम से
आकस्मिक हुई घटना के स्थल पर आगई । पुत्री की वैसी दशा देखकर रानी कहने लगी "बेटी! तुम इतनी उतावली हो कर दुःखी क्यों होती हो ? जरा धीरज धारण करो। तुम्हारे कल्याण में ही हम सब का कल्याण है। तुम स्वयं समझदार हो। हमें तुम्हारे पाणिग्रहण की चिंता है। हम तुम्हारी इछा को एक बडे भारी स्वयंवर' बहुत शीघ्र ही पुर्ण करने वाले हैं। ___ राजकुमारी ने मां को बीच में ही रोकते हुए कहामां ! सती कन्या एक वार जिसे मनसे वर लेती है, उसे छोड किसी दूसरे को पति रूपमें स्वीकार नहीं करती है। मुझे स्वयंवर की अब कोई इच्छा नहीं । अन्तिम रूप से मैं आप से सूचित कर देना चाहती हूं कि इस जन्म में कुशस्थल के श्रीचंद्र कुमार के साथ यदि मेरा व्याह न हुआ तो मैं आग में जल कर अपने प्राणों को दे दूंगी। .पुत्री के इस अटल निर्णय को सुन कर रानी चंद्रवती बडी चिन्तित हुई । उसने सेवकों के साथ राजा
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दीपचन्द्र देव को कहलाया कि स्थिति यह है इसलिये
आप श्रीचन्द्रकुमार की खोज करावें । चतुसने भी जाकर कुमारी के बेहोश होने आदि का सारा वृत्तान्त राजा से कह सुनाया।
- यह सुन सभा-विसर्जन करके राजा दीपचन्द्र देव और रानी प्रदीवती वहां आये । वार २ पूछने पर हिमालय की तरह अचल रहने वाली कुमारी ने उन सब को वही उत्तर दिया जो पहले अपनी माता को दे चुकी थी।
इस अवस्था में राजाने सोचा इसके कल्याण के लिये ही हमारा स्वयंवर आदि का विचार था । जब कि यह चाहती है, और यदि चाहना के मुताबिक काम न हुआ तो यह मरना चाहती है। ऐसी अवस्था में हमारे आग्रह का भी न रहना श्रेयस्कर है, आखिरकार विवाह से जो फलाफल होना है वह इन्ही को तो होगा। हम लोग तो निमिच मात्र हैं। इसमें भी प्रधानता पूर्वकृत-कर्म संस्कारों की ही रहेगी न ?
इस प्रकार सोचते २ राजाने श्रीचन्द्र-कुमार की बड़े जोरों से खोज करनी शरु करदी। थोडे ही समय में वरदत्त सेठ के घरमें होने की खबर भी मिल गई। वे शीघ्र ही वरदत्त सेठ के घर पहुंचे। वहां रूपमें कामदेव का
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तिरस्कार करने वाले श्रीचन्द्र को देख कर राजा दीपचन्द्र
देव आश्चर्यचकित हो गये। - राजा को अपने घरपर आये देख वरदत्त स्वागत के लिये शीघ्रता से उठ खडा हुआ । उपस्थित व्यवहारियोंके व श्रीचन्द्र के साथ उनके सन्मुख जाकर बड़े आदरसे उन्हें लिवा लाया। एक रत्नजटित स्वर्ण-सिंहासन पर राजा के बैठ जाने पर श्रीचन्द्र ने राजा को प्रणाम किया। राजा दीपचन्द्रने भी बड़े प्रेम से कुमार को गोद में बिठाया और किसी अज्ञात दौहित्र-सुख का अनुभव किया । ज्योंही वरदत्त ने कुमार का परिचय दिया, त्योंही वीणारव गायक ने कहा देव ! ये वे ही श्रीचन्द्र कुमार हैं जिनकी कीर्ति-कथा हमने प्रबन्ध में गाई थी। यह कुमार याचकों के लिये कल्प-वृक्ष के जैसे हैं। हम सदा इनकी जय मनाते हैं।
इधर चन्द्रकला को लेकर प्रदीपवती और चन्द्रवती भी कुमार को देखने की उत्कंठा से वहां वरदत्त के घर ही आ पहुँची। शुभ-लक्षण और गुणों से संपन्न कुमार को देख कर सभी बोल उठे
"अहो ऐसे गुणवाले इस कुमार को पति बनाने का निश्चय करके सचमच चन्द्रकला ने ठीक ही किया है। चन्द्रकला चन्द्र के साथ ही तो रहा करती है।
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सेठ वरदत्त और कुमार श्रीचन्द्रने राजा के सामने बहुमूल्य भेट रखी। राजा ने उसे स्वीकार कर प्रेम के साथ कुमार के लिये वापस कर दीया । कुमार ने भी उसे विनय के साथ मस्तक से लगा, उदार भाव से याचकों में वितीण कर दी। ठीक ही तो है, किया हुआ दान मनुष्य को महत्ता प्रदान करता है।
वरदत्त ने कहा राजन् ! आज मेरा अहोभाग्य है जो कुमार का व आपका शुभागमन मेरे गरीब घरमें अतकिंत भावसे हो गया। मेरे जीवन इतिहास में आज से बढ़कर कोई दिन नहीं होगा ऐसा मैं मानता हूँ।
वरदत्त के आभार प्रदर्शन करके चुप हो जाने पर राजा दीपचन्द्रने कुमार को लक्ष्य करके कहा-"कुमार ! राजा सुभगांग की राज कुमारी मेरी दौहिती चन्द्रकला नैमित्ति कों के कथनानुसार विवाह की तैयारी के साथ यहां रह रही है। उद्यान में मंदिर में उसने आपके प्रति पूर्व पुण्य संस्कारों से प्रेरित हो पतिभाव धारण कर लिया है। वह अपने संकल्पों पर मेरु के समान दृढ भी है। अतः आप हमारी प्रार्थना से उसका पाणिग्रहण कर उस की इच्छाओं को पूरी करें और हमें कृतकृत्य बनावें। . राजा के बचन सुन कुमारने बडे धीर गंभीर वचनों से कहना शरु किया देव ! बड़े लोगों को उत्तर देना एक
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( १५६ )
प्रकार की धृष्टता है उसके लिये मुझे क्षमा करें। उत्तर न देना भी दुर्विनीतता का कारण न बन जाय ऐसा सोच कर कुछ कहता हूँ आप जरा गौर फरमावें ।
1
मैं अपने पिता से केवल क्रीडा करने की आज्ञा लेकर ही घर से निकला हूँ। जाति से मैं एक वणिक पुत्र हूँ । वनिये के घर में राजकन्या को बनियानी बन कर रहना होता है, जो आपके कुल की शोभा का कारण न होगा । कहां वैश्य घर और कहां राजमहल की लीला १ इसका परिणाम पत्थर के नीचे दबी हुई अंगुली की तरह दुःखदायी ही होगा | बिना विचारे किये हुए कार्य के लिये हमेशा पश्चाताप करना पडता है अतः महरबानी कर इस प्रस्ताव को आप मेरे सामने उपस्थित ही न करें ।
कुमार की इस निस्पृहता-भरी वाणी को सुन कर राजा रानी और राजकन्या का भाई वामांग सभी क्रमशः कहने लगे- कुमार ! संपत्ती भाग्य के अनुसार ही मिलती है । पिता अपने उसी रूप में रहता है और पुत्र राजा बन जाता है क्या इतिहास इस बात की साक्षी नहीं देता कि कई राजपुत्र मैत्रिपुत्र और श्र ेष्ठिपुत्र भाग्य की परीक्षा के लिये पृथ्वी पर घूमते हुए पिता के बिना भी राज्य धन और कन्याओं के स्वामी नहीं बने ?
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हे माग्यशाली ! जति मा जन्म से ही होती है ? नहीं २ गुणों से भी जाति का निर्माण होता है। इसी लिये शास्त्रों में गोत्र कर्म को परिवर्तन शील माना है। आप के गुण क्षत्रियों से किसी तरह भी कम नहीं है । राधावेध की साधना से आपने अपने आपको सर्वे श्रेष्ठ क्षत्रिय प्रसिद्ध किया है यह भूलने जैसी बात नहीं है। नैमित्तिकों ने जो संकेत किये थे वे सब आप में मौजूद हैं । ___ हे महानुभाव ! स्त्री हमेशा पति का अनुसरण करती है। ऐसा करने में ही उसकी खानदानी बखानी जाती है। इसके विपरीत आचरण से स्त्री उभय भ्रष्ट मानी जाती है । अतः सुसराल के व्यवहार को मानने में अपयश की कोई बात नज़र नर पाती न उससे हमें कोई दुःख ही होगा। ____हे विकेकी !- पुष्मनेटर से ही स्त्री-पल मुखी होते हैं न कि बडे-छोटे धरमै जाने से, अतः वैश्यघर और राजमहल में अधिक अंतर हमारी नजरों में नहीं आता।
हे चतुरशिरोमणि ! पद्मिनी चन्द्रकला ने आप को जो पति रूपमें चुना है यह अविचारी कार्य नहीं है। अविचारी कार्य संताप का कारण होता हे । सोच समझ कर किया हुआ काम सदा सुखदायक ही होता है।
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(१५८ ) अतः आप हमारी प्रार्थना पर गौर फरमावें और अपनी स्वीकृति प्रदान करावें।
राज-परिवार के अनुपम युक्ति-संगत आग्रह को देख कर कुमार ने विवाह के लिये मौन स्वीकृति दे दी । सर्वत्र आनन्द मानन्द का उल्लास पूर्ण वातावरण छा गया।
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- पुण्यवान् पुरुष सदा निस्पृही होते हैं। संसार में निस्पृही-पुरुषों के पग पग में निधान हुआ करते हैं। पत्थर में हाथ डाला जाता है, और चिंतामणि रत्न की प्राप्ति होती है। इसीसे ज्ञानी लोग सदा फरमाते हैं कि हेभव्यात्मत्रों ! स्वार्थ का त्याग कर के निस्वार्थ वृत्ति से धर्माचरण करते रहो । जिससे भावीका निर्माण वडे सुन्दर ढंग से होगा ।
कहते हैं " आडे हाथ देने से, भोजनमें घी जादा पडता है-इसी प्रकार श्रीचन्द्र कुमारने गजा दीपचन्द्र
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देव की पद्मिनी कन्या--चन्द्रकला से ब्याह के लिये की हुई प्रार्थना को थोडासा किन्तु परन्तु कर के अपने लिये अधिक गौरव का स्थान प्राप्त कर लिया ।
राजा रानी की और परिवार वर्ग की अनुमति से और श्रीचन्द्रकुमार की स्वीकृति से राजकन्या चन्द्रकलाने बडी प्रसन्नता से आगे बढ कर सुन्दर सुगंधी फूलों की वरमाला कुमार के गले में पहना दो । लजावनत होती हुई तिरछी नजर से कुमार की अलौकिक रूप-माधुरी को अनिमेष भाव से निहार कर मन ही मन अपने जन्म को सफल समझने लगी। ___ उस समय कुमार मनमें कुछ सोच समझ कर वहां से उठ खडा हुमा और. शौचादि का बहाना बना कर सारथी समेत अट्टालिका से नीचे उतर आया । गुणचन्द्र ने रानियों से कह दिया कि अगर कुमार रथमें बैठ गया. तो फिर गया समझियें हाथ नहीं आने का है । इस बात को जान कर वामांग कुमार और चतुरा अदि सखियां कुमार को घेर कर प्रेम-पूछेक महल में वापस लिया लाये।
कुमार ने एक पान का बीडा देकर चतुरा से कहा कि अपनी मलकनी को देकर इसके गुणों का वर्णन करा
ओ-तब कोकिलकण्ठी राजकुमारी ने अपने प्रियके पहिले 'प्रसाद को पाकर प्रेसभेता से कहना शरु किया।
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ताम्बूल कटु तिक्त 'मुष्ण-मधुर नारं कषायान्वित, वातनं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गन्ध निर्नाशनम् । वक्त्रस्याभरणं विशुद्धि करणं कामाग्नि संदीपनं,
स्वामिन्नेभि रिदं त्रयोदश गुणै युक्तं प्रसादीकृतम् ।। - स्वामिन् ! पान कडवा-तीखा-गरम-मीठा-खारा कषैला-वादी नाशक-कफ नाशक-कीटाणु नाशक-दुर्गन्धहरने वाला-मुखका अलंकार विशुद्धि करने वाला कामानिको चेतानेवाला इन तेरह गुणों से युक्त होता है । इसका आपने ठीक ही प्रसाद दिया है।
कुमार ने कहा यह बाह्य पान के गुण हुए आभ्यंतर पान कैसा होता है ?-तब कुमारी कहती है
सन्नाग-पत्राणि मिथः प्रियं वचः
सुप्रेम-पूगानि सुदृष्टि-चूर्णकं । . संतोष कपूरे सुगन्ध वर्तिका
तवेदृशं बीटकमस्तु मे विभो !। . हे नाथ ! जो परस्पर में प्रेम वचन हैं के ही नागरबेल के पान हैं सुन्दर प्रेम ही जिसमें सुपारी है। सहि दृष्टि ही जिसमें मसाला है। संदोषही जिसमें का। आपके
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Jan
कुमारी से चतुस द्वारा पूछे आने पर कुमार ने कहा
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(. १९२) सत्यं वचो-नागर-खण्ड-बीटक .
सम्यक्त्व-पूर्ग शुभ-तत्त्व-चूर्णकं । .. स्वाध्याय-कर्पूर-सुगन्ध--पूरितं
तदस्तु मुख्यं शिव-सौख्य कारकम् ॥ देवि चतुरे ! मेरे ख्याल में सत्य वचन ही नागरपान का बीड़ा है। सचाई की उसमें सुपारी है। शुभ तत्त्व चिंतन का उसमें स्वादिष्ट मसाला है और जो स्वाध्याय कपूर से सुवासित है। वही मुख्य रूप से शिवसुख को करने वाला अन्तरंग पान बीड़ा है।
इस प्रकार काव्य गोष्ठी चलती हो थी उसमें वामांग कुमार और चतुराने चन्द्रकला से कहा आप 'श्रीचन्द्र' इस नाम का वर्णन कीजिये-कुमारी ने उन लोगों के अाग्रह से कहालक्ष्मी-केलिसरोऽट्टहासनिचयः काष्टावधू-दर्पणः श्यामावल्लिसुमं ख-सिन्धु-कुमुदं व्योमाब्धिफेनोद्गमः । तारागोकुल-शुक्ल-गौरति-गृहं छत्रं स्मर-क्ष्मापते - श्चन्द्रः श्रीसकालश्चिरं विजयतां ज्योत्स्ना सुधा-वापिका ॥
लक्ष्मी का क्रीडा सरोवर, हास्य का समूह, दिशा रुपी स्त्री के लिये मुख देखने का दर्पण रात्री रूप लता का पुष्प गगनसिन्धु का कुखद, भाकाश रूप समुद्र का झाग, तारा रूपी गोशाला की कामधेनु सफेद गाय, रति का घर,
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( १६५ ) कामदेव रूपी राज का सोद छात्र, और चांदनी रूप प्रवृत भरी बावड़ी के जैसे श्री शोभावासी चन्द्रकला से संपन्न 'श्रीचन्द्र देव जयते रहो।
इसके बाद सब सखियों ने कुमार से भी कहा-हे कुमार ! कृपा कर आप भी चन्द्रकला इस नाम का अर्थान्तरसे वर्णन कीजिये-वारंवार कहने पर श्रीचन्द्र ने कहा
ॐ कारो-महन द्विजस्य गगन-क्रौडेक-दंष्ट्रांकुर स्तारा मौक्तिक शुक्ति रन्धतमसः स्तम्बरमस्याङ्क शः। शृङ्गारार्गल-कुंचिका विरहिणी मानच्छिदे कर्तरी, सन्ध्या-वार-वधू नखक्षतिरियं चान्द्रीकला राजते ।
संसार में चन्द्रमा की कला क्या है ? तो कहते हैंकामदेव रूप ब्राह्मण का ओंकार । आकाश रूप सूअर की दाढ का अंकूर | तारा रूप मोतियों की सीप । अधेरा रूप हाथी का अकूश । शृंगार रूप ताले की चाबी । विरहिणी के मान को काटने की कैंची। सन्ध्या रूप वेश्या के शरीर में जार पुरुष का किया हुआ नख-क्षत । इस प्रकार यह चन्द्रकला चमक रही है।
इस प्रकार हास-परिहास के बीच होती हुई सबगोष्ठी को सुनकर सब लोग दंग रह गये। परस्पर लोग कहने लगे-विधाता ने कड़ी सुन्दर जोड़ी मिसाई है।
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इस लोगों को दिव्य दर्शन में साथ देने के लिये ही मामी. सूर्य देव का भी बाकास में पाना हमारे इस प्रकार प्रातःकाल होने पर हमेशा के नियमानुसार सबकी आज्ञा से. श्रीचन्द्रकुमार सामायिक प्रतिक्रमण-देवपूजा, आदि कृत्यों में लग गया।
राजा रानी राजकुमार-कुमारी सभी वरदत्त सेट से सत्कारित सन्मानित होते हुए अपने राजमहल में आये । प्रातः कृत्यों से निवृत्त हो राजा ने ज्योतिषी से विवाह लग्न पूछा । पण्डित ने कहा,देव ! कल वैशाख-शुक्लापंचमी का दिन वैवाहिक कार्य के लिये सब रेखाओं से शुद्ध और शुभ है।
राजा दीपचन्द्र-देव ने कन्या के पिता राजा सुभगांगकहा कि इस समीपवर्ति लग्न में कुशस्थलेश्वर महाराजाधिराज प्रतापसिंहजी कैसे आ सकेंगे ? इस काम में उनकी उपस्थिति अत्यधिक वांछनीय है । इस पर ज्योतिषी ने कहा महाराज ! यदि आप सबका भला चाहते हैं तो ननु नच किये विना कल के मुहूर्त में "शुभस्य शीघ्र" के न्याय से विवाह कर दीजिये । ऐसी नैमितिक की सलाह से विवाह की तैयारियाँ होने लगी।
रानीप्रदीपवती ने विकार किया यह मेरी पुत्रीमर्यवती के कुशस्थल पुर के नगर निकासी सेठ का पुत्र है। इसलिके
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( १६५ ) यह उसी का पुत्र है ऐसा मानकर उसने श्री चन्द्र को ओर रहकर वर पक्ष की तरफसे विवाह के नेकचार करवाये और सप्तखण्डी महल में विवाह की सारी सामग्री तैयार करवा दी। ____ श्रीचन्द्र के पास विवाह के उपयुक्त कुछ नहीं था। वस्त्राभूषणों से लेकर सारी आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध रानी प्रदीपवती ने ही किया कुल स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। मनोहर बाजे बजने लगे । मनोरंजन के लिये नाच-गान आदि कराये गये। कुमार हाथी पर सवार हो राजकीय सेना और लवाजमे के साथ धूमधाम से विवाह मण्डप के द्वार पर पहुंचे। .
कुलाचार के अनुसार विवाह के सारे रीति-रिवाज़ पूर्ण किये गये। मातृका मण्डल के पास बैठाकर मंगलगीत गाये जाने लगे । बाजे बजने लगे। पुण्याह पुण्याह का पाठ होने लगा। शांतिपाठ किया गया । बन्दोजन स्तुति पाठ करने लगे। - लग्नांश की उदय-बेला में ज्योतिषी ने वर वधु का पाणिग्रहण करा दिया। बादमें सुहाग और पारस्परिक प्रेम को स्थिर बनाये रखने का उपदेश रूप में दोनों को घ व दर्शन कराया। इस प्रकार वहां श्रीचन्द्रकुमार की विवाह विधि विस्तार पूर्वक बड़े आनन्द से ठाठ बाट के साथ सम्पन्न हुई।
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(A-PEER)
राजा दीपचन्द्र देवने भी विवाह महोत्सव में अपनी ओर से कोई कोर कसर बाकी न रखी। करमोचनावसर में हाथी घोड़े सोना चांदी मणि रत्न आदि सभी गृहस्थसम्बन्धी राज योग्य आवश्यकीय वस्तुएँ दहेज में प्रदान की । कुमारी की माता रानी चन्द्रवती ने श्रीधरणेन्द्र द्वारा मिले हुए दिव्य रत्नहार को और चन्द्रकला के भाई बामांग कुमार ने सिंहपुर से लाई हुई सारी सामग्री को बड़े आदर और स्नेह के साथ दहेज में दे दी । चतुरा कोविदा - प्रियंवदा आदि नामवाली बहत्तर दासियां मय वस्त्राभूषणों के दी गई ।
राजा दीपचन्द्र ने कहा कुमार ! इतने दिन कन्या पिहर में स्वेच्छा पूर्वक रही। कभी इसके मनको कोई बाधा नहीं पहूँचाई गई । अब आज से यह आपकी अर्धांगिनी बनी है। आप इसके हानि लाभ के कर्ताधर्ता हैं । हम आप जैसे योग्य जमाई को पाकर निश्चित होते हैं । इस प्रकार कुछ कह सुनकर एक दूसरे अपने कर्तव्य भार से मुक्त हुए ।
दूसरे दिन प्रातःकाल में कुमार श्रीचंद्र अपनी नवोढा पत्नी चन्द्रकला के साथ राजकीय चिह्नों को धारण करके हाथी पर सवार हो बडी सज धज से शहर के
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( १६७ ) प्रमुख राजमार्गों से होकर सवारी के तौर पर मय--दहेज सामग्री की सजावट के साथ निकले ।
मार्ग में स्थान स्थान पर नाच गान होते जाते थे । गगनभेदी तोपों की गडगडाहट के बीच जोरों की जयध्वनियां हो रही थी । चन्द्रकला अपने भाग्य पर इठलाती हुई मन ही मन प्रसन्न होकर अपने को धन्य समझ रही थी । कुमार स्थान २ पर दान देता हुआ अपने विवाह की खुशी में सजाये हुए नगर की शोभा को देखता जाता था । क्रमशः सवारी निश्चित उतारे पर जा पहुंची । वहां विवाह की बाकी रही सारी विधि सम्पन्न की गई । अपनी तरफ से कुमार ने सारे नगर -निवासियों को भोजन कराया । इस प्रकार चारों ओर खुशी का साम्राज्य छा गया ।
"
इधर तिलकपुर से आये हुए धीरमंत्री ने विश्वस्त सूत्रों से निश्चय करके भारी प्रसन्नता से श्रीचन्द्रकुमार के पास कर प्रार्थना की कि "हे कुमार ! तिलकपुर में राधावेव की साधना करके आप चुपचाप चले आये तबसे वहां आपके विवाह की प्रतीक्षा की जा रही है । कृपा कर आप को वहां चलना चाहिये ।"
कुमार ने उत्तर दिया - " मंत्रिजी ? आपके इस ग्रामंऋण का मैं आदर करता हूं । परंतु इस विषय में मेरे पिता
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(१६८ ) दही .माण हैं । इसका जवाब मैं नहीं दे सकता हूँ। आपको इस संबंध में उन्ही से बातचीत करनी चाहिये ।
कुमारकी इस बात से धोर मंत्री बडे प्रसन्न हुए । कुमारसे अति सन्मान और सत्कार को पाकर वे कुशस्थल में कुमार के पिता सेठ लक्ष्मीदत्तजी से मिलने के लये कुमार की आज्ञा लेकर चलदिये ।
कुमारने भी राजा दीपचन्द्र देव से अपने नगर की ओर जाने की आज्ञा मांगी। बड़ी मुश्किल से राजा को आज्ञा देनी पडी। आखिरकार कुमार राजा की दी हुई सारी देहज-सामग्री को लेकर रवाना हुआ । केवल हाथियों को उसने वहीं-दीप शिखा में ही रखा।
राजा, रानिये, राजवर्गी, और राज-परिवार के लोग, मय-नगर-निवासियों के-कुमार को पहूँचा ने के लिये नगर से कुछ दूरतक गये । कुमारने उन सब को प्रथम विश्राम पर ठहरा कर, अलग २ नमस्कार करके, उन सब से बिदा मांगी । कुमार के प्रेम और भक्ति से प्रसन्न हुए उन सबने तरह २ के आशीर्वाद दिये । अपनी मोरसे उचित शिष्टाचार करके मन में हर्ष और विषाद लिये'जल्दी दर्शन दीजियेगा' कहते हुए दीपशिखा के नागरिक अपने नगर की ओर लौट गये।
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(4)
सभी प्रदीपती रा शिक्षा देते कहा
सुचित
अभ्युत्थामुपागते तत्पादाचित दृष्टि
सुप्ते तत्र शयति तत्प्रथमं मुच्य शय्यामपि, प्रोष्टचैः पुत्रि ! निवेदिताः कुल वधू-सिद्धान्त धर्मा श्रमी ॥
गुरुपती
साप नम्रता,
रासन - विधि स्तस्योपचर्यस्वयम्
बेटी ! गुरुजनों और पति के आने पर अपने आसन से उठ कर उनका स्वागत करना । उनके साथ संभाषण में नम्रता रखना । अपनी लज्जालु दृष्टि को उनके चरणों की ओर झुकाये रखना । आने पर उन्हें आसन देना । अधिक क्या ? उनको खिलाकर खाना, सुलाकर सोना, जगने से पहिले जगना, यही धर्म कुलीन स्त्रियों के लिये शास्त्रों में बताये गये हैं ।
,
इस प्रकार चन्द्रकला को उनकी सखियों को दासदासियों को सबको यथायोग्य शिक्षा देकर आंखों में हर्ष और विषाद के आंसू भर, आशीर्वाद देती हुई दोनों राजा दीपचन्द्र देव के साथ लौट आई। वरदत्त सेठ ने भी कुमार की आज्ञा से अपने घर की राह ली । उपस्थित याचकों को वस्त्र आभूषण घोड़े आदिकों के दान से संतुष्ट करके कुमार ने विदा किया ।
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स मान पर हुमोल अपने कुलियों के प्रथम वियोग से व्यथित चन्द्रकला की समझामा कर शान्त किया। धर मंत्री की सेना सहित धीरे धीरे चलनेवाली. अपनी सेवा को पीछे छोड़ दिया। देखरेख के लिये अपने प्यारे मित्र गुणचन्द्र को नियुक्त कर दिया। खुद सारथी समेत: बड़े वेग से रथ द्वारा रास्ता तय करके उसी रात्री में कुशस्थलपुर के बाहर के अपने श्रीपुर स्टेट में आपहुंचा । रथ वहीं छोड उसी समय घर गया और कुटुम्बियों से जा मिला। ___ कुमार को आया देख कर माता पिता बडे प्रसन्न हुए पूछने लगे कि-बेटा ! पाँच दिन तक तुम कहां रहे ? । किसीने बलात् रोके रखा था ? या अपनी इच्छा से कहीं रुके थे ?
कुमार ने कहा पिताजी ! दीपशिखा के वरदत्त सेठ अचानक मिल गये थे। उनके आग्रह से उन के घर पर मुझे वहां होने वाले समारोह में सम्मिलित होना पड़ा। बड़ी मुश्किल से आज उन से विदा होकर आया हूं।
पिताने कहा बेटा! तुम्हारे उदार चरित्र और उज्ज्वल गुणों से हम ही नहीं महाराज प्रतापसिंह भी बड़े प्रसन्न हैं। प्रसन्नता को सार्थक करने के लिये उन्होंने
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( १७१ ) तुम्हारे लिये रत्नपुर नाम का एक बड़ा नगर प्रदान किया है। अब अपनी ओर से कृतज्ञता प्रकट करने के लिये एक दिन उनसे अवश्य मिलो।
कुमारने कहा पिताजी ! आपकी आज्ञासे गुणियों का समादर करने वाले महाराज की सेवा में उपस्थित होकर अवश्य मैं अपना कर्तव्य पालन करूगा । इस प्रकार कहते हुए कुमार के शरीर पर माता की नजर पड़ी । हाथ में बंधे कंगनदोरडे को देख कर उसने पति से कहा, देखिये कुमार तो कहीं बनडा बन कर आया है। आश्चर्य चकित हुए सेठने कुमार से कहा बेटा ! बताओ तो सही कि क्याबात है ? कुमारने कहा किसी पण्डित का दिया हुआ अप्राप्य वस्तु को प्राप्त कराने वाला यह महा प्रभावशाली कंगन दोरडा है । सेठने कहा-कहीं कोई विवाह करके आये दीखते हो ? क्यों ठीक है न ? इस पर कुमार चुप हो गया।
सेठ सेठानी खुश होते हुए कहते हैं बाबा नन्द के फंद गोविंद जानें । कुमार की लीला का कोई आर पार नहीं है। इस प्रकार सभी प्रसन्नता पूर्वक समय बिताने लगे।
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बडा बडाई ना करे, बड़ा न बोले बोल । हीरा मुख से ना कहे, लाख हमारा मोल ॥ महापुरुषों की महत्ता इसी में है कि वे अपनी बड़ाईप्रशंसा खुद नहीं किया करते । बडे आदमी न बोलते हुए ही पूजा के स्थान बन जाते हैं। हीरा मुह से कर बोलता है-कि हमारी कीमत लाख रुपये की है ? हीरा तो नहीं बोलता, पर जौंहरी उसे मुकुटमणि बना ही देते हैं। ठीक इसी प्रकार महापुरुषों की महिमा को उनके न बोलने पर भी गुणी आदमी गाते ही रहते हैं।
कुशस्थलपुर में एक दिन श्रीचन्द्रकुमार अपने महल की छत पर खड़े हुए बाज़ार का दृश्य देख रहे थे। उनके पिता घर में किसी गृहस्थ सम्बन्धी कार्य में लगे हुए
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थे। इतने में पढिया बाजों की प्राकाम उनकी सुमाई दी। बाजे इतने जोर से बज रहे थे कि उनकी आवाज सारे शहर में भर गई थी। लोगों के झुड के झुड देखने के लिये इक हो रहे थे। चारों ओर से याचकों और पुरवासियों के मुंह से प्रशंसात्मक वचन निकल रहे थे। कोई राजकन्या अपने राजकीय चिन्हों के साथ वधू वेश में सवारी के साथ पालखी में विराजमान थी। उसे देखकर लोग कहने लगे यह कौन है ? ये कहां जायेंगी ? । सवारी के प्रबंधक रूपमें श्रीचन्द्रकुमार का दोस्त गुणचन्द्र कुमार भी साथ चल रहा था । उन्हें लोग पूछना चाहते थे-इतने में वह सवारी लक्ष्मीदत्त सेठ के विशाल भवन के सामने प्राकर रुक गई।
... सेठ पाजों की आवाज से कुतूहल प्रेरित हो-म्या बात है ? कहते हुए हरपला कर घर से बाहर निकले। अपने घर को ही लक्ष्य बनाये हुए सैनिकों को देखकर सेठ कुछ डर से गये। सेठ की उस स्थिति को जानता हुआ गुणचन्द्र पास में आकर नमस्कार पूर्वक करने लगा।
पिताजी ! सिंहपुर के राजा सुभगांग की राजकुमारी राजा दीपचन्द्र देवकी दौहित्री चन्द्रकला नाम की यह आपकी पुत्रवधू है। अभी दो दिन पहले ही शो कुमार
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( १७४ )
श्रीचन्द्र ने दीपशिखामें इस कन्या का पाणिग्रहण किया था । क्या आपको पता नहीं है ?
सेठ सेठानी आश्चर्य चकित हुए विस्कारित नेत्रों से अपनी पुत्रवधू को देख रहे थे कि -- चन्द्रकला बड़े ही चादर से सास-ससुर के पैरों पड़ी। चिरंजीवी हो पुत्रवती हो, सौभाग्यवती हो इत्यादि बहुत २ आशीर्वाद दिये । आरती -- और मंगलाचार करके पुत्रवधू को घर में प्रवेश कराया । दहेज की सामग्री यथास्थान रख दी गई। कन्यापक्ष के आदमियों को यथोचित उतारे दे दिये गये । वाइयां बांटी गई ।
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अपने २ स्थान में सबके चले जाने पर सेठ ने कहाबेटा ! ब्याह करके आये और उसकी चर्चा भी नहीं की ? हमारे मनकी उमंग तो मनमें ही रही । अरे ! पता लगता तो नगर प्रवेश का ठाठ तो मैं करता ही । अस्तु, जो हुआ सो अच्छा ही हुआ। ऐसा कह सेठने चन्द्रकला के लिये और उसके साथ की दासियों के लिये रहने योग्य एक सुन्दर महल दे दिया । कुमार ने भी बड़ी उदारता से अपनी मधुर वाणी से चन्द्रकला का स्वागत किया ।
सेठ लक्ष्मीदत्त ने पुत्र- विवाह के उपलक्ष्य में बड़े २ सेठ साहुकार कौटुम्बिक -स्नेही नागरिक सभी लोगों को
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कई दिन तक.जीमाये । कोकिल-ठी शामिन-वियों ने मंगल गीत गाये । खूब नाच गान हुए। तरह २.के आमोद प्रमोद हुए । याचकों को संतुष्ट किया गया।
दहेज की सामग्री को देखकर लोग बहुत संतुष्ट हुए। कोई श्रीचन्द्र के गुण और रूप की प्रशंसा करने लगे तो कोई उसके रथ की बड़ाई करने लगे। किसी ने पद्मिनी के रूप की महिमा गाई तो किसी ने सेठ सेठानी का पुण्य सराहा । किसी ने दीपशिखा को धन्यकहा तो किसी ने कुशस्थलपुर को धन्यवाद दिया । उत्सव बड़े ठाठ से मनाया जा रहा था। । .. इसी बीच में जय प्रादि राजकुमारों ने डाह से जलते हुए कुमार को संकट में डाल ने की बात सोची। उन्हें पता चला कि तिलकपुर से धीर मंत्री के साथ कीखारव नाम का गवैया भाया हुआ है। उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि यदि श्रीचन्द्र प्रसन्न होकर कुछ मांगने के लिये कहे तो उसके रथ का घोड़ा मांगलेना । इस के बदले में हम तुमको भारी इनाम देंगे। लालच बुरी बला होती है। उसीसे प्रेरित हो वीणारष ने भी मंजूर करलिया । जैसी होनी होती है वैसी ही बुद्धि भी हो जाती है।
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चाव के बेठ के मण्डप में जाकर बड़ी सजावट से संघावेव का वर्णन किया। जिसमें सजाओं का और राजकुमारों का माना, उनका नाम-ठाम-वंश वर्णन होना। राधावेध के लिये बारी बारी से उनका उठना, असफल होना, गिरना पड़ना, कांपना, लजित होना, लोगों द्वारा विरस्कार होना, उस समय श्रीचन्द्र का अचानक आना, राघावेध को सिद्ध करना, रथ पर चढ कर निस्पृहता से चले आना. कन्या का विलाप, राजाओं की विदायगी, कुमार को लाने के लिये धोर मंत्री का आना इत्यादि बड़े रोचक ढंग से बयान किया। खुश हुए सेठ ने
और दूसरे लोगों ने उसे बहुमूल्य चीजें-धन इनाम में दिपा। श्रीचन्द्रकुमार ने उससे कहा-जो इच्छा हो सो मांग लो-तब वीगारव ने-आपके सुगर के मोड़ों की जोड़ी में से एक मोड़ा दीजिये-मांगा।
कुमार ने कहा अरे! मांगका भी तेने क्या मांगा? कोई दारिद्र पनाशक वस्तु तो मांगनी थी। खैर, अपने मित्र गुणचन्द्र को भेजकर सुवेगरथ मंगाया और बीणावं से कहा गायक ! एक घोड़े से तुम्हारा काम नहीं बनेगा। ली यह रथ और यह घोडों की जोड़ी ओर भी धम मालं उसे इमाम में दिया। चारों ओर से बाह ! वाह की जयध्वनि होने लगी।
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बीमारप गायक ने श्रीचन्द्र की कामदात श्लोक पढ़ें। __ आस्ये पद्मधिया गभीरहृदये वारांनिधेः शंकया
नाभौ पद्मनभ्रमाक्रम-कर-द्वन्द्व ऽरुणाजेहया ।
फुल्लेन्दीवर-वाग्छया नयनयो दन्तेषुवीकर: भ्रान्त्या कल्पतरुभ्रमेण वपुषि श्रीचन्द्र ! ते श्रीरभूत् ॥ - अर्थात्-हेश्रीचन्द्र ! आपके मुख में कमल मानकर, गंभीर हृदय में समुद्र की शंका से, नाभि में पचहद की भ्रांति से, चरणों में और हाथों में लाल कमल की भावना से, नयनों में नील कमल की चाहना से, दातों में बजाकर की भ्रान्ति से, और शरीर में कल्पवृक्ष के भ्रम से लक्ष्मी रह रही है। * , क्षारो वारिनिधिः कलंक-कलुषश्चन्द्रो रविस्तीब्ररुक,
जीमूत श्चालाश्रयोऽथि-पटलादृश्यः सुवर्णाचलः
काष्टं कल्पतरु ईषत्सुरमणिः स्वर्धामधेनुः पशुः . 1. श्री चन्द्रास्ति सुधा द्विजिव्हविधुरा तत्केन साम्यं तव ॥
अर्थात्-हे श्रीचन्द्र ! अगर तुम्हारी समता समुद्र से करें तो वह खारा है। चन्द्रमा से करें तो वह कलंकी है। सूर्य से करें तो वह असह्य ताप वाला है। बादल से करें तोवह जलाने वाली चपल बीजली का पात्रक है। मेल
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(१२)
से करें तो वह याचकों के अगोचर है। कल्पवृच से करें तो वह काष्ठरूप है । चिन्तामणि से करें तो वह पत्थर मात्र है । कामधेनु से करें तो वह केवल पशु ही है, और अगर अमृत से करें वो वह शेषनाग आदि सांपों से घिरा हुआ है अतः कुमार थाप उपमा के अभाव में अनुपम हैं।
उस समय वहां दूसरे भी कई कवि उपस्थित थे । उन्होने भी श्रीचन्द्र की प्रशंसा में बड़े सुन्दर २. श्लोकों की रचना सुनाई। कुमार ने उनका भी यथायोग्य धन और वस्त्राभूषणों से सत्कार सन्मान किया । इस प्रकार अन्यान्य भाट चारण आदि याचकों को कुमार ने इच्छा से अधिक दान देकर सन्तुष्ट करके विदा किया ।
वहां उस समय उस उत्सव में आये सभी लोग कुमारद्वारा सन्मानित और सत्कृत होकर कुमार की उदारता से चकित चारों ओर कुमार के गुणों की और भाग्य की प्रशंसा करने लगे । लोग कहने लगे राजा और राजकुमार भो क्या दे सकते हैं जितना कि इस श्रेष्ठि-कुमार ने दान दिया है। इस प्रकार सुन्दर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष प्रसन्न हो अपने २ उतारे पर गये !
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रथ के हाथ से निकल जाने पर सेठ लक्ष्मीदत्त को बेहद दुःख हुआ । साथियों ने भी नमक मिर्च लगाकर
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( १७६ )
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सेठ को उस जित किया । सेठ ने कुमार से एकान्त में कहा—श्रो मेरे प्यारे बेटे ! तुमने जो कुछ दानादि कार्य किये, ठीक किये। पर पिता होने के नाते कुछ कहना चाहता हूं। बेटा ! अपन बनिये हैं । राजाओं से श्रागे बढ़कर दान नहीं करना चाहिये । तुम स्वयं भी जानते ही हो, धीरमंत्री से भी तुमने सुना ही है, कि वे जयकुमार यादि राजकुमार तुमसे द्वेष रखते हैं । वे छिद्र देखते हैं। मौका पाते ही तुम्हें हानि पहुँचाना चाहते हैं। अगर सावधानी न रही तो वे प्राण लेने से भी नहीं चूकेंगे । बेटा ! तनिक तो सोचो, जिन घोड़ों की कृपा से तुमने इतनी पृथ्वी देखी और बड़े २ असम्भव कार्य भी किये हैं, उन घोड़ों का विना सोचे समझे योंही किसी को क्या दान कर देना चाहिये था ? पुत्र ! कहना मानो, घोड़ों समेत रथ का मूल्य देकर वापस लेलो ।
अपने पिता के वचनों का उत्तर देते हुए श्रीचन्द्र ने कहा - "पिताजी ! मनुष्य को कभी अपने आपको किसी से भी हीन नहीं समझना चाहिए । मैं बक्काल बनिया नहीं बनना चाहता हूँ । पहले शाह फिर बादशाह की कहावत को मैं चरितार्थ करना चाहता हूं। माना कि वे राजकुमार मेरे से द्वेष करते हैं, पर मनुष्य को हमेशा तदबीर करते हुए भी अपने तकदीर पर भरोसा रखना
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महिने। किसी की भी सकत नर्स, जो जीपी राह पर सोरमारा कोई भी अंका कर सके। पिताजी! आपकी अंतिम बात स्व को वापस लेने के लिये है-क्षमा कीजियें। आपकी प्राज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य होते हुए भी मैं पालन नहीं कर सकुमा.। क्योंकि "दान को वापस लेना"-मैंने कहीं पढ़ा नहीं कभी सीखा भी नहीं। भाग्य से मिली वस्तुयें फिर भी भाग्य से ही आमिलेंगी । मुझे इसमें कोई संदेह नहीं। .. - पुत्र के प्रत्युत्तर को पाकर सेठ. इतप्रभ होकर चूमता हमा बोला-वत्स ! छोटे मुंह बड़ी बात नहीं करनी चाहिये ! ये घोड़े, ऐसा रथ अन्यत्र अप्राप्य है। इनका दान मुझे ठीक नहीं मालूम देता । अतः इनका मूल्य देकर ले लेना ही ठीक होगा। .
- पिता की बात सुनकर कुमार चुप होगया, और अपने महल में चला गया। एकान्त में सोचने लगा-अहो परतन्त्रता में कितना दुख है। इसी पराधीनता से प्रादमी किं.कर्तुन्य मूढ होकर कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाता है। अतः अब मुझे यहां नहीं रहना चाहिये। : अगर मैं यहां रहूँगा तो स्वाधीनता से सुमे घुमने-फिरने, लेने-देने और प्रत्येक काम में पड़ी कठिनाइयों का सामना करावा पखेमा । अब
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मैं ले साहसी है। साहस से क्या सिद्ध नही होता १ कहा
... को विदेशः सुविधानां, किं दूर व्यवसायिनाम् ।
कोऽतिभारः समर्थानां, कपरः प्रियवादिनाम् ।।
अर्थात-विद्वानों को कोई विदेश नहीं, व्यवसाय कर ने वालों को कोई स्थान दूर नहीं, समर्थ पुरुषों के लिये कोई भार, भार नहीं और प्रिय बोलने वालों के लिये कोई पराया नहीं हुआ करता है। ___ साहस के साथ की हुई विदेश यात्रा से अनेकों लाभ होते हैं कहा भी है
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दीसइ विविहच्छरियं, जाणिज्जई सुयणदुज्जणविसेसो । अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए॥
अर्थात्-अनेक प्रकार के श्राश्चर्य देखने को मिलते हैं। सज्जन दुर्जनों की विशेषतायें भी जानने को मिलती हैं। अधिक क्या? आदमी को अपनी ताकत का भी अंदाज लग जाता है । इसीलिये पृथ्वी में विदेश यात्रा के लिये चलना चाहिये।
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.:४२ :) मार सोचते हैं भान रात को ही चुपके से सके यहां से . चल देना चाहिये । मुझे थोडा बहुत विचार-नवपरिणीता
चन्द्रकला का है। यह मेरे विना जल हीन मीन की तरह छटपटाती हुई प्राणों को कैसे धारण कर सकेगी। इसने मेरे लिये अपने माता पिता को और राज्य-सुखों को छोड़ कर, दर्शनमात्र से ही मुझे अपना लिया है। यह मुझ में अत्यन्त अनुरागवाली है। इसने मेरे लिये राज-कुल के रीति-रिवाजों और नियमों का परित्याग करके वणिक-कुल के रीति-रिवाजों एवं नियमों को विना किसी हिचकिचाहट के अपनाये हैं । इस हालत में इस प्यार की प्रतिमा को 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' जैसी हालत में छोड़ जाना भी क्या ठीक होगा ? अगर मैं ऐसा करता हूं तो संसार में इससे बढकर दूसरा क्या अन्याय, और विश्वासघात हो सकता है ? । दुनियां मेरे ऐसे कर्तव्यों पर थूकेगी, और मुझे घृणा की दृष्टि से देखेगी।
तो क्या मैं ऐसा साहस न करू १ नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता । मैंने अपने विचारों से पीछे हटना कभी सीखा ही नहीं। मैं उन पुरुषों में से नहीं हूँ, जिनके मनोरथ अधूरे ही रहजाते हैं अतः मैं यहां से जाउंगा तो जरूर उसमें कोई संदेह नहीं। मैं पुरुष हूँ, पुरुषार्थे मेरा धर्म है। अगर मेरे विचारों और स्वतंत्रता के मार्ग में
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( १८३ ) कोई रोड़े आयेंगे तो मैं उन सब को चीरता-फाडता फांदता-लांघता चला जाउंगा। मै अपने विचारों से तनिक भी टस से मस नहीं होगा।
मुझे नतो किसीका भय है, और न किसी की चिन्ता है । यदि थीडी बहुत चिन्ता है तो चन्द्रकला की है। अतः इसे अपने दिल की बात कह कर के, ठीक ढंग से समझा बुझा कर, प्रसन्न करके हो जाउंगा।
".
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२२
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।
मनोयोगते होत है, नीच ऊंच परतीत ॥ जीवन में मन-मजबूत आदमी ऊंचे उठते हैं। मन की विचार धारा ही हमारे प्राचारों को ठीक और बेठीक बनाती है। की हुई प्रतिज्ञा को निभाने में मन ही तो कारण होता है। अगर मन शिथिल हो जाय, तो मानव महामानव नहीं बन सकता । शिथिल मन वाले की स्थिति घास फूससे भी गई बीती होती है।
श्री चन्द्रकुमार अपने मन की तरंगों का तोल जोख कर रहा था। मजबूती से अपने जीवन में मनोयोग को लगा रहा था । अपनी जीवन-संगिनी चन्द्रकला को भी
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( १८५ ) अपने मनो विचारों के अनुकूल बनने की वह सोच रहा था । ऐसे प्रसंग मे वहां उसका अभिन्न-मित्र गुणचन्द्र भी पहुँच जाता है । दोनों आपस में कोई बात छिपाते नहीं थे। जो बात श्रीचन्द्रकुमार को दूसरे आदमी नहीं कह सकते थे, वह बात गुणचन्द्र के द्वारा कुमार के पास पहुंच जाती थी।
आज भी ऐसी ही एक घटना को लेकर कुमार के पास गुणचन्द्र पहूँचा है। अपने विनीत-विचारों को बड़ी . गंभीरता से वह कुमार के सामने रखता है
माननीय कुमार ! पिताजी के उस समय के वचनों को सुन कर गायक वोणारव ने मेरे द्वारा आपसे प्रार्थना कर वाई है, कि मैंने जयकुमार आदि राज-कुमारों की सिखावट से ही रथ और घोड़ों की मांगनी की थी। मैं राज-कुमारों के पास नहीं जाउंगा। आप कृपा करके दान किया हुआ रथ मुझ से लेलें, और उसके बदले में यथायोग्य सुवर्ण प्रदान कर दें। आप को रथ दान का बडा मारी फल तो प्राप्त हो ही चुका है। गायक वीणारव उस रथ को और घोड़ों को वापस आपही को बेचना चाहता है । आप सारे संकोचों को छोड़ कर इस बात को मान लें । वह कहता है, हमतो आपके याचक हैं. और रहेंगे । आपने जितना दान दिया है, उतना और कौन
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( १८६ ) देगा ? अतः आप कृपा करके एवजाना देकर इस रथको वापस ग्रहण कर लें ।
यह सुन कुमारने मित्र - गुणचन्द्र से कहा, " मित्र ! जाओ, उस गायक से कह दो, कि जो कुछ तुम को दिया गया है, वह तुम्हारा ही है । दिया हुआ दान कभी वापस नहीं लिया जाता । विचार शील पुरुषों के मुह से निकले हुए वचन हाथी के दांतों की तरह वापस अन्दर नहीं जाते । जो कह दिया, सो कह दिया । वह तो मिट रेख बन ही जाती है। इसके हजारों उदाहरण भारतीय इतिहास में भरे पडे हैं
सिंह-गमन सुपुरुष वचन - केश फले इकबार । तिरिया- तेल हमीर-हट - चढे न दूजीवार |
और भी
सकृजल्पन्ति राजानः, सकृज्जयन्ति पण्डिताः । सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥
अर्थात् - राजाओं के बचन, उत्तम पण्डितों के वचन जो निकल गये वो निकलगये, वार २ नहीं बदलते, और कन्या भी - एक वार ही व्याही जाती है वार वार नहीं । अतः उस बीणारव गायक से कह दो, कि अगर तुम्हारी
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' ( १८७ ) ओर कुछ लेने की इच्छा हो तो मांग लो, और लेकर चले जाओ । रथ वापस नहीं लिया जा सकता।
कुमार की इस दृढ भावना को जानकर गुणचन्द्रने चीणारव को वहां से विदा किया । वह वापस कुमार के पास आया। कुमारने भावी वियोग की सूचना बडे दुःखित हृदय से देते हुए कहा, "मित्र गुणचन्द्र ! मेरे और पिताजी के विचारों में अंतर है । स्वभाव के न मिलने से हर बात में खींचातानी बनी रहती है। इस हेतु से मैं अपनी उन्नति और उत्कर्ष में बाधा पहुंचाने वाले पिता के पास नहीं रह सकता । अपना स्वाधीन जीवन बीताने की भावना से मैं यहां से अन्यत्र जाना चाहता हूँ।
एकाएक कुमार की बात को सुन घबडाया हुआ गुणचन्द्र कहने लगा-कुमार ! क्या कहते हो ? ऐसा करना ठीक नहीं होगा। आपको किस चीज का प्रभाव है? धन धान्य ऐश्वर्य और सम्पत्ति सभी तो आपके पास मौजूद हैं। आप अपनी इच्छानुसार उपभोग कर सकते हैं। आप को ऐसे विचार मनमें नहीं लाने चाहिये।
इस प्रकार मित्रों की बात हो ही रही थी कि धनंजय नाम का सारथी भागता, हांफता वहां प्रापहूँचा, और कुमार से कहने लगा, स्वामिन ! आपकी आज्ञा से
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(१८८ )
वीणा परिवार के साथ रथ पर बैठ कर अपने घर की और रवाना होने लगा, तो वे दोनों उत्तम घोडे हठात् उसे श्रीपुर की और ले गये । प्रयत्न करने पर भी वे उसके घर की ओर न चले ।
कुमार घोडों की स्वामी भक्ति को समझ गया । वह कुछ घुड सवारों को साथ ले कर श्रीपुर जा पहूचा । अपने स्वामी को देखते ही घोडे हिनहिना उठे । अपनी मूक. वाणी में स्वामि के प्रति स्नेह सम्मान प्रदर्शित करने लगे । कुमार की आंखें भी इस पशु-प्रेम से छल-छला गई ।
बाद में कुमार ने घोडों की पीठपर बड़े प्यार से हाथ फेरते पुचकारते हुए कहा प्यारे बाज बहादुरों ! तुम्हारे गुण अवर्णनीय हैं। तुमने मुझे अपार सुख दिया है । मैं तुम्हें अपने से जूदा करना नहीं चाहता था, परन्तु क्या किया जाय, समय ही ऐसा उपस्थित हो गया, कि मुझे अपने वचन की रक्षा के लिये तुम्हें इस गायक के हाथ सौंपना पडा है । अतः अपने स्वामी की वचन - रक्षा के लिये इसके साथ तुम खुशी से जाओ। तुम बडे स्वामीभक्त हो । अधिक क्या कहू ।
यह सुनते ही घोडों ने अपने स्वामी के प्रति कृतज्ञता जताते हुए वीणारव को लेकर उसके गम्य प्रदेशकी
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( १८ ) ओर मुडे । वीणाव भी कुमार को आशीर्वाद देता हुआ अपने घर की ओर चला गया।
विदेश-गमन के अपने दृढ-विचारों को कार्यान्वित करने के लिये कुमारने मित्र-गुणचन्द्र को सभी अधिकारियों का स्वामी, और धनंजय को प्रधान सेनाधिपति बना दिया। इसी तरह नगर-रक्षक, दुर्गरक्षक, प्रासाद-रक्षक
आदि २ पदों पर योग्य २ अधिकारियों की नियुक्ति करके अपने २ कामों को सुचारु रूपसे संचालित करने की आज्ञा दे दी । महाराज प्रतापसिंहसे प्राप्त श्रीपुर नगर को कुमार ने दूसरी अमरावती बनादिया।
बाद में कुमार ने राजसी वेश-भूषा और राजसी ठाठ बाठ के साथ राजा की तरह अपने भवन में प्रवेश किया इधर तिलक पुरकी राज कुमारी के साथ कुमार के ब्याह का आमंत्रण लेकर आने वाले प्रधान श्रीधीर मन्त्री गुणचन्द्र के साथ सेठ लक्ष्मीदत्त के पास पहूँचे और सेठ को कुमारके विवाह का निमन्त्रण दिया। . सेठ लक्ष्मीदत्त ने मंत्री से कहा-'महोदय ! आप दो दिन और प्रतीक्षा करें। एक दो दिन में कुमार श्रीचन्द्र महाराजा से मिलने को जायगा तब आप भी साथ चले जाना, और विवाह के लिये निवेदन कर देना । महाराजा की आज्ञा मिलते ही हम कुमार को तिलकपुर भेज देंगे।
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(१९० ) हमारी पुत्र-वधू चन्द्रकला महारानी सूर्यवती की भानजी हैं अतः यह भी उनसे मिलेंगी।
धीर मंत्री ने भी सेठ के विचारों को पसंद किया, और महाराजा से मिलने की प्रतीक्षा करता हुआ अपने उतारे पर पहुंच गया। मित्र-गुणचन्द्र ने कुमार श्रीचन्द्र को इन सारी बातों से सूचित कर दिया। कुमार भी मित्र के साथ कुछ गुप्त-मन्त्रणा करके वहां से ऊठा और भोजनशाला में जा पहुँचा। वहां सेठानी से "माता जी ! मुझे भूख लगी है लड्डु दीजियें" कह कर भोजन करने बैठ गया।
वात्सल्यमयी माताने बड़ी-प्रसन्नता से उसे थालमें बहुत लड्डु परोसे । उसने अपनी पत्नियों उनकी सखियों अादि सभी को लड्डु बांटे और खुदने भी खाये । इस प्रकार अपने सारे कुटुम्ब के साथ-वैकालिक-दुपहरी करके वह कुमार श्रीचन्द्र अपने महल में आया । अपनी रीयासत कणकोट्टपुर के मंत्रियों के साथ लिखा पढी के काम में भी गुणचन्द्र को नियुक्त किया दूसरे भी जिस २ को जिस २ काम पर नियुक्त करना था, किया। इस प्रकार विदेश जाने से पहिले सारी तैयारी जो करनी थी, कर ली। महापुरुषों की महत्ता उनके विचारों की दृढता और योग्य कार्य-सरणी को अवलम्बित हुआ करती है।
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सूर्य अपने प्रकाश को समेटता हुआ पश्चिम की ओर जा पहुंचा । व्यापारी अपने ग्राहकों को निपटाते । हुए दुकान से घर की ओर चलने की तैयारी करने लगे । गुमास्ते नौकरी बजाकर अपने बाल-बच्चों से मिलने की उत्कंठा से प्रसन्नता के साथ अपने स्वामियों की दृष्टि से ओझल होने लगे । धार्मिक लोग सूर्य - नारायण के अस्त होने के दुःख से रात्री भोजन को पाप रूप मानकर दिन रहते रहते भोजन - विधि से और जल-पान से निवृत्त होने लगे । संध्या की उपासना के लिये ब्राह्मण अपने गायत्री मंत्र जाप के साथ संध्योपासना करने लगे मन्दिरों में भगवान की आरती उतारने की तैयारी में बच्चे अपने प्रिय घण्टा घड़ियालों को बजाने की धुन में मन्दिरों में
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( १६२ )
पहुँचने लगे । संध्या के शंख फूंके जाने लगे । पक्षी दिन भर चुगा करके अपने घौंसलों को और नन्हे २ बच्चों को चुगाने और प्यार करने लगे । गाय-भैंसों के टोले जंगलों से चर कर अपने मधुर दूध से अपने पालकों के पात्र भर कर जुगाली करने में लग गये । श्राकाश ताम्रवर्णी-लाल सूर्ख हो गया। बादले पहाड़ - हाथी-घोड़ा आदि रूपों में परिणत होते और बिखरते हुए संसार की असारता के पाठ पढ़ा रहे थे अर्थात् पूर्णतया संध्या वेला हो चुकी थी ।
कुमार श्रीचन्द्र अपने विदेश गमन के दृढ विचारों को कार्य रूपमें परिणत करने से पहिले, अपनी प्राण प्यारी चन्द्रकला के महल में उसकी श्राज्ञा पाने के लिये पहु ंच गया ।
हर्ष की अधिकता से उत्कण्ठित चित वाली चन्द्रमुखीचन्द्रकला ने अपने प्राणनाथ की पधरावणी में अपने चिरकाल के मनोगत संकल्पों की सिद्धि का साक्षात्कार किया । खूब घुल घुलकर मीठी प्यार भरी बातें की । आपस में उनका मनोमेल हुआ । वाणी में वे एक-रस हुए। काया से भी उनने अद्वेत का आनन्द लिया । चन्द्र को पाकर कला पूर्ण प्रसन्न हो रही थी तभी कुमार ने अपने मनोगत भाव उसे कहने शुरु किये ।
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( १६३ )
करते
प्रिये ? आज पिताजी ने मुझे वीणारव को रथ-दान हुए टोका । इस थोड़े से दान से भी वे रुष्ट होते हैं, तो बताओ ? मैं कैसे अपनी इच्छानुसार दान कर सकता हूँ । पिताजी ने आज से पहिले कभी कुछ न कहा, और मैंने भी उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं किया। परन्तु आजकी बात से मेरा दिल टूट गया । दान किये घोड़ों को मूल्य देकर वापस लेने का पिताजी का आग्रह मुझे ठोक नहीं मालूम दिया ।
अयि चतुरे ! मैं मानता हूँ कि माता पिता और गुरु की शिक्षा अमृत से भी अधिक मूल्यवान् होती है"फिर भी उसे मैं मान नहीं रहा हूँ । | अतः मैं पुण्य हीन हूं, क्योंकि आज मेरा मन भी हठी हो रहा है । देखो ! पिता की आज्ञा से राम वनवासी हुए। पिता को सुख पहुचाने के लिये भीष्म ने आजन्म ब्रह्मचारी रहना स्वीकार किया । पिता की आज्ञा से परशुराम ने अपनी ही माता का सिर काट लिया। अब तुम्हीं बताओ पिता की श्राज्ञा का उल्लंघन करने वाले मुझ जैसे कृतघ्न की क्या सभ्य संसार में हँसी नहीं होगी ? कहा है
तात मात गुरु स्वामी सिख सिर घर करहिं सुभाय ।
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( १६४ ) लझो लाभ तिन जनम को
ता विन जनम गमाय ॥ ऐसा होने पर भी मैंने जो कुछ भला या बुरा किया है, वह धर्म संकट में फंस कर किया है। मेरे सामने दो ही माग थे एक पिता की आज्ञा का पालन, दूसरा अपने कहे वचन की रक्षा । इनमें से मुझे एक चुनना था । मुझे वचन-रक्षा का मार्ग ही अभीष्ट और मनस्तुष्टि वाला लगा। अतः मैंने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया है।
चन्द्रकला ने मन ही मन में अपने स्वामी की उदारता, गुरुजनों की भक्ति, वचन-रक्षा आदि की प्रशंसा करते हुए कहा "स्वामिन् ! दान-पुण्यादि कार्यों में आपकी जैसी बुद्धि है वह प्रशंसनीय है। इतने बड़े कुटुम्ब में सबकी बुद्धि एकसी नहीं होती कोई कुछ और कोई कुछ करना चाहते हैं। आप किसी बात की चिन्ता न करें।
आपका सब तरह से कल्याण होगा। मैं मानती हूं भविष्य में श्राप एक बड़े राजाधिराज होंगे। . :
यह सुन उस दीर्घदर्शी कुमार ने प्रेम-ग्रन्थि के साथ २ शकुन-ग्रन्थि भी बांध ली, और बोला-प्रिये ! मैं मानता हूं तुम्हारी सरस्वती सफल होगी। पर अभी मैं
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(१५) यहां स्वतंत्रता को खोकर अपनी उमति कैसे कर सकता हूँ ? । मैं आदरणीय गुरु-जनों का अनादर करके यहां हिना उचित नहीं समझता। अतः मैं विदेश जाना चाहता हूँ। मेरे ये सारे ऐश्वर्य और सुख भो न मालूम माता पिता या स्त्री-किसके भाग्य से प्राप्त हैं, इसका भी पता नहीं है । अतः भाग्य-परीक्षा के लिये भी विदेश जाना मेरे लिये उचित है । मैं कुछ दिनों में पृथ्वी के कौतुकों को देखकर यहां शीघ्र लौट पाऊँगा।
श्रीचन्द्रकुमार के इन वचनों को सुनते ही चन्द्रकला छिन्न-मूला लता की तरह धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसका सारा शरीर पानी पानी हो गया। उसका अंतःकरण कोई अतर्कित दुःख से फटने लगा। भारी दुःख भार से वह रो पड़ी। विलाप करती हुई वह कहने लगी, देव ! आप यह क्या कह रहे हैं ? आपके चले जाने पर मेरे वियोग-दुःख का क्या पार होगा ? लोग मुझे विष कन्या कहेंगे । पति के सासु के और श्वसुर के दुःख का कारण बतायेंगे। ओ प्राणनाथ ! आप यहीं रहें । आपको किस बात की कमी है ? आपके हाथी, घोड़े, सेना और धन का कोई पार नहीं है। आपके बड़े भाग्य की परीक्षा कई वार हो चुकी है। उसमें कोई सन्देह बाकी नहीं है।
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इस प्रकार रोती-विलखती चन्द्रकला को आश्वासन देते हुए कुमार ने कहना प्रारम्भ किया :
कल्याणि ! तुम मेरे मन को जानने वाली, और बड़ी धीरज वाली होकर भी आज अपना धीरज खो रही हो, यह क्या ? देवि ! रोप्रो मत । तुम-वीर क्षत्रियानी हो । संसार के दुःखों को जानती हुई भी अनजान कैसे बन रही हो ? तुम्हारा कहना सब सच है, किन्तु जो कुछ सुसगल वगैरह से मिला है वह मुझे रुचिकर नहीं हो सकता । मेरी महत्ता तो मेरी भुजाओं से उपार्जित धन से एवं उसके दान से ही हो सकती है। तुम पर मेरा बड़ा भारी स्नेह है, इसीलिये मैं माता पिता और कुटुम्बियों को न पूछ कर केवल तुम्हें ही पूछने-आया हूँ । अतः तुम रोना छोड़कर धीर मन से मुझे अनुमति प्रदान करो। जिससे मैं अपना मन चाहा काम-विदेश-गमन कर सकू।
चन्द्रकला कहती है प्राणाधार ! आपकी विलक्षण बुद्धि और पुरुषार्थ के सामने मेरा अनुत्तर हो जाना कोई विशेष बात नहीं है लेकिन आप मेरी इस तुच्छ प्रार्थना को भी स्वीकार करें कि यदि आप किसी प्रकार भी नहीं रुक सकते हैं तो इस अभागिन एवं अकिंचन नारी को भी साथ लेते जावें । सुख दुःख में मैं आपकी सहगामिनी
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( १९७ ) हूँ तथा मेरा स्त्री धर्म भी मुझे बार बार प्रेरित कर कहता है कि-मैं छाया की तरह सदा आपके साथ साथ बनी रहूँ । सीता जैसी धीर और महान् नारी भी पतिवियोग के समय क्या कहकर रामको उसे साथ ले जाने के लिए प्रेरित करती हुई कहती हैं कि :
जब लगि नाथ, नेह अरू नाते, पिय धिन तिय हिं तरणि ते ताते । भोग रोग सम, भूषण भारू,
नरक यातना सरिस संसारू । . हे स्वामिन् ! जबतक आप हैं तबतक कुटुम्बियों से प्रेम और-रिश्ता नाता है। पति के बिना स्त्री को वे सब सूर्य से भी बढकर तपाने वाले हो जाते मैं, भोग रोग के समान तथा गहने भारभूत हो जाते हैं, और यह सारा संसार नरक के कष्टों की तरह बड़ा दुखःद बन जाता है। अतः स्त्री संसार में माता पिता आदि के वियोग के दुःख को सहन कर सकती है परन्तु पति के वियोग को क्षणभर भी नहीं सह सकती । नाथ ! मै आपको ही पूछती हूं कि क्या सीता राम के साथ वन में नहीं गई ? क्या नल के साथ दमयन्ती वन वन भटकती नहीं फिरी ? क्या द्रौपदी ने पाएडवों के
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( १८ ) साथ वन में रहकर असम कष्ट न सहे ? क्या राजपूत रमणियां पतिवियोग में जिन्दा जलकर नहीं मरी ? आप शास्त्रज्ञ होते हुए भी सती माहात्म्य को क्यों भुला रहे हैं ? आप महान् हैं, अतः किसी भी समय तथा किसी भी स्थान पर, आपको दुःख बाधित नहीं कर सकते । पर मुझ तुच्छ नारी को आपके बिना स्वर्ग में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । मैं आपके साथ पथ-बाधा बनकर न रहंगी तथा आपकी सेवा करती रहूंगी। अतः हेप्राणाधार ! मुझे साथ चलने की आज्ञा दीजिये। ___यह सुन करुणा हृदय कुमार बोला पद्मिनी ! तुम्हारा कथन अनुचित नहीं पर मार्ग की कठिनाइयाँ तुम्हारे कोमल शरीर से कैसे सही जायगी । सूर्य की प्रचण्ड किरणों से संतप्त पृथ्वी पर तुम चलने में कैसे समर्थ हो सकोगी। कहीं मार्ग में बसेरा मिलेगा कहीं नहीं, मार्ग में पद पद पर तुम्हें दुःख होगा, और तुम्हें दुःखी देखकर मुझे दुःख होना अवश्यम्भावी है अतः जितना उपकार तुम घर पर रह कर मेरा कर सकती हो उतना साथ रहकर नहीं ! तुम्हारे साथ रहते हुए मेरे उद्देश्य की सिद्धि में भी कई बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। क्या तुम्हें मालुम नहीं कि राम के साथ वन में लक्ष्मण
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( १ ) को जाते देखकर उनकी सती-स्त्री उर्मिला ने भी साथ चलने का मनोभाव प्रकट किया था ? तब लक्ष्मण ने कहा था, कि उसके साथ रहने से उनके आराध्य देव राम की उपासना और सेवारूपो उद्दश्य में बाधा पहुँचेगी । अतः उसका साथ चलना ठीक नहीं । उर्मिला ने अपने पति लक्ष्मण की उद्देश्य सिद्धि में विघ्न बनना उचित नहीं समझा और अपना धर्म विचार कर साथ जाने का इरादा छोड दिया । अतः तुम भी मेरी अज्ञा को अपना धर्म मान कर साथ चलने का इरादा त्याग दो,
और यहीं रहो । यदि तुम्हारा मन यहाँ न लगे तो अपने मायके अथवा ननिहाल इत्यादि अपने इच्छित स्थानों पर रहती हुई तुम देव पूजादि धार्मिक कृत्यों में रत रहकर मेरे कठिन मार्ग को सुगम बना सकती हो । क्यों कि तुम्हारे धर्म और शील के प्रभाव से मेरे सारे अनिष्ट नाश हो जायेंगे तथा मैं सुख और शान्ति का अनुभव करूंगा।
इतना कहकर कुमार ने उसके आंसू पौंछे तथा यथेप्सित वस्तुएं प्रदान कर हित की बातें समझाकर तथा दास दासियों सखी सहेलियों व मित्र की उनको भलामन देकर जाने को तैयार हुआ।
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( २०० ) पति को विदेश यात्रा के लिएदृढ-संकल्प देख पति का हित चाहने वाली पद्मिनी चन्द्रकला ने गद् गद् स्वर में कहा:
मागा इत्यपमंगलं व्रज इति स्नेहेन हीनंवचस्तिष्ठेति प्रभुता यथा- रुचि कुरुष्वैषायुदासीनता । स्पर्थेऽन्वेमि तवेत्यसग्रह-वचो नैमीति वाक्तुच्छता प्रस्थानोन्मुख ! ते प्रयाण-समये वक्तु कथं वेद्यहम् ।।
यदि मैं ऐसा कहूँ कि मत जाओ तो यह अमंगल होगा। अगर कहूँ कि जाओ तो मेरा वचन बडा ही स्नेह हीन होगा। अगर कहँ कि ठहरो तो ऐसा कहना अपनी प्रभुता प्रकट करना है। यदि ऐसा कहूं कि आपकी इच्छा के मुताविक करो तो इसमें उदासीनता मालुम होती है। यदि साथ चलने का कहूं तो यह मेरा कदाग्रह होगा। अगर साथ न चलने का कहूं तो मेरी वाणी की तुच्छता प्रकट होगी। अतः हे स्वामिन् आपके प्रस्थान के समय में मैं कुछ भी नहीं बोल सकती । परन्तु फिर भी मैंने किसी समय अपने गुरु के मुखारविंद से नवकार मंत्र के बड़े भारी महत्व को सुना है, अतः आप इसे धारण कर लीजिए। यह आपको शिरस्त्राण, मुखपर कवच, आयुध और पदत्राण का काम देगा । सदैव यह आपकी प्राभ्यन्तर और बाह्य रक्षा करेगा। युद्ध में संकट
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( २०१ )
मैं और मार्ग में नित्यप्रति स्मरण करने पर यह नवकारमंत्र आपका सच्चा सहायक होगा। चौर, शत्रु, डाकू, सर्प, व्यन्तर और वैताल आदि के भय से आपकी रक्षा करेगा और सब प्रकार की सुख सम्पत्तियाँ प्रदान करेगा ।
तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं, पुनरस्तु त्वरितं समागमः अपि साधय साधयेत्सितं, स्मरणीयाः समये वयं वयः ॥ प्राणनाथ ! आपका मार्ग कल्याणकारी हो । आपका कल्याण हो पुनरागमन अति शीघ्र हो । मार्ग में आपके अभीष्ट सिद्ध होते रहें । कभी कभी मुझे भी अपना स्वजन जान याद करते रहें ।
इस प्रकार मंगल कामना करती हुई चन्द्रकला के द्वारा बोले गये प्रिय तथा सुमधुर वचनों का कुमार ने स्वागत किया । कुछ समय तक प्रस्थान - काल में किया जाने वाला प्रेमपूर्ण वार्तालाप किया । चन्द्रकला के द्वारा शुभकामना से शकुन के लिए दिया गया फल स्वीकार कर कुमार उठ खड़ा हुआ । नित्यप्रति की ही पोशाक पहने हुए तथा थोडासा पथ- साधन लेकर, सती साध्वी प्रियतमा को आश्वासन देकर और अन्तिम बिदाई लेकर कुमार घर से निकल पड़ा ।
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रात्रि का द्वितीय प्रहर था । निस्तब्ध निशा के अन्धकार में नगर की बड़ी बड़ी सड़कें भी जनशून्य हो रहीं थीं। दिन की सी धूमत्राम बाजारों में नहीं थी, और न ही उमड़ता हुआ जनसमूह कहीं दिखाई पड़ रहा था । कहीं कोई इक्का दुक्का मानव तेजी से निज गृह की ओर लपकता हुआ दिखाई दे जाता था। बाजारों तथा गलियों का जगमगाता तेज प्रकाश भी मंद हो गया था, केवल चौराहे ही तेज प्रकाश युक्त थे । सब अपने अपने घरों में आराम कर रहे थे। घर के बाहर की दुनिया का किसे ध्यान था । सब अपने अपने राग में मस्त थे । ठीक इसी समय हमारा तेजस्वी कुमार श्रीचन्द्र सुगमता पूर्वक चला जा रहा था | मुख पर शान्ति विराज रही थी । किसी भी
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प्रकार का खेदजनक विष्टिगोचर नहीं हो रहा था। अपनी धुन में मस्त कुमार मस्ती से बढ़ा जा रहा था, प्रासानी से वह थोड़ी ही देर में नगर से बाहर आ पहुँचा।
नगर के बाहर निर्जन में एकाकी कुमार के साथी केवल पूर्वोपार्जित पुण्य-कर्म ही थे। कुमार शकुन शास्त्र का ज्ञाता था तथा, उसमें विश्वास भी रखता था, अत: कुछ देर ठहर कर अनिश्चत की ओर बढ़ने से पहले उसने ध्यानपूर्वक पचियों की बोली सुनना प्रारम्भ किया। जिस तरफ शुभ शकुन युक्त पदी बोल रहा था, कुमार ने उसी तरफ प्रयाण किया।
चलते चलते रात्रि बीत गई आसमान में अरुणोदय की लाली छा गई । चिड़ियाँ सुमधुर स्वर में गा गाकर प्रामातिक स्वागत करने लगीं। सुगन्धि-शीतल-धीर समीर चलने लगा । रात्रि में बन्द हुए कुसुम खिलने लगे, और भ्रमर समूह अपने को मुक्त पाकर गुजार करता हुआ उड़ने लगा। मानो बन्धन से मुक्ति पा जाने के कारण होतिरेक से नाचता हुआ अपने मुक्तिदाता सूर्य का यशोगान कर रहा हो। चारों तरफ बिटकी हुई हरियाली
आंखों को तृप्त कर रही थी। पक्षियों की सुमधुर बोली कानों की तृप्ति का साधन बन रही थी। सुगन्धित शीतल
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( ३०४ )
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शरीर क्या नासिका की तृप्ति का कारण समीर चल रहा था। भगवद्भजुन से जिड़ा वृप्ति पा रही श्री । समुस्त इन्द्रियों की लालसाओं की पूर्ति करने वाले इस मनोहर प्रातःकाल की वेला में मन प्रफुल्लित हो उठा । तबीयत हरी हो गई । राह के श्रम को दूर करने के लिए कुमार ने भी एक लघुपुष्करिणी के सुहावन तट पर सघन वृक्ष की छाया में अपना आसन जमाया। उसी स्थान पर एक कनफटा योगी पहले से ही विद्यमान था । योगी महाशय से इधर उधर की बातचीत के बाद कुमार ने कुछ धन देकर उसका साधु-वेश खरीद लिया। अपने कीमती वस्त्राभूषणों को वहीं किसी गुप्त स्थान पर छिपा कर कुमार ने वह साधु-वेश धारण किया और देखते देखते ही एक राजकुमार से कापटिक - बाबाजी के जैसा बन गया । कुछ समय वहीं पर विश्राम कर कुमार ने फिर उत्तर दिशा की तरफ प्रस्थान किया ।
(1):
विचित्र यस्तुओं से भरे इस संसार क्षेत्र में एकाकीकुमार अपने आप में सन्तोष अनुभव करता हुआ चला जो रहा था। मार्ग में कई नगर, ग्राम, नदी, तालाब, बाग-बगीचे, पहाड़, गुफायें, मनुष्य, स्त्री, पशु पक्षी, आदि अनेक साधारण असाधारण आश्चर्यकारी दृश्य
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टिगोचर हुए। जहाँ इच्छा होती वहीं ठहर जाता था। जब इच्छा होती चल देता था । । मार्ग में जन जन के मुख से कुमार श्रीचन्द्र को अपने ही चरित्र-गान सुनाई पड़े। कहीं राधावेध के प्रबन्धन गीत, तो कहीं नृप नन्दिनी तिलकमञ्जरी के उलहने के पद । कहीं सुवेग-रथ और घोड़ों की अद्भुत दान लीला तो कहीं पद्मिनी चन्द्रकला के विवाहले । इस प्रकार बागों में झूले पर झूलती लीलावती-ललनाओं के कोकिल-कंठों से मीठे स्वर में गाये जाते यशो-मान और अनुपम जीवन घटनाएं सुनता कुमार आगे बढता जाता था।
इधर प्रातःकाल होते ही धीर-मंत्री राज-सभा में जा पहुँचा । उसने महाराज प्रतापसिंह के सामने बड़े विनीत
और राजकीय ढंग से कुमार श्रीचन्द्र के विवाह का प्रस्ताव रखा। ठीक उसी समय राजा दीपचन्द्र देव के सेनापति ने आकर पद्मिनी चन्द्रकला के विवाह की सारी मा. महाराजा से निवेदन की। प्रसन्न मनवाले महाराजा ने महारानी सूर्यवती को इन सुखद-समाचारों से अवगत कराया । महारानी ने इन समाचारों से भारी हर्ष प्रकट किया। अपनी बहन चन्द्रवती की पुत्री चन्द्रकला से मिलने के लिये महाराज से प्राज्ञा लेकर महारानी बजे
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सन धन के साथ लज्मीदत सेठ के निवास स्थान पर जा पहुंची। . जब चन्द्रकला ने सुना कि मासीजी मिलने के लिये आ रही है, तो बड़ी तेजी से वह भी स्वागत में सामने आई और बड़े प्रेम से महारानी मासी सूर्यवतीजी को प्रणाम किया । महारानी ने भी उसे हृदय से लगा लिया
और माथे पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिये, कि बेटा! चिरंजीवी रहो। परस्पर कुशल प्रश्न के बाद पद्मिनी चन्द्रकला ने महारानी को अपना महल और दहेज की वस्तुओं को दिखाया। कुटुम्ब सम्बन्धी बातें भी खूब हुई। सेठ को पूछवा कर महारानी चन्द्रकला को अपने राजमहल में ले आई। ... महाराजा चन्द्रकला के विवाह में घटी घटनाओं को सुनकर अचरज में दब गये । कुमार को बुलाने के लिये महाराजा ने अपने खास आदमी मेजे। सेठ लक्ष्मीदत्त ने कुमार के निवास स्थान में पता लगाया पर कहीं भी कुमार की खोज खबर न मिली। सेठ बड़ा चिन्तित हुमा। छाती पोट कर बेहोश सा कहने लगा अरे! मेरा लांडलाबेटा घर से निकल गया है। कहां गया ? उसे ढूंढने के लिये नगर का कोना कोना छान डाला। कुमार के मित्र, सेवक, एवं सिपाहियों को इधर उधर दौड़ाया । सब
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( २० )
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व्यर्थ । सावन भादों में दूज के चांद के जैसे कुमार का कहीं पता न लगा । रंग में भंग हो भया। सभी दुःखी हो गये । गुणचन्द्र पागल सा बेचैन हो गया । जल विना मछली के जैसे छटपटाने लगा ।
I
सेठ लक्ष्मीदरा अपने मन में पश्चात्ताप करने लगे । आंखों में आंसू भर भरकर कहने लगे अरे ! मैं बड़ा अभागा हूं। मैंने व्यर्थ ही बेटे को दुःखी किया । चूभती हुई बात कह दी । हे बेटा ! तू मुझे माफ कर दे, जहां कहीं हो वहां से चला था । अरे ! मैंने वीणारव से उसके दान किये रथ घोड़े मूल्य देकर वापस लेने के लिये जोर दिया, यह अच्छा नहीं किया । मेरे इसी कार्य से वह रुष्ट होकर कहीं चला गया। अब मैं क्या करू ? कहां जाऊं ? मेरा बेटा मुझे कहां मिलेगा ? हायरे ! मेरा लोभ | इस प्रकार सेठ ने विलाप और प्रलाप किये ।
पुत्र वियोग से दुःखी हुई सेठानी भी अपनी आंखों से बोर २ जितने आंसू गिराती हुई विलाप करती हुई कहती है "हाय आज दिन तक मेरे जिस बेटेने मुह से कभी कुछ नहीं मांगा था, उसीने कल मेरे से और अपने कुटुम्बियों में बांट कर स्वयं भी उस समय इस बात को मैं न समझ पाई कि मेरा लाल मेरी आंखों का तारा, हृदय का हार, भीचन्द्रकुमार बुझ
लड्डु मांगे, कुछ खाये ।
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से विदाइ लेकर कहीं जाता है। । अरे बेटा मुझे छोड के कहां मसा रे इस तरह से सेठानी ने भी बेहद दुःख किया ।
जिस प्रकार पानी में पड़ा हुआ तैल, दुष्ट को कही हुई गुप्त बात, एवं पात्र में दिया हुआ दान अपने आप फैल जाता है, उसी तरह कुमार के एकाएक कहीं गुम हो जाने की बात भी सारे नगर में फैल गई । राजकुल में भी उसकी चर्चा हुई । महारानी और महाराजाने भी सुना । सर्वत्र व्याकुलता छा गई । सेठ लक्ष्मीदत्त ने अपने आदमियों को भेज कर पुत्र वधु पद्मिनी चन्द्रकलाको राजकुल से बुलवाया। महारानी की आज्ञा लेकर वह अपने सुसराल में प्रागई । उससे भी पूछताछ हुई । गुणचन्द्र ने कुछ संकेत पा लिया। पर उसने उस संकेत को हितैषी होने के नाते गुप्त ही रखा । . इधर महाराज प्रतापसिंहने श्रीचन्द्रकुमार की खोज में सभी ओर अप' सिपाही भेजे । उन्होंने देश का कोना २ छान लिया, मगर वे कुमार को कहीं भी न पा सके । तीन दिन तक सारी नगरी में शोक सा छा गया । न तो. बाजार ही खुले, और न कोई व्यवसाय ही हुआ । सारे आमोद प्रमोद बंद हो गये। सब के चेहरे उदास और. चिन्तित दिखाई देते थे। ... ... ... ... ....
...
जाता।
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(२६)
सेठ के घर की तो क्या बताय? सारे घर में शोक का साम्राज्य था । सब चित्र लिखितः से बैठे थे। अाहों और सिसकियों के सिवाय कहीं से कोई आहट तक नहीं सुनाई देती थी । न खाने का पता था, न पीने का । सभी कुमार के वियोग , सागर में डुबकियां लगा रहे थे। स्थल पे पड़ी मछली के जसे सब तड़फ रहे थे। इसी अवस्था में रोते बिलखते और शोच करते उनको. तीन दिन बीत गये। ... चौथे दिन कुशस्थलपुर नगर में धर्मघोष नाम के कोई ज्ञानी गुरु पधारे । वनपालक ने महाराजा को बधाई. दी। महाराजा और महारानी अपने परिवार के साथ गुरु-वंदना के लिये पहुंचे । लक्ष्मीदत्त लक्ष्मीवती पभिनी चन्द्रकला आदि ओर भी कई धर्म प्रेमी नागरिक गुरुदर्शन-वन्दन के लिये गये । विनय-विधि से सबने श्रीगुरु महाराज को वंदन किया मुनिराज ने सबको बड़े उदात्त भाव से धर्मलाभ दिया । समी गरु दर्शन से आत्मा को कृत-कृत्यं मानते हुए गुरु वचनामृत का पान करने की उत्कण्ठा से यथास्थान बैठ गये। गुरु ने आत्मवाद-और कर्मवाद की धर्मकथा कही।
“य एव कर्माणि करोति लोकें, भुक्ते स एवेह च तत्कलानि ।
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( १०) कौतु भव-मावि-भायः
कर्मचमदेव भवेद्धि मोहः ।। . अर्थात्-जो कर्मों को करता है वही उन कर्मफलों को भोमता है । भक-संसार में होने वाले भावों का कर्म ही एक मात्र हेतु है जो भाग्यशाली कर्मों का चय कर देता है उसीका मोक्ष हो जाता है।
क्या राजा क्या रंक संसार में सभी अपने कर्मों से सुख दुःख भोगते हैं। अतः अयभव्यात्माओं ! आत्मा का ख्याल करके कर्मों पर काबु प्राप्त करो । कर्म को धर्मरूप में परिणत करने वाले धर्मात्मा धन्य होते हैं ।
. सद्गुरु देव के उपदेश को सुनकर महारानी सूर्यवती ने हाथ जोड़कर बड़े नत्र-शब्दों में गुरु से पूछा-भगवन् ! जयकुमार के भय से सद्य उत्पन्न मेरे पुत्र-रत्न को बगीचे में फूलों के ढेर में छिपा दिया था। बादमें हूँढने पर भी वह नहीं मिला, उसका मुझे बड़ा दुःख है। आप ज्ञानी हैं अतः कुषा कर बताइये कि उसका क्या हुमा १।
रानी की प्रार्थना पर उपयोग लगाकर दयालु-शानीगुरु ने सबके सामने कहना शरु किया-महामाये ! ये सब पूर्वत कर्मों के ही खेल हैं। तुम्हारा पुत्र बड़ा भागशाली है। तेजस्त्रियों में शिरोमदिहै। तुम्हारो
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( २११ )
मोत्र - देवता ने ही उसका और तुम्हारा परम हित देख कर जिस रोज कुमार का जन्म हुआ था, उसी रात्री में सेठ लक्ष्मीदत्त को स्वप्न में आदेश दिया कि - 'तुमको राजा के उद्यान से प्रातः काल में फूलों के ढेर में सुरक्षित एक नवजात शिशु मिलेगा, उसे ले आओ ।' सेठ नेः वैसा ही किया । सेठ के लडका न था, अतः उसी को अपनी लडका मान कर जन्मोत्सव मनाया |
उसी बालक के पुण्य प्रताप से सेठ लखपति का करोड़पति बन गया । सेठानी लक्ष्मीवती ने भी बडे हर्ष से अपने पुत्र के अभाव में उसी को "मेरे गूढ गर्भ था " की बात प्रचारित करके अपने पुत्र की तरह ही लालन पालन किया । तुम्हारे द्वारा श्रीचन्द्र नामवाली अंगुठी जो कुमार के पास रखी थी उसीके आधार पर उन्होंने भी उसो सुन्दर 'श्रीचन्द्र' नाम को पसंद किया । कुटुम्बियों के सामने समारोह के साथ उसका श्रीचन्द्रकुमार नाम रख दिया ।
महाराज ? एक समय आपने उसे गोदी में लेकर क्या पुत्र सुख का अनुभव नहीं किया था ? क्या आपकी स्नेहभरी दृष्टि उसी पुत्र स्नेह के कारण श्रीचन्द्र के मुख पर नहीं गिरी थी ? | महाराज लक्ष्मीदत्त सेठ के घर बडा होने वाला अद्भुत चरित्रों वाला कुमार श्रीचन्द्र
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(***)
मामका ही तो 'चिरंजीवी है? उसको चरित्र सारे देश में प्रसिद्ध है। इस विषय में सेठ लक्ष्मीदर और उनकी धर्मपत्नी साक्षी हैं । दान देने के सम्बन्ध में सेठ से कुछ मन मुटाव हो जाने के कारण हो वह इस समय अपने भाग्य के भरोसे विदेश यात्रा में गया हुआ है। घबराइयें नहीं वह इस वर्ष राजाधिराज होकर आप लोगों को आ मिलेगा । इसमें कोई संदेह नहीं ।
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इस प्रकार ज्ञानी गुरु के वचनामृत से परमानन्द को पाये हुए महाराजा और महारानी बहुत ही प्रसन्न हुए । सेठ सेठानी ने भी बड़े विनीत भाव से श्रीगुरुदेवकी बात को स्वीकार की इस पर महाराजा और महारानी ने उन दोनों को खूब सराहा। उनके साथ पहिले प्रेम तो था ही ' अब और भी ज्यादा बढ़ गया। गुरु महाराज के फरमाने से नैमित्तिक के वचन को सत्य-सिद्ध माना ।
उस समय वहां उपस्थित बन्दी जनों ने विद्वानों ने और कवियों ने श्रीचन्द्र का खूब ही यशो-वर्णन किया । नरसिंह - कुजादित्य प्रतापसिंह भूप भूः । जीयात् सूर्यवती सूनुः - श्री चन्द्रो जगतीतले ॥
अर्थात् — नरसिंह के कुल में सूर्य के समान प्रतापी महाराजा प्रतापसिंह से उत्पन्न होने वाले श्री सूर्यवती के पुत्र श्रीचन्द्र कुमार इस पृथ्वी पर चिरंजीवी रहो ।
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( २१३ )
लोगों के मन की बडी भारी भ्रान्ति के मिट जाने से लोगों में एक अनुपम उल्लास की लहर दौड़ गई । गुरुदेव को नमस्कार कर सब लोग अपने घरों को लौट गये । महाराज - प्रतापसिंह ने अपने पुत्र की खबर पाकर नगर में भारी उत्सव मनाया। महारानी सूर्यवती ने जिस गंध - हस्ती को अपने पुत्र के लिये छांट कर रखा था उसे यह श्रीचन्द्र का पट्ट---हाथी है ऐसा निश्चित कर दिया । पद्मिनी चन्द्रकला कभी महाराज के यहां, तो कभी सेठ के यहां, तो कभी श्रीपुर में रात दिन धार्मिक कृत्यों को करती हुई पति-विरह के दुःखमय समय को बिताने लगी । कहा भी है
धर्मोऽयं धन वल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः । राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमथवा नाना विकल्पैः कृतैः, मल्किं यन्न करोति किन्तु करुते स्वर्गापवर्गावपि ॥
अर्थात् धर्म धनार्थियों को धन, कामाभिलाषियों को काम सौभाग्य चाहने वाले को सौभाग्य, पुत्र की कामना करने वालों को पुत्र देने वाला होता है । इसी तरह से राज्य चाहने वालों को राज्य भी देता है । अथवा तरह २ के संकल्प विकल्पों से क्या ? धर्म क्या नहीं कर सकता है ? सब कुछ कर सकता है यावत् स्वर्ग और अपवर्ग- मोक्ष दोनों का भी देनेवाल होता है ।
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जननी जगे तो भक्त जग कां दाता कां शूर । नहीं तो रहिजे बांजणी मती गमाने नूरं ॥
हे मां ! अगर संतान पैदा करनी है तो भक्त संतान पैदा करना, चाहे तो दानवीर सन्तान पैदा करना, चाहे वीर सन्तान पैदा करना । जैसी तैसी सन्तान पैदा कर के नूर गमाने से तो अधिक अच्छा हो कि तू बांझ बनी रहे ।
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गेकर रोटी मांगने वाली संतान के मां-बाप संसार में इज्जत नहीं पाते । भक्तों को दानवीरों की, और शूर वोरों की संसार में महिमा गाई जाती है, और उन्ही के पूर्वजों के नाम भी स्वर्णाक्षरों से इतिहास में कथाओं में और गीतों में गाये जाते हैं । श्रीचन्द्रकुमार भी अपने
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परित्र से भक्तों की दान वीरोंकी और पर वीरों से कोटि में नाम लिखाने वाला था। वह बैठकमाई या पेटु नहीं तेजीको वाजले के समान सेठ समीद की बातो ने उसकी तेजी में चार चांद लगा दिये।
पपिनी चन्द्रकला की आज्ञा पाकर घर से निकले बाद वह स्वेच्छा से स्वतन्त्रता पूर्वक पुथ्वी में पर्यटन कर रहा था। कभी कोसों तक पैदल ही चलता जाता था तो कभी सवारी द्वारा । कमी दिन में, चलता था तो कभी रातमें वह शेर की भांति निर्भयता पूर्वक विचरता था । पंच परमेष्ठी महामंत्र के जाप से, योगी से प्राप्त औषधि द्वारा और अपने प्राचीन पुण्यों के प्रभाव से वह सुरक्षित था। - भोजन में उसकी यह विशेषता थी कि एक सोना मोहर देकर वह किसी बनिये की दुकान पर भोजन करता था। भोजन के मूल्य से अगर अधिक पैसे निकलते थे तो वह लेता नहीं था। अकेला भोजन नहीं करता था। उसका नित्य नियम. था कि पांच सात मनुष्यों को जिमा कर ही वह जीमता था। कहीं किसी दीन हीन दुःखी को वह देखता तो गुप्त रूप से उसकी भरसके मदद करता था।
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of एक दिन चलते चलते रात होगई। आसपास किसी बस्ती का प्रसार में देख कुमार ने उनी जंगल में रात विताले की ठामी । वह एक वृक्ष पर चढ गया। चारों तरफ छिटकी हुई चांदनी को देखने लगा। यह टकटकी लगाए शारदीय शशी की शोभा को निहार रहा था कि सहसा उसके मुंह से निकल पड़ा
.. ताराम्सए-प्रचुर-भूषणमुद्वहन्ती मेघावरोध, परिमुक-शशाङ्क वक्त्रा । ज्योत्स्ना दुकूलममल रजनी दघाना ।।
वृद्धि प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला ॥ अर्थात्-नक्षत्र रूपी अनेक आभूषणों को पहने हुई, बादलों के हट जाने से चन्द्रमा रूपी मुख को स्पष्टतया प्रकट करती हुई, चांदनी रूप दुपट्टा धारण की हुई यह रात्रि रूप बाला, प्रमदा की तरह दिन ब दिन बढ रही हैं।
उस समय अचानक उसका ध्यान पृथ्वी पर चलती हुई कोई छायामात्र मनुष्य की तरफ आकर्षित हुआ । उसने मन में सोचा कि यहां साधारण तया मनुष्य नहीं श्री सकते हैं ! हो न हो यह कोइ सिद्ध पुरुष ही है। हैं ! यह चोझा लाद कर कहां जारहा है इसे जरूर ज्ञात करना चाहिए । अतः कुमार ने उसके पीछे २ चलना शुरू कर
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दिया, पर गुप्त-गुप्त जिससे उस कुछ मी मालुम न पड़े। .. कुछ दूर आगे बढने पर वह छाया सघन वृक्षों में लोप होगई। बस कुमार वहीं ठहर गया। जब सुबह हुआ और उजाला चारों तरफ फैल गया तब उसके पद चिह्नों को देखता हुआ कुमार उन्हीं के सहारे आगे बढ़ने लगा । चलते चलते वह एक बडे पहाड़ की गुफा पर पहुँचा । उसका मुहँ एक बहुत बडे शिलाखंड से ढंका हुआ था । कुमार ने उस पदपक्ति को गुका के भीतर जाते हुए तो देखा पर बाहर वापस निकले हुए चिह्न दिखाई नहीं पड़े । अतः बुद्धिमान् कुमार ने उस पुरुष के भीतर होने का अनुमान किया । उस स्थान से नजदीक ही एक बावड़ी के तट पर लगे हुए एक पेड़ की खोखल जाकर कुमार बैठ गया। वहीं पर उसने कुछ फलाहार कर, जल-पान करके अपनी जठराग्नि को शान्त किया।
कुमार दिन भर उस गुफा की ओर ध्यान लगाए उस पेड की खोखल में बैठा रहा। फिर भी कोई मनुष्य उसमें से निकलता हुआ नजर नहीं आया। तीसरे पहर में एक मनुष्य शिला-खएड को हटा कर गुफा में से निकला
और बावडी पर भाया । वहां पर उसने अपने हाथ मह घोकर जल पिया, और हाथ में लाए हुए वर्तन को पानी
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(85) से भर कर पुनः गुफा में प्रविष्ट होगया। थोड़ी देर बाद वह फिर गुफा से निकला, तथा गुफा के मुह को शिलाखण्ड से बंद करके बावडी पर आया । घुमले वस्त्र पहने मुह से पान चबाता हुआ, अस्त्र शस्त्र से सुसजित कह नवयुवक बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था । उसने बावडी के पानी से खुब कुल्ले किये और एक गुटिका को मुंह में रखा । गुटिका के प्रभाव से वह पहले की तरह मदश्य होगया और नगर की ओर चला । १. कुमार इन सब बातों को वडी ही सावधानी से देख रहा था। उस सिद्ध पुरुष के वहां से चले जाने पर कुमार बाहर निकली और उसने धूप में उसकी छाषा को नगर बी पीर मति देखा थोडी देर बाद जब कुमार को उस* बहुत दूर निकल जाने का विश्वास हो गया, तो वह शोध ही उस पर्वत कादरी के पास आया और बड़ी मुरकिल से उस शिलाखण्ड को दूर किया । एवं उस गुफा में प्रविष्ट हुमा ।
मह साहसी पड़ी निर्भयतासे उसमें आगे बढता झारहा धान थोड़ी दूर चलने बाद उसे एक सुन्दर और विशाजमवान दिखाई पड़ा। वह तुरुन्त उसमें घुस गया। वहां का वैभव तथा धनको देख कर वह चकितसा हा गया। कुछ आगे बढने पर मकान के मध्य भाग में एक रत्न
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जटित. पलंग पर बैठी हुई एक हि युवती उसे दिखाई पडी । उसने उस युवा स्त्री को ही हमदर्दी के साथ पूछाहे बहिन ! तुम कौन हो ? और यहां अकेली कैसे रहती हो।
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NO
.. कुमार के प्रश्न को सुनते ही उसकी आंखों में पानी भर आया और वह गद् गद् स्वर में बोली-हे भाई ! सुनो, नायक-नामके नगर में बहुत से ब्राह्मण-व्यापारी रहते हैं । वहां राजा भी ब्राह्मण तथा अधिकारी वर्ग भी ब्राह्मण हैं । वह गांव ही ब्राह्मणों का है। वहां के मन्त्री रविदत्त ब्राह्मण की में विवाहिता स्त्री हूँ। मेरा नाम शिवमती है। मेरे यहां आने की कथा में तुम्हें सुनाती हूँ सो
आप ध्यान देकर सुनिये। ... हमारा नायक नगर धन धान्य से परिपूर्ण है । बडे २ धनाढ्य अपने निवास से उसे अलंकृत कर रहे हैं । ऊंची२ अट्टालिकाएं और चौडे चौडे एक पंक्ति में बने हुए बाजार उसकी शोभा को बढ़ा रहे हैं । वह नगर व्यापार का बड़ा भारी केन्द्र है, और वहां के निवासी सभी प्रकार से बड़े सुखी हैं । परन्तु इन दिनों वहां पर बड़ी ही अराजकता फैली हुई है। चोरीयों का जोर वहां पर दिन प्रति दिन बढ़ता ही जारहा है। इस कारण लोग वहाँ बडे ही दुखी हो रहे हैं। एक दिन सबने मिलकर राजा से प्रार्थना की कि या सी
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भार हमारे जान मालकी रचा किजिएँ या हमें नाहीं कह दीजिए जिससे हम आपके मरोसे न रह कर अपने बड़े स्वामी कुशस्थल के महाराज से अपनी रक्षा की प्रार्थना करें। ___ प्रजा का उपालम्भ सुन कर राजा बहुत डरा । बड़े सत्कार के साथ उसने प्रजा-जनों को उनकी रक्षाका
आश्वासन दिया। उसी वख्त राजाने सिपाहियों को भेज कर नगर रक्षक को बुलाया और खूब फटकारा । ... नगर रक्षक ने निवेदन किया "स्वामीन् ! वह कोई सिद्ध-चोर है। अतः नगर के रक्षकों को दिखाई नहीं देता है, फिर भी मैं आज से उसे पकड़ने का भरसक प्रयत्न करूंगा।
इतना कह कर वह नगर रक्षक चला पाया और प्रजाबन भी आश्वासन मिलजाने पर सन्तुष्ट होकर अपने अपने घर चले गये। रात्रि में नगर रक्षक ने बड़ी सावघानी के साथ पहरा दिया, और अपने सेवकों को कड़े पहरे पर लगा दिया, पर वह चौर उसे कहीं पर भी नहीं मिला।
चोर को नगर रचक की प्रतिज्ञा किसी तरह मालूम पानीमा उसने उसी के घर में चोरी की और चलता
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बना। इसी तरह उस. के बाद जिसने भी उसे मिरफ्तार करने का बीड़ा उठाया उसकी दशा उस नगर-रचक के समान हुई । अन्त में मेरे पति रविदत्त ने अपने घर को खाली करके अपना माल असबाब दूसरों के घर में गुख रीति से रख कर फिर उस चोर को पकड़ने की प्रतिज्ञा की । मेरे पति ने तमाम रात उस चोर को खोजा मगर वह उनके हाथ नहीं आया । जब.चोर को इस बात का पता लगा कि मेरे पति ने उसे पकडने का बीड़ा उठाया है तो वह रात्रि में मेरे घर आया परन्तु किसी प्रकार का माल असबाब तो उसके हाथ न लगा। तो वह क्रोधित हो कर मेरे पास आया और मेरे हाथ पैर बांधकर एवं मुह में वस्त्र हँस कर मुझे यहां ले आया ।
मुझे उसने अपना नाम रत्नाकर चोर बताया है। वह प्रतिदिन कमी साक्षात् तथा कभी अदृश्य होकर इस समय जाता है, और पौ फटने पर वापस लौट आता है। हे भाई ! मुझे यहां आये तीन दिन हो गये हैं मैं बहुत ही दुखी हूँ। मुझे अपने पति तथा बच्चों का वियोग दिन रात सताता है। न जाने मेरे दूध मुहे बच्चों का क्या हुआ होगा । . हे बन्धो ! आप कौन है ? और यहां किस कारण से
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आते हैं। हम ऐसहभान होता है कि मेरो भाग्य ही आपको यहां खींच म है,
कुमार ने उसकी हाल सुन कर कहा बहिन ! मैं तो कोई राह चलता कापटिक हूँ। धेय रक्खों । मैं तुम्हें अवश्य इस दुःख से छुड़ाने की कोशीश करूंगा।
यह सुन शिवमती ने कहा- बन्धो,! कसा करके आप मुझे इस पापों के थि से छूडा- कर मेरे निवास स्थान नायक-नगर में पहुँचा दें, तो ऐसा करने पर आपको गुप्ति और मुक्ति का फल प्राप्त होगा। मेरी प्राण रक्षा होगी तथा मेरे, बच्चों से मेरा मिलाप हो जायगा और मैं और बच्चे आपको यावज्जीवन आशीर्वाद देते रहेंगे। .. उसकी करुणा भरी कथा को सुनकर कुमार का हृदय पिघल गया। उसने उस ब्राह्मणी-शिवमती को अपने साथ लिया और गुफा के द्वार से बाहर निकल कर उस शिला से तथा एक दूसरे पत्थर से गुफा के मुह को ढक दिया.फिर वे दोनों वहाँ से नायकपुर की ओर चले । कुछ घंटों में ही वे दोनों नायकपुर पहुंच गये। नगर में पहुंच कर कुमार ने शिवमंती को उसके घर लेजाकर उसके पति को सौंप दिया । उसके पति रविदत्त ने कुमार का बहुत आभार माना। इसकेतमाम अदिनिकों ने कुमार का बड़ा आदर
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सकार किया । शिवमती तरह सरह के वस्त्राभूषण लाकरे कुमार को देने लगी, पर कुमार ने कुछ भी लेनी स्वीकार नहीं किया अन्त में आग्रह पूर्वक शिवमती ने कुमार को स्मृति-चिन्ह के रूप में एक अंगूठी दी जिसे कुमार ने बडे आदर के साथ स्वीकार की। इसके पश्चात् पुन: कुमार उस 'चोर के निवास स्थान के पासकी बावडी के पीस लोट पाया और बैठ गया । ..... पहलेवाले पेड के नीचे वह जाकर बैठा ही था, कि वह चोर भी इसी दरभियान कुमार के पास आकर बैठ गया । परिचय पूछने पर कुमार ने अपना नाम लक्ष्मीचन्द्र तथा चौर ने अपना नाम रत्नाकर बतलाया ।
यह चौर मुझे द्वार खोलने के लिए कहे इसी अशि य से कुमार ने उससे पूछा कि हे मित्र ! तुम इतने उदात क्यों दिखाई पड़ रहे हो । ज्यों ही वह कुछ जबाब देने वाला था कि पांच पथिक एक ओर से आ निकले, और वहीं उसी पेड़ के नीचे बैठ कर विश्राम करने लगे। कुमार की दृष्टि चौर की पगडी में बंधी हुई गुटिका पर पडी और उसे प्राप्त करने की नीयत से कुमार ने पांचों पथिकों के सामने उस चौर से कहा कि मैंतुम्हारी और मेरी पगडी को एक शिला के नीचे देवा देता हूँ। हम
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दोनों में से जो कोई भी शिला के नीचे से निकाल नेमा वही दोनों का स्वामी होगा। ___कुमार की पगडी में सोना बँधा हुआ देख कर चौर के मुंह में पानी भर आया और उसने फौरन उस शर्त को स्वीकार करली । कुमार ने एक बड़ी भारी शिला के नीचे दोनों की पगड़ियों को दवा कर रखदी । सर्व प्रथम उस चौरने पगड़ियों को निकालने की बहुत कौशीश की पर वह न निकाल सका । दूसरों ने भी पगड़ियों को निकालने की कोशीश की पर वे भी असफल रहे तथा चौर और वे हार कर बैठ गये। - उपस्थित मनुष्यों में से एक के पास से कुमार ने कुछ पके हुए आम खरीद कर सबको खाने के लिए बांट दिये । चौर मन में विचार कर रहा था कि यह मनुष्य बड़ा बलवान् मालुम पड़ता है यह मेरी गुफा का दरवाजा खोल सकता है क्योंकि कुमार ने जो दूसरा बड़ा पत्थर उसकी गुफा के मुंह पर लगा दिया था वह चोर से नहीं हिल सका और वह हार कर वहीं आकर कुमार के पास बैठ गया था। बेचारा अपने घर में घुस ने से भी वंचित हो गया था । ...इतने में नायकपुर के रास्ते में से बाजों की आवाज सुनाई पड़ी। सब ने यही कहा कि निश्चय ही राजा
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( २२४ ) भृगु की सेना इधर भा रही है। वह चौर और में पाचों पथिक वहां से नौ दो ग्यारह हो गये। ___ वहां पर एकान्त हो जाने के बाद कुमार ने उठकर उस शिला के नीचे से वे दोनों पगड़ियां निकाल ली। गुटिका लेकर कुमार ने अपने मुह में रख ली और भइश्य होकर पेड़ पर चढकर बैठ गया।
इतने में राजा भृगु की सेना वहां आ पहुंची खोजियों ने पैरों के निशान खोज ने शुरु किये । अन्त में खोज करने के बाद उन्होंने राजा से कहा-राजन् ! यहां तक तो पदचिह्न मिलते हैं पर इस स्थान से आगे तो दिखाई नहीं पड़ते । राजा ने फौरन मंत्री को हुक्म दिया कि जन्दी से उस दुष्ट का पता लगाओ। वह यहीं कहीं छिपा हुआ मालूम पड़ता है।
जो आज्ञा कहकर मंत्री ने सिपाहियों को पता लगाने के लिए आदेश दिया । सिपाहियों ने आसपास के जंगल, पेड़, गुफाएँ, खोखल तथा नदी तालाब सब कुछ छान डाले पर उस चोर का कहीं पर भी पता न चला। अन्त में निराश होकर रात में वह सेना अपने नगर को वापस लौट गई।
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RANI
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र
माश्रीन्द्र भी पड़ा उसेपायीको उतर कर इच्छित दिशा की ओर रवाना हुयाः) पूर्णजन्म में किये हुए पुण्य के प्रभाव से सारी सम्पतियां उसे प्राप्त थी। गुटिका के प्रभाव से मुश्किल से मुश्किल काम भी आसानी से पूर्ण होत थे । एक दिन विश्राम के लिये किसी मुसाफरखाने में वह ठहरा हुआ था। तब वहां बहुत से पथिक ठहरे हुए थे। कुमार उनके वर्तालाप को सुन रहा था कि-एक वैतालिक–चारण ने गाना शरु किया- पायरे कुसत्थलम्मि-पुह वीस-पयावसिंह-कुलचन्दो । सिरि सूरियवइ तणो, सिरिचंदो जयउभुवणयले ।। राहावेह-विहीए, सयंवर वरिप्रो य तिलयमंजरीए । सव्व-निव-गवव-हरणो, वीरिक्को जयउ सिरिचन्दो । 'सिंहपरवर नरेसर-सुहगंग-सुइ पुव्व भवनेहा । पउर्मिणि चन्दकलाए-परिणीओ जयउ मिरिचंदो ॥ .
अर्थात्-कुशस्थल नगर के स्वामी महाराजा-प्रतापसिंह के कुल मा चन्द्रमा के जैसे, महारानी श्री सूर्यवतीजी के पुत्र श्री चन्द्रकुमार की संसार में जय हो। राधावेध की साधना से तिलकपुर की राज कन्या तिलकमंजरी ने जिसे स्वयंवर मण्डप में वरमाला पहिना दी। ऐसे सब राजाओं में गर्ष की हरण करने वाले सुभटशिरोमणि कुमार श्री चन्द्र की जय हो । सिंहपुर के स्वामी श्री शुभगांग राजा
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की पद्मिनी कन्या श्रीमती चन्द्रकला ने पूर्वमको के स्नेह से प्रेरित हो जिससे त्याः शिवा ऐसे श्री चन्द्रकुमार की जय हो। .. इस गीति को सुन कर एक पथिक बोला अरे भाई ! तुमने तो अनर्थ कर डाला । वह श्रीचन्द्र कुमार तो सेठ का पुत्र है उसे राजपुत्र कैसे बता रहे हो। यह सुन बैतालिक ने कहा-भाई ! सुनो जब मैं कुशस्थल में था, तभी पद्मिनी चन्द्रकला विवाहित हो कर आई थीं। कुमार ने बीणारव को मुहमांगा दान रथ और घोडों का दिया था । एक दिन तिलक पुर के मंत्री धीरने महाराजा प्रताप सिंह से तिलक मंजरी को ब्याहने के लिये कुमार श्रीचन्द्र को भेजने के लिये निवेदन किया था । उसी रोज कुमार गुप्त रीति से कहीं चला गया है । खोज शरु है, मगर वह नहीं मिला है। एक दिन वहां एक ज्ञानी गुरु का आगमन हुआ था। राजा. रानी, सेठ सेठानी आदि सभी दर्शन करने लिये गुरु के पास पहुचे थे, गुरुजी ने धर्मोपदेश दिया था । महारानी सूर्यवती ने अपने पुत्र के लिये गुरु महाराज से पूछा था । ज्ञानी गुरुने कुमार श्रीचन्द्र को उनको अपना अंगज पुत्र बताया था
और सेठ सेठानी पालक माता-पिता ही हैं ऐसा फरमाया था। उन्ही ज्ञानी गुरु ने फरमाया है कि श्रीचन्द्र कुमार. अभी
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इन दिनों विदेश में विचर रहा है । वह एक ही वर्ष में राजाधिराज हो कर तुम्हें मा मिलेगा। इस्थलपुर में यह बात सुन राजा रानी आदि सब बड़े प्रसन्न हुए तथा अपने अपने घर चले गये । मैंने भी वहां पर इन गाथाओं को उन्हें सुनाया, और जो कुछ भी धन मिला, उसे लेकर इस समय मैं अपने घर जा रहा हूं।
' ___यह बात सुन कर कुमार को अत्यन्त हर्ष हुआ।
कुमार ने उस वैतालिक को यथेष्ट दान देकर सन्तुष्ट किया, तथा अन्य उपस्थित मनुष्यों को मिष्टान्न भोजन कराया। इसके बाद वह उसी वेश से फिर आगे चला । कभी वह प्रकट रूप से चलता था, तो कभी अदृश्य हो कर । ___ एक दिन कुमार को चलते चलते शाम हो गई । एक भयावन जंगल के पास वह श्रा पहुँचा। वहां ठहरने का कोई स्थान न होने से वह एक बहुत बड़े पेड़ के नीचे ठहर गया। वह पेड़ तोतों का निवास स्थान था । शाम को सभी तोते अपना चुगा करके चारों ओर से वहां एकत्रित हो गये। वे आपस में बातें पूछने लगे। कौन कहां से आया है ? और किसने क्या देखा है ? इस प्रकार प्रश्न होने पर, एक बड़े तोते ने जो कि वहां तीन दिन से आया था-उसको
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( १९६ सबने पूछा-बाबा ! तुम इतने दिन कहां थे? क्या कोई आश्चर्य देखा ? उसने उत्तर दिया-बच्चों ! यहां से पूर्व की ओर महेन्द्रपुर नाम का एक सुन्दर नगर है। वहां का स्वामी त्रिलोचन नाम का राजा है, और उसके गुणसुन्दरी नाम की रानी है । सुलोचना नाम की जन्म से अन्धी उनके एक पुत्री है। वह इस समय युवावस्था को प्राप्त हो चुकी है। चौंसठ कलाओं में वह निपुण है। उसके हृदय-रूप नेत्र खुले हुए हैं । इसलिए वह अद्भुत काम भी कर लेती है । एवं कविताएं भी बनालेती है।
एक दिन राजाने उसके वर की चिंता की । अन्धी को कौन परणे और इसकी आंखें कैसे ठीक हो ? मंत्री से इसका परामर्श किया। राजा ने अपने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो कोई इसे दृष्टि प्रदान करेगा उसे मैं अपना प्राधा राज्य दंगा । उसके साथ इस कन्या का विवाह कर दंगा पांच मास व्यतीत हो गये, फिर भी दृष्टि प्रदान करने वाला अभीतक कोई नहीं मिला। यह सुन, छोटे बच्चों ने पूछा-बाबा ! क्या कहीं कोई ऐसी दवा है ? जो अन्धे को देखता कर दे।
रहे तोते ने उत्तर दिया-बच्चों ? यह दवा किसी भयानक जंगल में ही मिल सकती है। यहां पर भी मिल
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सकती है । लेकिन यह जड़ी घड़ी गोपनीय है। मैं यह बात तुम्हें नहीं बता सकता क्योंकि तुम अभी बच्चे हो। इसपर बच्चों ने बहुत ज्यादा आग्रह किया। आखिरकार मजबूर होकर बूढे को बताना ही पडा-प्यारे बच्चों! इसी पेड की जड़ में बडे भारी प्रभाव वाली दो लताएँ हैं, उनमें से एक मृत संजीवनी है और दूसरी क्षत-संरोहिणी नाम की गुणसंपन्न औषधि है। पहली लता जो कि बड़े बड़े पत्तों वाली है वह शस्त्रों के घावों को फोरन मिटा सकती है। तोते की बात को सुन नीचे बैठा हुआ परोपकारी कुमार उठा और उन दोनों औषधियों को लेकर पूर्व दिशा की ओर चल पडा।
उस विस्तृत जंगल को पार करने में कुमार को तीन दिन लगे। चौथे दिन वह एक उजडे हुए प्रदेश में जा पहुँचा। वहां बाग-बगीचों, तालाबों, बावडियों, दुकानों
और ऊचे ऊचे मकानों की पंक्तियां लग रही थी, मगर मनुष्य और पशुओं का वहां नामोनिशान नहीं था । चारों ओर ऊचे परकोटे से घिरा हुआ वह प्रदेश, बाहर से और अन्दर से सब जगह सुनसान दिखाई देता.था । आश्चर्य चकित होकर कुमार ज्यों हो उसमें प्रवेश करने लगा त्यों ही एक सारिका ने कुमार को अन्दर घुसने से मना किया । कुमार ने रोकने का कारण पूछा तो सारिका
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( १९६ ) बोनी- माई इस मगर में घुसने बालों की अपने प्रागों से हाथ धोना पड़ता है इसीलिए मैंने तुम्हेसिका है।
कुमार ने पूछा-मैना ! इस नगर प्रदेश का क्या नाम है ? यह शून्य क्यों है ? प्राणों से हाथ क्यों धोना पड़ेगा ? क्या ये सब बातें बतायोगी ? .. सारिका ने कहा-क्यों नहीं ? सुनो-इस प्रदेश का नाम कुण्डलाचल है इस नगर का नाम कुण्डलपुर है। यहां अंजुन नाम का राजा राज्य करता था। इसके पांच रानियां थीं जिनमें सुरसुन्दरी मुख्य थी। यहां लगभग महीने में चार पांच चोरियां हो जाती थी । राजा और नगर रक्षक सभी उस चोर की खोज में लगे हुए थे। एक बार उस राजाने रात में चुराये हुए धन को लेकर भागते हुए उस चोर को देखा। राजा ने गुप्त रूप से उसका पीछा किया मगर चोर को इस बात का पता चल गया और वह राजा को धोखा देकर नगर के बाहर एक मठ में जा घुसा। वहां सोये हुए एक सन्यासी के पास उसी के कपड़ों में चुराया हुआ धन रखकर वह चोर नौरोग्यारह होगया । राजा. ढूंढता हुआ उसी मठ में जा पहुँचा। सन्यासी को चोर समझकर खूब फटकारते हुए वनों की तलाशी ली। उनमें से वह चोर कारखा हुमा
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बजली निकल पड़ा। इस कारण राजा ने निरपराध सन्यासी को ही पोर समझकर गिरफ्तार करलिया और उसे इतनी सज़ा दी कि वह मर गया ।
... इस प्रकार वह सन्यासी मर कर प्रेत-योनि में राक्षस होगया। उसने पूर्वजन्म को स्मरण करके राजा पर वडा क्रोध किया । क्रोध में आकर उसने राजा को मार डाला इसके बाद नगर के सभी मनुष्यों तथा पशुओं तक को सताने लगा। इससे तंग आकर नगर के मनुष्य और सब जीव जन्तु यहां से भाग गये, और यह सारा नगर उबड़ गया। राक्षस ने रानियों का कुछ नहीं बिगाड़ा। रानी गुणवती गर्भवती थी। राक्षस ने सोचा था कि अगर इस रानी के पुत्र होगा तो उसे मैं मार दंगा । भाग्य से पुत्री ही उत्पन्न हुई और उसका नाम चन्द्रमुखी रखा गया। मालूम नहीं अब उसका क्या भविष्य है ?
पुरुषोत्तम! नगर में जो कोई भी जाता है, राक्षस उसे क्रोध में पाकर मार डालता है। इसीलिए मैं तुम्हें भी जाने से रोकती हूँ। यह सब सुनकर भी वीरवर कुमार श्रीचन्द्र ने नगर में प्रवेश कर ही लिया । वह शून्य बाजारों को देखता हमा राजमहल के पास जा पहुंचा। उसने राजमहल की मोर घष्टि. अली । झरोखों में बैठी हुई रानियों को देख
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( २३३ ) कर वह राजसभा में आया। वहां पर घूमते हुए उसने कोमल बिछौने वाले एक सुन्दर पलंग को देखा। यही राक्षस की शय्या होगी, ऐसा समझकर अपनी थकावट को दूर करने के लिए, अपनी अगरक्षा करके वह उस पर सो गया।
इधर वह राक्षस राजमार्ग में पुरुष के पदचिह्नों को देखकर बड़ा कुपित हुआ और शीघ्र ही वहां आ पहुँचा। अपनी शप्या पर सोये हुए कुमार को देखकर वह अत्यन्त विस्मित और क्रोधित होकर विचारने लगायह अत्यन्त तेजस्वी, शूरवीर, धैर्यवान् पुरुष कौन है ? कहां से आया है ?. यह बड़ा ही निर्भय प्रतीत होता है, जो मेरी शय्या पर भी इस शान्ति और धीरता के साथ सो रहा है । क्या मैं इसे उठाकर समुद्र में डाल दू? या इसे तलवार से काट दू? अथवा गदा से चूर चूर कर डालूँ ? - इस प्रकार विचार करते हुए उस राक्षस ने क्रोध में आकर कुमार को ललकारा-अरे ! तू कौन है ? गीदड़ होकर शेर के स्थान पर कैसे सोता है ? उठ ! जल्दी से उठ !! दुष्ट ! तुझे मेरा जरा भी डर नहीं है क्या ?
रावस की इस तर्जना को सुनकर भी निर्भीक कुमार
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. उठा और बोला-अरे अमर ! तूने मुझे नींद. से क्यों
जगाया ? क्या कहना चाहता है ? और तू क्या करना चाहता है ? इन लाल लाल आँखों से.तू किसे डराता है ? . मैं तेरे घमंड को अभी चूरमूर कर दूंगा। इतने दुराचार
और कर कर्म करके भी अभी क्या तू तृप्त नहीं हुआ ? जो तू मेरी सुखनिद्रा का भंग कर रहा है एवं इन सती रानियों को तुने कैद कर रखा है। अगर तुझे यहां जिन्दा.रहना है ? तो तू अभी भी कहीं चला जा । मैं तुझे मार ने में भी अपना गौरव नहीं समझता हूँ। अतः तू.जा.! चला जा..!!.
इस प्रकार कुमार के वचन सुनकर राक्षस हक्काबक्का हो गया। कुमार के पुण्य से हतप्रभ होकर, राक्षस शान्तवृत्ति से कहने लगा-हे साहसी ! मैं तुम्हारें; बल और पराक्रम से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । अतः तुम मुझसे कुछ मांगो।
. यह सुन कुमार ने उसे कहा-असुर ! देखो तुमने मुझे नींद से जगा कर तकलीफ पहूँचाई है। अतः तुम मेरे पैर के तलुवों को अपने हाथों से मलो जिससे मुझे कुछ आराम मिले । कुमार की गंभीर मुखमुद्रा और निर्भीकता को, देख कर किं-कर्त्तव्य-युद्ध जैसे राक्षस ने ज्यों ही
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( )) कुमार के पैर छमें के लिए अपसे हाथ बढाय को ही कुमार ने उसका आदर करते हुए उसे घड़े सद्भाव के साथ अंपने पास शय्या पर बिठा लिया। परस्पर क्षमायांचना करके घुल मिलकर बातें करने लगे। ___ राक्षस ने कहा-कुमार ! आपके इस वीरोचित उदार' व्यवहार से मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। मैं आपकी क्या सेवा करू १ कुमार ने कहा- देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप इस प्राणी-हिंसा के पाप को छोड़कर, जीवों पर दया किया करो। आपको भी परोपकारी होना चाहिए । इन रानियों की कैद तोड देना चाहिए। इस उजड़े नगर को फिर से बसा देना चाहिए ।
राक्षस ने इन सब बातों को बड़े प्रेम से स्वीकार किया और कुमार को अपने धर्म-गुरु के समान मानता हुआ प्रसन्नता से कहने लगा-हे महापुरुष ! आप इस कुण्डलपुर के स्वामी होकर, इसका उद्धार कीजिये।
आपके पुण्य-प्रताप से यह देश और नगर पुनः हराभरा धन-जन से परिपूर्ण तथा समृद्धिशाली बन सकेमा, दूसरे से नहीं। अतः आप मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार: कीजिये।
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( २३६ )
इसके बाद राक्षस कुमार को लेकर रानियों के पास गया और बोला- हे बहनों ! मेरे और आपके सौभाग्य से ही ये कोई पुण्यात्मा यहां आये हैं। मैंने यहां का राज्य इनको सौंप दिया है। मुझे आशा है, कि ये इस राज्य का उद्धार करने में अवश्य ही समर्थ होंगे। आज से आप लोग भी मेरी धर्म की बहनें और माताएं हो चुकी हैं। आप लोगों को मैंने जो कुछ अपशब्द कहे, एवं आपके साथ जो कुछ दुव्यवहार किया उसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ । इस बात को सुनकर रानियों को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई । और कुमार को राजा रूपसे एवं राक्षस को अपना धर्म - बन्धु रूप से स्वीकार किया ।
उस समय कुमार ने उन रानियों से आदर के साथ पूछा - माताएँ ! क्या आप लोगों के वंश में ऐसा पुरुष नहीं है, जो राज्य का उत्तराधिकारी बन सके । तत्र रानी गुणवती ने कहा- अरे परोपकारी कुमार ! हमारा वंश तो समाप्त ही हो चुका है, मैं चाहती हूँ कि मेरी चन्द्रमुखी नाम की इस कन्या के साथ विवाह सम्बन्ध जोड़कर आप ही हमारे इस राज्य के स्वामी हो जायँ ताकि हमारी सारी उलझनें दूर हो जायँ । यह प्रस्ताव उपस्थित हुआ देख कुमार ने कहा- माताएं ! अज्ञात
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( २३७ ) कुलशील वाले मुझे, अपनी कन्या और राज्य जैसी महत्वपूर्ण वस्तुओं को प्रदान करने का साहस आप कैसे कर रहीं हैं ?
इस पर रानियों ने और उस राक्षस ने कहानरोत्तम ! तेजस्वी अपने तेज से ही पूजे जाते हैं। महापुरुषों के अलौकिक गुण कर्म ही उनके ऊचे कुल एवं सत्यशील के परिचायक होते हैं। अतः हे कुमार निःशंकोच होकर हमारी इच्छाओं को पूर्ण कीजियें।
"अनिषिद्ध स्वीकृतं" के न्याय से अपनी दैविकशक्ति से धन, जन, सेना, हाथी, घोडे आदि सभी आवश्यक वस्तुओं को एकत्रित करके कुमार को कुण्डलपुर का राज्य दे दिया, और इसके बाद बड़ी धूमधाम से कुमारी चन्द्रमुखी का विवाह भी उसके साथ कर दिया।
राजा होजाने पर कुमार ने अपनी नाम-मुद्रा दिखला दी और अपना सम्पूर्ण परिचय दे दिया । कुमार को महाराज प्रतापसिंह का सुपुत्र जानकर सबको बड़ी खुशी हुई । रानियों ने उसे अपने जामाता के रूप में पाकर अपने को धन्य माना। __एक रोज राक्षस ने कुमार श्रीचन्द्र से कहा राजन् ! इस नगर के भूतपूर्व राजा द्वारा पूर्वजन्म में मैं धोखे से
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(२३८ ) --मारागया.था। मेरी मृत्यु का कारण बजखर नाम का
एक चौर था.।मैंने उसका पता लगाकर उसको पहले ही मार दिया है। कुण्डलगिरि के मुख्य शिखर की गुफा : में उसका गुप्त कोष रत्नसुवर्णादि से परिपूर्ण सुरक्षित पडा है । आप वहां चलकर उसे ग्रहण कीजिए।
राक्षस के कथनानुसार राजा श्रीचन्द्र ने वहाँ जाकर उस कोष को अपने अधिकार में कर लिया । वहाँ स्वर्ग से भी बढकर सुन्दर चन्द्रपुर नाम का एक विशाल नगर बसाया। उस नगर के मध्य में एक भव्य यक्ष-मंदिर बनवा कर उस में चौर की छाती पर खडी उस राक्षस की एक पाषाण प्रतिमा प्रतिष्ठित की तथा उस राक्षस को "नरवाहन " यक्ष के नाम से प्रसिद्ध किया । बाद में कुमार कुण्डलपुर लौट-आया और राज्य की सुव्यवस्था करने में लग गया।
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जिन्दगी इन्शान की संग्राम है, . आदमी उठता रहे गिरता रहे। सर पकड कर बैठ जाना पाप है,
आदमी चलता रहे फिरता रहे ॥ संसार में जन्म लेकर कर्म तो निरन्तर करते ही रहना चाहिये । अकर्मण्य और प्रमादी हो कर पड़े रहना एक प्रकार का पाप है । कर्म करते समय यदि कर्म फलों का विचार होता रहे तो स्वभाव से ही बूरे कर्म हमारे द्वारा न होंगे । इसी बात को ' विपाक-विचय' नाम से धर्म-ध्यान कहा गया है। इस प्रकार के धर्म ध्यान से ऐहिक सुखों की प्राप्ति तो होती ही है पर मोक्ष की भी साधना संहज-भाव से हो जाती है। महापुरुष इसी लिये
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( २४० ) कर्मठ होते हुए विवेक के साथ प्रत्येक कार्य का संपादन करते रहते हैं। सच्चे वीरों का रणभूमी में हृदय की दुर्बलता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा करता । वे तो वीरता से कर्त्तव्य-मार्ग में अग्रसर होते ही जाते हैं।
चरित्र नायक श्रीचन्द्र-कुमार बैठनेवाले प्रमादी आदमी नहीं थे । कुण्डलपुर की राज्य--व्यवस्था ठीक करके अपनी सास, पत्नी, मन्त्री, सेनापति, और अधिकारियों को अपना २ अधिकार संभला कर, सबको ठीक ढंग से समझा बुझा कर, देश में अपनी आज्ञाप्रचारित कर, पुनः कुण्डलपुरमें लौट आने की प्रतिज्ञा करके सायंकाल के समय अपने कार्पटिक-बाबाजी केवेश को धारण कर वहां से चल दिये। चलते २ महेन्द्र पुर पहुंच गये। रात हो जाने के कारण नगर के बाहर ही किसी शून्य-देव-मंदिर में निर्भय रूप से सो गये। __ आधी रात्री का समय था । लोहखुर नाम का एक चोर अवस्वापिनी आदि विद्याओं के योग से नगर में चोरी करके काफी धन की गठरी उठाकर वहां आया उसने सोये हुए कुमार को देखा उन्हें उठाकर बोला-अरे बाबा ! तू मेरा बोझा उठाकर मेरे साथ चल । मैं तुझे निहाल कर दूंगा। चोरकी अजीब बात को सुनकर,
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( २४१ ) कुतूहल-प्रिय कुमार ने उसकी बात मंजूर करली। उसके कथनानुसार उस बोके को उठाकर उसके साथ २ चला । चलते २ दोनों एक पहाड़ की बड़ी भारी खोह के अन्दर घुसे, और थोडी ही दूर जाकर एक भोयरे में उतर गये ।
उस भूमि-गृह में दीपक जयमगा रहे थे । स्थान २ पर रत्न जटित पलंग, कुर्सियां, आराम-कुर्सियां और चौकियां पड़ी थी । जगह २ भूले पडे हुए थे। भिन्न २ प्रकार के खेलों के सामान तथा अनेक तरह के मनोरंजन के साधन वहाँ पर विद्यमान थे । ढेर-के ढेर-रत्न वहाँ पर पड़े हुए थे। मनमोहक वस्तुओं से स्थान सुसजित हो रहा था। जिसके आगे राजमहल की शोभा भी फीकी लग रही थी जिसे देख देख कर कुमार चकित हो रहा था। एक स्थान पर रुक कर चोर ने भार को नीचे उतारने का आदेश दिया। कुमार ने बोझा अपने सर से उतार कर रख दिया, और वहीं बैठ कर विश्राम करने लगा।
कुमार वहाँ आराम कर ही रहा था कि एक सुन्दर रमणी वहाँ आई और चोर को प्रणाम किया। यह देख कर कुमार बहुत ही विस्मित हुआ। ___ चोर ने कहा-" पुत्रि ! तुम इस. मेहमान का आदर सत्कार करो । यह सुनकर वह रमणी कुमार को
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( २४२ ) एक दूसरे कमरे में ले गई और बोली स्वामिन् ! आइयें आप स्नान कीजियें । भोजन कीजिये और इस बिछे हुए पलंग पर श्राराम लीजियें । अन्य स्त्रियोचित सेवा के लिये मैं आप की दासी तैयार हूं। आप हमारे यहां पधारे हैं। हमारा अहोभाग्य है । आप के दर्शन मात्र से मेरा मन आप के आधीन होगया है। __उस रमणी की इस प्रकार की मीठी और चिकनी चुपड़ी बातों को सुन कर कुमार को शक होगया कि यहां कुछ दाल में काला है । अतः मुझे बड़ी सावधानी से रहना चाहिये। थोड़ी ही देर में कुमार ने सब बातें विचार ली । क्या करना चाहिये इस का भी निर्धार कर लिया। एकान्त मौका पाकर कुमार ने उस रमणी को पास पड़ी एक रेशम की रस्सी से बांध दिया, और उस का चुट्टा पकड़ कर क्रोधका अभिनय करते हुए पूछा कि बता तू कौन है ? यह आदमी कौन है ?. तुम्हारा क्या व्यवसाय है। सच सच बता दे । अन्यथा आज तेरी कुशल नहीं है। ___ कुमार की इस डांटडपट से भयभीत हुई. उस रमणी ने कॉपते २ कहना शरु किया अरे बाबा ! यह आदमी लोहखुर नाम का चौर है। यह मेरा बाप है । मैं इस
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(१२४३ ) की बेटी है। चोरी का हमारा धंधा है। हमारे यहां
ये आदमी को मैं अपनी चतुराई से इस.गढ में ढकेल कर जान ले लेती है। यही मेरा नित्य का काम है।
उसी स्त्री के द्वारा सच सच बता देने पर कुमार ने उसे छोड़ दी। बाद वह चोर के पास पहूँचकर उसे ऐसा धमकाया कि चोर मारे डर के थर थर कांपने लगा। चोर की इस हालत को देख दयालु कुमार ने कहा देखो ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है अगर तुम अपने जीवन का उद्धार चाहते हो तो इस चौर्य-कर्म को छोड़ दो और कहीं अन्यत्र जाकर बुरे कर्मों के त्याग से शनैः शनैः अच्छे कर्मों को करते हुए संसार में यश के भागी बनो ।
कुमार के हितैषी उपदेश को सुन कर चोर को चौर्य वृत्ति से घृणा होगई और अपनी पुत्री को लेकर वह कहीं अन्यत्र चला गया । चोर के चले जाने पर कुमार ने उस खोह के मुख-द्वार पर एक बड़ा भारी शिला खण्ड रख दिया । उसमें जाने आने का रास्ता ही रोक दिया।
उस रात्री में कुमार श्रीचन्द्र किसी पेड़ के नीचे पहुंच कर सो गया । सुख से नींद ली। बड़े सवेरे उठ गया,
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( २४४ ) और प्रातः कालीन नित्य-कर्मों से निवृत्त हो श्री अरिहंत भगवान को नमस्कार करके अच्छे लग्न में श्रीमहेन्द्रपुर नगर में प्रविष्ट हो गया।
नगर-लीला देखते हुए कुमार किसी सेठ की दुकान पर जाकर खड़ा ही था कि एक ढिंढोरे की आवाज सुनाई दी। उसने सेठ से पूछा-"सेठजी ! यह क्या मामला है ?" तब सेठ ने कुमार को सारी कथा कह सुनाई, और कहा कि इस तरह ढिंढोरा पीटते २ लग भग छह महोने हो गये हैं। __इतने में ढिंढोरा पीटने वालों ने कहा 'भाइयों ! सुनो, जो कोई भी व्यक्ति हमारी राजकन्या के नेत्रों को स्वस्थ कर देगा तो राजाजी उसे अपना आधाराज्य देंगे, और उस राज-कन्या को विवाह देंगे"। यह सुनते ही कुमार ने शीघ्रता से उस पटह को छू लिया।
ढिंढोरा पीटने वालों ने जाकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजाने बड़ी प्रसन्नता से उस कार्पटिकवेषधारी कुमार को छत्र-चामर और हाथी श्रादि भेज कर बड़ी सजधज और मान मर्यादा के साथ बुलाया । कुमार बड़े ठाठ से राज-सभा में पहूँचा। दरबार में पहूँच कर राजा को "विजयी भव-यशस्वी भव' का आशीर्वाद ..
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( २४५ ) दिया। बाद में राजा द्वारा दिये गये आसन पर बड़ी नम्रता के साथ बैठ गया। - राजा द्वारा परिचय पूछे जाने पर कुमार ने कहा माहाराज ! कुशस्थल का रहने वाला एक नेत्र-वैद्य हूँ। आज आप के दर्शन से मैं अपने आपको कृतार्थ मानता हूँ।
राजाने कहा-हे महाभाग ! आज तुम मेरे और कन्या के अहो भाग्य से दैव योग से इधर आ निकले हो अतः हमारे उस कार्य को पूरा करो । उसके बदले में जो कुछ देने का है, उसे ग्रहण करो।
राजा के ऐसा कहने पर कुमार ने कहा-राजन् । आप का फरमाना ठीक है । गुरु कृपासे मुझे मंत्र और औषधि
आदि का अच्छा अभ्यास है । आप उस कन्या को दिखाइयें जिससे मैं उनका योग्य उपचार करू ।
राजा के आदेश से कन्या को वहां लाइ गई। उसे देख कर कुमार ने बडा दुःख प्रगट किया कि अरे ! कितना सुन्दर रूप और कैसा बुरा यह अन्धापन है। उसने उस सभा में ही पानी के योग से कुछ जमीन को पवित्र बनाया । उस स्थान के चारों ओर कनात लगवादी आंखों की चिकित्सा करने की इच्छा से कुमार ने कन्या
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(( २४६ )) को पर्दे के भीतर बिठा दी। स्नान आदि कर के उसने वहां सारी पूजा की सामग्री जमादी । उस कन्या की
आँखों पर औषधि-रस - का लेप कर दिया । कुछ समय तक पूजा धूप-दीप आदि कर के नवकार मंत्र का जाप.
आदि किया। - कुछ समय बीतने पर औषधि रस के प्रभाव से राजकुमारी की अांखें कमल के समान खिल गई और उसने इंद्रकेसमान तेजस्वी कुमार को विधि पूर्वक देव-पूजा.करते हुए देखा। ___कुमार ने भी अरिहंत भगवान को नमस्कार करती हुई उस कुमारी से पूछा-"राज कुमारी ! क्या तुझे अब ठीक दिखाई देता है ? जरा मेरी अंगूठी' पर लिखे हुए नाम अक्षरों को तो पढ लेना।
कुमार के ऐसा कहने पर उस राजकन्या ने अंगूठी पर लिखे हुए 'श्रीचन्द्रकुमार' इस नाम को पढ़ा। पढ़कर वह बहुत प्रसन्न हुई, और प्रशंसा करने लगी। हे नाथ ! हे प्राणजीवन ! पहले भी पिताने मुझे आपको दी थी और अब आज भी मैं आपको वरण कर रही हूँ। अंगूठी से आपके नाम का और आश्चर्यकारी गुणों से आपके कुल . का-मुझे पता लग गया है।
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इसके अनन्तर वह कुमार अपने दिव्य वेष को छिपा. कर फिर उन्हीं गैरिक वस्त्रों को धारण.. करके एवं: मुह
और बालों पर भस्म रमाये राजा के पास गया। सुलोचना भी. उसके पीछे पीछे वहां आई । यथार्थ नाम वाली. सुलोचना.को देखकर राजा ने प्रसन्न होकर उसको अपनी गोदी में उठा लिया। ..
यह देख सभी अचरज में डूब गये और राजा तो इतना प्रसन्न हुआ कि मानो उसने कोई खोई हुई निधि पाई हो। कन्या के स्वस्थ होने का उत्सव पुत्र जन्म के उत्त्सव से भी बढ़कर मनाया गया । बादमें राजा ने उस सुलोचना को अन्तःपुर में भेज दिया और उसको दृष्टि युक्त देखकर सभी रानियें प्रसन्न हुई।
इधर राजा ने उस कार्पटिक को अपने महल में बड़े आदर से ठहराया और रसोई आदि के लिये बहुत से नौकर रख छोड़े । तत्पश्चात् राजा ने राजसभा में मंत्रियोंके साथ विचार विमर्श किया कि यह अज्ञात-कुल-शील व्यक्ति है । इसको कन्या देनी है, सो क्या करना चाहिये ? सलाह में कुल पूछने की ठहरी, और राजा की आज्ञा से एक मंत्री ने उसका कुल पूछ ही लिया । .कुमार ने हंसकर उत्तर दिया, "आपके विचार ठीक ही- हैं कि आप पानी पीकर घर पूरते हो तो मी हे
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( २४८ ) मंत्रिवर्य! सुनो, कुशस्थलपुर में लक्ष्मीदत्त नाम का एक सेठ रहता है । मैं उसीका व्यसनी दुराग्रही और जुआरी पुत्र हूं। मैं पिता के छांने घर से धन चुराकर इधर उधर व्यय कर देता था। इससे पिता ने रुष्ट होकर मुझे घर से निकाल दिया । घर से निकाले जाने पर पर मेरा आचरण और चरित्र और भी ज्यादा भ्रष्ट होगया है । जुत्रा आदि दुर्व्यसनों में फंस जाने पर प्राणी को दुःख के सिवाय और मिल ही क्या सकता है ?
मैं इधर उधर दुःखी अवस्था में भटक ही रहा था. कि मेरी अचानक एक सिद्ध पुरुष से भेंट हो गई, मैं उसकी सेवा में बहुत दिनों तक रहा । उसने मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मुझे यह मंत्र दिया। मैं उस सिद्ध पुरुष . को छोड़ कर इधर चला आया हूँ क्योंकि जुआ खेलने की उत्कट इच्छा ने मुझे वहां टिकने नहीं दिया। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बिनाधन के 'जुया' हो नहीं सकता अतः मैंने धन प्राप्ति की ही आशा से इस ढिंढोरे को स्पर्श किया था।
उसके मुख से इस प्रकार परिचय पाकर मंत्री ने राजा को उसका सारा परिचय कह सुनाया। सुनकर राजा मंत्रियों समेत बड़ा दुःखी हुआ। वह कहने लगा "मैं ऐसे जुआरी को अपनी ऐसी सुशील कन्या कैसे दे
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( २४६ ) सकता हूं ? अगर दे भी हूँ तो देश-परदेश में मेरा क्या महत्व रहेगा ? यश के बदले में मुझे अपयश का भागी बनना पड़ेगा। दूसरी बात यह है, कि अगर मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इसको कन्या नहीं देता हूँ, तो मेरा वचन भंग होता है, और वचन-भंग होना मुझ सरीखोंके लिये बड़े कलंक की बात है । अतः प्राणों की राज्य की और धन की वचन-रक्षा के समक्ष कोई कीमत नहीं है ?" इस प्रकार अपने मन में संकल्प-विकल्प करता हुआ राजा अन्तःपुर में जा पहुँचा । वहां पर खूब धूमधाम से नाच गान के साथ उत्सव मनाया जा रहा था । राजा के मुख को मलिन देख सुलोचना ने अपने पिता से पूछा, " पिताजी ! आज खुशी के अवसर पर आपके चेहरे पर श्यामता क्यों झलक रही है ?" ___ यह सुन राजा ने उसका वृत्तान्त रानी को आदि से अन्त तक कह सुनाया और बोला, "मेरे उदास होने का यही कारण है । इसी बीच में पुत्री बोल उठी "पिताजी ! यह आप व्यर्थ का सोच कर रहे हैं। वह पुरुष जिसके विषय में आप ऐसा वैसा कह रहे हैं, वह वैसा नहीं है। वह बड़ा ही विचित्र, गुणशाली और शूरवीर है। जो कुछ मंत्रियों को कहा गया है, वह तो केवल उनकी वाणीका वैचित्र्य है।" इसके बाद उस राजकुमारी ने जो जो
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( २५० ) बातें परदे के भीतर देखी थीं, उन सबको अपने पिता से कह सुनाई।
इसके पश्चात् सुलोचना ने पिता से कहा, "पिताजी ! यही श्रीचन्द्र मेरा पति होगा। ___ अंगूठी से मुझे इनका नाम ज्ञात हुआ है, अपने पिता का नाम और निवास स्थान हुनने अपने मुंह से साफ साफ बतला दिया है। अब इसके आगे आप क्या जानना चाहते हैं ?
. पुत्री के इस प्रकार के आश्वासन भरे वचनों को सुनकर राजा के जीमें जी श्राया, और उसने प्रसन्न होकर ज्योतिषी से लग्न निकलवाया। इसके बाद उसने श्रीचन्द्र को लिवालाने के लिये मंत्रियों को भेजा । ___ मंत्रियों ने शीघ्र ही लौटकर राजा से निवेदन किया कि महाराज़ ! न मालूम श्रीचन्द्र कहां चला गया । उसे इधर उधर बहुत देखा भाला मगर वह कहीं दिखाई . न दिया।
यह सुन राजा बहुत व्याकुल हुआ, और उसने अपने सिपाहियों को उसे खोज ने के लिये भेजा। उन्होंने राजमहल, नगर और बाहरी उद्यान आदि सभी ढूढ मारे,
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( २५१ )
परन्तु उसका कहीं पता न चला। जब यह बात सुलोचना को मालूम हुई तो वह लड़खड़ा कर भूमि पर गिर पड़ी, और बेहोश हो गई। माता-पिता और दास दासियों द्वारा तरह तरह के उपचार किये जाने पर उसे कुछ होश हुआ। वह रो रोकर पृथ्वी पर नीर विहीन ग्रीन की तरह छटपटाने लगी । वह अपने श्रर्तनाद से दूसरों को भी रुलाने लगी । सारी रात्री उसकी इसी प्रकार बीती । उसने उसके वियोग में खाना-पीना और बोलना सभी छोड़ दिया । यह देख सभी ने उसका अनुसरण किया राज-परिवार की ऐसी अवस्था देख मंत्री किं कर्तव्यमूढ हो गये ।
राजा ने पुरवासियों को बुलाकर पूछा कि क्या कोई यहां पर कुशस्थल से आया हुआ व्यक्ति है ?
यह सुनकर उपस्थित जनता में से बहुतेरे व्यक्तियों ने एक साथ उत्तर दिया, "राजन् कुशस्थल के यहां पर अनेकों व्यक्ति हैं । कहियें आप किसे पूछते हैं ?"
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राजा द्वारा उसके नाम और निवास स्थान आदि के बतलाने पर एक सेठ ने कहा, "महाराज ! कुशस्थल में लक्ष्मीदत्त का पुत्र जो श्रीचन्द्र है, वह मेरे स्वामी का जमाई है। जैसी गूठी का निशान आप बताते हैं
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( २५२ ) वैसी अंगूठी उसीके हाथ में शोभायमान है । कुशस्थलनिवासी धन नामक सेठ का मैं व्यापारी-सेवक हूँ। वह कुमार धन नामक सेठ की धनवती नामक पुत्री का पति है। ... उस व्यापारी-सेवक द्वारा बतलाये हुए चिह्नों से कुमारी ने यह निश्चय करलिया कि वही मेरा पति श्रीचन्द्र है। ____ इसके पश्चात् राजा ने राजकुमारी को समझा बुझा कर भोजन करवाया और कहा कि पुत्री! अब किसी प्रकार का शोक मत करो तुम्हारे पति का पता लग गया है । हम शीघ्र ही राजाधिराज प्रतापसिंह के पास हमारे नगर के माननीय व्यापारियों और सुयोग्य मंत्रियों को भेज रहे हैं, जो जाकर इस विषय में उनसे प्रार्थना करके श्रीचन्द्र को यहां विवाह के लिये राजा के आदेश से लौटा लावेंगे। तुम किसी प्रकार से दुःखी मत हो।। . इधर मंत्रियों के नाम धाम आदि पूछ कर चले जाने के बाद कुमार शौचादि कार्य से निपट ने का बहाना कर वहां से चल दिया। कुछ दूर आगे जाकर उसने अपने कार्पटिक वेष को किसी दूसरे को दे दिया, और स्वयं ब्रह्मचारी का वेष बनाकर क्रम से उस देश का त्याग करके एक बड़े भारी जंगल में जा पहुंचा।
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जल जीवन-रस रूप है, जल बिन नीरस जान । नीरस जनं संसार में, मानों मृतक-समान ॥ मानव जीवन एक जलका बुदबुदा मात्र है । जल को पण्डितों ने जीवन भी कहा है, रस भी कहा है । रसमय जीवन ही जीवन है, अगर रस न रहा तो, जीवन जीवन नहीं रहता । जिसके जीवन में जीवन नहीं है तो उसका जिन्दा रहना भी भूमि को भारी करने के सिवाय कुछ नहीं है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष जीवन में रसधारा को बहाते रहते हैं । कुमार श्रीचन्द्र पूर्ण रसिकजीवनवाला था। पूर्व जन्म की पुण्य तपश्चर्या से वर्तमान जीवन में वह आलौकिक रसकी धारा बहाता हुआ, अपना और दूसरों का समय आनंद से बीताता था।
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( २५४ ) महेन्द्रपुर की राजकुमारी की आंखें खोल कर, उस में रस पैदा करके श्रीचन्द्र ने आगे का रास्ता लिया । चलते हुए किसी एक जंगल में वह पहूँच गया। पुण्यवान्-पुरुषों के लिये जंगल में भी मंगल हो जाता है, पुण्य-लीला करता हुआ कुमार श्रीचन्द्र जंगल में एक सुन्दर सरोवर देखता है। ,
सरोवर में मोती के समान निर्मल-पानी पर कमल खिल रहे थे। चकवे, सारस, और हंस उसमें कूज रहे थे। किनारे पर हरे भरे वृक्षों के उन्नत शिखरों पर मयूरों के नाच हो रहे थे। इस दृश्य को देखकर कुमार की इच्छा हुई कि इन पक्षियों के बीच जाकर इस सरोवर में जलक्रीडा करे । उसने कपडे उतारे, और स्वयं पानी में उतर गया । वह जल क्रीडा में इतना लीन होगया कि उन जलचर पक्षियों के बीच अपना अस्तित्व भी भूल गया । उसने खूब ही तैराकी की ओर खूब ही गोते लगाए, तथा खूब छक कर नहाया। जब जलक्रीडा से उसका जी भर गया, तो वह बाहर निकला, कपडे पहने,
और सरोवर की शोभा को निरखता हुआ उसके किनारे किनारे चला।
चलते चलते उसे एक उद्यान सा दिखाई पड़ा। वहां पर उसने एक ओर तो पाश्रम, दूसरी ओर हाथी
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घोड़े, और तीसरी तरफ कई मनुष्यों को और चित्र विचित्र वेषधारिणी स्त्रियों को देखकर, विचार किया-न तो ये कार्पटिक मालुम पड़ते हैं। न कोई योगी और न ही तपस्वी । तो फिर ये कौन हैं ? उफ् ! इस संकल्प-विकल्प से क्या फायदा ? इसका पता वहां जाकर ही क्यों न लगा लू ?
इतना सोचने के पश्चात् वह उसी उद्यान के समान आम्रवन में जा घुसा। वहां पर उसने एक अद्भुत कान्तिमान् तापस कुमार को देखा, जो कि चन्द्रमा के समान कान्तिवाला, बल्कल के वस्त्र पहने हुए, पैरों में मोरपंख की चट्टी पहने हुए, पेड की शाखा में बंधेहुए झूले पर झूल रहा था। वह तापस कुमार सोने के
आभरणों से अलंकृत था। उसके अङ्ग भी कोमल प्रतीत होते थे । उसके पास ही किसी तापस कुमारी को भी इधर उधर आते जाते देख कुमार बडा ही विस्मित हुआ।
कुमार कुछ आगे बढा तो उस तापस कुमार की दृष्टि कुमार पर पड़ी। कुमार के रूप से आकर्षित होकर उसने पाम खडी हुई बालिका से कहा-सखि ! यह आगन्तुक हमारा अतिथि है अतः फल-फूलों से इनका सत्कार करो।
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( २५६ ) श्राज्ञा पाते ही उस सखी ने आदर पूर्वक कहाहे ब्रह्मचारी ! आत्रो। इस पेड की सघन छाया में विश्राम करो। आपको आगे कहां जाना है ? कृपा करके हमारा प्रातिथ्य ग्रहण करो।
यह सुनकर कुमार राजादनी खिरनी-रायण के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया । सखी ने खूब फल-फूल कुमार को लाकर दिये और कुमार ने बड़ी प्रसन्नता से उन स्वादिष्ट फलों को खाया ।
कुमार उनको उनका परिचय पूछने ही वाला था कि एक अन्य रमणी वहां पर गाती हुई आई :. चन्दकला रायसुआ, सा सव्व कलाणभायणं जयइ । सिरिचंद वरो जीए, सयमेव परिक्खिऊण को।
यह सुनकर कुमार को बड़ा अचंभा हुआ और वह विचार करने लगा-कहां तो चन्द्रकला है और कहां ये रहते हैं ?। कहां तो वह स्थान, और कहां इतनी दूर यह स्थान ? इन सब बातों को ये कैसे जानती हैं। . इस प्रकार वह विचार कर ही रहा था, कि एक बुढिया निर्मल वस्त्र धारण किए हुए वहां आ पहुंची। वह अपनी पोशाक से विधवा जान पड़ती थी। उसने
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( २५७ ) आकर उस नरवेशधारी तपस्वी कुमार को नारी की पोशाक प्रदान की।
छाया में सुखपूर्वक बैठे हुए उस बटु कुमार को देखकर उस बुढिया ने पूछा-भाई ! तुम कहां से आये हो ? मैं कुशस्थलपुर से आरहा हूँ । बटु ने उत्तर दिया। यह बात सुनकर सब बड़ी प्रसन्न हुई, और उन्होंने यह बात जाकर सबको कह दी जिससे वे सभी वहां आकर कुमार को घेर कर बैठ गई और पूछने लगी
हे भाई ! यह तो बतायो कि क्या वहां चंद्रकन्ना आई है । उसका विवाह किसके साथ हुआ है ? बटुक ने उत्तर दियाः-आप इस बात को सत्य समझे कि लक्ष्मीदत्त सेठ का पुत्र चन्द्रकला को व्याहकर कुशस्थलपुर में लाया है।
इस प्रकार उत्तर पाकर सबने अपनी स्वामिनी से कहा-हे स्वामिनी ! सुनो। यह बात कभी मिथ्या नहीं हो सकती। ___यह देख कर कुमार ने निश्चय कर लिया कि यही स्त्री इन सब में प्रधान है अतः उसने उसे नमस्कार कर विनय पूर्वक पूछा-हे माताजी ! आपका यहां कैसे आग
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( २५८ ) मन हुना । तापस वेषधारिणी ये दोनों कौन हैं ? और ये अवशिष्ट बालाए भी कौन हैं ? मैं सब बातों को जानने के लिए उत्सुक हूँ।
उस श्रद्धा ने जवाब दिया है पुत्र । सुनो तुम्हारे पूछे अनुसार विस्तार पूर्वक तुम्हें हमारे यहां आने की राम कहानी सुनाती हूं। ध्यान पूर्वक सुनोः
वसन्तपुर में बीरसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके वीरमती और वीरप्रभा नामकी दो गनीयां थीं। उनमें से प्रथम मैं मगु-नरेश की कन्या वीरमती हूं। मेरे माता पिता के दो कन्याएं हुई। उनमें जयश्री बडी, तथा में छोटी हूँ। पिताजी मुझे विजयवती कहकर पुकारते थे।
मेरी बडी बहिन जयश्री का विवाह महाराज प्रतापसिंह के साथ हुआ। उसके जय कुमार-आदि चार पुत्र हुए। वसन्तपुर के राजा का प्रधान मंत्री सदामति मेरा चाचा है।
इधर वसन्तपुर नरेश की दूसरी रानी वीरप्रभा के नवर्मा नामका एक पुत्र हुप्रा । वह बडा ही बलवान् नीतिज्ञ और शस्त्रास्त्र विद्या में निपुण है ।
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(२५६ कुछ समय पश्चात् मेरे भी चन्द्र की कान्ति के समान एक कन्या हुई जिसका नाम बडे प्यार से मैंने चन्द्रलेखा रखा, यह जो तुम्हारे सामने स्थित है, यह वही मेरी कन्या चन्द्रलेखा है, और-दूसरी ये सब इसकी समवयस्क सखियां हैं।
चन्द्रलेखा के बाद मेरे एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम वीरंवर्मा रखा, जो इस समय पांच वर्ष का है और यह हमारे साथ है।
एक समय राजा ने अपनी आत्मा को कालज्वर से ग्रसित देख कर अपने उनराधिकारी वीरवर्मा राजकुमार को अपने विश्वास पात्र मंत्री सदामति को सौंप कर कहा कि-मेरा राज्य इसी होनहार राजकुमार को देना अन्य को नहीं। यही मेरा अन्तिम आदेश है । यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।
राजा की मृत्युके पश्चात् बलगर्वित नरवर्मा ने अन्याय से हमारा राज्य छीन लिया । हम सब को वहां से निकाल दिया । तब हम सब मेरे पिता के नगर की तरफ रवाना हुए । मार्ग में एक बहुत बड़ा नगर आया । नगर के बाहर हम लोग ठहरे थे। वहां पर हमने सुना कि यहां पर एक बडा शकुनज्ञ आया हुआ है यह सुन मन्त्री
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( २६० ) सदामति नगर में गये, और मानपूर्वक उसे बुलाकर मेरे पास लाये।
. मैंने चन्द्रलेखा को उसकी गोद में बिठाकर उसे पूछा हे भाई ! जरा यह तो बताओ कि इस कन्या का पति कौन होगा, तथा वह कब और कहां प्राप्त होगा ।
.. कुछ देर विचार कर के उसने कहा-बहिन ! सुनो। महाराज प्रतापसिंह का पुत्र चन्द्रकला नामकी राजकुमारी के साथ विवाह करलेने के पश्चात् इसका पति बनेगा। इस बात में किसी तरह का सन्देह मत करो। आप सब लोग खदिर वन में चले जाओ । आपको वह व्यक्ति वहीं मिलेगा। वहां पर राजादनी-वृक्ष के नीचे आकर बैठते ही वह वृक्ष दूध वरसाने लगेगा । इससे आप लोग चन्द्रलेखा के भावी पति को सहज में ही पहचान पावेंगे।
___उसके द्वारा दिए श्लोक पत्र को और उसके बचनों को स्वीकार, करके तथा यथायोग्य उसका सत्कार करके हम लोग अपने परिकर के साथ इस खदिर वन में चले
आये हैं। यहां आकर हमने दो मनुष्यों को योगी का वेश पहनाकर कन्या के वर की खोज में कुशस्थलपुर भेजा था। वे वहां जाकर यहाँ पर वापस लौट आये हैं । उन्हों
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( २६१ ) ने वास्तविक बात का पता लगा लिया है, और तुम्हारे वचन भी उस बात से मेल खाते हैं । ... .... “सेठ का पुत्र श्रीचन्द्रही उस चन्द्रकला का पति . बना है न कि निमित्तिये के कथनानुसार महाराज प्रताप
सिंह का पुत्र श्रीचन्द्र । .. यह मेरी पुत्री चन्द्रलेखा यहां पर अपनी स्वेच्छा से : कभी अपने वेष में और कभी पुरुष वेष में, नाना प्रकार
के खेल खेलती हुई अपनी प्यारी सखियों के साथ क्रीडा करती है । अनेकों प्रकार के नृत्य करती है, और फूलोंके आभरणों से अपने को सजाती है। यह हमारी स्थिति है। ___इस प्रकार की बातें सुनने पर कुमार ने सोचा कियहां पर ज्यादा देर तक ठहरना उचित नहीं। अतः वह रवाना होने के लिए ज्योंही उठा त्यों ही अचानक राजादनी ( खिरणी-रायण के) वृक्ष ने उस पर बहुत सा दूध बरसाया । वह दृश्य ऐसा मालुम होता था मानो बहुत दिनों से बिछुड़े हुए पुत्र को गोदी में पाकर माता, अपने हर्ष के आंसुओं से उसे नहला रही हो। या दूध पिला रही हो। __यह घटना देखकर सभी साश्चर्य प्रसन्न हुए और एक साथ बोल उठे-जिस वर की खोज में हम इतने दिनों
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( २६२ ) से परेशान थे वह वर आज अपने आप प्रतर्कित भाव से ही मिल गया ! मिल गया !! मिल गया !! ___ यह बात सुनते ही चन्द्रलेखा ने अपना सर लज्जा
झुका लिया, और माता की आज्ञा पाकर शीघ्र ही कुमार के गले में वरमाला डाल दी। उस समय पतों ने हिल कर, कलियों ने मुस्करा कर, और पेड़ों ने फलफूलों की वर्षा करके कुमार का स्वागत किया। कन्यापक्ष वालों ने भी नाना प्रकार से कुमार का खूब आदर सत्कार किया।
उनके द्वारा आग्रह पूर्वक पूछने पर कुमार ने अपना ठीक ठीक परिचय दे दिया तथा मुद्रा को दिखाकर अपना ठीक नाम प्रकट किया। उनके वचनों को सादर मानते हुए कुमार ने राजकुमारी चन्द्रलेखा के साथ पाणिग्रहण करलिया । कर-मोचन के अवसर पर उसे विष को दूर करने वाली कई मणियां तथा अन्य बहुत सी बहुमूल्य' वस्तुएं प्राप्त हुई । तत्पश्चात् वीरमती ने अपने पंचवर्षीय पुत्र को कुमार की गोदी में बिठाकर कहा-हे उदारता और वीरता में अद्वितीय महापुरुष ! इस वीरवर्मा को आप जैसा बना देंगे, वैसा ही यह बन जायगा। अतः आप इसे अपने साथ रखकर मेरी इतनी बात मानने की. कृपा करें।
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कुमार ने उत्तर में कहा-माता जी! आप अधीन होइए, सब अच्छा ही होगा। - इस प्रकार अपनी सास को आश्वासन देकर कुमार ने मंत्री की ओर दृष्टि घुमाई और बोला-"मंत्रिवर्य ! आप इन सबको साथ लेकर कुएडलपुर चले जाइए। लीजिये यह पत्र वहां के मन्त्रियों को दे दीजियेगा वहां पर आप लोगों को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। वहां आप सुख पूर्वक रहिएगा। इस समय मैं कुछ आगे जाऊंगा नहीं तो मैं भी आपके साथ ही चलता।
आप किसी भी प्रकार की चिन्ता न करें। कुछ समय पश्चात् आपका और मेरा मिलाप वहां हो जायगा।" इस प्रकार सबको सान्त्वना देकर, तथा उन सब से विदा माँग कर कुमार अपने पूर्ववेश को धारण कर वहाँ से रवाना हुआ और एक दूसरे देश में जा पहुँचा।
इधर वीरमती अपनी पुत्री और मंत्री आदि परिवार के साथ उस खदिर वन से चन्द्रपुर की ओर चल पड़ी। चलते चलते महेन्द्रपुर में जा पहुंचे । जब यह बात वहां के राजा को मालुम हुई तो उसने वीरमती को एवं उनके परिवार को अपने यहां आदर के साथ निमंत्रित किया । परस्पर एक दूसरे ने परिचय प्राप्त किया।
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( २६४ ) राजा आदि सब प्रसन्न हुए । महेन्द्रपुर की रानी और वीरमती आपस में धर्म की बहनें बन गई । उसी रोज कुशस्थल से कुण्डलपुर होता हुआ कोई बंदीजन वहां आया। उसने कुमार श्रीचन्द्र के लोकोत्तर चरित्र का गान किया । सुलोचना और चन्द्रलेखा बहुत प्रसन्न हुई मानो प्यासे पपीहे को स्वाति की बूदे मिल गई हों। उन्होंने उस बंदी को भारी पारितोषिक देकर आदर से विदा किया।
कुछ दिन ठहरकर सुलोचना और उसकी माता से कुण्डलपुर के लिए वीरमती ने आज्ञा ली और अपने परिवार के साथ कुछ ही दिनों में कुण्डलपुर जा पहुंची।
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जस जीवन अपजस मरन, सुनो सयाना लोय। ज्ञानीजन संसार में, दाखें मारग दोय ॥
जो मनुष्य यश को रखते हुए जीते हैं उनका जीना जीना है। अपयश के होजाने पर जीना जीना न रहकर मरना हो जाता है । अपने जीवन के बहुमूल्य समय को जो मनुष्य परोपकार में बिताते हैं उन पुरुषों का नाम इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर सुवर्णाक्षरों से लिखा जाता है। यशस्वी पुरुष मरकर के भी अमर हो जाते हैं । ऐसे अमर पुरुषों के जीवन संदेश जनता को अमरता का पाठ पढाते हैं।
हमास चरित-नायक यशस्वी कुमार श्रीचन्द्र अपने भाग्य की परीक्षा के लिए अपने जीवन से जगत को
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( २६७ )
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ध्यान से देखियें, राधावेध साधने के लिए बडी २ उमंगोंको लेकर राजकुमार स्तम्भ के पास आते हैं। असफल होकर, निराशा और अपमान को अपने हृदय में लेकर ये लौट जाते हैं | देखियें, यह श्रीचन्द्र का वेष बनाकर कुमार कनकर आया है | देखियें इसने श्रीचन्द्र की तरह बाण चला दिया है। बाण लगा या नहीं तब भी उस कृत्रिम तिलकमंजरी ने उसके गले में वर माला डाल दो है । हा हा हा ! कितना सुन्दर नाटक है । ये भाट चारण - "सूरो सिरि चंदो जय" कहकर आशीर्वाद के साथ प्रशंसा के गीत गाते हैं । इस प्रकार नाटक - दिखानेवाले पुरुष को कुमार ने प्रसन्न होकर बहुतसा पारितोषिक प्रदान किया ।
नाटक देखकर मन ही मन कुमार प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ खडा था । उस समय पास में खडी हुई राजकुमारी कनवती समुद्र के प्रति नदी के समान प्रेम से नाटकीय कुमार श्रीचन्द्र के प्रति उमड़ रही थी । उसने पास खडी अपनी धामाता के सामने लज्जा और संकोच को छोड़कर यह बात प्रकट कर दी । अहा ! कितना सुन्दर स्वरूप है । महामहिम इस उदार शूरवीर, धीर और गंभीर पुरुष को मैने मेरा जीवन-साथी मान लिया है। आज से यही मेरे पति हैं। वहां खडो मंत्री की कन्या प्रेमवती, सार्थपति की कन्या धनश्री ने और नगर
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( २६७ ) ध्यान से देखियें, राधावेध साधने के लिए बडी २ उमंगोंको लेकर राजकुमार स्तम्भ के पास आते हैं । असफल होकर, निराशा और अपमान को अपने हृदय में लेकर ये लौट जाते हैं । देखियें, यह श्रीचन्द्र का वेष बनाकर कुमार कनकरथ आया है। देखिये इसने श्रीचन्द्र की तरह बाण चला दिया है। बाण लगा या नहीं तब भी उस कृत्रिम तिलकमंजरी ने उसके गले में वर माला डाल दो है । अहा हा हा ! कितना सुन्दर नाटक है। ये भाट चारण-"सूरो सिरि चंदो जयउ" कहकर आशीर्वाद के साथ प्रशंसा के गीत गाते हैं । इस प्रकार नाटक-दिखानेवाले पुरुष को कुमार ने प्रसन्न होकर बहुतसा पारितोषिक प्रदान किया।
नाटक देखकर मन ही मन कुमार प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ खडा था। उस समय पास में खडी हुई राजकुमारी कनकवती समुद्र के प्रति नदी के समान प्रेम, से नाटकीय कुमार श्रीचन्द्र के प्रति उमड़ रही थी। उसने पास खडी अपनी धामाता के सामने लज्जा और संकोच को छोडकर यह बात प्रकट कर दी। अहा ! कितना सुन्दर स्वरूप है। महामहिम इस उदार शूरवीर, धीर
और गंभीर पुरुष को मैंने मेरा जीवन-साथी मान लिया है। आज से यही मेरे पति हैं। वहां खडी मंत्री की कन्या प्रेमवतो, सार्थपति की कन्या धनश्री ने और नगर
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सेठ की पुत्री हेमश्री ने भी राजकुमारी कनकवती की बात के साथ उसी प्रकार अपने मनोगत भावों को भी व्यक्त किया और कहा कि जिस महापुरुष की छाया भी ऐसी मनोहर है तो साक्षात् स्वरूप का तो कहना ही क्या ?
धाय माता ने उन सखियों के विचारों की प्रसंशा की और कहा कि-मैं राजाजी से प्रेरणा करके अपने मंत्रियों को कुशस्थल भेजकर, विवाह के लिए कुमार श्रीचन्द्र को श्रामंत्रित करवा दूंगी। कुमार ने इन सारे विचारों को सुनकर अपने मन में विचार किया-यदि मैं यहां कुछ देर
और ठहरा तो मुझे यहां कोई न कोई अवश्य पहचान लेगा, इसलिए अब यहां से चल देना चाहिए । यह सोचकर वह वहां से आगे को चला । बहुत सा मार्ग तय करने पर उसे दूर से एक ओर नगरी दिखाई दी। विश्राम की इच्छा से उसने पास ही के एक यक्ष-मंदिर में प्रवेश किया। वहां पहले से ही सिर पर हाथ धरे कोई चिंतातुर व्यक्ति बैठा था। उसे देखकर कुमार ने पूछा "भाई तुम कौन हो इस नगरी का क्या नाम है ? और तुम इतने चन्तातुर क्यों दिखाई देते हो"।
उसने एक लम्बी सांस लेकर कहा-पथिक ! यह कान्ति नाम की नगरी है। महाराज नरसिंह देव इसके
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( २६६ )
शासक हैं । सब कलाओं में निपुण, रूपवती, विदुषी प्रियंगुमंजरी नाम की उनके एक पुत्री है। अब आप चिंता का कारण भी सुनलो
यहां से नैऋत्य कोण में हेमपुर नाम का नगर है । वहां मकरध्वज नामक का राजा राज्य करता है। उसके मदनपाल नाम का एक पुत्र है । वह युवावस्था में एक दिन अपने गवाक्ष में बैठा चौराहे की छटा को निहार रहा था । इतने में उसने एक योगिनी को जाते हुए देखा । उसने उसे अपने पास बुलाकर पूछा माई ! कहां सेई हो ? और कहां जाती हो कोई आश्चर्य की घटना हो तो सुनाओ ।
योगिनीने कहा- मैं कांतिनगरी से आती हूँ । कुशस्थलपुर की तरफ जा रही हूँ। मैं एक अपूर्व दृश्य तुम्हें दिखाती हूं। इसे तुम देखो - ऐसा कह कर उसने किसी स्त्री का नेत्र हारी चित्र दिखलाया ।
राजकुमार मदनपाल ने उस चित्र को एकटक देखते हुए योगिनी से उसका परिचय पूछा कि बताओ - यह किसका अद्भुत चित्र है ? योगिनी ने कहा कान्तिपुरी के राजा नरसिंह देव की राजकुमारी प्रियंगुमंजरी का यह चित्र है । यह गुगंधर कलाचार्य से श्रीचन्द्र कुमार
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( २७० )
की तारीफ सुनकर उस पर आसक्त हो गई है । उसीके आदेश से श्रीचन्द्र का चित्र लाने को कुशस्थलपुर जा रही हूँ ।
मदनपाल ने प्रियंगुमंजरी के चित्र को लेने के लिये भारी कोशीश की, परंतु वह सफल न हो सका, और योगिनी चली गई । मदनपाल कामज्वर से पीडित होकर दुबला होने लगा । मित्रों ने उसके पिता से असली हालत कह दी । उनने कान्ति- नरेश से उनकी कन्या की मांगनी की, किन्तु राजा नरसिंह ने उस मांगनी को ठुकरा दी। इस बात को जानकर मदनपाल अत्यधिक पीड़ित हुआ ।
पथिक ! वही मैं मदनपाल हूँ । पुष्प द्वारा आकृष्ट भौंरे की तरह उस निंद्य सुन्दरी के रूप से खींचा हुआ मैं यहां आया हूँ ।
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यहां आकर मैं राज- माली के मकान में ठहरा । मालिन हमेशा राजकुमारी के पास जाती थी । उसके साथ मैंने प्रियंगुमंजरी के पास संदेशा भेजा कि - हेमपुर का राजकुमार तुम्हारे चित्र को देखकर तुम्हारे मोहपाश में बंधा हुआ यहां आया है। कृपा करके दर्शन दे दो ।
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( २७१ ) __' मालिन ने जाकर मेरा संदेशा राजकुमारी से कह सुनाया। मेरे प्रति अनुराग बढाने के लिये कोई उपाय उसने वाकी नहीं छोड़ा। खून प्रलोमन दिया मगर वह टस से मस न हुई मालिन ने जब उसे यह कहा कि दुनियां में ऐमा चतुर आदमी खोजने पर भी नहीं मिलेगा तब उसने मुस्कराकर बोलने के लिये अपने होंठ खोले।
उसने कहा, "मालिन ! अगर तुझे उसकी दक्षता का इतना गर्व है तो ले देख, मैं अभी उसकी चतुराई का पता लगा लेती हूँ।"
___यह कह कर उसने पुष्प-राशि में से लाल कनेर के एक पुष्प को उठालिया, और उसे दोनों कानों में धारण कर उसे देखे बिना ही दूर फेंक दिया । इसके बाद उसने एक कमल उठाया और फिर उसे देखकर अपनी छाती से लगा लिया। फिर उसने मालिन से कहा, "हे मुग्धे ! तू उसके पास जा और मैंने जो कुछ अभी तेरे सामने किया है उसका उन्नर ला। इसके बाद ओर कुछ पता लगावेंगे।"
मालिन ने घर आकर सारी बातें मुझे कह दी। परन्तु मैं राजकुमारी के भावों को न समझ सका और न उसका उत्तर ही दे सका। क्या करूँ? कहां जाऊं?
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( २७२ ) इस प्रकार उसकी चिन्ता में डूबा, इस यक्षमंदिर में आ बैठा हूँ। क्योंकि मैंने किसी से .यह सुन रक्खा है कि राजकुमारी सदैव यहां आया करती है। परन्तु हतभागी होने के कारण मेरा उससे यहां भी मिलाप नहीं होता कारण कि जब वह यहां पर दर्शनार्थ आती है तब उसके साथ की प्रतिहारिणियें मुझे ठोक पीटकर मन्दिर से बाहिर निकाल देती हैं। हे भाई ! यह मैं अपना दुखड़ा किसके आगे रोऊँ ? तुम मुझे बड़े दयालु और परोपकारी मालूम देते हो, अतः कृपा कर मुझे कोई उपाय बताओ। ____ मदनपाल की यह बात सुन कर कुमार को बड़ी दया आई और उसने अपने मनमें विचार किया, अवश्य गुरु गुणंधराचार्य का पहले कभी इधर आना हुआ है। अहो ! राजकुमारी की चतुराई का क्या कहना ? इसने अपने भाव पुष्पों द्वारा प्रगट किये हैं। लाल-पुष्प के समान मैंने तुमको अपने में रक्त स्वयं कानों द्वारा सुना है मगर मैं तुम्हारी ओर न तो देखती हूँ और न तुम्हें स्थान ही देती हूँ। दूसरा जो कमल पुष्प उठाया उसका भी भाव यह है कि कमल के समान शुभ्र और सुगन्धित किसी व्यक्ति को जो स्वयं मुझ से विरक्त है परन्तु जिसे मैं प्राणपण से चाहती हूँ और जिसके गुण मैंने कानों से सुने हैं उसे मैंने अपने हृदय में स्थान दे दिया है। कनेर
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( २७३ ) के लाल पुष्प जैसे तुम मदनपाल हो, और कमल पुष्प जे से वह कुमार श्रीचन्द्र हैं। उसने उपरोक्त भाव ऐसे. प्रगट किये थे परन्तु अपने को बुद्धिमान् समझने वाला व्यक्ति इतना भी न समझ सका खैर । अब इसे ऐसी सलाह देनी चाहिये जिससे इसके मन को संतोष हो ।
फिर कुमार ने उस मदनपाल से कहा, "भाई अब क्या करोगे ? क्या तुम्हारी कभी चार आंखे हुई हैं ?" उसने उत्तर दिया, “पथिक ! न तो मैंने उसे कभी देखा न उसने मुझे कभी देखा है । मित्र ! तुम्ही बतायो यह मेरी मनोवाञ्छा कर पूर्ण होगी ! तुम परोपकारी हो अतः मुझे कोई मार्ग दिखलाओ।
इतने में शंख की ध्वनि सुनाई दो। वे दोनों वहां से उठ कर उपवन में चले गये और मन्दिर की ओर दृष्टि गड़ा कर किसी पेड़ की आड़ में खड़े हो गये। इतने में सखियां समेत राजकुमारी गाजे-बाजे के साथ आई और मन्दिर में प्रविष्ट हुई । वहां पर खूब नृत्य और गान होने लगा। मृदंग, बांसुरिये और बीणाएँ बजने लगी। मन्दिर कुछ ही क्षण में गान-गृहसा प्रतीत होने लगा।
इसी बीच में धूलिधूसर वस्त्र पहिने किसी स्त्री ने शीघ्र ही मन्दिर में प्रवेश किया। उसके प्रवेश करते ही
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( २७४ ) नाच गान सब बन्द होगया । कुछ ही समय के बाद वहां से हायरे ! की श्रावाज़ के साथ रोने की आवाज सुनाई दी। रोती हुई एक सखी शीघ्रता से मन्दिर के बाहर निकल कर उस उपवन में आई ।
___ उसे देख कुमारने पूछा ? हे सुभ्र ! यह आश्चर्य कारी रंग में भंग कैसे हुआ ? कृपा कर कहो। मुझे अभी समय नहीं है । सखीने उत्तर दिया । इतने में दूसरी सखी आपहुँची और उसने पहली सखी से कहा, "बहन जल्दी जाओ और शीघ्र ही केले के पत्ते ले आयो । राजकुमारी बेहोश पड़ी है।" यह सुन वह शीघ्र ही गई और केले के पचे लाकर उसने उसे दे दिये।
बाद में उसने प्रश्नकर्ता से कहा, 'भद्र ! सुनो इस हमारी स्वामिनी ने अपनी सखी को योगिनी के वेष में कुशस्थल भेजा था । कारण कि यह कई दिनों से श्रीचन्द्र पर आसक्त है । इसने अपना प्रेम प्रकट करने के लिये अपना चित्र तैयार करवा कर श्रीचन्द्र के पास भेजा था परन्तु वह दैवयोग से वहां न मिला । यह अभी अभी जो मलिन वेशधारिणी स्त्री मन्दिर में प्रविष्ट हुई है वही कुशस्थल से लौटी है । इसने जो जो हुआ वह सब अभी इसी मन्दिर में राजकुमारी को कह सुनाया है।
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(२७५) उसके निराशा भरे वचनों को सुनकर कुमारी मूर्छित होगई है और उसी को होशमें लाने के लिये यह सारी दौड़धूप हो रही है । उसी के सोच में यह सारा रोना चिल्लाना हो रहा है। यही बात रंग में भंग का कारण हुई है। न जाने अब क्या होगा ? ऐसा कह कर वह अपनी सखी के साथ चली गई। - उन सब के वहाँ से चले जाने के बाद राजकुमारी के साथ विवाह न करने की इच्छावाले कुमार श्रीचन्द्र ने मदन पाल से कहा, "भाई ! तुम व्यर्थ ही राज्यसुख
और वैभव को छोड़ कर इधर उधर भटक रहे हो । यदि इसके बिना तुम्हें सरता ही न हो तो मेरी सलाह सुनो।"
__ संसार में धन ही एक ऐसी वस्तु है जिससे सारे मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं बिना इसके सब निष्फल है । यह सुन कर मदनपाल ने कहा, अगर धन हो तो यह उपाय किस रीति से सफल हो सकता है ? - श्रीचन्द्र कुमार उसको लेकर वहां से दूर चला गया। वहां जाकर उसने कहा कि जो बात राजकुमारी की सखी ने कही है उसीके आधार पर हमें यह सारा जाल फैलाना होगा । तुम कुमार श्रीचन्द्र बनो और मैं तुम्हारा सेवक । फिर नगर में चलें और किराये से मकान लेकर
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( २७६ ) रहें । वहां पर तुम याचकों को विशेषकर के गुप्तदान देना । इससे तुम्हारी प्रसिद्धि अपने आपही हो जायगी। इसके बाद मैं तुम्हारी सहायता के लिये ऐसे ऐसे कार्य करूगा जिससे राजा को यह बात मालूम हो जायगी कि श्रीचन्द्र चुपके से अपने नगर से यहां आया है । इसके आगे तुम्हारे भाग्य ही प्रमाण हैं, क्योंकि, सबसे बढ़कर भाग्य ही एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को इस जीवनसंग्राम में सफल और निष्फल बनाती है।
यह सुनकर मदन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उन दोनों ने जैसा विचारा वैसा ही किया । मदन मकान के ऊपरी भाग में बैठा रहता था, और कुमार द्वार पर द्वारपाल के के रूप में बैठा उचित कार्यवाही किया करता था।
श्रीचन्द्र के दान की वाहवाही सारे शहर में फैल चुकी थी। छोटे-बड़े, धनी-निर्धन, सबल-निर्बल सभी की जबान पर उसीका नाम था । शनैः शनः उसकी यशोराशि शारदीय चन्द्रिका के तरह राजा को भव्य सुधालिप्त राज्य प्रासाद में भी फैल गई। राजा भी अपने नगर में श्रीचन्द्र का आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने मंत्रियों को उसके पास भेजकर आने जाने का मार्ग खोल दिया।
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(in 200+)
कुमार ने मदन को यही उपदेश दिया कि तुम योगी की भांती मौनी बने रहो । बस यही तुम्हारा काम हैं । अवशिष्ट सभी काम मेरे सिपुर्द हैं। सारे काम द्वारपाल रूपी कुमार ने अपने उपर लेकर अपने चातुर्य से, सारे नगर को राजा, राजकन्या और मंत्रियों वगैरह सभी को खुश कर दिया ।
राजा उसके चरणों से इतना प्रसन्न हुआ कि वह स्वयं जाकर उसे अपनी कन्या के साथ विवाह करने की प्रार्थना करने लगा परन्तु कुमार रूपधारी मदन उपर से आनाकानी करता रहा । अन्त में बड़े कष्ट से राजा ने उसे अपनी कन्या से विवाह करने के लिये राजी किया ।
द्वारपाल ने मंत्रियों से कहा कि आप विवाह करने में देर न करो - शीघ्र ही इस काम को पूर्ण करो । राजा ने दूसरे दिन हो गोधूलिक लग्न नियत कर दिया और दो जगहों पर विवाह की सामग्री इकट्ठी करली | श्रीचन्द्र के विवाह के उपलक्ष में पुरवासियों ने प्रसन्न हो कर शीघ्र ही नगरी को अनेकों प्रकार से सजाकर अमरपुरीसा बना दिया ।
मदन खुशी के मारे फूला न समाता था. पौफट ने से पहले ही वह उठ कर अपने नित्य के धार्मिक कृत्यों
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(२७८)
से निवृत्त हो चुका था । वह अपने हृदय में कई प्रकार की आशाएं और उमंगें लिये अपने महल के झरोखेमें बैठा चौराहे और पनघट की शोभा को निहार रहा था । इसी बीच में कुछ पनिहारियों को बातचीत की भनक उसके कानों में पड़ी ।
एक सखी ने दूसरी से कहा, सखि ! क्यों भागी जारही हो ? दूसरी ने उत्तर दिया, क्या तुम्हें यह मालूम नहीं है, कि आज हमारी राजकुमारी का विवाह - दिन है । कुमार श्रीचन्द्र और कुमारी प्रियंगुमंजरी दोनों ने आचार्य गुणधर से सब प्रकार की शिक्षा पाई है । श्रतः विवाह के पहले उन दोनों में पद्मिनी आदि स्त्रियों के भेद और लक्षणों के विषय में बातचीत होगी, और इसके पश्चात् उनका पाणिग्रहण होगा । कारण की श्रीचन्द्र उस विषय को भली प्रकार जानता है । अतः या बड़ाभारी कौतुक होगा । इसीलिये आज जल्दी है। काम काज से निवृत्त होकर फिर राजमहल में जाऊंगी |
,
मदन इस वार्तालाप को सुनकर बड़ा चिन्तित हुआ और उसने श्रीचन्द्र से यह सारी बात कही, और यह भी कहा कि मित्र ! बताओ अब क्या किया जाय ?"
|
श्रीचन्द्र ने उत्तर दिया, “मित्र ! में स्त्रियों के चारों भेदों को थोड़ा बहुत जानता हूँ अतः तुम शीघ्र
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( २७६ ) ही उसे लिख कर हृदयंगम कर लो जिससे तुम्हारा यह काम भी पूर्ण हो जायगा ।" मदनपाल ने . उत्तर दिया, "मित्र ! अब पढ़ने लिखने का समय नहीं रहा। इधर तो लग्न वेला निकटातिनिकट आरही है और अब इतने संकीर्ण समय में कोई भी बात किस तरह याद की जा सकती है। कहा भी है
“संदीप्ते भवने तु कूप-खननं, प्रत्युद्यमः कीदृशः।" "आग लगे खोदे कुआ, कैसे आग बुझाय ।।"
यद्यपि तुम मुझ से उम्र में छोटे हो लेकिन रूप में समान ही हो, और वस्त्राभूषणों के धारण करने पर
और भी अधिक सौन्दर्य को प्राप्त हो जाओगे । अतः मेरी तुमसे यही प्रार्थना है कि तुम मेरा वेष ग्रहण कर लो और तुम्हारा वेष मुझे दे दो और मेरी जगह पर तुम विवाह करके विवाहित राजकन्या को मुझे सौंपदो।" कुमार ने उत्तर दिया “यदि तुम्हारी 'ऐसी ही इच्छा है तो मुझे यह बात भी स्वीकार है।"
फिर क्या था ? मदन पालने उसका द्वार पाल का वेष धारण कर लिया, मगर श्रीचन्द्र ने उसके वस्त्र न पहने । उसने तो अपने ही वस्त्र और आभूषणों से अपने को सजाया।
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( २८० ) इधर वहां पर आकर के राज-स्त्रियों ने वैवाहिक विधि के अनुसार उसके घर पर मांगलिक कृत्य किये। इसके बाद वह सुवर्ण और रत्नों के आभूषणों को धारण करके अपने कुण्डलों और नाममुद्रा से शोभायमान हाथी पर सवार हुअा। सिर पर सफेद छत्र लगाया गया । चंवर ढुलने लगे। सुवर्ण और रजत दण्ड लिये छड़ीदार और चौपदार आगे आगे चलने लगे। बन्दीजन स्तुति करते हुए चल रहे थे। बाजे बज रहे थे। नगर के लोग और सैनिकों की पंक्तियां आगे आगे चल रही थी। बड़े महोत्सव के साथ वह नगर में होकर राजमहल में पहुँचा। वहां पर तारक भट्ट ने उसे पहचान लिया और उसकी प्रशंसा में बोल उठा,. तझ्या विवाह समए, धनवइ पमुहाण अट्ठकन्नाणं ।
सिरिचन्दो सिद्धिघरे, जो दिट्ठो सो इमो जयउ ।।
यह सुनकर राजा वगैरह ने उसे खूब दान दिया और कुमार को गोदी में लेकर सजा सिंहासन पर बैठ गया । कुमार के रूप,नाम-मुद्रा और कुण्डलों को बारबार देखते हुए राजा ने राजकुमारी को दूसरे सिंहासन पर बिठाकर कोई शास्त्रीय चर्चा छेड़ने की आज्ञा प्रदान की । पाठक उस चर्चा को अगले प्रकरण में ध्यान से सुनें ।
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काव्य-शास्त्र-विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन च ॥ । अथोद-पण्डित स्त्री-पुरुषों का समय काव्यों की एवं शास्त्रों की चर्चा के विनोद में हंसी खुशी से बीतता है, तो मूरों का समय जूा, तास, भांग आदि के व्यसन में, नींद में, या लड़ाई झगड़े में ही बीतता है।
भोजन के बाद का समय था । सूर्य की गति अपूर्व हो रही थी। घाम से बचने के लिये मकानों में खसखस की टाटियों पर गंगा-गुलाबजल के छिड़काव हो रहे थे। उनसे मोठी तर खुशबू के साथ ठंडी हवा की लहरें निकल २ कर दिल और दिमाग को तर कर रही थीं। कोई अंगड़ाइयां लेते घरों में सोते पड़े थे। कोई पराई
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( २५२ ) निन्दा वार्ता में लगे हुए गप-सप लगा रहे थे। कोई अपने ही भविष्य की चिन्ता में लीन हो रहे थे। कोई तास, चौपड़, सतरंज के खेलों के साथ जूए के दांव धर कर लक्ष्मी को इधर से उधर कर रहे थे। कोई बीड़ी, भांग आदि के व्यसनों से विपत्तियों का अनुभव करते हुए भी उन्हीं में मजा लूट रहे थे दुकानदार गाहकों के
आने की राह देखते २ समय बीता रहे थे। कई धार्मिक जन सामायिक में, स्वाध्याय में, एवं भगवान के नाम जाप में तन्मय हो रहे थे। कड़े धूप के कारण बाहर निकलने को जी नहीं चाहता था। गृह-लचिमयां भोजन से निपट कर सीने-पिरोने, नहाने-धोने, एवं सोने-पोने के कामों में लगी हुई अपनी सुघड़ता को दिखा रही थीं। - ऐसे दुपहरी के. समय में कांतिपुरी के राजा नरसिंह को राज-सभा में हेमपुर के राजकुमार-बनावटी श्रीचन्द्रके बदले में चरितनायक कुमार श्रीचन्द्र राजकुमारी प्रियंगुमंजरी के साथ लग्न के दिन अपने प्रौढ पाण्डित्य का प्रदर्शन करा रहे थे । इस अपूर्व प्रसंग को देखने सुनने के लिके राजा ने नागरिक स्त्री-पुरुषों को भी आमंत्रित किये थे। राज-सभा खचाखच भरी हुई थी। सबकी आंखें
और कान राजकुमार के रूष और ज्ञान को नंबर दे रहे थे।
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( 5 ) पिता की आज्ञा से राजकुमारी प्रियंशुमंजरी ने सभा को साक्षी बनाते हुए कुमार से स्त्रियों के भेद और लक्षण पूछे।
उत्तर में कुमार श्रीचन्द्र ने कहा:-"अयि पण्डिते ! राजकन्ये ! पद्मिनी, हस्तिनी, चित्रिणी और शंखिनी ऐसे स्त्रियों के चार भेद होते है। एक २ भेद के चार २ उपभेद भी होते हैं। ऐसे कुल सोलह भेद शास्त्रों में बताये गये हैं। .. इनके लक्षण गंध से, अंगोपांगों से गति से, दांतों से, नेत्रों से, आदि २ प्रकारों से जाने जाते हैं। उसका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है
पहला भेद पद्मिनी का होता है-उसके शरीर से कमल की सी सुगंधी निकलती है, सारा शरीर सुन्दर होता है, उसमें भी मुख की शोभा विशेष होती है। वह हंस की तरह चलती है। उसके मोगरे की कलियों के जैसे सुन्दर सुडौल स्वच्छ दांत होते हैं। माथे में चिकने सलोने श्याम-सुन्दर लम्बे २ बाल होते हैं। मोटे २ उसके नेत्र और स्तन होते हैं । पद्मिनी की नींद आहार, कामवासना, पसीना क्रोध आदि अन्य होते हैं।
दूसरा भेद हस्तिनी का होता है उसके शरीर में हाथी के मद जैसी गंध होती है। हथिनी के जैसी उसकी
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( २८४ ) मस्तचाल होती है। दांत बड़े केश कुछ मोटे, स्तन और आँखें कुछ छोटी २ होती हैं । हस्तिनी की नींद गहरी आहार काम-वासना पसीना क्रोध आदि कुछ अधिक
: तीसरा भेद चित्रिणी का होता है उसके शरीर से अनेक प्रकार की गंध निकलती है। उसकी साथलें सुडौल होती हैं। दांत और केश उस के सूक्ष्म होते हैं। तीखी उस की आंखें होती हैं। उचे उसके स्तन होते हैं। चित्रिणी की थोड़ी नींद चटपटा थोडा आहार, अनेक विलास, मध्यम प्रकार का पसीना आदि होते हैं। ..
चौथा भेद शंखिनी का होता है-उसके शरीर से मछली की सी गंध निकलती है। स्तनों में सुन्दरता होती है । गधी की तरह चलती हे । मोटे लंबे उसके दांत होते हैं । उसका केशपाश लूखा और मोटा होता है। आंखें पीली पीली सी होती है । खूब सोनेवाली, खूब खानेवाली, खूब वासना-विकारवाली, और खूब पसीनेवाली शंखिनी स्त्री होती है। क्रोध तो उसका बहुत दीर्घ काल तक चलता रहता है। " . .
. पद्मिनी प्रिय-पुष्पौधा, हस्तिनी मैक्तिक-प्रिया । .. चित्रिणी प्रियंभूषा च, शंखिनी कलह-प्रिया ॥
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(. २८५ ) .. पद्मिनी का फूलों से प्यार होता है.। हस्विनी को मोती प्यारे लगते हैं । चित्रिणी को अलंकार और शंखिनी को झगड़ा करना ही अच्छा लगता है।
पद्मिनी का हाथ कमल जैसा, हस्तिनी का शंख जैसा, चित्रिणी का मगर जैसा, और शंखिनी का हाथ मत्स्य जैसा होता है। ___हे बाले ! अब स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षणों से इनके भेद सुनो । साधारणतया शुभ और अशुभ लक्षणों के अनुसार उनके दो भेद होते हैं। एक तो शुभा और दूसरी अशुभा । ____ पूर्ण--चन्द्रमा के समान मुखवाली, बालसूर्य के समान कान्तिवाली, बड़े चेहरे वाली और लाल लाल होठों वाली कन्या 'शुभा' कहलाती है। जिस स्त्री के हाथ में अंकुश, कुडल और चक्र होते हैं. वह पुत्रवती और राजा की रानि होती है। जिसके हाथ में तोरण और प्राकार का चिन्ह होता है वह नीच कुल में पैदा होने पर भी रानी बनती है। जिसके हाथ में मन्दिर, कमल, चक्र, तोरण, छत्र और कुभ होता है वह अवश्य राजा की रानी बनती है जिसकी हथेली में मोर का छाता दिखाई देता है वह स्त्री पुत्रपौने वाली होकर बहुत फलती
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फलती है और रानी बनती है। जो स्त्री हरिणी के समान दृष्टिवाली, कोमल अगवाली, हरिणी के समान गर्दन और उदर वाली तथा हंसी के समान चाल वाली होती है वह अवश्य रानी होती है। जिस स्त्रिी के घुघराले साल और गोल मुह तथा दक्षिण की ओर मोरी वाली नाभि होती है वह बड़ी ही प्रेम पात्र होती है। जिसकी उंगलिये बड़ी बड़ी और लम्बे लम्बे केश होते हैं वह भी बड़ी उम्र वाली और धन धान्य से भरपूर होती है। जो स्त्री कृष्ण की तरह श्याम, चम्पक पुष्प के समान गौर वर्णवाली स्निग्ध अंग और बदनवाली होती है वह बड़ी सुखी होती है । जिस स्त्री के हँसने पर ललाट में स्वस्तिक का चिन्ह होता है तो वह हजारों वाहनों सवारियों की स्वामिनी होती है। जिसके बांए पार्श्व में, गले में, अथवा स्तनों पर मस्से, तिल आदि कोई चिन्ह हो तो वह सर्व प्रथम पुत्र पैदा करती है जो स्त्री कम पसीने वाली, थोड़े रोएं वाली, कम आहार और कम निद्रावाली होती है और जिसके शरीर पर रोए नहीं होते हैं वह उत्तम 'लक्षणों वाली कही जाती है। जिस स्त्री के जांघों स्तनों और होठों पर रोए होते हैं वह शीघ्र ही विधवा ही जाती है। जिसकी पीठ में भौरी होती है वह अपने पति का नाश कर देती है। हदय में भावत (भौरी)
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वाली पवित्रता और कमर में भौंरी बाली स्त्री स्वैरिली होती है। जिसको ललाट, पेट और योनि (गुद्यात्थान) लम्बी होती है वह अपने पति, ससुर ओर देवर के ' लिये घातक होती है। मनुष्य को चाहिये कि वह काली जीभवाली, लम्बे होठों वाली, पीली आंखों वाली, वर्धर
आवाज वाली, अत्यन्त गौरी और अत्यन्त काले रंग की इन छः प्रकार की स्त्रियों के साथ विवाह न करे ।
जिस स्त्री के बिना हंसे भी गालों में गड्ढे पड़ते हैं ऐसी स्त्री बड़ी व्यभिचारिणी होती है और वह कभी भी अपने पति के घर नहीं ठहरती । जिस स्त्री की कनिष्टिका और अनामिका उंगलो यदि पृथ्वी को न छूती हो तो वह अवश्य ही युवावस्था में जारों के साथ रमण करती है इसमें कोई संदेह नहीं है। जिसके जैसा मुख हो वैसा ही. गुप्त स्थान हो, जैसी आंखें हो वैसी ही कमर हो, जसे हाथ हों वैसे ही पैर हों, बाहुओं के जैसी ही जंघाएं हों और जो कौए के. समान स्वर वाली कौए के सदृश जांधोंवाली पीठ में रोए वाली बड़े, बड़े दांतवाली हो वह कन्या विवाह के बाद दस महिने में ही पति के मृत्यु का कारण बन जाती है इसमें कोई संदेह नहीं।
सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार विकट अंगुलियों वाली छिदे छिदे पैर वाली, धम धम चलने वाली, ऐसी स्त्री
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(२८८ ) वैर बसाने वाली होती है। अति दीर्घ, अत्तिहस्व, प्रति स्थूल, अतिकृश, अति--गौर और अति-कृष्ण, ऐसे छः तरह के भग, दुर्भग कहलाते हैं। कछुए की पीठ के समान उन्नत, हाथी के स्कन्ध समान, कमल के पत्ते के समान, सुसंवृत, अनुष्ण और अम्बर के समान सद्वृत्त, ये छः प्रकार के भग सुभग कहलाते हैं।
अब कुमार विवाह के योग्य और विवाह के अयोग्य स्त्रियों के लक्षण बतलाते हैं।
पीनोरू पीनगंडा, लघुसमदशना, दक्षिणावर्त-नाभिः । स्निग्धांगी चारु-सुभ्रः, पृथुकटिजघना, सुस्वरा चारुकेशी । कूर्म पृष्ठा--ह्यनुष्ण-द्विरदसम-पृथु स्कंधभागा सुवृत्ता सा कन्या पद्मनेत्रा, सुभग-गुणयुता नित्यमुद्वाह-योग्या ।।
अर्थात्- पुष्ट जंघोंवाली, प्रफुल्ल और पुष्ट गालों वाली, छोटे छोटे बराबर दांतों की पंकिवाली, दक्षिण की ओर भंवरीयुक्त नाभिवाली, स्निग्ध शरीर वाली, सुन्दर भौंहोंवाली, विशाल-जधन वालो, मधुर-स्वर एवं सुन्दरकेशोंवाली, सुभग-पग के समान विकसित नेत्रोंवाली ऐसी प्रधान गुणवती कन्या विवाह के योग्य होती है। विवाह के अयोग्य स्त्रियों के सामुद्रिक-लक्षण ये हैं::: पिंगाक्षी, पूपगंडा खर-परुषरवा, स्थूलजधोर्ध्व-केशी के लम्बोष्ठी, दीयात्रा प्रविरलदशना स्थमसाल्वोष्ठजिहा।
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( २८६ ) शुष्कांगी संहितभ्र विषम-कुचयुगा, नासिकाकान्त-वक्बा सा कन्या वर्जनीया सुख-सुतरहिता भ्रष्टशीलाच नारी ॥ __ अर्थात्-पीले नेत्रों वाली, पूए के समान छिद्रयुक्त गालों वाली, गधे के समान भारी आवाज वाली । मोटी जाँघों वाली, खडे केशोंवाली, लम्बे होठ और मुंह वाली, छोटे छोटे दाँतों वाली, श्याम रंग के तालु, झेठ और जीभवाली, सूखे दुर्बल शरीरवाली, छोटी भौंहैं और छोटे बड़े स्तनों वाली, लंबी चौडी-नाक वाली, शीलभ्रष्ट कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिये । __ शास्त्र तो विवाह के बाद भी अयोग्य स्त्री के त्याग की आज्ञा देता है । जैसे:विवाद-शीलासनमर्द-सूरिणी, परानुकूला परपाक-पाकिनीम् । आक्रोशिनी शून्यगृहोपदेशिनी, त्यजस्व भायादश पुत्र-पुत्रियीम् ॥
अर्थातः--रात दिन कलह और विवाद करने वाली, दूसरों के अनुकूल चलने वाली, दूसरों के यहाँ खाना पकाने वाली, निन्दा करने वाली, सूने घर में सोने वाली स्त्री को चाहें वह दस पुत्र व पुत्रियों वाली. ही क्यों न हो उसे बिना विचार किए ही त्यांग देना चाहिये। . इस प्रकार कुमार श्रीचन्द्र ने प्रियंगुमंजरी के प्रश्नों का सुन्दर और स्पष्ट रूप से उत्तर दे उसे संतुस्त कर
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(२६० ) दिया। प्रियंगुमंजरी ने भी प्रसन्न होकर उनके गले में वरमाला डाल दी। विवाह मंडप में कुमार का विधि"पूर्वक प्रौंखण (परीक्षण या पोखना) आदि के होजाने पर मातृका स्थान पर वरवधू को लाया गया। शास्त्रोक्त विधि से करणीय और आवश्यकीय कृत्यों को करके सुन्दर हरे बांसो से बनी, चारों कोनों में चार कलशों वाली चंवरी में अग्नि की साक्षी से फेरे फिराये गये । दहेज में यथायोग्यं सोना, चांदी, मणि, रत्न, दास, दासी, हाथी, घोड़े राजा ने बड़े भारी उत्साह के साथ दिये। धूमधाम से सवारी के साथ श्रीचन्द्र और प्रियंगुमंजरी को उनके निवासस्थान पर ले जाया गया । लोगों ने परस्पर इस प्रकार कहा
रूप, विद्या, कुल, बुद्धि और गुणों में यह कुमार एक ही है वैसे ही यह राजकन्या भी सौंदर्य और शील में एक ही है। इन दोनों का संयोग सुवर्ण के साथ रत्न का, इन्द्र के साथ इन्द्राणी का, रति के साथ कामदेव का रोहिणी के साथ चन्द्र का और रत्नादेवी के साथ सूर्य का जैसा सुन्दर योग हुआ है उन्हीं के समान इन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध भा उतना ही प्रशंसनीय हुआ है।
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(२८१ ) कुमार श्रीचन्द्र विवाह के मांगलिक कृत्यों से निवृत्त "होकर घर में प्रवेश करके, सबको यथास्थान स्थापन करके, याचकों को दान देकर के अपने महल में विश्राम के लिए चला गया ।
पूज्य पतिदेव के महल में आ जाने पर सुन्दरी प्रियंगुमैजरी भी पति के पास प्रसन्नता के फूल बखेरती "हुई पहुँच गई । काव्यालाप और साहित्य चर्चा हो रही थी । परस्पर एक दूसरे के पांडित्य का परिचय हो रहा था । मुखावलोकन और संभाषण के आनन्द का अमृत पिया जा रहा था । लहराती हुई आनन्द की लहरों से वे दोनों किसी अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे थे इतने में मदनपाल ने वहां पहुँच कर आंख के इशारे से श्रीचन्द्र को प्रतिज्ञा की याद दिला दी। श्रीचन्द्र अपनी प्रतिज्ञा को याद करके शौच के बहाने से ज्योंही महल से निकला, प्रियंगुमंजरी भी पानी लेकर उसके पीछे पीछे चली । कुमार ने उसे वहीं रोक दिया। खुद ऊपर से नीचे चला आया। अपने कुण्डल, मुद्रिका एवं प्राचीन "वेश को लेकर बोला-मित्र ! मैंने तुम्हारी मनोभिलाषा पूर्ण कर दी है । मैं अन्यत्र जाता हूँ। अब गृह सरवण का भार तुम्हारी योग्यता पर निर्भर है।
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(२५२.) मदनपाल ने उत्तर दिया-भाई ! तुमने मेरे लिए सब कुछ किया । मैं बदुला नहीं चुका सकता। एक प्रकार से आपने मुझे जीवन दान दिया है । अब आप अपनी इच्छानुसार जा सकते हो । प्रत्येक व्यक्ति का कष्ट दूर करने में समर्थ बने रहो, यही मेरा हार्दिक आशीवाद है । कुमार श्रीचन्द्र बाहर निकल गया।
मदनपाल ने प्रसन्नता के साथ आँखों में सुरमा लगाया, पान चबाया, कुमार के विवाह का वेश धारण कर, चिरकाल की अभिलाषा पूर्ण करने करने के लिए, भारी उमंग को हृदय में लिये वह महल में पहुँचा। अजीब प्रकार से आते और बैठते हुए निस्तेज मदन को देखकर प्रियंगुमंजरी के मन में संदेह हुआ। वह विजली की तरह चमक कर बाहर निकल गई। उसने अपनी संखियों से कहा-यह अजनबी पुरुष मेरे महल में कौन घुस आया है। अरी सखियों ! जरा देखो तो सही। वेशभूषा तो मेरे पतिदेव के जैसी ही मालुम होती है परन्तु व्यवहार, आचरण और सूरत में जमीं आसमान का अन्तर हो गया है । सखियों ने कहा-स्वामिनि ! आप पागल तो नहीं हो गई हैं जो इस प्रकार कह रही हैं। भला पति के सिवाय यहाँ अभी दूसरा पुरुष कौन आ या है.? उनकी वेशभूषा से ही निर्णय कर लेना चाहता
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( २६३) प्रियंगुमंजरी ने सखियों को विश्वास दिलाते हुए कहा-सखियों! अगर तुम मेरी बातों का विश्वास नहीं करती हो तो तुम स्वयं जाकर उसे पहले की बातचीत
और प्रेम भरें वचनों को पूछो, और उसके मुंह से कहलाओ । इस प्रकार उसकी जाँच करके देखो, कि वह वही है या दूसरा । * सखियों ने आज्ञा पाकर वैसा ही किया। उक्ति प्रत्युक्ति के अनन्तर उनको यह निश्चय हो गया कि यह वह श्रीचन्द्र नहीं है । यह तो कोई दूसरा छली पुरुष है । तब वे वहाँ से बाहर चली आई और कहने लगींस्वामिनि ! वास्तव में आपका कहना सच है । यह कोई अन्य ही है। हमें द्वारपाल से जाकर पूछना चाहिए । यह कहकर वे द्वारपाल के स्थान पर पहुँची मगर उन्हें वह भी दिखाई न दिया। यह देख सखियों को वहीं छोड़कर राजकुमारी स्वयं अपनी माता के पास चली गई इस प्रकार पुत्री को आई देख माता को कुछ सन्देह हुआ, और उसने निकट से पूछा-बेटी ! कुशल तो है ? तुम ऐसी हालत में ऐसे कैसे चली आई हो ? दुखी हृदय से राजकुमारी ने उत्तर दिया-माता जी ! बड़ा अनर्थ हो गया है। जिनको मेरी जिन्दगी सदा के लिए सौंपी थी वे तो कहीं दिखाई नहीं देते। परन्तु उनकी जगह कोई अन्य ही
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( २४.) व्यक्ति उनका वेश बनाकर पा उपस्थित, हुआ है। यह सुनकर माता बड़ी दुखी हुई । माँ ने राजा से सारा हाल कह सुनाया । राजा भी इस दुखदायक अद्भुत घटना को सुनकर अतीव दुखो हुा । दूसरे दिन प्रातःकाल. उस पुरुष को बुलाकर बड़े गौर से देखा । राजा को भी निश्चय हो गया, कि यह कोई अन्य व्यक्ति प्रतीत होता है। अपने विश्वास को दृढ करने के लिए राजा ने एडल और मुद्रिका दिखाने को कहा। वे दोनों चीजें तो श्रीचंद्र, के साथ चली गई थीं अतः वह न दिखा सका । पद्मिनी आदि स्त्रियों के सम्बन्ध में पूछा तो उसका जबाव भी वह न दे सका। राजा ने नाराज होकर गीली बैतों से पीटने की आज्ञा अपने सिपाहियों को दे दी। बैंत उठते ही वह थर थर काँपने लगा और मारे डर के उसने राजा को वृत्तान्त कह सुनाया। ____ वह कहने लगा-मेरा नाम मदनपाल है। राजकुमारी के चित्र को देखकर मोहित होगया। राजकुमारी के चित्र को पाने के उद्योग में मैं यहां आया। मेरी एक ब्रह्मचारी बाबा से भेंट हुई । उसने मेरा दुखडा सुनकर मेरे ही कहने से मेरा वेष बनाकर इस कन्या से विवाह किया पूर्व प्रतिज्ञानुसार उस परोपकारी ब्रह्मचारी ने मुझे दुहेज समेत इस कन्या को सौंप दी । वह कहीं चला गया
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( २६५ ) पता नहीं वह अब कहां है । उसी की बुद्धि से, मैंने इतना रास्ता पार किया।
इस प्रकार उसके वचन सुन कर राजा ने और पुरवासियों ने कहा-वह अवश्य ब्रह्मचारी बाबा श्रीचन्द्र ही था, वह श्रीचन्द्र ही था इसमें कोई संशय नहीं। उपस्थित तारक भट्ट ने भी कहा ।
- राजा ने श्रीचन्द्र की इधर उधर खोज करवाई परन्तु वह कहीं न मिला । कुमारी प्रियंगुमंजरी करुण विलाप करने लगी। सुनने बालों की आंखों में भी आंसू छल छला गये। उसके मुंह से निकलनेवाले वियोगजन्य वचन इतने दयनीय थे, जिनका सुनकर पालतू मयूरों ने नृत्य छोड दिया । पालतू हरिणों ने घास खाना छोड दिया। यहां तक कि उसके दुख से सहानुभूति प्रकट करने के लिए उद्यान के पेडों ने भी फूलों के आंसू बरसाए। - पुत्री को इस प्रकार रोती कलपती देखकर पिता के धैर्य का बांध भी टूट गया। राजा नरसिंह. देव अपने
आप को संभाल न सका। वह घडाम से जमीन पर गिर पड़ा और उसके वाल. बिखर गये। सारा राजकीय वेष अस्तव्यस्त होगया। मुश्किल से होश में आने पर
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( २६६ )
रोत्रो
दिल को मजबूत करते हुए पुत्री से कहा-बेटी मत । धैर्य रखो । गुणों की परीक्षा आपत्ति में ही होती है ।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपत काल परखिये चारी ||
तुम अपने पवित्र और सच्चे प्रेम पर श्रद्धा और विश्वास रखो। वह अवश्य ही तुम्हें मिलेगा, लेकिन मिलने पर तुम उसे पहचान तो लोगी ?
पुत्री ने उत्तर दिया- पिताजी ! यहां पर जिसे मैंने देखा है, जिसके साथ सुमाषित गोष्ठी की है, उस पति को मैं भूल नहीं सकती हूँ। उन्हें मैं हर तरह से पहचान सकती हूँ। यह मुद्रिका उन्होंने मुझे प्रेम पूर्वक दी हैं । अतः जब तक पति का मिलाप न होगा तब तक में इस मुद्रिका की पूजा करती रहूँगी ।
इधर राजा की आज्ञा से मंत्रियों ने मदनपाल के पास से सारी दहेज सामग्री छीन ली। रानी द्वारा दी हुई
गूठी उसके पास न मिली तब उन्होंने उससे पूछाबताओ, वह मुद्रिका कहाँ है ? मदन ने उत्तर दियासाम द्वारा दी गई अंगूठी तो वह मेरे पास से स्वयं ले गया । यह सुन राजा सहित सब लोग बड़े हर्षित हुए
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( २६७ ) और कुमार श्रीचन्द्र के परोपकार, धैर्य, बुद्धि तथा साहस की एवं कन्या के भाग्य की सराहना करने लगे। राजा ने कुछ धन देकर मदनपाल को जिन्दा छोड़ दिया। अपने विश्वासपात्र सेवकों को श्रीचन्द्र की खोज में भेजा। आसपास के सारे प्रान्त छान डाले । कुमार का कहीं अतापता न चला । तब वे निराश होकर लज्जित अवस्था में राजा के सम्मुख उपस्थित हुए। राजा उनकी बात सुनकर दीर्घ और गर्म सांस छोड़ते हुए बोला-किसी अच्छे दिन श्रीचन्द्र की खोज में सुयोग्य मंत्रियों को कुशस्थलपुर भेजूंगा । इस प्रकार सब अपने अपने स्थान पर चले गये और अपने अपने काम में लग गये ।
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ग्रीष्मऋतु अपने पूर्ण यौवन पर थी। मूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से जगत के प्रत्येक प्राणी को तपा रहा था। संताप से बचने के लिये सभी प्राणी आश्रय ढूढ रहे थे । विशाल वट-वृक्ष पशु-पक्षियों की एक खुश-हाल वस्ती बन रहा था । पक्षियों का कलरव बड़ा ही मुहावना लग रहा था । गर्मी की अधिकता से पशु-पक्षी अपने जन्मजात वैर को भुलाकर एक साथ सूर्य के प्रखर-ताप से अपना बचाव कर रहे थे। जल को छोड़कर संसार की सभी वस्तुएँ नीरस सी प्रतीत हो रही थीं। परोपकारी वृक्ष सब पर छाया किये हुए स्वयं एक तपस्वी के समान तप रहे थे।
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२६४)
एसे विकट समय में हमारा चरित्र नायक कुमार श्रीचन्द्र शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित क्षत्रिय वेश को धारण करके एक बड़े भारी जंगल में प्रा निकला । जोर की प्यास लग रही थी । किसी ऊचे स्थान पर चढकर दूर तक जलाशय को ढूढने के लिये दृष्टि दौड़ाई । कुछ ही दूर पर एक तालाब देखा, उसके किनारे एक दीप्तिमय तेजःपुंज भी दिखाई दिया। कुमार वहीं जा पहुंचा। अपने अंगोछे से जल को छानकर पीया, और वहां पड़े तेजःपुज संपन्न चन्द्रहास खड्ग को देखा । कुमार ने उसे उठा लिया और सोचा यह किसी देव-मनुष्य या विद्याधर की तलवार है।
इसका स्वामी कौन है ? यह जानने के लिये कुमार ने इधर उधर पता लगाया। पर कोई दिखाई न दियातब कुमार ने माना कि-या तो कोई इस तलवार को यहां भूल गया है, या आकाश में चलते २ असावधानी से किसी देव-विद्याधरकी पड़ गई मालूम देती है। तीक्ष्णता की परीक्षाके लिये पास खड़ी बांस की झाड़ी पर कुमार ने उसे चलाई। नीचे की तरफ मुंह किये लटकता हुआ एक आदमी अधकटा कुमार को दीख गया । वुमार को बड़ा खेद हुआ। पश्चात्ताप करता हुआ वह कहने लगा
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(३००)
अहो ! अज्ञान से यह भारी पाप मुझ से हो गया । निरपराधी को मारने से मुझे नरक में भी शायद स्थान मिलना कठिन है । उस अधमरे आदमी के हाथ में तलवार पकड़ाकर कुमार ने कहा- भाई ! भूल में मेरे हाथ से तुम्हारे चोट आ गई है । मैं अपराधी हूँ । क्षमा करके अपनी तलवार ले लो, और जो दण्ड देना चाहो मुझे दे दो ।
I
बोलने में असमर्थ उस अधकटे आदमी ने तलवार वापस करते हुए इशारे से जल की मांगनी की । कुमार ने उसे पानी लाकर पिलाया । थोड़ी देर बाद उसके प्राण-पखेरु उड गये । कुमार श्रीचन्द्र इस दुर्घटना से दुःखी हुआ । बिना कुछ खाये पिये ही वह आगे की ओर बढ गया ।
रात हो चली थी । चन्द्रहास खड्ग ही उसका एक मात्र संगी था । मार्ग के कष्टों और अनजान में हुई नरहत्या के दुःख से वह सदा की अपेक्षा आज अधिक थक चुका था । सामने उसे एक सघन वट-वृक्ष दिखाई दिया कुमार ने उसी पर अपना पडाव डाल दिया । ज्यों ही वह आस पास देखता है । डाभ के पुल से बनी एक शय्या उसे दिखाई दी । उसे देखकर - " अवश्य ही यहां कोई यात्री पहिले सोया होगा" - ऐसा सोचकर कुमारने
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( ३०१ ) उस शय्या को अपने सोने योग्य मानकर उसकी देखभाल-पडिलेहना की।
शय्या को ऊंची नीची करके देखने पर उसके नीचे लकडियों से ढकी एक खोखल कुमार को दिखाई दी। आश्चर्य से लकड़ियों को हटाकर क्षण भर में वह साहस का पुतला-कुमार उसमें उतर गया । वृक्ष के मुल में जा पहुँचा-वहां पर पड़ी हुई एक विशाल पत्थर की शिला को हटा कर नीचे के गड्ढे में हाथ डालकर टटोला तो उसे नीचे उतरने की एक सीढ़ी का पता चला । शनैः शनैः वह अपनी हिम्मत के बल पर नीचे उतरा। उसके आगे एक खोह उसे दिखाई दी। कुमार बात का पक्का, हिम्मत का धनी और पान का सच्चा था । वह कभी निराश होनेवाला जीव न था। भय तो उसे छू तक नहीं गया था। वह बिना हिचकिचाहट के उस खोह में भी जा घुसा। वहां पर उसने भूगर्भ में एक विशाल भवन देखा । रंगविरंगे रत्नों की दीपमालाओं के प्रकाश से प्रकाशित वह दुमंजिला मकान इन्द्रधनुष की भांति शोभा दे रहा था।
कुमार पहले पहली मंजिल में घूमा, फिर बाद में दूसरी मंजिल में पहुँचा । वहां पर तरह तरह की रंग
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( ३०२ )
विरंगी मणियों से जड़े हुए, अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित, देश विदेश की मनुष्योपयोगी, धातु, काष्ठ, काच आदि की सभी सामग्रियों से शोभायमान एक सुसज्जित कमरे में जाकर वह एक रत्न - जड़ाऊ पलंग पर बैठ गया ।
थोड़ी देर विश्राम कर लेने के पश्चात् कुमार ने आसानी से भीतर के कमरे के द्वार खोल दिये, और वह उसके अन्दर भी जा घुसा। वहां पर उसने एक बंदरी को रत्न जड़ाऊ पलंग पर सोते हुए देखा । यह देख कर वह दंग रह गया। इधर बानरी भी उसे चकित देख शय्या को छोड़ के एक दम उठ खड़ी हुई, और आकर उसके चरणों में गिर पड़ी । उसने उसके वस्त्र का अचल पकड़ कर पलंग पर बैठाया । पलंग पर बैठकर आश्चर्य चकित कुमार ने उस बंदरी से पूछा “ चेष्टा से तो तुम मानवी दिखई पड़ती हो और वैसे तुम बानरी हो यह क्या बात है ? मैं इस रहस्य को जानना चाहता हूँ। "
यह सुन कर वह रोने लगी और उसने दीवार में बने हुए एक आले की ओर इशारा किया । वह बार बार अपने नेत्रों ओर आले की ओर हाथ से इशारा कर के कुमार को समझाने लगी । उसके इशारे से कुमार उठ कर उस आले की ओर गया और उसमें से उसने जन
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( ३०३ ) भरी हुई कुप्पियाँ दो बाहर निकाली। एक में सफेद और दूसरी में काला अजन भरा हुआ था। उसने बानरी के संकेत से उसकी
आँखों में काला अजन डाल दिया। उस अजनकी महिमा से वह सुन्दर दिव्य वस्त्र और आभूषणों को धारण की हुई एक कन्या बन गई । उसे इस प्रकार मानवी बनी देख
आश्चर्य में डूबे हुए कुमार ने उससे पूछा,-"भद्र तुम कौन हो ? और तुम्हें किसने ऐसी दशा में पहुँचाया है ? इस स्थान का नाम क्या है ? इन सब बातों का उत्तर देकर तुम मेरे सन्देह को दूर करो।"
कुमार के सन्देह का निगकरण करती हुई हर्ष और लज्जा के वशीभूत उम कन्या ने कहा "हे वीरवर ! हेमपुर के स्वामी मकरध्वज नरेश की महारानी मदनावलीके गर्भ से मेरा जन्म हुआ है। माता पिता ने मेरा नाम : मदनसुन्दरी रक्खा है। मैं अपने भाई मदनपाल की छोटी बहन और माता पिता की बहुत प्यारी बेटी हूँ । शुक्लपक्ष में चन्द्रकला की तरह दिन ब दिन बढ़ती हुई में क्रम से तरुणावस्था को प्राप्त हुई। मैं मनुष्यों के सामुद्रिक लक्षणोंकी जानकार होने के नाते यह प्रतिज्ञा कर चुकी थी, कि जो कोई पुरुष बत्तीस लक्षणों से युक्त होगा, उसीके साथ विवाह करूंगी।
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( ३०४ ) एक समय मेरा भाई मदनपाल किसी चित्रपट पर राजकुमारी प्रियंगुमंजरी के रूप व सौन्दर्य को देखकर उस पर मोहित होगया, परन्तु वह कुमारी राधावेध के कर्ना कुमार श्रीचन्द्र में पहले से ही प्रेम वाली थी। इसलिये उसने मदनपाल की ओर कुछ भी ध्यान न दिया। तो भी मेरा भाई प्रियंगुमंजरी के प्रेम में मोहित होकर घर से कहीं निकल गया। प्रेम का पंथ बडा ही विकराल है। कहा भी है :धर मोम के दांतों को आनन से
चने लोह के चारु चबावनो है, मनु आंख विहीन को देखनो है
बिन पांव को पंथ चलावनो है। बिन · डोर पतंग उड़ावनो है
बिन 'बुद्धि' को पाठ पढावनो है, यह प्रेम को पंथ कराल महा
तरवार की धार पे धावनो है। जब से भाई मदनपाल घर से निकला है, वापस लौटा ही नहीं। एक रोज मेरे पिताजी की राज-सभा में एक बंदी-कवि ने मधुर स्वर से कवन किया कि
दान-व्यजन कोद्भूतः-श्रीचन्द्रस्य यशोऽनिलः । नव्यः कोऽप्यर्थि धूलीनां, पुजं सम्मुखमानयत् ।।
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( ३०५ )
अर्थात् - महाराज प्रतापसिंह के चिरंजीवी श्रीचन्द्र कुमार के दान रूप पंखे से पैदा होने वाला कोई यश-रूप नवीनवायु याचक रूप धूली समूह को आपके सन्मुख लाया है ।
यह सुन मेरे पिता हेमपुर - नरेश ने उस कवि का उचित सत्कार करके उसे विदा किया उसके बाद मंत्रियों के साथ परामर्श करके श्रीचन्द्र कुमार के साथ मेरा विवाह करने का निश्चय किया गया ।
इस चर्चा से प्रसन्न मनवाली मैं समवयस्क सखियोंके साथ अपने फूल बाग में मनोरंजन के लिये गई । रंगबिरंगी फूलों से मेरे लिये हार, गजरे, कर्णफूल, आदि सखियों ने तैयार किये। इतने में कोई विद्याधर आकर मुझे उड़ा ले चला । उसने अपनी घरवालीके डर से मुझे यहां एकान्तवास में ला रखी है। यहां रहते हुए मुझे पांच दिन बीत गये हैं ।
विद्याधर ने मेरे साथ विवाह करने का प्रस्ताव रक्खा है मगर मैंने उसे ठुकरा दिया है । जब मैं अपने भाग्य पर रोने लगी तो उसने कहा - ' सुभगे ! रोती क्यों है ? मैं वैताढ्य - निवासी रत्नचूड विद्याधर हूँ । इस समय गोत्री नरेश ने मेरे मणिभूषण नगर पर अधिकार कर लिया है। इस
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( ३०६ )
लिये मैं सपरिवार वहां से निकला हुआ, बाहर ही रहता हूँ ।
उसने मुझसे कहा एक दिन की बात है मैं पृथ्वीपर घूमता हुआ, कुशस्थलपुर नगर में पहुँचा था । वहां एक उद्यान में हाथी, घोड़े, ऊंट, रथ, और सेना आदि का पड़ाव पड़ा था। उनके बीच में जरी से काम किया हुआ एक मखमली तंबु लगा था । उसमें सोने के पलंग पर सखियों से घिरी हुई एक पद्मिनी को मैंने बैठी देखा | उस समय वह सुसराल से अपने भाई के साथ अपने पिहर- पिता के घर जा रही थी । मैं उसको देखकर मोहित होगया । रूप और सौन्दर्य की मूर्ति - उस पद्मिनीके अपहरण की इच्छा से मैं अदृश्य होकर वहां एक दिन ठहरा | परन्तु उसके शील के प्रभाव से एवं उसके पति द्वारा की हुई रक्षा के कारण मैं उसे उड़ाने में असमर्थ
रहा ।
वह आगे कहता गया - तब मैं निराश होकर वहां से चल पड़ा । उसके समान रूपवाली स्त्री की खोज करने लगा । खोजते २ तू मुझे दिखाई दी, और मैं तुझे उड़ा कर यहां ले आया हूं । अब मैं तेरे साथ विवाह करूगा ।
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( ३०७ ) __यह कह कर विद्याधर ने सफेद अजन को प्रांज कर मुझे वानरी बना दी। कुछ फल आदि खाने पीने का सामान रख कर वह यहां से चला गया। इसके बाद तीसरे दिन वह फिर आया, इस काले सुरमे के योग से मुझे वापस स्त्री रूप बनाकर कहने लगा-'सुन्दरी !' डरती क्यों है ? ले ये मोदक, ये बड़े स्वादिष्ट हैं । इसके खाने से मन की अभिलाषा पूर्ण होती है-'देख मैं ज्योतिषी से अभी लग्न दिखा कर आया हूं। गुरुवार की दोपहरी में लग्न ठहरा है । इसीलिये मैं सारी विवाह की सामग्री यहां लेकर आया हूँ तू इसे सम्हाल कर रख । मैं बुधवार की रात्रि में या गुरुवार के प्रातःकाल में निश्चयरूप से आऊंगा इसमें तनिक भी सन्देह मत करना ।
यह सुनकर मैंने उस विद्याधर से कहा, "विद्याधर ! तुम विद्वान् होते हुए भी मूर्ख क्यों बन रहे हो ? तुम मेरे पिता तुल्य हो। तुम मेरे साथ विवाह कैसे करोगे।" इस प्रकार कहने पर भी उसने मेरी बात हंसी में टाल दी
और मुझे फिर वानरी बनाकर चला गया। ___ हे आर्य ! आज बुध की रात होगई है और वह नीच प्रातःकाल अवश्य ही आवेगा। यह मेरी कथा तो
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( ३०८ )
समाप्त हुई। अब आप अपना परिचय दें । साहसिक | आप कौन हैं ? और यहां किस प्रकार आये हैं ? कृपा कर आप मुझे इस दुष्ट के पंजे से छुड़ा कर मेरा उद्धार कीजियें ।
यह सुन चन्द्रकला के पति श्रीचन्द्र ने अपने मन में विचार किया कि आज सुबह जो व्यक्ति मुझ से मारा गया है वह रत्न-चूड़ विद्याधर ही हो सकता है दूसरा नहीं। ऐसा विचार करके गर्व रहित हो कुमार ने अपना परिचय देना शुरू किया। कुमारी ! मैं कुशस्थल पुरका निवासी हूँ, और निर्धनता बढ जाने के कारण धन कमाने के लिये विदेश में आया हूँ । रात बिताने के लिये मैं इस वट वृक्ष पर चढ़ा और ज्यौंही मैं डालपर बिछी हुई डाभ की पुत्राल पर सोने लगा तो मुझे एक खोखल दिखाई दी । उसमें घुस कर मैं यहां आया हूँ । पाताल मन्दिर देखकर मैं इस पर चढ़ा और यहां इस दुमंजिले पर तुम्हें वानरी के रूप में देखा । मेरा तुमसे यही कहना है कि तुम वृथा दुःख क्यों झेल रही हो ? तुम कुमारी तो हो ही । उस विद्याधर के साथ शादी करने पर विद्याधरी हो जाओगी। इसमें तो मुझे तुम्हारा भला ही दिखाई देता है अतः तुम यहीं रहो ।
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( ३०६ ) कुमार के वचनों का उत्तर देते हुए मदनसुदरी ने कहा हे आर्य ! आप के स्वरूप को देख कर मैं आप को निर्धन नहीं मानती । मेरा अन्तः करण श्राप के प्रति आकृष्ट हो रहा है । कहा है:
सतां हि सन्देह--पदेषु वस्तुषु.
प्रमाण मन्तः करण-प्रवृत्तयः । अन्तः करण ही सन्देहवाली वस्तुओं में प्रमाण भूत होता है । आप को पाकर मुझे विद्याधरत्व की कोई अभिलाषा नहीं है। मेरे भाग्य ने ही आप को यहां भेजा है । आप ही बत्तीस-लक्षण संपन्न मेरे स्वामी हैं । मैं ही नहीं शास्त्र भी आप को महान् बताते हैं। देखिये सामुद्रिक शास्त्र में बत्तीस-लक्षण जो आप में मौजूद हैं, उन का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है।
. भुजा, नेत्र, उगलियां, जीभ और नासिका लम्बी होनी चाहिये । पीठ, कण्ठ, लिङ्ग और जांघे छोटी होनी चाहिये । दांत, त्वचा नाखून और केश सूक्ष्म होने चाहियें । हथेली पैरों के तलिये, तालु, आंखों के कोने, जीभ, नाखून और होठ ये लाल होने चाहियें । ललाट और वक्षस्थल विशाल, तथा नाभि और स्वर गंभीर होने
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( ३१० ) चाहिये । अांखो के तारे और केश सचिक्कण श्याम होने चाहिये।
ये सारे सुलक्षण बत्तीसों ही आप के अंगों में प्रशस्य और प्रकट रूप से दीख रहे हैं । अतः मैं आप के ही श्रीचरणों की दासी बनुगी । आप मेरा पाणि-ग्रहण कर, मेरे सुखदुःख के साथी और स्वामी बनें । अब मैं किसी की परवाह नहीं करती, केवल आप को ही अपने जीवन का आधार मानती हूं । कृपा कर के आप मुझे अपना लें बस मुझे विद्या या विद्याधर किसी की भी आवश्यकता नहीं है।
प्राणनाथ ! पधारिये । इस समय आप अकेले हैं। प्रातः काल होते ही वह दुष्ट विद्याधर आ धमकेगा। . व्यर्थ में बाधा खड़ी कर देगा। इस लिये हम दोनों को यहां से चल देना चाहिये । जिस से कि वह हमें देख ही न पावे ।
दूसरी बात प्रार्थना रूपमें अर्ज करती हूं कि आज ही दुपहर को लग्न का समय है । विवाह की सामग्री यहां मौजूद ही है । अतः आप किन्तु परन्तु न करते हुए विवाह कार्य को साथ लें, तो बडा अच्छा हो । श्रेयांसि बहुविनानि । हुआ करता है मंगल कार्य में बाधा आही जाती है। हम तो बाधा के ठिकाने पर ही खडे हैं अतः
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( ३११ ) जन्दी विवाह करके हमें यहां से जल्दी प्रस्थान कर देना चाहिये।
मदनसुन्दरी को समझाते हुए कुमार ने कहासुन्दरी ! तुम अपने मन से भय निकाल दो। तुम्हारा अब कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । यह तो बताओ यहां इस धूमीधर में मध्याह्न का पता कैसे लगेगा ? । राजकुमारी ने बड़ी नम्रता से कहा-नाथ ! इसी भवन के पास एक छोटीसी खिड़की है। उसीसे दिन-रात और दोपहर का पता चलता है
इसके बाद कुमार ने उसके साथ प्रातः काल होने पर वहीं पारणा किया। दोपहर के समय तक वे दोनों वहाँ उस विद्याधर की प्रतीक्षा करते रहे मगर लग्न के समय तक वह वहाँ न आया। पूर्व निश्चयानुसार उन दोनों ने उसी लग्न में अपना विवाह कर लिया इसके बाद वे दोनों उसी महल में विश्राम करने लगे। गोष्ठी के बीच में मदन सुन्दरी ने कुमार से पूछा, "नाथ ! मुझे इस बात का विचार होता है कि विवाह के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित वह विद्याधर अभीतक क्यों नहीं श्राया ?
यह सुनकर कुमार ने राजकुमारी को उस विद्याधर
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( ३१२ )
के मृत्यु की सारी घटना से सूचित कर दिया । वह बोला, सुन्दरी ! सुनो,
कुमंत्रः पच्यते राजा, फलं कालेन पच्यते लंघनैः पच्यते तापः, पापी पापेन पच्यते ॥ १ ॥
अर्थात् बुरी और अनिष्ट कारी सलाह से राजा बर्बाद हो जाता है, फल समय पाकर ही पकते हैं । बुखार लंघन करने से ही उतरता है और पापी पुरुष अपने किये हुए पाप कर्मों के परिपाक होने पर अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं ।
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सुन्दरी ! आज तो हम यहीं ठहरेंगे परन्तु कल हम यहाँ से किसी दूसरे स्थान के लिये प्रस्थान करेंगे । इस प्रकार दोनों ने वह दिन और रात्रि बड़ी ही प्रसन्नता और प्रेमपूर्वक बिताई |
जैसे तैसे भी वह सुहाग-रात बड़ी ही विलक्षण और प्रेमपूर्ण व्यवहार तथा संभाषण से व्यतीत हुई । प्रातः काल होते ही वे दोनों उठकर अपने अपने आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर प्रस्थान की तैयारी करने लगे। वहां के सारे रत्न और सारभूत वे दोनों 'अंजन कु पिकाए ं उन्होंने अपने साथ ले लीं और उसी
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( ३१३ ) मार्ग द्वारा वापस बाहर निकल कर उसे एक विशाल शिला से ढक दिया । वहां पर कुछ धन विखेर करके वे वहां से आगे चले।
: हाथ में तलवार लिये हुए कुमार वन में शेर की तरह निश्शंक चला जा रहा था, और छाया की तरह सिंहनी मदनसुन्दरी उसका अनुगमन कर रही थी। क्रमशः वे उस भयानक. वन को पार करके किसी एक गाँव में पहुँचे। विश्राम करने के विचार से वे विश्राम करने योग्य स्थान को हूँढ़ते हुए एक सुन्दर तालाबकी तीर पर पहुँचे । वहाँ उद्यान में डेरा डाला गया। कुमार ने भोजन बनाने का सामान जुटा दिया और बात की बात में राजकुमारी ने वेवर और पूए बना कर तैयार कर दिये।
इधर श्रीचन्द्र ने स्नानादि से निवृत्त हो आभूषण आदि पहन अपने पास रहे तीर्थकर भगवान् के चित्र के सामने खड़े होकर देव-वंदन किया । उस समय मदनसुन्दरी ने कुमार की नाममुद्रा से उसका नाम मालूम कर लिया। उसने जो पहले चारणों भाटों और स्तुतिपाठकों के मुंह से कुशस्थल के स्वामी महाराज प्रतापसिंहके पुत्र श्रीचन्द्र की प्रशंसा सुन रक्खी थी, उसी को
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TOTA
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अपना स्वामी बना देख उसके आनन्द की सीमा न रही। अपने स्वामी की उदारता, दयालुता और दक्षिणता देख उसका रोम रोम हर्षित हो उठा । उसने अपने स्वामी से विनय पूर्वक प्रार्थना की कि वे भोजन करने बैठजायें। ..श्री चन्द्र ने उत्तर देते हुए कहा “सुभ्र ! आज बड़ा सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे अपनी धर्मपत्नी के हाथ का पकाया हुप्रा. भोजन मिल रहा है। अतः मेही इच्छा है कि किसी साधु महाराज को पहले भोजन करा कर फिर मैं भोजन करूँ, और अपने सौभाग्य में चार चाँद लगा हूँ। इतना कह कर कुमार तालाब को पाल पर चढ़ कर इधर उधर देखने लगा। इतने में उसके भाग्य से खींचे हुए दो साधु वहाँ आते हुए दिखाई दिये । वह सामने जाकर उन्हें बड़े ही आदर पूर्वक से
आया और घेवर तथा पुए आदि पक्वान उन्हें बहरा दिया, फिर उसने अपनी स्त्री के और औरभी उपस्थित दूसरे
लोगों के साथ भोजन किया । । ...... भोजन, आदि से. निवृत्त होकर कुमार श्री चन्द्र
अपनी स्त्री के साथ उन साधुओं की सेवा में जा उपस्थित हुआ । चन्दन करके उन वत्स और कुच्छ नाम के दोनों साधयों के सामने वह बैठ गया । वत्स नामक साधु ने उन्हे धर्मोपदेश देना शुरू किया।
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देवानुप्रियों ! चित्त, वित्त और सुपात्रों का योनी बड़ा ही दुर्लभ होता है । कहा भी है
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काले सुपत्त दाणं सम्मत्त-विसुद्ध - बोहिलाभं च । अन्ते समाहि-मरणं, अभव्व-जीवा न पावति ॥ उत्तम-पत्त' साहू, मज्झिम-पत्त च सावया भगिया । अविरय सम्मद्दिट्ठी, जहन्न - पत्त' मुणेयव्वं ॥
अर्थात्-समय पर सुपात्र में दान देना, सम्यक्त्व से विशुद्ध ज्ञान-लाभ को प्राप्त करना और अन्त में समाधि मरण ये तीन बातें अभव्य जीवों को प्राप्त नहीं होती । साधुओं को उत्तम पात्र, श्रावकों को मध्यम पात्र और अवरित सम्यग् - दृष्टियों को जघन्य पात्र शास्त्रों में बताये हैं ।
·
दान धर्म से मनुष्य आत्म-धर्म को पाता है.. दात से ही त्याग की साधना होती है । इसीलिये कहा कि-न्यायोपार्जित वित्त और त्याग - प्रधान चित्त की साधना से सुपात्र में दान देते रहना चाहिये । दान-धर्मधर्म - लाभ के अधिकारी आत्मा इस लोक और पर लोक की परम लक्ष्मी को पाते हैं ।
इस प्रकार श्रीवत्स महर्षि के सदुपदेश को सुन कर कुमार ने मुनिराज से प्रार्थना की कि - हे भगवन !
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इस जंगल में घूमते हुए अनजान में मुझ-पापी से एक विद्याधर की हत्या हो गई है । अतः आप कृपा करके उस पाप का कोई प्रायश्चित्त दीजियें । मुझे मेरा पाप कांटे की तरह खटकता है।- ..
यह सुन श्रीमुनिराज ने फरमाया,पुण्यशाली! तुम्हारी पाप-भीस्ता प्रशंसनीय है। यद्यपि तुम्हारे पाप की शुद्धि पश्चात्ताप और दान से हो चुकी है फिर भी इस प्रायश्चित्त के रूपमें श्रीं अरिहंत, भगवान को नमस्कार उन का नामजाप और मौका पाने पर एक जिनमंदिर का भी निर्माण करना ।
इस प्रकार सुधा-मधुर गुरु-वाणी को सुन कर आत्मा को कृत-कृत्य मानता हुआ कुमार बहुत प्रसन्न हुआ। क्रमसे चलता हुआ वह श्री कल्याणपुर नाम के नगर में पहुंचा।
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संसार एक रंग भूमी है । इस में भले बुरे कई प्रकार के पात्र होते हैं। भलों की भलाई सदा सुवर्याक्षरों में लिखी जाती है, याद की जाती है और बुरों की बुराई घृणास्पद हो कर यातो लोग भूल जाते हैं या फिर उस के प्रति तिरस्कार ही तिरस्कार होता रहता है। कौन नहीं । जानता परोपकारी विक्रमादित्य को वस्तुपाल-तेजपाल को या पौराणिक राजा श्रीपाल को । उसी तरह से उस दुर्जनवृति वाले धूर्त धवल सेठ को भी हम भूले तो नहीं पर उस के प्रति हमारा कोई सद्भाव नहीं है। ..... हमारा चरित्र नायक कुमार श्रीचन्द्र एक भला पात्र है। उसमें वीरता धीरता और गंभीरता तो हैं ही पर साथ ही साथ उदारता और दविणता भी चरमसीमा में पहुंच
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( ३१८ ) रही थी। अपने पूर्व-पूण्य-कर्मों की प्रधानता से उस के विरोधी उस का कुछ न बिगाड सकते थेबल्कि वे बिगाडने की भावना वाले ही बिगड जाया करते थे।
कल्याणपुर की ही बात है । कुमार मदन-सुदरी को लिये एक दिव्य-देव मंदिर में विश्राम कर रहा था । भोजन की तैयारी थी। इतने में एक कापालिक-बाबा श्रीचन्द्रकुमार के पास आया । कुमार को बत्तीस-लक्षण, संपन्न देख कर मन ही मन मुदिले होता हुआ कुमार से कहने लगा
विरला जाणंति गुणा, विरला जाणंति अत्तणो दोसे। . विरला परकज्जपरा, पर दुक्खे दुक्खिया विरला ॥
कुमार ! दूसरे के गुणों को देखने वाले, अपने दोषों को देखने वाले, परकीय कार्य को सधाने वाले, और परामे दुःखों में दुःखी होने वाले पुरुष संसार में विरले ही होते हैं। . 'कुमारने योगी के भाव समझ कर उससे पूछा बाबा ! तुम कौन हो । योगी ने कहा मैया ! मेरो नाम त्रिपुरानन्द भारती है । मैं पर योगी का छोटा भाई हूं।
मैं लोकोपकार की इच्छा से सुवर्ण पुरुष की सिद्धि के लिये भटकता हुधा यहाँ आया है। अभी तक कहीं
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.-10-2013.hr
( ३१६ ) मुझे कोई ऐसा मनुष्य नहीं मिला, जो मेरे इस कार्यमें उत्तर साधक बने । यहाँ पर तुम्हें प्राकृति और शरीर की कान्ति से महापुरुष और परोपकारी समझ मैं तुम्हारे पास आया हूँ अतः तुम श्रीज 'रात्रि में मेरे उत्तर-साधक, बनो जिससे मेरे कार्य की सिद्धि शीघ्र हो जाय ।"
" परोपकारी कुमार उसकी प्रार्थना को ठुकरा न सका, और उसे उस कार्य की विधि पूछ बैठा। योगी ने 'उत्तर दिया, “महाशय ! स्वर्णपुरुष की सिद्धि रात्रि के समय शमशान में मनुष्य के मृत शरीर की साधना से होती है और सत्वशाली पुरुष की विधमानता में सारी सामग्री सुलभ हो जाती है।" .
... ... योगी के वचन सुनकर श्रीचन्द्र ने कहा, "अगर ऐसा है तो जाओ, वहाँ जाकर अपनी सामग्री जुटाओ। मैं वहाँ अवश्य ही आऊंगा ।" कुमार की प्रशंसा करता हुआ वह योगी वहाँ से चलकर शमशान में पहुँचा और वहाँ पर सारी सामग्री जुटाली । अग्नि कुण्ड
और शवस्थान आदि का निर्माण अभ्यस्त होने के कारण उसने बात की बात में कर लिया।
वर योगी के चले जाने के बाद कुमार ने अपनी पत्नी की योमी का सारा हाल बतला दिया। यह सुन
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( ३२० )
कर वह बोली, "स्वामिन् ! आपने योगी की प्रार्थना स्वीकार क्यों की ? | ये तो हमेशा से कपटी और कुटिल आचरणवाले होते हैं । इनका विश्वास करना आग से खेलना है | अतः मैं आपको वहाँ किसी भी प्रकार जाने नहीं दूंगी |
वह बोला, "प्रिये ! तुम जानती ही हो, कि शुद्धमनवाले का कल्याण ही होता है सम्पत्तियें उनके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती हैं । विघ्न समूह उनके सामने से कपूर की तरह उड़ जाते हैं । अतः तुम घबड़ाओ मत किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। मुझे अपना वचन पालन करने दो। अपना नारी धर्म पहिचान कर मेरा साहस बढ़ाओ वचन भंग से संसार में मेरी और तुम्हारी दोनों की हँसी होगी और आजीवन इस कलंक को चन्द्र के कलंक की तरह धारण करना पड़ेगा। धीरज धरो, नमस्कार मंत्र के प्रभाव से तुम्हारा सब तरह से कल्याण होगा । लो मैं तुम्हें फिर से वानरी बना देता हूँ । तुम निर्भय होकर इस पेड़ पर चढ़ जाओ ।"
यह कह कर कुमारने उसी प्राप्त जन के योग से उसे वानरी बना कर वृक्ष पर चढ़ा दिया और स्वयं हाथ में तलवार लिये घूमता हुआ स्मशान में योगी के
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( ३२१ ) पास जा पहुँचा। योगी पहले से ही तैयार था । पाते हो योगी ने कुमार से रक्षक बनने की प्रार्थना की । कुमारने उसे निर्भयतापूर्वक कार्य करने को कहा। - योगी विधि-पूर्वक जप और हवन आदि करके . अर्द्ध-रात्रि के समय कुमार से बोला, “वीर ! सुनो।
इसी दिशा में एक बहुत बड़ा बड़ का वृक्ष है। उस पर किसी, चोर का मृत शरीर लटक रहा है। तुम निर्भयता से वहाँ जाकर उस शव को यहाँ ले पायो। देखना ! बोलने की जरूरत पड़े तो भी तुम मत बोलना।"
योगी की आज्ञा पाकर कुमार शीघ्र ही रात्रि की शान्ति को भंग करता हुआ उसं बट-वृक्ष के नीचे जा पहुँचा । वहाँ पर चोर के शव को लटकता हुआ देखकर वह उस पर चढ़ा और चन्द्रहास तलवार से उसके बंधन काट डाले । ज्योंही. वह उस शव को पृथ्वीपर गिराकर वृक्ष से नीचे उतरा, त्योंहीं क्या देखता है ? कि वह शब पूर्व की तरह फिर से उसी शाखा में लटक रहा है। यह देख कुमार को न तो कोई आश्चर्य हुआ,
और न वह डरा, परन्तु साहस करके वह फिर पेट पर चढ़ा । फिर उसने उसी तरह बंधन काट कर उस शव को अपने कन्धे पर उठाकर बड़े से नीचे उतरा ।
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( ३२२ ) कुमार उस शब को कभी कंधे पर और कभी हाथ में उठाता। हुप्रा मार्ग में चलने लगा। इतने में उस शव ने जोर से हँस कर कुमार से कहा, "तुम राजा मी हो और राजकुमार भी हो अत: मुझे कोई कथा सुनाओ ।" लेकिन कुमार ने उसको कोई उत्तर नहीं दिया । तब वह शव फिर बोला, "अगर तुम नहीं कहते हो तो लो मैं ही पद्मावती की लौकिक कथा सुनाता हूँ मगर सुनते समय हुँकारा अवश्य देना पड़ेगा।" यह कह कर शव ने कहना शुरू किया- . ___ क्षितिप्रतिष्ठित नाम के नगर से राजकुमार गुणसुन्दर और मन्त्री कुमार सुबुद्धि ये दोनों घोड़े पर बैठ कर बाहर निकले । देव-योग से माग भूल कर वे किसी बड़ी भारौं अंटवी में भटकने लगे। प्यास के मारे उनके होंठ सूख कर काले पड़ गये थे, और चेहरे निस्तेज हो चले थे । अन्त में पानी की खोज करते करते एक सरोवर की तीर पर जा पहुँचे । वहाँ पर वे दोनों एक यक्ष मन्दिर में ठहरे । सुबुद्धि शीघ्र ही तालाब का जल पीकर लौट आया और घोड़ों की रखवाली करने लगा। इसके बाद राजकुमार ने भी बहुत समय की प्यास को शान्त किया। बाद में वह सरोवर में जल-क्रीड़ा करता हुी. समिन के तौर पर जा पहुँचा। वहाँ कोई कन्या कमल
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लिये खेलती हुई बगीचे में से निकल कर आई, DESTREPTEMBER कुमार को देख कर वह अपने कमल, सें. दैतपक्ति और काना काछ कर सकेत करके वापिस प्रसन्नचित्त अपने
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... कुमार भी उसके संकेत को न समझ कर अपने साथ निराशा लिये पुनः उस तौर पर श्री पहुंचा जहाँ पर उसका मित्र उसकी प्रतीक्षा में खड़ा था । उसने अपने मित्र को उस कन्या द्वारा किये गये सारे संकेत कह सुनाये। मित्र बड़ो बुद्धिमान् था। वह बात की बातमें सारी बात समझ गया । उसने कहा "मित्र ! सुनो ! यह दंतपुर नरेश कर्णदेव महाराज की पद्मावती नामक कन्या है और आपमें 'अनुरामवती है।" यह सुन कर राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ मित्र सहित उस कन्या के नगर में जा पहुंचा। . वहाँ पर अपने मित्र के साथ वह एक माली के घर पर ठहरा मंत्रीपुत्र ने सारी बात का पता लगा करें
औरमालिन को कुछ लोभ देकर उसे अपना संदेश राजकुमारी तक पहुंचा देने के लिये राजी कर लिया। मौलिने उनका संदेश लेकर राजकुमारी के पास पहुंची और मौका पाकर उसने उससे कहा, "राजकुमारी जिस
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( ३२४ ) मनुष्य को तुमने तालाब के तीर पर देखा था वह यहाँ आगया है।" यह सुनकर राजकुमारी बड़ी क्रोधित हुई और उसने मालिन के सिर पर चन्दन से भरा हाथ का पंजा मार दिया, वह बिलबिलाती हुई अपने घर पहुंची।
.. उसने यह सारी घटना राजकुमार से कह सुनाई। राजकुमार बड़ा लजित हुआ और उसने मित्र से कहा, ".मित्र ! क्या यही तुम्हारा बुद्धि बल है ?" मित्र ने उचर दिया, “घबराओ नहीं । राज-कन्या ने जो मालिनके सिर पर चंदन से भरे हाथ का पंजा मारा है उससे साफ प्रकट है कि उसने शुक्ल पक्ष की पंचमी को तुम्हें बहाँ आने का निमंत्रण दिया है। तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, और अपनी आत्मा में किसी प्रकार की उथल पुथल मत मचने दो।" ... मित्र की बातें सुन कर राजकुमार को कुछ धीरज हुमा, और अब वे दोनों किराये पर मकान लेकर अलग रहने लगे। शुक्ल पक्ष की पंचमी को वह मालिन फिर धन लोभ से विवश कर वहाँ भेजी गई। उसने भी वहाँ जाकर राजकुमार के लिये मार्ग पूछा । यह सुन कर राजकुमारी क्रोध से तमतमा उठी.अओर कुकुम भरे हाथ से उसका गला पकड़ कर उसे धकेल दिया । फिर सखियों से
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( ३२५ ) बोली, “ सखियों ! यह बार बार मेरा अपमान करती है इसलिये महल की छत से इसको रस्सी से लटका कर छोड़ दो।" बस हुक्म की देर थी । सखियों ने फौरन उसको रस्सी से बाँध कर छत से नीचे लटका दिया, और . उसे छोड़ दिया। .
। बेचारी मालिन ने फिर अपनी दुःख भरी कहानी कुमार से कह सुनाई और कहा कि बस मैं जीवित लौट आई इसी में मैं अपना अहो भाग्य समझती हूँ । मालिन के वचन सुन कर मित्र ने राजकुमार को समझाया कि आप शीघ्रता मत कीजियें, आपके काम में अभी विलम्ब है। लाल कुकम की चार अंगुलियों के निशान जो इस की गर्दन पर मौजूद हैं वे इस बात के द्योतक हैं कि अभी वह राजकुमारी रजस्वला है, और उसने चार दिन और प्रतीक्षा करने का संकेत किया है । रस्सी का प्रयोग करके तुम्हें भी रस्सी द्वारा ऊपर आने का संकेत किया है। अतः हम नवमी की रात को उसी मार्ग से चलेंगे। . ... राजकुमार ने वे चार दिन प्रिया-मिलन की उत्कण्ठा में किसी तरह बिताये । आखिर नवमी आ पहुँची । रात्रि में राजकुमार संकेत स्थान पर जा कर खड़ा होगया। उसको वहाँ बैसी हालत में आया देख राजकुमारी बड़ी प्रसन्न
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(, ३२६ )
। बात की बात मैं उसने राजकुमार को उपर चढ़ा लिया और रात भर उसके साथ पारस्परिक प्रेम गोष्ठी की । उस समय उसने राजकुमार से पूछा कि स्वामिन् आपने मेरे हृदय में छिपे हुए भावों को किस प्रकार से जाना । राजकुमार जरूरत से ज्यादा भोला था । उसने भोलेपन से सच सच कह दिया कि ये सभी बातें मुझे अपने मित्र से मालूम हुई हैं ।
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यह सुन कर उसने अपने मन में मंत्री पुत्र को मार डालने का सोचा मगर राजकुमार के सामने उसने ये भाव किसी भी इंगित या चेष्टा द्वारा प्रकट न होने दिये । उसने राजकुमार को तरह तरह के पक्वान्नों से खूब धपाकर भोजन कराया और कुछ जहरीले लड उसे देकर कहा कि मेरे देवर को ये अवश्य दे देना । इसके बाद दोनों अपनी अपनी चिर संचित उमंगों को पूरी करने लग गये । राजकुमारी ने दूसरे दिन फिर आने की प्रतिज्ञा करा कर राजकुमार को विदा किया ।
राजकुमार लड्डू लिये अपने निवास स्थान पर पहुँचा । उसने वे लड्डू सुबुद्धि को दे दिये सुबुद्धि ने अपनी भाभी का दिया हुआ उपहार मान कर उन्हें बिना किसी हिचकिचाहट के ग्रहण कर लिये । राजकुमार ने वहाँ की
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. ( ३२७ ) . सारी बातें कह सुनाई । सुबुद्धि ने उस से कहा कि तुमने वहाँ पर मेरा नाम फिजूल ही लिया। वार्तालाप समाप्त होने पर दोनों उठ खड़े हुए । प्रातः काल हुआ ही चाहता था, अतः वे दोनों शौचादि से निवृत्त होने के लिये चले गये। - सुबुद्धि मंत्री : पुत्र जब शौचादि से निवृत्त हो कर आया तो उसने अपने लड्डुओं पर बैठी हुई मक्खियों को मरा पाया ! उसे यह निश्चित हो गया कि ये लड्डू विषैले हैं अतः उसने उनको पृथ्वी में गाड़ दिया। जब राजकुमार
आया तो उसने उसे इस बात से सूचित कर दिया। यह सुन कर वह दंग रह गया। सुबुद्धि ने उसे कहा कि आज रात्रि में जब तुम वहां जाओ,तब तुम मेरे कथनानुसार कार्य करना । उसने मित्र के कथन को बिना किसी बाधा के स्वीकार कर लिया। .. दोनों मित्र मोजानादि से निवृत्त हो, सार्यकालीन कृत्यों में जुट गये । अंधेरा बढने लंगा राजकुमार सकता नुसार राज महल में पहुँच गया। रात के तीन प्रहर मामोदप्रमोद में बीता दिये। राजमारी को नींद ने ओरा। वह सो गई। कुमार ने दोस्त के कहे अनुसार उसको जंघा पर तीन रेखाएं खींच दी, और उसके पैर का
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( ३२८ ) पायजेब-झांझर निकाल कर चुप चाप अपने उतारे , पर लौट आया।
कुमार उस झांझर को अपने मित्र सुबुद्धि के हाथ दे दिया। बाद में दोनों ने योगी का रुप बना कर स्मशान में जाकर डेरा डाल दिया । सुबुद्धि गुरु बना और राजकुमार शिष्य हुा । गुरु की आज्ञा से शिष्य पाय मेव लेकर बाजार में बेचने को गया । एक सरौफ से कहा कि इस के बदले में मुझे धन दे दो। ___ इधर राजकुमारी के पायजेव चोरे जाने की चर्चा सारे शहर में बिजली के वेग से फैल चुकी थी। उस सर्राफ ने उस योगी-वेश-धारी कुमार को पायजेब समेत राजा के पास पकड पहू'चाया । राजा ने अपना नाम देख कर उसे पहचान लिया । राजा का क्रोध भड़क उठा। उसने योगी से पूछा, जल्दी बताओ यह नुपूर तुम्हारे हाथ कैसे लगा ? योगी ने कहा राजन् ! इस विषय में मैं कुछ नहीं जानता हू। इस बात का पता केवल मेरे गुरुजी को हो सकता है। ........ - योगी के ऐसा कहने पर राजा ने सिपाही भेज कर गुरु को भी सख्ती से बुला लिया ।.गुरु जी आकर उपस्थित हुए। उन्हों ने कहा " महाराज ! जब मैं आज़
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( ३२५ ) श्मशान में ध्यान जमाये बैठा था, तभी वहां पर एक प्लेगकी भयंकर देवी आई । मुझे देख वह शहर की तरफ लौटने लगी। मैंने उसके पैर पकड़ लिये। उसे रोकने की कोशीश करते हुए उसके पैर का पायजेब-नूपुर मेरे हाथ आगया । उस की जांघ पर मेरे हाथ से कुछ रेखायें भी पड़ गई। ___इस बात से शंकित-मनवाले राजा ने रानी से अपनी लड़की का परीक्षण कराया। योगी के कहे मुताबिक राजकुमारी की जांघ पर रेखाओं को पाकर, राजा चिंता करने लगा कि अब क्या हो ? । उसने योगी से कहा महात्मन् ! आपका कहना सोलहों आने सच है । क्या यह ठीक भी हो सकती है ? योगी ने कहा, जरूर । पर • राजकुमारी को मेरे द्वारा अभिमन्त्रित वस्त्र पहिना कर,
आंखों पर पट्टी बांध कर हाथ पैर रस्सी से कस कर मन्त्री लोग रथ में बिठा कर नगर के बाहर 'कुछ दूर जंगल में ले जाकर छोड़ दें।.रथ वाले लोग पीछे घूमकर न देखें। इस प्रकार आठ प्रहर तक उसे जंगल में पड़ी रहने देवें । वह शक्ति-दोष से मुक्त हो जायगी। बाद में आप लोग बड़े भारी उत्सव के साथ अपने राजमहल में उसे वापस ले आना । राजाने योगी के कथनानुसार उसी हालतमें उसे जंगल में छोड़ दिया।
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इधर वे दोनों मित्र भी अपने २ घोड़ों पर सवार होकर वहां जा पहुँचे, और उसके बंधनों को काट, जंगल से अपने नगर की तरफ ले चले। रास्ते में राजकुमारी ने कहा कि क्या ये सब करतूतें देवर-महोदय की हैं ? तब सुबुद्धि ने कहा, नहीं—- ये सब करतूतें भाभी- रानी की हैं ।
इधर आठ प्रहर का समय बीत जाने पर राजा स्वयं जंगल में गया । वहां उसे राजकुमारी पद्मावती न मिली । इस दुःख से राजा का हृदय फट गया । अब बताओ यह पाप कन्या को, राजकुमार को, या मित्र सुबुद्धि कोइनमें से किस को लगा ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कुमार ने कहा । मृतक ! मेरी समझ में तो राजा को हो लगा । कारण, कि उसने इतनी बड़ी कन्या को क्वाँरी ही क्यों रखी १ दूसरे प्रकार से चारों व्यक्ति पाप के भागी हैं । कुमार के ऐसा कहते ही मृतक उसके हाथ से छिटक कर फिर बड में जा टंगा ।
इस प्रकार कुमार के भाषण से मुरदे ने तीनचार - ऐसा किया | परन्तु कुमार ने भी हिम्मत न हारी और चौथी बार शब को बड़ से उतार ही लाया। मजबूती से
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( ३२७ ) पकड़ कर ज्यों ही वह आगे बढता है, त्यों ही शव ने कहना शरु किया
कुमार ! राज-राजेश्वर होकर भी न मालूम क्यों इस योगी के चक्कर में फंस रहे हो ? योगी बड़ा दुष्ट है। कपटी है । तुम से वह अपनी साधना सिद्ध करना चाहता है। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूं कि-कुमार ! अनजान में कहीं धोखा मत खा जाना ।
मुरदे के वचन को सुनकर कुमार विचार में पड़ गया और सोचने लगा कि यह क्या कह रहा है ? इतने में वहां एक मध्यम अवस्था वाली स्त्री आई । कुमार ने पूछा तू कौन है ? तो उसने आंखों में आंसू भर कर लम्बी २ सांस लेते हुए कहा___ इस स्थान से दक्षिण की ओर नन्दगांव में मेरा निवास है। यह फांसी में लगा हुया मेरा पति है। निर्धन होने के कारण यह चोरियाँ करता था। एक दिन पकड़ा गया, राजा ने इसे फांसी की सजा दे दी। लोगों के मुह से मालूम होने पर पति-मुख-दर्शन के लिये मैं आई हूं। तुम इसे इस प्रकार पकड़ कर क्या करना चाहते हो? . . . . . . . . . . .
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( ३२८ ) उत्तर देते हुए कुमार ने कहा। शुभे ! इसे मैं श्मशान में ले जा रहा हूँ। तब उसने कहा हे महापुरुष ! मुझे मेरे पति से अन्तिम प्यार कर लेने दो। कुमार ने कहा, जो चाहो सो कर लो । इस पर वह स्त्री चन्दन आदि से मुरदे को लेप करने लगी इतने में मुरदे ने उसकी नाक काट ली। वह रोती चिल्लाती अपने गांव की ओर चली गई। ___ कुमार ने मुरदे को लाकर योगी के पास रक्खा । शव को स्नान कराकर पुष्पादि से पूजा आदि करके कुड के सामने बनाये मण्डल में सुला दिया। योगी स्वयं उसके सामने मुह करके उसके सिर के पास बैठ गया । कुमार को मुरदे के पैरों की तरफ पीठ करके बिठला कर बोला 'हे धीर पुरुष ! मैं अपनी साधना का कार्य प्रारम्भ कर रहा हूँ। तुम पीछे की ओर मत देखना' । . कुमार अपनी अंग-रक्षा करके मजबूती से बैठ गया । योगी ने मन्त्र द्वारा १०८ चावलों को अभिमंत्रित करके मृतक पर फेंके । मृतक मंत्र-देवता के प्रभाव से कुछ, उठा, पर गिर गया। कुमार तिरछी निगाह से यह सारा सेल, देख रहा था । योगी ने फिर. पहले की तरह अभिमंत्रित चावल मृतक पर डाले । पहिले की ही तरह कुछ उठ कर वह मुरदा फिर गिर गया।
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( ३२६ ) योगी ने कुमार से कहा मित्र ! तुम किस-विचार में डूबे हुए हो। तुम तो इस बात का ध्यान रक्खों कि योगि की साधना सिद्ध हो जाय । इस पर कुमारने कहाजिन के मन वचन और कर्मों में एकता होती है. उन्हीं की साधना सिद्ध होती है। तुम तन्मय हो कर साधना करते जाओ। मैं सावधान हूं। ___ इस के बाद योगी ने उसी विधान को तीसरी बार फिर किया । मगर मृतक में नाक की नोक का शल्य है, यह वह न जान सका । तब मंत्र का देवता उस मुरदे में प्रकट हो कर क्रोध से फुफकारता हुआ, शल्य को बाहर फेंक कर योगी से बोला. अरे दुष्ट ! तूने मुझे इस शल्य-युक्त-शव में उतारा,
और इस सीधेसादे कुमार को भी तूने ठगा है। देख । साधना कभी व्यर्थ नहीं जाती, अतः जा! इस की जगह
आज तू ही बलीका बकरा बन । ऐसा कहते हुए उस शवाधिष्ठित-देवने योगी को उठा कर जलते हुए अग्निकुण्ड में झोंक दिया । कुमार हा ! हा !! करता ही रह गया। योगी आग में पड कर सोने का पुतला बन गया।
कुमारने अपने साधक की रक्षा न कर सकने से पश्चात्ताप किया। बाद आग के शांत हो जाने पर उस
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( ३३० ) सुवर्ण-पूतले को बाहर निकाला और जमीन में गाड़ दिया। सुबह वह अपनी स्त्री से जा मिला । उसे अंजन योग द्वारा बंदरी से मानुषी बना दिया। फिर रात की सारी घटना कह सुनाई।
मदन सुदरी ने विस्मित होकर पति से पूछा देव ! इस सुवर्ण-पूतले का क्या प्रभाव है ? कुमार ने कहा प्रिये ! इस की पूजा करके चारों अंग काट लिये जायँ, और रात को ढक रखने से दूसरे दिन यह फिर तैयार-पूर्णांग हो जाता है। इस प्रकार जिसके पास यह सुवर्ण पुरुष हो वह धनवान हो जाता है, पर मेरा मन इसमें जरा भी रुचि नहीं रखता-क्यों कि इस के भोग-उपभोग से पहेले स्थूल प्राणातिपात विरमण-व्रत का एक तरह से खंडन हो जाता है । अतः दयालु पुरुषों के योग्य यह सुवर्ण-पुरुष नहीं है । . परस्पर में बात चीत करते २ प्रसन्न-मन दोनों पतिपत्नी आगे बढ़ते गये।
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जहां सिंह दहाड़ते हैं। हाथी चिंघाड़ते हैं। रीछ और बंदर किलकारियां मार रहे हैं। बारासिंगे, हिरण, खरगोश सूअर इधर से उधर किलोल करते हुए स्वतंत्रता का
आनन्द लूट रहे हैं । ऊबड़ खाबड़ जमीन में रास्ते ऊचे नीचे सांप की तरह निकल, रहे हैं । अाम. नीम जामून बड़ पीपल इमली बांवल सागून पलास महुए आदि के पेड़ अपनी आड़ में छाया में आश्रितों की रक्षाकरते हुए परोपकार का पाठ जगत को मूक भाव से पढा रहे हैं। ऐसा विन्ध्याचल का पहाड गंभीर योगी के समान समाधिमें लीन हुआ खडा है। कहीं २ उसमें सुधा-मधुर शीतल जल के झरणे भी कर रहे हैं।
सूर्य की बाल किरणें कुमकुम बखेर रही है । उस समय विन्ध्याचल की प्रामा अनन्त गुणी उन्लसित हो
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( ३३२ ) रही थी ऐसे ही प्रसंग में वीर शिरोमणि कुमार श्रीचन्द्र अपनी प्रियतमा मदन सुन्दरी को साथ लिये धीर गंभीर चाल से चलता हुआ उस पहाडी भूमी को पार कर रहा था। उस समय वहां एक स्तुति पाठक विदेशी कवि मौज में गाता हुआ जा रहा था, वह भी उनके साथ हो लिया, और सब को श्रीचन्द्र की यशो-गाथायें सुनाने लगा!
जयतु कुशस्थल पुर नगर, प्रताप सिंह भूपाल । सूर्यवती सुत जयतु जग, सिरि सिरि चन्द कृपाल ॥ राधा-वेधी निस्पृही, सुरतरु सम दातार । पर नारी के बन्धुवर, जय सिरिचन्द्र कुमार ॥ शून्य नगर कुण्डलपुरे, राक्षस मानी हार ।
नया बसाया चन्द्रपुर, जयसिरि चन्द कुमार ॥ . . परणी छोडी पदमणी, चन्द्रकला वरनार ।
लक्ष्मीदत्त पालित सुतन, जय सिरिचन्द्र कुमार ॥ .., विद्याधर विजयी हुए, जो चोरों का काल । .: 'बुद्धि' सुलोचन वैद्यवर, जय सिरि चन्द दयाल ।। .. . .. श्रीचन्द्र ने कहा कविराज ! कहां से आरहे हो ? बन्दी ने कहा देव ! मैं कुण्डल पुर से आया हूं। वीणापुर जाता हं। कुमार ने उसे भारी पारितोषिक दिया मदन सुदरी ने कहा आपने अपना चरित्र नहीं सुनाया तो क्या हुआ। आज मैंने तो सुन ही लिया । कुमार ने कहा प्रिये ! तुम
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(' ३३३ ) अत्यन्त भोली दीखती हो । इस पृथ्वी में श्रीचन्द्र नाम वाले अनेकों व्यक्ति हैं । जिस किसी की प्रशंसा में मुझे ही वह मान लेना ठीक नहीं होता। मदनसुन्दरी ने कहा रहने भी दीजियें, इन बातों में क्या रक्खा है ? क्या आप मुझे पागल ही समझ रहे हैं ? क्या अब भी आप गुप्त रहने की ही चेष्टा करते रहेंगे? अपनी प्रियतमा को तिरछी चितवन के साथ कही हुई इस बात का उत्तर कुमार ने हंस कर ही दिया।
वीणापुर के मार्ग में जाते हुए एक राजकीय अधिकारी ने कुमार के पास चन्द्रहास खड्ग और चन्द्रमुखी ललना को देख कर ललचाये हुए भावों से कहा किजरा दीजियें तो, देखु, पाप की तलवार कैसी है ? यह सुन कुमार ने कहा महाशय जी! आप अपनी तलवार सम्हाल लें फिर मेरी तलवार का जौहर देखना ।
फुर्तीले और बहादुरी भरे उसके वचन सुन कर वह जल भुन गया। वह जा कर अपने साथियों को बहका लाया । वे लोग मारो पकडो । बांध लो । अरे तलवार और स्त्री के चोर ! अब तू भाग कर कहां जायगा? अब तो तू मरा ही समझ ले। इस प्रकार चिन्लपों मचाता हुआ उन उद्दण्ड आदमियों का टोला कुमार के यसि मा पहुंचा।
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( ३३४. ) कुमार श्रीचन्द्र पहिले से ही तैयार था वह सिंह को तरह गरज कर उन पर टूट पड़ा। कई मारे गये। कई अधमरे हो गये । कइयों के अंग उपांग कट गये। बाकी के बचे हुए भाग खडे हुए । भागते हुए वे लोग कहते जाते थे वाप रे ! मार दिये । मरवा दिये, इस पापी ने । यह तो कोई विद्याधर है। नाहक इससे हमें भिड़ा दिया।
- राजकुमारी मदना अपने पति के सिंहनाद को, तलवार के हाथों को, और विरोधियों की तादाद को देख कर बहुत खुश हुई। उस में भी वीर-रस भर गया उसे वीरपत्नी होने का गौरव मालूम हुआ।
उस विरोधी टोले के भाग जाने पर अपनी प्रियतमा मदना से प्रसन्नता की बातें करता हुआ कुमार पहाड़ में ऊबड खानड और टेढे मेढे मार्गों से कभी धीरे और कभी तेजी से चलता हुआ सिद्धपुर नगर में जा पहुँचा। वहाँ तीर्थभूत एक विशाल श्री जिन मन्दिर के दर्शन किये । वहां के प्रभाव से प्रेरित हो दूर दूर से लोग भगवान् श्री
आदिदेव के दर्शन के लिए आते थे । वस्त्र अक्षत फलादिकों से अनेक प्रकार की पूजाएँ रचाई जाती थीं। वहां के निवासी बनिये लोग भगवान् की पूजा में चढाये हुए द्रव्य को आपस में बांट लेते थे। देव-द्रव्य का उपभोग
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( ३३५ ) करने से वे लोग निर्धन, सन्तति-हीन, निस्तेज दिखाई देते थे। खानदान के खानदान तबाह होरहे थे। संख्या दिन ब दिन घट रही थी। फिर भी वे अपनी इस आदत से बाज नहीं आ रहे थे। - मदना और कुमार ने बड़े ही भक्तिभाव से जिनवंदना ओर जिन-पूजा की। बाहर निकल कर कुमार ने मदना से कहा-सुनती हो ! यह नगर अपने अन्न जल लेने के योग्य नहीं है, क्यों कि यहां के सब लोग देवद्रव्य को खाने वाले हैं। यहां किसी का आतिथ्य स्वीकार न करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर हैं।
कुमार ने वहां उपस्थित बूढे मनुष्यों से पूछा कि देव-द्रव्य खाने में आपको ग्लानि नहीं होती १ देव-द्रव्य ग्रहण करने की शास्त्रों में आज्ञा नहीं है। कहा है:
जिण दव्वं भक्खंतो, अणंत संसारिओ होइ। xxxx
भक्खणे देव दव्वस्स, परित्थी-गमणेण य । । सत्तमं नरयं जंति, सत्तवारा उगोयमा !॥ .
देवद्रव्येण या वृद्धि-स्तेन द्रव्येण यद्धनम् । तद्धनं कुल-नाशाय, मृतोऽपि नरकं ब्रजेत् ।।
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अर्थात्-देव-द्रव्य को खाने वाला जीव अनंत-संसार में भटकता है। देव-द्रव्य के खाने से, परस्त्री का गमन. करने से, हेगौतम ! सातवार सातवीं नारकी में जीव कों जाना पड़ता है। देव-द्रव्य से जो वृद्धि होती है, और उस द्रव्य से जो धन-संख्या होती है, वह धन कुल-नाश के लिये होता है। मर कर के भी देव-द्रव्य खाने वाला मनुष्य नरक में जाने वाला होता है।
इस शास्त्रीय-वचनों से कुमार ने सिद्धपुर-वासियों को देव-द्रव्य छोड़ने का उपदेश दिया। कई आदमियों ने देव-द्रव्य खाना छोड़ दिया। कईयों ने सोचेंगे कहकर कुमार को अपना अतिथि बनाना चाहा पर कुमार वहां न ठहर कर आगे के लिये प्रस्थान कर गया।
रास्ते के किसी पार्वतीय-गांव में उन दोनों ने शौचादि कार्यों से निवृत्त हो भोजन किया। दूसरे दिन वे वहां से चले । चलते चलते किसी बीहड़ जंगल में जा पहुँचे । शाम होने वाली थी। दिनभर चलते २ मदनसुन्दरी थक गई थी । कुमार ने कहा-इसी बड़ के नीचे रात बिता ली जाय तो ठीक रहेगा । बड़ के नीचे कुमार ने घासफूस का बिछौना बनाकर राव बिताने के उद्देश्य से वहीं सोना तय किया। पहले दो पहर तक मदना
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(३३७ .) सोती रही, कुमार जागता रहा। तीसरे पहर में कुमार सो गया और वह जागती रही । चौथे पहर में वह फिर सो गई । उस समय कुमार जाग रहा था । उत्तर-दिशाकी ओर से कुछ तीव्र प्रकाश दिखाई दिया । क्या यह किसी रत्न का प्रकाश है ? यह क्या है ? चलकर देखना चाहिए कौतुक के मारे कुमार प्रकाश की तरफ तेजी से चला पर वह प्रकाश कभी दूर, कभी निकट होता हुआ कुछ आगे बढकर एकाएक गायब हो गया। कुमार को बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु उसे कोई इन्द्रजाल समझकर उन्हीं पैरों वापस लौट आया। सोयी हुई मदना से कुमार ने कहा-प्रियतमे ! उठो । गत बीत चली है। भगवान् भास्कर उदयाचल के ऊँचे शिखर का स्पर्श कर रहे हैं। एक बार, दो बार, तीन बार आवाज देने पर भी जब कोई उचर न मिला तो उसने विशेष प्रयत्न किया, और उसे मालूम हुआ कि वह तो वहां है ही नहीं।
.कुमार भौंचक्का सा रह गया फिर भी न घबड़ाते हुए, उसने बड़ी धीरज. से उसे ढूढना शुरु किया मगर मदना के पैरों के निशान तक उसे दिखाई न दिये। ..
वह उसके वियोग में दुखी होकर पागलों की तरह इधर उधर घूम रहा था। अचानक उसे विचार आया
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( ३३८ ) जब - मैं उस प्रकाशपुञ्ज का पता लगाने गया था, तम किसी ने पीछे से मेरी मदना का अपहरण किया है । वह अवला मदना मेरे विना कैसे जीवन धारण कर सकेगी ! हायरे विधाता ! बेचारी के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा है ? अभी तो उसे विद्याधर के पंजे से बड़ी मुश्किल से छुड़ा पाया था, इतने में तूने उस पर यह दूसरा दारुण वज्रपात कर दिया । सच है, तूं क्या नहीं कर सकता ? यत्कदापि मनसा न चिन्त्यते, यत्स्पृशन्ति न गिरःकवे रपि । स्वप्नवृत्तिरपि यत्र दुर्लभा, हेलयैव विदधाति तद्विधिः॥
अर्थात्-जिस बात का कभी मन में चिंतन नहीं होता, जिसे कवियों की कल्पना भी छू नहीं पाती, जहां स्वप्न की भी पहुँच नहीं होती उस काम को पूर्व-कृत कर्म रूप-विधि बना देती है। ___ संसार में किसके मनोरथ पूर्ण हुए हैं ? । आदि से अन्त तक कौन सुखी रहा है ? यह भी एक कसौटी है। कसौटी पर कस जाने पर ही सोने की कीमत होती है, वैसे इस प्रकार की घटनाओं के घटने से ही जीवन महान् जीवन बन जाता है, अस्तु, मुझे अपने पथ से विचलित न होते हुए मदना की प्राप्ति का उपाय करना चाहिये । इस प्रकार कुमार आगे बढता हुआ एक कंनकपुर नाम के नगर में जा पहुँचा।
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( ३३६ ) .: इधर कनकपुर-नरेश कनकध्वज दैवयोग से अपुत्र ही परलोक सिधार गये थे। इसलिये उनके मंत्रियों ने पंच दिव्य किये। तीन दिन नगर के बाहिर और भीतर हाथी, घोड़ा छत्र, चँवर और कलश अधिकारियों के साथ घूमते रहे । कुमार श्रीचन्द्र पर अभिषेक हो गया। मंत्रियों ने उससे राजकुमारी कनकावली का विवाह करके उसे राज्य-सिंहासन पर विराजमान कर दिया।
. नगर में धूमधाम से सवारी निकली । प्रजाजनों ने अभिनन्दन किया। कैदी छोड़े गये । विद्यार्थियों को अनाथों को मिठाइयां बांटी गई। देव-मंदिरों में पूजाविधि संपन्न की गई। राजा श्रीचन्द्र प्रजा का पिता के समान पालन करने लगा।
एक समय राजा से लक्ष्मण मंत्री ने प्रार्थना की कि महाराज ! आपके वंश-परिचय के अभाव में गीतों के गाने में बड़ी अड़चन होती है। कुमार ने इस आग्रह का निषेध करके गुणों को देखियें, बस इतना ही संकेत किया। . वीणापुर नरेश की कन्याका स्वयंवर होने वाला था। लोग कनकपुर के रास्ते से वीणापुर जा रहे थे । गासनाचार्य कलरवजी भी इसी रास्ते से आये थे। उन्होंने कनकपुर में 'श्रीचन्द्र प्रबन्ध' बड़े ठाठ से गाकर लोगों को
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हुए
दिया ।
सुनाया। लोग सुनकर लोगों ने पूछा गायकजी ! क्या आपने श्रीलकुमारको देखा है ? उनने कहा मैंने तो नहीं मेरे चाचा ने देखा है, और कुमार से भारी दान भी प्राप्त किया है ।
कुशस्थल - पुराधीश - प्रतापसिंह - भूपतेः । सती सूर्यवती-सूनुः श्रीचन्द्रो जयताच्चिरम् ॥
श्रीचन्द्र प्रबन्ध को सुनने के कारण से मंत्री श्रादि • लोग रात्री में दरबार में न जा सके । प्रातः काल सभा में राजा ने पूछा आप लोग रात में न आये ? उनने कहा - देव ! हम 'श्रीचन्द्र' नाम के एक पुण्य पुरुष का चरित्र सुनने को रह गये थे । कुमार श्रीचन्द्र मुश्कराये ।
लक्ष्मण मंत्री ने इस पर निश्चय किया कि ये ही : वे श्रीचन्द्र कुमार हैं । जिनकी यशोगाथायें हमने आज सुनी थीं। इस बात का प्रचार हो गया । लोग अपने तकदीरों की सराहना करने लगे, कि ऐसा पुण्य- पुरुष हमारा राजा बना है ।.
एक दिन महाराज श्रीचन्द्र घुडदौड का श्रानन्द लेने, सेना के साथ उद्यान में पहुंचे थे। वहां उत्तम जाति . के घोड़ों को अलग २ वेश से सजाया जा रहा था। इतने में पश्चिम की तरफ से घुटनों तक धूल से सने हुए,
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कंधे पर लाठी, और हाथ में जल-पात्र लिये हुए एक पुरुष भाता हुआ दिखाई दिया । राजा श्रीचन्द्र ने अपने सिपाहियों को मेज़ कर उसे अपने पास बुलाया। पास पहुँचते ही उसने राजा को पहचान लिया। आगन्तुककी आंखों में हर्ष के आंसू छलछला गये। शरीर पुलकित हो गया।
जय श्रीचन्द्रकुमार जय, जय जय मेरे मीत! छोड़ गये गुणचंद को, पाये प्रेम-प्रतीतः ॥
आ ! हा !! हा !!! प्यारे मित्र गुणचन्द्र ! तुम यहां कैसे आगये ? दोनों अभिन्न-मित्र बड़े प्रेम से एक दूसरे से भेटे । वायु मण्डल में खुशी ही खुशी छा गई। उपस्थित मन्त्रियों, सेनापतियों, एवं पुरवासियों ने नृपमित्र गुणचन्द्र का बड़े भावभरे शब्दों में स्वागत किया।
राजा श्रीचन्द्र ने बड़े सौहार्द-भाव से कुशल-प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया । मित्र ! कुशल तो हो ? तुम अकेले इधर कैसे पाये ? कहां कहां होते हुए आ रहे हो ? कुशस्थल कब छोडा था ? माता-पिता तो कुशल. हैं? मेरे चले आने के बाद वहां क्या २ घटनायें घटी? सब बातें सुनामो
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...गुणचन्द्र ने मित्र-दर्शन से गद्गम् होते हुए कहा शुरू किया--देव ! उस रोज दैनिक कार्यों की अधिकता से मै आपकी सेवा में न पहुंच सका। आपने विदेश-यात्रा की बात जरूर कही, पर आज ही यह सब हो जायगा ऐसा मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था । ___महाराजा के आमन्त्रण पर, सेठ साहब के खोज कर ने पर, आपका न मिलना एक अतर्कित घटना के रूप में घट गया। बस, फिर क्या था ? चारों ओर खोज शुरु. हुई । आखिर मैं भाभीजी से मिला । उनके उदास चहेरे से मेरी उदासी और आशंकायें
और बढ गई। आपकी बात भी याद आगई । भाभी 'चन्द्रकलाजी ने कहा कि देवर ! आप को स्वामी इस लिये छोड़ गये हैं, कि आपके बिना माता-पिता को बहुत कष्ट होगा। ऐसा जान कर वे अकेले ही प्रस्थान कर गये । आप इस बात का प्रचार न करें कि कुमार भाभी से कुछ कह कर गये हैं। .. प्रियवर ! इस घटना से एवं आपके वियोग से मेरा हृदय बड़ा ही दुःखी हुआ। मैं ही क्यों ? महाराजा, महा शनी, सेठ, सेठानी नागरिक जिसने भी आपके गुम होने की बात को सुना, सभी रोए कलपे, और दुःखी हुए। .... उन्हीं दिनों वहां एक जानी-गुरुदेव पधारे उनने अापके जन्म की बातें कहीं। महारानी. सूर्यक्तीजी एवं
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महाराजा श्राप के माता पिता हैं, एवं सेठ सेठानी पालक माता-पिता हैं इसका भी स्पष्टीकरण हुना। उसी रोज सक्कों जय कुमार आदि की काली करतूतों का पता चला। उन्हीं गुरुदेव ने आपके उज्ज्वल भविष्य का कथन किया। जिसे सुन कर हम सब आश्चर्य के साथ २ प्रसन्नता का भी अनुभव करने लगे। .... ... ... .... गुण चन्द्र आगे कहता. चला गया-एक. दिन भाभी चन्द्रकलाजी पीहर पधारी । महेन्द्रपुर के सुन्दर मन्त्री का कुशस्थलपुर में आना हुआ। उनके कहने से आपका पता लगा । कुण्डलपुर के विशारद मन्त्री भो आये। उनने भी अपने वहां की घटनायें कह सुनाई। इन लोगों के कथन से महाराजा ने आप की भ्रमण-भूमि को जाना । निर्दिष्ट दिशा को ओर आप को खोजने के लिये सशस्त्र सिपाहियों को भेजा गया । धनंजय को मेरा भार सौंप कर मैं भी कुछ सिपाहियों को लेकर
आप को ढूंढने निकल पड़ा। मैं कुण्डलपुर में चन्द्रलेखाजी से और चन्द्रमुखीजी से मिला। वहां से महेन्द्रपुर में सुलोचनाजी से हाल मालम किये । कान्ती नगरी में प्रियंगुमंजरीजी से मैं सत्कृत हुआ । अपने सिपाहियों को इधर उधर गांवों में मेजता हुआ मैं इधर की ओर श्रा निकला हूँ। मैंने सर्वत्र आपके यश की चर्चा सुनी। अभी २ एक यात्री से मैंने सुना, कि श्रीचन्द्र-कुमार
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अद्भुत ढंग से यहां के राजा हुए हैं। मेरी प्रसनता का पार नहीं रहा। मैं सबसे आगे बढ़ गया। रास्ते में मेरा घोड़ा मर गया, उसकी परवाह न करते हुए मैं अकेला ही इस रूप में पा रहा हूँ। . . . आज आप के दर्शन पाकर कृतार्थ हो गया हूं।
आज मेरा सारा दुःख सुखं रूपमें परिणत हो गया है। कुशस्थलपुर में आप के आने की आशा से गिन गिन कर दिन बिताये जाते हैं। माताजी सूर्यवतीजी ने श्राप के आगमन तक लड्डु-घी आदि का त्याग कर रक्खा है। सभी लोग आप के आने की टोह लगाये हुए हैं।
आप के वियोग दुःख से ही वे दुखी हैं। अन्यथा सब कुशल मंगल है । - उपस्थित मंत्रियों ने, नागरिकों ने गुण चन्द्र के मुख से ये सारे हाल जान कर भारी खुशी का अनुभव किया। सब लोगों ने गगन भेदी आवाज से जयघोष किया। राजा श्रीचन्द्र सब के साथ वहां से चल कर नगर में
आये । गुणचन्द्र को प्रधान मन्त्री बनाया । पिछले सिपाही भी धीरे २ सब आ पहूंचे-सर्वत्र प्रसन्नता का वायु-मण्डल छा गया।
. इस प्रकार पूर्व जन्म में किये तप के प्रभाव से श्रीचन्द्र कुमार सुखभोग करने लगे । ठीक है, तप. ही इस लोक में और पर-लोक में सर्व-सिद्धि का प्रधान कारण होता है ।
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अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूट
मम्भोनिधि वहति दुस्सहवाग्वाग्निम् । कूर्मो विभर्ति धरणी फिल पृष्ठभागे,
ह्यङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥ . . . अर्थात-कवि सम्प्रदाय में कहा जाता है कि पिये हुए कालकूट जहर को महादेवजी ने नहीं थूका । दुस्सह वडवाग्नि को समुद्र वहन करता ही है । पृथ्वी को अपनी पीठ पे कछुवेने धार. ही रक्खी है। बड़े आदमी जो बात अंगीकार कर लेते हैं उसका अन्त तक पालन भी करते हैं। .. राज्य सुख को भोगते हुए भी चरित्र नायक राजा श्रीचन्द्रकुमार मदन मंजरी को नहीं भूला था । अपने मित्र
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गुणचन्द्र के साथ सलाह मश्विरा कर के राज्य का भार लक्ष्मण मंत्री को सौंप कर दो बढिया घोडों पर दोनों मित्र मदनमञ्जरी की खोज में एक रोज रातको चुप चाप निकल गये । घोड़े बड़ी तेजी के साथ बढे जा रहे थे। बीहड़ जंगल पार हुश्रा जाता था। वहां एक वृक्ष के नीचे एक अवधूत को प्रातिसार की बीमारी से पीड़ित देखा । दोनों मित्र वहीं रुक गये । परोपकार का स्थान जान कर पडोस के गाँव सें. औषधि लाकर श्रीचन्द्र ने उसका इलाज किया । स्नान मालिश आदि से उस अवधूत को कुमार ने सन्तुष्ट किया।
अवधूत ने प्रसन्न होकर कुमार की प्रशंसा करते हुए अपने पास से-लोहे का सोना बनाने वाला पारसमणि उन्हें प्रदान किया। अवधूत का आयुष्य भी पूर्ण होने ही वाला था। उसकी मृत्यु हो जाने से कुमार ने गांव वालों को उस स्थान पर एक भारी अवधूत-मन्दिर बनाने का आदेश दिया और उसके योग्य धन भी दे दिया।
इस प्रकार परोपकार से. पुण्य उपार्जन करते हुए दोनों मित्र जंगल में आगे बढ़ रहे थे। मार्ग में बांसों की माड़ी में एक सौ आठ गांठोंवाला बांस उन्हें दिखाई
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दिया । शास्त्र द्वारा बतलाये हुए गुखबाले 'सुमका और सीधे उस वांस को उन्होंने चीरा। उसमें से दो मोती निकले । कुमारने मित्र से कहा- दोस्त ! यह बड़ा मोती नंर और यह छोटा दाना नारी है ।
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नर नारी का जोड़ा ही संसार में अग्रगामी होता है। दोनों में एक दूसरे की रक्षा का भार बंटा हुआ, हैं। अपन भी आज उसी कर्तव्य - भार से प्रेरित हुए आगे बढ रहे हैं। मदन मंजरी की अवस्था याद करता हूँ दिल बेचैन हो जाता है। उसे ढूंढ कर ही दम में दम लूंगा यही मेरी प्रतिज्ञा है, क्यों ठीक हैं न १ गुणचन्द्र ने. कुमार की कर्तव्य परायणता सराहते हुए
कहा अवश्य अवश्य ।
इस प्रकार विनोद पूर्ण बातें करते हुए कुमार श्रीपर्वत नाम के एक उंचे और मनोरम पहाड़ की तलहट्टी में जा पहुँचे । अचानक उन्हें कोई स्त्री के करुण आक्रंदन की आवाज सुनाई दी । कुमार मित्र के साथ उसी ओर चले । वह शब्द उंचे से आ रहा था, कुमार मी उंचे चढे | वहां उनने एक भीलनी को रोते देखी । बहिन ! क्यों रो रही हो १ तब भीलनी ने कहा- इस पहाड़ का नाम श्रीमिरि है। यहां से थोड़ी ही दूर वीखापुर नाम का एक
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नगर है। वहां पमनाम नाम का राजा राज्य करता है। एक दिन राजा के यहां कोई सुवर्ण-घट की चोरी हो गई चोर के खोज यहां तक आये । सिपाहियों ने हम को यहां देख कर मेरे पति को पकड़ लिया। जब पद-' चिह्न मिलाये गये तो उनमें बहुत अन्तर रहा, फिर भी मेरे पति को ही चोर मान कर राजा तंग किया करता है राजा का कहना है । कि तू सोनेका घडा ला नहीं तो तुझे फांसी लगादी जायगी । मालिक ! हम गरीब सोने का घडा कहां से लावें ? । मेरे पति को मारा जाता है, इस दुःख से मैं आज यहां रो रही हूँ । कुमार ने उस के पास पडे लोहे के घड़े को पारस मणि से छुआ दिया, वह सोने का हो गया। भीलनी को कहा कि ले लेजा, अपने पति को छुडा लेना । भीलनी खुश हो कर उन्हें आशीर्वाद देने लगी। मालिक ! भगवान् आपका भला करें । कुमार ने वहां जलाशय में स्नान और जल पान किया। भीलनी सुवर्ण कलश को लेकर चली गई।
इधर कुमार अपने मित्र के साथ आगे बढ़ते हुए. वीणापुर जापहुँचे । नगर के हाट-बाजर भव्य-प्रासाद जिनालय आदि से परिष्कृत राज मार्गों को देखते हुए एक सुन्दर चबूतरे पर थकावट मिटाने के लिये बैठे गये।
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पाठकों को याद होगा कुशस्थलपुर में पहिले
मंदिर में एक
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श्रीचन्द्र कुमार को देख कर भगवान के सारिको — मैना ने दूसरे जन्म में यह हो, कह कर अनशन कर लिया था। मर कर वीणापुर के राजा पद्मनाभ की कन्या पद्मश्री नाम से हुई थी — वह अपनी अभिन्न- हृदया सखी मंत्री -पुत्रो कमलश्री के साथ उद्यान - क्रीडा से निवृत्त होकर अपने महल की तरफ आ रही थी । उसने गुणचन्द्र के साथ कुमार श्रीचन्द्र को देखा ।
कुमार मेरा पति
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उस मैना का जीव
विमलं कलुषीभवच्च चेतः, कथयति पुरुष हितैषिणं रिपुचा ।
हमारे सामने वाला आदमी हितैषी है, या दुश्मन इस का पता निर्मल और मलिन होता हुआ हमारा मन ही दे देता है ! श्रीचन्द्र के दर्शन मात्र से पद्मश्री का हृदय पद्म खिल उठा । उसने कुमार के पाण्डित्य को देखने के लिये अपने महल में पहुंच कर चन्दन से भर कर एक सुवर्ण का कटोरा अपनी दासी के साथ कुमार के पास भेजा । कुमार ने अपनी कनिष्ठिका उंगली की अगुठी उतार कर चंदन में डाल कर उसे वापस कर दिया। दूसरी चार कुमारी ने बिखरे हुए फूल एक रकेची में सजा कर
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देव कुमार ने उनकी बढ़िया माला गूंथ कर वापस
कर दी।
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गुणचन्द्र यह सारी लीला देखता ही रह गया । उसने कुमार से पूछा मित्र ! ये क्या बातें हुई १ । कुमार कहा सुनो-कुमारी ने हमें यह सूचित किया कि यह नगर पहिले से ही श्रेष्ठ पुरुषों से भरा हुआ है फिर आप यहां कैसे समा सकोगे ? मैने समझा दिया कि गुठी में रश्न के जैसे हमें भी यहां स्थान मिल ही जायगा । फूल भेजने का मतलब यह था कि- फूलों की तरह हम अकेली हैं । उसका उत्तर मैने दिया माला की तरह तुम भी सगुण और वांछित पुरुष वाली हो जाओगी ।
इधर राज कुमारी ने अपने भावों को जानने वाले सुन्दर स्वरूप वाले पूर्व जन्म से अभिलषित कुमार श्रीचन्द्र को मन ही मन वरण कर लिया। मंत्री पुत्री ने गुणचन्द्र को अपना स्वामी बना लिया। दोनों कन्याओंने अपने घरवालों से अपने भाव सूचित कर दिये ।
उधर उस भीलनी ने बीखापुर के राजा को सुवर्ण- घट देकर -- अपने पति को छुडा लिया। भीलने पूछा यह सुवर्ण-पत्र तुझे कैसे मिला तो उसने सारा हाल कह सुनाया । भील अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये कुमार
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मानुसरण करते हुए नगर के चबूतरे तक जा पहुंचा! कुमार से बड़ी अनुनय विनय करके अपने घर ले गया और उन दोनों को पके हुए बड़े बड़े धामके फल अर्पण किये ।
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कुमार श्रीचन्द्र ने पूछा- इन दिनों में असमय में ऐसे श्राम कैसे और कहां से मिले ? भीलने कहा मेरे राजा ! इस पहाड़ के पांच शिखर हैं। उनमें ईशान शिखर सब से ऊंचा है। वहां विजयादेवी का मंदिर है । उसके बगीचे में देवी के प्रभाव से सदा फल देने वाला श्रम का पेड़ है। मैं वहीं से इन फलों को हमेशा लाता हूँ ।
मालिक ! पहाड़ में पहुँचने का केवल एक ही मार्ग है । सिवाय मेरे इस पहाड़ में जाने में कोई दूसरा समर्थ भी नहीं है । पुरखाओं से यही क्रम चला आया है। यह कितना कोश है ? इसका उतार चढाव कहां कितना है ? इसमें कहां २ गुफायें आदि देखने योग्य हैं ? मैं यह सब जनता हूँ | अगर आपकी इच्छा हो तो आइयें आपको भी इस पहाड़ पर घुमा लाऊ ।
मित्र के साथ कुमार श्रीचन्द्र भील के निवेदन करने पर उस पहाड़ पर गये। गुफायें, घाटियें, करणे, शिखर, प्रेड, लताएँ आदि अनेक दर्शनीय वस्तुओं को देखते
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( ३५६ ) हुए विजया-देवी के मंदिर के पास जा पहुँचे । पहिले उनने थकावट उतारने को तालाव के स्वच्छ जल में स्नान किया। जल-विहार से थकान को मिटाकर । देवी के दर्शन किये । सदाफल नाम के उपवन में से भील ने समित्र कुमार के खाने के लिये अमृत के समान मीठे २ श्राम, अनार, केले, दाख, सेव, संतरे लाकर उपस्थित किये । मुखवास के लिये इलायची, लौंग, सुपारी जायफल, जावत्री आदि लाया। श्रृंगार के लिये कमल. चंपा, केवड़ा, चमेली, गुलाब, जुई, साटा, मोगरा आदि के फूलों का टोकरा भर कर सामने रखा । कुछ फूलों के हार-गजरे बने और कुछ योंही सूघने को रखे गये।
भील की सहायता से भलीभांति पहाड़ का परिभ्रमण करके कुमार ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि-अवसर
आने पर अधिष्ठात्री देवी के आदेश से यहां एक नगर बसाउंमा । जिन-भवन का भी निर्माण कराउगा ।
बाद में भील को समयोचित हितोपदेश देकर कुमार अपने मित्र के साथ आगे के लिये अपने घोड़ों पर रवाना
नों सवार कष्टों की परवाह न करते हुए अपने घोड़ों को सरपट दौड़ाये जा रहे थे। उनके और घोड़ों के शरीर पसीने से तर हो गये थे। आखिर जानवर
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( ३५३ ) ही तो ठहरे । बेचारे घोड़े थक कर चूर चूर हो गये। मुह से भाग निकलने लगे। घोड़े अपने आखिरी अक्षांश पर दौड़ रहे थे। यह देख उन दोनों ने लगाम ढीली छोड दी। घोड़े ठहर गये । वे दोनों उतर पड़े । पीठ सहलाते हुए पास ही के तालाब के तीर पर सघन पेड़ की छाया में विश्राम के लिये डेरा डाल दिया ।
घोड़ों की जीन उतार दी गई। धोड़ों ने भी हिन हिनाते हुए अपनी थकावट को दूर की । कुमार ने पसीना सूखा कर निर्मल शोतल जल का पान किया। बाद पेड़ की छाया में कोमल घास के विछोने पर लेट गये । उन्हें नींद आगई
नींद में कुमार ने एक स्वप्न देखा कि-मेरु पर्वत पर कल्प, वृक्ष की छाया में कोई अद्भुत स्त्री, मानो कोई कुल देवी, लक्ष्मी या सरस्वती हो बैठी हुई थी। उसने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया । कुमार ने मित्र से कहा सखे ! इस दिव्य स्वप्न का सुन्दर फल आज हमें जरूर
मिलेगा। ...
..इतने में जंगल में से व्यथित हरिणी की तरह चकित नेत्रों वाली दिव्य अलंकारों से देदीप्यमान लाल-वस्त्रोंको धारण की हुई गर्भवती कोई सधवा स्त्री पाती हुई
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श्रीचन्द्र को दिखाई दी । वह हडबडा कर उठ खडा हुआ, उसके सामने गया, और मातृ भाव से उसके चरणों में कुक गया। कुमार ने कहा माँ ! आप इस प्रकार अकेली इस वन में कहां से आ रही हैं ? उस आगंतुक संभ्रान्त महिला की दृष्टि कुमार की अगुठी पर लिखे- 'श्री चन्द्र कुमार' - इस नाम की ओर गई तो उसने कुमार को पहचान लिया, उसके स्तनों से दूध की धारा छूट गई ।
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बड़ी प्रसन्नता से उस देवी ने पूछा बेटा ! सेटले दमों"दत्त के घर में प्रसिद्ध श्रीचन्द्र तुम्हीं तो हो न ? चकित होकर कुमार ने उत्तर दिया जी हां यह सुनते ही उसने श्रीचन्द्र को अपनी गोद में बिठा कर हर्ष के आंसुओं से नहलाती हुई कहने लगी ।
ए मेरे आंखों के तारे ! हिरदेके हार ! ए मेरे लाडले बेटे ! चन्द्रकुमार ! आज मेरा जन्म सफल हुआ । मैं रानी सूर्यवती तेरी मां हूँ | तू मेरा बेटा है। पूर्व कर्मों की महिमा से तेरा मेरा बारह वर्षों वियोग हो गया था | बेटा ! ज्ञानी गुरु के बचनो से आशा ही श्राशामें मैंने ये दुःख के वर्ष बीताये हैं। आज तेरा मिलना हुआ
। यों अपने बेटे का लाड प्यार करती हुई उसने पुत्रवती होने का सच्चा सुख उसी रोज अनुभव किया ।
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श्रीचन्द्र कुमार ने भी, विस्मित और प्रसन्न होते हुए पूछा माताजी आप का अंगज पुत्र होते हुए भी मैं सेठ के घर कैसे गया ! और आप यहां कैसे पधारीं ? इन दो बातों का स्पष्टीकरण कीजियें । बेटा ! जब तू गर्भ में था, तब तेरे पिता कुशस्थलाधीश युद्ध में पधारे थे । तेरे सौतेले भाई जयकुमार आदि ने किसी निमित्त जानने वाले से जाना, कि राज्य का उत्तराधिकारी तू होगा, तो तुझे मारने के लिये उनने ठान ली। मुझे मेरी सखियों से पता लग गया । गुप्त रीति से तेरा जन्म होते ही फूलों की टोकरी में मालन के द्वारा तुझे मैने बगीचे में पहुंचा दिया | सेठ लक्ष्मीदत्त ने देवी के संकेत से फुलों के ढेर से तुझे अपने घर ले जाकर अपना पुत्र प्रसिद्ध किया । चन्द्र पान के दोहद से हमने तेरे लिये श्रीचन्द्र कुमार नाम तजवीज़ कर के यह गुठी बनवाई थी देख ! यह तेरी उंगली में लगी हुई है।
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लक्ष्मीदत्त के लेजाने के बाद हमारी सखियों ने तुझे ढूंढा वहां तेरा पता ही न लगा । मेरे दुःखों का -पार नहीं था। उस दुःख में कुल देवी ने मुझे स्वप्न में कहा कि किसी धनवान के घर तुम्हारा लालन पालन हो रहा है। वहीं वह सुरक्षित रह सकेगा। तू चिंता मत कर । देवी के कथन से मुझे कुछ शांति हुई ।
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बेटा ! इसी प्रकार एक ज्ञानी गुरु के मुँह से भी मालूम हुआ कि तेरा मेरा मिलाप बारह वर्ष में होगा । arr से मैंने उस अत्यधिक कष्टमय समय को पार किया दैव योग से आज तेरा मेरा मिलना हो गया ।
"
दूसरीवात - मेरा यहां कैसे आना हुआ ? उसे भी सुन लें। गर्भवती होने के नाते मुझे लाल रंग के पानी में स्नान करने की उत्कट इच्छा हुई। महाराजा ने उसका प्रबन्ध कर दिया । अपने बाग की एक सुन्दर बावडी में गहरे लाल रंग से पानी को भी खून के समान लालसूख बना दिया गया मैने उसमें दिलखोल कर खूब क्रीडा की । जब मैं बाहर निकली तब मैं खून से तरबतर मांस पिण्ड के समान दिखाई दे रही थी । इतने में किसी 'भारएड पक्षी की दृष्टि मुझ पर पड़ी उसने मुझे मांसपिण्ड के भ्रम से पंजों में और चोंच में पकडे एकदम झपट से उठा कर आकाश में उडा ली ।
उड़ते २ उसने मुझे जोन्दी जानकर कोई पूर्व पुण्य से यहां लाकर इस बनमें छोड़ दी- नमो आरिहताणं -- के ध्यान से मैं जीन्दा बची हूँ। रात तो मैंने पास की एक गुफा में बीताई और प्रातः काल होते ही वहां से निकल कर घूमती हुई इधर आई हूँ। यहां आज तुझे
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र मेरा सारा दुख सुख रूप में परिणत मे गया है। मेरे लाल माज मेरी तपस्यायें, कठोर अमिनाहा सगवान का ध्यान,-गुरुदेवों की,कपा सन फलीभूत हुए हैं। गंगे के गुड की तरह मैं आज के अपने इस भानन्द का वर्णन नहीं कर सकती। पुत्र ! तुझे पाकर आज मैं पक्षी-प्रदत्त कष्ट को भी भूल चुकी हूँ। पर बेटा ! एक नयी चिंता मुझे आतंकित कर रही है, वह यह कि मेरे अचानक इस प्रकार गायब हो जाने से तेरे पिता को कितना असह्य-दुःख होता होगा ?
इस प्रकार मां के स्नेहं भरे बचनों को सुन कर कुमार कहने लगा-मां ! आज आप के दर्शनों से मैं धन्य
और कृतपुण्य हूँ। अाज बिना बादलों की वृष्टि हुई है, जो मैंने आज अपनी माता को पाया है । जननि ! संसार में आपसे बढ़ कर कोई वस्तु मुझे नजर नहीं आती। बड़े राज्य, सुन्दर पत्नियाँ, गुणवान्-मित्र, सर्वत्र विजय, अखूट वैभव, और भोग विलास की अपूर्व सामग्रियाँ ये सब आप की ही कृपा का फल मानता हूं। माँ ! पिता से आपको दशगुणा गौरव प्राप्त है। हजार शिक्षक पालक जो शिक्षा नहीं दे सकते उसको गुणवती माता एक इशारे में दे सकती हैं। मैं कहां तक वर्णन करू आपकी महिमा
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((ONE) कुमार के हो जाने पर गुणचन्द्रग्ने मा सूर्यवती को कुमार का सारा चरिख कह सुनाया। अपने 'लाडले बेटे की उदारता दयालुता शूरता और विस्मयता मेरे चरित्र को सुन कर महारांनी बहुत प्रसन्न हुई।
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पूरब पुण्य प्रभावतें जंगल मंगल होय ।
पुण्य करो संसार में पुण्य कियां सुख होय ॥ पुण्यवान् पुरुष जहां जाते हैं, वहीं उन के लिये आनन्द मंगल होने लगते हैं। समुद्र उनके लिये क्रीडा सरोवर, सिंह उनके लिये खचारी, सांप उन के लिये फूलों की माला और विपत्तियाँ उनके लिये संपत्तियाँ बन जाती हैं जिन ने जीवन में धर्म की आराधना से मुख्य संचय किया हुआ होता है।
चरितनायक श्रीचन्द्र उन्ही पुण्यकान् पुरुषों में एक अनुपम पुल्य-पुरुष हैं। संपत्तियां उन्हें खोजती 'फिरती थीं। जंगल में अचानके माता का मिलाप होने
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( ३६० ) के साथ ही वीणापुर नरेश के सिपाही कुमार के पद चिह्नों को खोज करते हुए वहां आ पहुंचे।
सिपाहियों के साथ मंत्री बुद्धिसागर ने कुमार से प्रार्थना की-राजन् ! वीणापुर को राजकुमारी पद्मश्री आप में और मेरी पुत्री आप के इन प्रधानजी में अनुराग रखने चाली हो गई हैं। हमारे राजा ने आप की खोज में मुझे भेजा है । सुनियें ! नंदीपुर के स्वामी हरिषेण की पुत्री तारलोचना के भेजे हुए शुक युगल को देख कर पिता की गोद में बैठी पद्मश्री मूर्छित हो गई । सावधान होने पर उसने कहा पिताजी ! मैं पूर्व जन्म में कुशस्थल की महारानी सूर्यवती के पास कर्कोटजा सारिका थी। भगवान् श्री आदिनाथ के मन्दिर में श्री चन्द्रकुमार को पति रुप में पाने की इच्छा से अनशन कर यहां पैदा हुई हूँ। यहां मैंने उन्हीं कुमार को देखकर निश्चय किया है, कि अब इस भव में मैं उन्हीं को पति बनाउंगी।
इसी लिये राजाजी ने आपको खोजने के लिये हमें मेजा है। सौभग्य से आप यहां मिल गये हैं। राजन् ! कृपा करके निज-चरण धूली से हमारे नगर को पवित्र कीजिये इतनमें वीणापुर नरेश अपनी पुत्री के साथ वहीं आ पहुँचे। बड़े, अग्रह समारोह के साथ कुमार को वीणापुर में प्रवेश कराया।
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( ३६१ ) माता की आज्ञा से पन श्री और नंदीपुर की राजकुमारी तारलोचना के साथ कुमार श्रीचन्द्र ने न्याह कर लिया। गुणचन्द्र का विवाह कमल श्री के साथ होगया।
विवाह विधि सम्पन्न हो जाने पर कुमार ने उस बुद्धि सागर मन्त्री को अपने पिता महाराजा प्रतापसिंह के पास अपनी माता रानी सूर्यवती की कुशल-सुचना देनेके लिये सांढणी-सवारों के साथ भेजा, और कहा किकनकपुर में लक्ष्मण मंत्री को भी इस बात की सूचना दे देवें।
श्रीगिरि पहाड़ के उस भील ने राजा श्री चन्द्र को एक सोने की खान दिखलाई। प्रसन्नता से इसने वहां श्रीचन्द्र नगर वसाया। उस नगरके चारों ओर मजबूत किला बनवाया । बड़ी २ सड़कें, चौराहे, बाजार, मठ, मन्दिर, और हाट-हवेलियों से सम्पन्न उसे बनाया । बाग बगीचों कुओं और तालावों से उसे सुसजित किया। ... श्री गिरि के मध्य भाग में श्री चन्द्र ने चार दरवाजों बाला. विशाल उन्नत सुवर्ण शिखरों से विराजित एक श्री जिन मन्दिर बनवाया। उसमें श्री चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिष्ठा करवाई। आस पास के भयंकर जङ्गल.को साफ
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( ३६२ ) करवा कर नये नगर और पुरे बसाये। दान पुण्यों से, उत्सवों से, धर्मशाला, मन्दिर, विद्यालय, ज्ञान भण्डार, छात्रावास, अन्नक्षेत्र, औषधालय, उद्योग मन्दिरं आदि. नये निर्माणों से दुनिया में त्याग का एक आदर्श पैदा किया। सारा संसार उसी परीपकासा धर्मात्मासन श्री चन्द्र के गुणों को गाने लगा। - कल्याणपुर से आये किसी यात्री ने एक बोजना श्री चन्द्र से कहा कि कनकपुर में आजकल बड़ी गड़बड़ी चल रही है। वहां का राजा तो न जाने अपने राज्य भार को मन्त्री लक्ष्मण के कंधे पर डालकर कहीं चला गया है। लक्ष्मण पर गुणविभ्रम आदि छह राजाओं ने मिलकर चढ़ाई कर दी है। मंत्री लक्ष्मण यथाशक्ति अपनी फौज के साथ विरोधियों से टक्कर ले जरूर रही है पर-घणं जीते रे लक्ष्मणा-वाली कहावत' चरितार्थ हो' जाय ऐसी सम्भावना है। __ यह बात सुन कर राजा श्रीचन्द्र का मुह मारे क्रोध के तम तमा उठा । उनी भुजाय फडकनै लगी। उन्होंने होठ काटते हुए मंत्री गुणचन्द्र से कहाँ तुम अभी पदम नाभ आदि राजाओं को सेना सहित साथ लेकर जाकर और शत्रुओं की अपनी करणी का फल चखों दी।
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आज्ञा की ही देर थी 1 र भेरी बज उठी । शंख= ध्वनि से दिशायें गूंजा उठी। रण- बँके सैनिकों के अस्त्रशस्त्र सूर्य प्रकाश में झिलमिला उठे । पृथ्वी कांप उठी । घोड़ों? की टापों से उठती हुई धूल हाथियों के मद से शांत हुई । महाराज श्रीचन्द्र की जय के नारों से आकाश का पर्दा फटने लगा। राजा श्रीचन्द्र भी अपने तेजस्वी घोड़े पर सवार हो कर प्रयाणोन्मुख सेना के सामने आकर खड़े
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हो गये। सैनिकों ने फौजी ढंग से अपने महाराजा का अभिवादन किया। आज्ञा पाकर सेना ने आगे : को कूच किया । महाराजा तीन, पड़ाव तक साथ गधे । गुणचन्द्र को अपना चन्द्रहात खड़ग दे कर श्रीगिरि की ओर वापस लौटें ।
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रास्ते में एक विशाल वट वृक्ष की छाया में विश्राम के लिये सो गये पर किसी अतर्कित कारण से कुमार श्री चन्द्र को नींद नहीं आ रही थी। इतने में वहां कुछ जोगणियां उस बड पर बैठ कर कहने लगी- कुशस्थलपुर का राजा राणी के वियोग में जल मरेगा, चलो ! देखने के लिये इसी बड़ पर बैठ कर उड़ चले
कुमार ने भी फूर्ति से बड़ की खोखला में अपना आसन जमा लिया। बड़ उड़ा । कुमास्थलपुर के बाहिर
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वह जमीन पर उतरा । प्रहश्य रूप से जोगणियां और कुमार नगर की तरफ चले । रास्ते में मानवोंका समुद्र उमडता हुआ देखकर' कुमार ने प्रवधूत का वेश बनाया और उस टोले में जा पहूँचा । वहां मंत्री आदि समझा रहे हैं पर महाराजा प्रतापसिंह अपनी गोत्र देवी के सामने धधकती आगमें-अपने आपको झोंकने की तैयारी कर रहे हैं।
उस समय बड़ी तेजी से ठहरो! ठहरो!! करताहुआ अवधूत वहां पहुँच गया। कहने लगा महाराज ! आप अधीर न होइयें। महारानी पुत्र सहित सुरक्षित स्थान में विराजमान हैं थोडे ही दिनों में आप से मिल जायेंगी। उनके कुशल-समाचार तो आपको आठ ही दिनों में प्राप्त हो जायेंगे । आप आठ दिन ओर प्रतीक्षा करें। ___मंत्रियों ने और नागरीकों ने भी यही राय दे कर के जोर दे दिया। राजा नलने से रुक गये । बापस नगर में पधारे ! अवधूत को भी साथ ले लिया । योग की चर्चा होने लगी अवधूत ने अपने ज्ञान का खजाना खोल दिया । यह कहने लगा-महाराज !
- योगश्चित्तवृत्ति-निरोध ... वित्त वृत्तियों के सेकने का नाम योग है। भर्जित अवस्था में मी चितवृत्तियां रुक जाती है। पर उसे योन
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नहीं कहा जा सकता। इसीलिये कुछ ज्ञानी प्राचार्य उपरोक्त योग के लक्षण में-क्लिष्ट-पद को और जोड़ने की सिफारिश करते हैं। अर्थात्
योगः क्लिष्ट-चित्तवृत्ति-निरोधः खराब चिर वृत्रियों को रोकने का नाम योग है।
देखिये गुदा के मूल में चार पांखुड़ियों वाला एक आधार चक्र है। लिंग के मूल में षट्कोण आकार का स्वाधिष्ठान चक्र है। नाभि में दश पांखुड़ियों वाला मणि पूरक चक्र है । हृदय में बारह पांखुड़ियों का अनाहत चक्र हैं। कण्ठ और ग्रीव में-सोलह पांखुड़ियों का विशुद्ध चक्र है। ललाट में बारह अक्षरों का प्राशा चक्र है। ___महाराज के साथ राज-योग हठ-योग ध्यान धारणा समाधि आदि योगांगों पर चर्चा करते हुए अवधृत ने अपने ज्ञानी होने की छाप बड़े सुन्दर ढंग से जमा 'दी। इसीलिये कहा है-ज्ञानं सर्वत्रगं चचुः ।।
• एक रोज जयकुमार आदि राजकुमार आपस में एक पड्यंत्र कर रहे थे, हमार ने अदृश्य रूप से सुन लिया। वे कहते थे-विमाता सूर्यवती के मोह में महाराज मर जाते
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मेंराज ऋषम होता । पर उस अवधूत ने कमालिसा अब'न जाने क्या हो ? महाराज के रहते अपन राजा नहीं बन सकते अतः लाख के घर में धोखे से महाराज कों
और इस शैतान के बच्चे अवधूत को जला देना चाहिये । सब ने ठीक है,, कर के दिन निर्धारित किया।
इधरः श्रीचन्द्र ने बड़ी तेजी से लाख के घर के नीचे सुरंग तैयार करवादी और खुद महाराजा की रक्षा में सावधान हो गया। पांचवें दिन जय आदि राजकुमारों ने महाराजा से अनुरोध किया कि पधारिये कैसी अद्भुत कारीगरी हुई है। महाराना मये गुप्त दरवाजे बंद, क्रिये गये। आग की लपटें निकलने लगी। महाराज ने कहा यह क्या ? अवधूत ने कहा राज्य लोभी कुमारों की यह काली करतूत है, जो आपका प्राण लेना चाहते हैं । महासजा किंकर्तव्य मूढ हो गये। अवधूत सावधान था हीसुरंग द्वार खोलकर महाराज को निकाल लिये । वे अपने महल के ऊपरी भाग में चले गये। इधर जयकुमार ने भाइयों के साथ राजसभा में प्रवेश करके सर्वत्र कब्जा करलिया, और खुद राजा की जगह आ बैठा शहर में सन्नाटा छा गया । मंत्री हतबुद्धि होगये। चारों ओर हाहाकार मच गया।
22. वर
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( ३६७ ) ___ महाराजा प्रतापसिंह ने अवधूत' की सलाह से अपने अंग रक्षक सैनिकों को बुलाया। सैनिक महाराज को जीवित देख बड़े प्रसन्न हुए, और उन्होंने महाराज की: आज्ञा से जप आदि राजकुमारों को गिरफ्तार करलिया। महाराजा राजसभा में आये ! अधिकारीगणः विस्मित और हर्षित हुए । महाराजा ने. अवधूत. से. कह्म-आपने मेरे प्राण बचाकर -- के आभारित किया है। मेरा आधा. राज्य ग्रहम्म करके मुझे उऋण बनाइये । पर वह लेने को तैयार नहीं होता। ठीक ही कहा है किसी ने
मंगतों की मंगतों से सगाई . . . . . वे मांगते हैं वे देते ही नहीं।
क्ड़ों की बड़ों से सगाई . . . वे देते हैं वे लेते ही नहीं।
, इधर सातवें दिनः साढनियों की सेना के साथ मंत्री बुद्धिसागर कुशस्थलपुर में आ पहुंचे । महारान की प्राज्ञा से उनका राजसभा में प्रवेश हुआ । स्वागत सत्कार के बाद मंत्री बुद्धिसागर ने साथ लाये हुए पत्र महाराजा के सामने पेश किये और कहा कि-महाराज ! मैं आपके पुत्र राजा श्रीचन्द्र का मंत्री हूं। बीणापुर से आया हूँ। वहां महारानी सूर्यवती जी अपने पुत्र के साथ सकुशल हैं।
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प्रधान मंत्री मुखचंद्र भी नहीं है। उन्हीं के कनकपुर राज्य के मंत्री लक्ष्मण से मिलकर पा रहा हूँ। अभी वहां युद्ध चल रहा है। इसके बाद उसने राजा श्रीचंद्र और मंत्री गुणचंद्र के विवाह आदि का भी जिक्र किया। ___महाराजा ने सेठ आदि के पत्रों को अलग अलग देकर अपना पत्र पढना शुरु किया। पुत्र की पत्र-लेखन की चतुराई व युक्तियों से वे बहुत प्रसन्न हुए । कवि हरिभट्ट ने श्रीचन्द्र की जीवन घटनाओं को गा गाकर सुनाया। महाराजा ने भी अपने पुत्र और पत्नी के समाचार पाकर भारी प्रसन्नता का अनुभव किया। नगर में कई महोत्सव हुए । गुप्त वेश में वहीं बैठा हुआ कुमार श्रीचन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ। धनंजय को कुमार का संदेश था कि चंद्रकला को अपने पीहर से लिवा कर श्रीगिरि पहुंचा देना। ऐसी आज्ञा को पाकर धनंजय शीघ्र ही वहां से चला और रानी चंद्रकला को उनके पीहर से श्री पर्वत पर पहुँचाने गया।
इस प्रकार कुशस्थलपुर में सर्वत्र खुशी का साम्राज्य या गया।
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वसन्त का समय था । आमों पर मैंजरियाँ आ रही थीं। उनके रसास्वाद से उन्मत्त होकर कोकिलाएँ पंचम स्वर में आलाप कर रही थीं। पतझड़ की समाप्ति से पेड़ों की डालियां में नई नई कोंपलें अपने रंग बिरंगी गुच्छों के साथ वनश्री की शोमा को अनंत रूप से प्रदर्शित कर रही थी। प्राणी मात्र के जीवन में नई उमंगे, नई नई आशाओं के साथ तरंगित हो रही थी । ऐसे ही समय
में कुशस्थलपुर के राजा का जयकलश नाम का मुख्य - हाथी किसी कारण से मदोन्मत्त हो गया|वह अपने बंधनों
को तोड़कर और महावत को मारकर शहर में पील पड़ा। उसने नगर में छकड़ों और घोडा-गाड़ियों को उलट 'दिया। दुकानें उजाड़ दी। सामने आने वालों को कुचल
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( ३७० ) दिया। सर्वत्र शहर में खलबली मच गई। लोगों की चीख पुकार सुनकर राजा बड़ा दुखी हुआ और अपने सिपाहियों को हुक्म कर दिया-जाओ, दौड़ो। जैसे बने हाथी को वश में करलो । पकड़ लो।
सिपाही दौड़े । उनको देख हाथी विशेष कुपित हुआ। सारे नगर को उसने तहस नहस कर दिया। सबको कुचलता हुआ वह राजद्वार की ओर आ धमका । सबको अपने जीवन की लगी थी। हाथी के मुकाबले में कोई नहीं
आ रहा था । ऐसी अवस्था में अवधूत वेश धारी श्री चंद्र कुमार हाथी के पास गया। सब लोग चिल्लाने लगे। राजा ने भी मना किया । कुमार ने एक की भी न सुनी। उस मदमस्त गजराज के पास जाकर, अपने वस्त्र से.उसे अधिक कुपित किया। बाद में हाथियों की शिक्षा में निपुण उस अवधूत वेशधारी श्रीचन्द्र ने हाथी को अपने वश में कर लिया। सब के देखते २ बड़े मजे से वह उसके कंधे पर जा बैठा । हाथी ने उसे अपनी : पीठ से गिराने की बहुत कोशिश की. मगर वह अपने स्थान ..पर उटा ही रहा. हाथी उसे बल पूर्वक जंगल में ले भागा !
तीन दिन के बाद वह मद.रहित होकर शांत हो गया। किसी पहाड़ की तराई में आये हुए तालाब में जल पीने की इच्छा से कुमार नीचे उतरा । तालाब में नहा धोकर,
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प्यास बुझाकर उसने अपने असली वेशको सारण किया । अनन्तर प्यार से पुचकारते हुए, कुमार उसके पैरों के सहारे उसकी पीठ पर जा बैठा।. . '
महाराजा प्रतापसिंह अपनी सेनाको लेकर हाथी के पीछे गये सारी रात श्री चंद्रको सबभोर होढा पर वह उन्हें कहीं मिला ही नहीं। आगे पहाड़ी प्रदेश में उसके 'खोज भी न मिले । महाराज को अपने सर्वश्रेष्ठ हामी के चले जाने का उतना कष्ट नहीं हुश्रा, जितना वक्त वेशधारी कुमार के चले जाने का हुश्रा वे कहने लगेअरे ! मुझे प्राण दान देने वाला वह ज्ञानी कितना सच्चा
और उपकारी था। मैं तो उसका कोई बदला नहीं चुका सका ! । महाराज उसके गुण स्मरण करते हुए कुशस्थल में लौट आये। ... इधर उस गजराज की पीठ पर चढा हुआ । कुमार. श्रीचन्द्र श्रानन्द से वन-विहार कर रहा था । पास की पहाडी पराभीलों को एक पल्ली थी । पल्लीपति ने उसाको देखतेही पकडने की इच्छा से भील सेना के साथ श्राकर उसे घेर लिया। जोर से धमकाते हुए वह कहने लगा अरे तू कौन है ? कहां जायगा १-यहां क्यों आया है, . साथ ही भीलोंने बाण बरसाना शरु कर दिया।
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कुमार अपने को बाहों से बचाता हुबा, हाथी द्वारा 'उखाड़ कर दी हुई व शाखाओं और पत्थरों से उन मीलों को मार भगाया । .
भीलों को भगा कर तेजस्वी कुमार श्रीचन्द्र एक सघन पेड की छाया में विश्राम करने लगा । वहां कहीं से वन विहार करती हुई भील कुमारीकाए आ पहुँची । भील राज की कन्या मोहिनी कुमार को देखते ही मोहित हो गई। उसने अपने बाप से जाकर कहा कि-पिताजी ! मैं तो उस हाथीवाले बहादुर पति को ही स्वीकार करती हूँ। किसी दूसरे को पाने की इच्छा अब है ही नहीं।
भिल्लराज अपनी इकलौती बेटी की इच्छा का ख्या. ल करके विनीत वेश में कुमार के पास पहूँचा । कहने लगा महापुरुष ! आप महान् हैं । हमारे अपराधों के लिये क्षमा करें। इस मेरी पुत्री को स्वीकार कर मुझे प्राभारी करें । कुमार ने कहा-जब तक आप का डाकुओं का व्यवहार बना रहेगा तब तक मैं आपसे अपना संबंध जोडना ठीक नहीं समझता । नीति दुप्कुल से भी स्त्री रत्न को स्वीकारने की प्रेरखा करती है पर मेरे सम्बन्धी हो कर
आप डाकू बने रहें यह मेरी शान के खिलाफ बात मानता हूँ। मतः मैं आपकी प्रार्थना मंजूर नहीं कर सकता ।
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भीलराज ने कहा कुमार ! परिस्थितियां ही मनुष्य को डाकू बना देती हैं। डाकू बन जाने पर भी क्या हमारे पास दिल नहीं होता ? मैं खुद इस धंधे से नफरत करता हूँ, पर क्या करू लाचार हूँ। पारस को छू कर लोहा जैसे सोना बन जाता है वैसे श्राप के प्रसंग से मेरा यह पाप भी छुट जायगा ऐसी मेरी दृढ धारणा है । आप मेरी प्रार्थना को न ठुकरायें ।
भावी लाभ को जानकर कुमार ने कहा कि यदि आज से आप दस्यु वृत्ति का त्याग करते हैं, तो आपकी कन्यासे विवाह करने में मुझे भी एतराज नहीं है । पल्लीपति बड़ा प्रसन्न हुआ, उसने भीलों के साथ डकेती, चोरी, आदि के धंधे का सर्वथा त्याग कर दिया। बड़ी धूमधाम से कुमार के साथ मोहिनी का विवाह हो गया । दहेज में हाथी, घोड़े, रथ दास दासी मणि-रत्न आदि अपूर्व वस्तुए भीलराजा ने कुमार श्रीचंद्र को दीं। उसमें अपना सुवेग रथ और उन दिव्य घोड़ों को देख कर कुमारने पूछा ये आपके हाथ कैसे लगे ? भीलराज ने कहा गायक वीणारa हमारे धांवे में इन घोड़ों समेत इस रथ को छोड़ भागा था। तभी से यह हमारे कब्जे में हैं. जब से ये घोड़े आये हैं तब से बहुत दुखी हैं । रातदिन इन की आँखों से आंसू बहते हैं। देखो न १
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इन की आँखें कैसी हो रही हैं। कुमार ! बेटी मोहिनी को दहेज में देने के लिये ही यह मेरा संग्रह है ।
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भील्लराज के साथ कुमार घोडों के पास गया । घोड़े मारे हर्ष के हिनहिना ने लगे अपने सच्चे स्वामी को पहचान कर उनकी कली २ खिल उठी पल्लीपति ने कुमार से पूछा कुमार ! इनकी इतनी प्रसन्नता का क्या कारण है ? कुमार ने कहा१ कुमार ने कहा- भीलराज ! यह सुवेग रथ और ये वायुवेग और महावेग नाम के घोड़े मेरे ही हैं, मैंने ही जयकुमार के षड्यन्त्र से अनजान वीणारव की याचना पर इन्हें दे दिया था । आज ये मुझे पहचान कर खुशी जाहिर कर रहे हैं । ऐसा कह कर कुमार श्री चन्द्र ने प्यार से पुचकारते हुए घोड़ों की पीठ पर हाथ फेरा और उन्हें थपथपाया घोड़ों ने नया जीवन पाया । भील्लराज भी खुश हो गया ।
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कुमार ने कहा पल्लिपति ! आपका यह सारा दहेज और मेरा यह हाथी अब आप ही संभालें । अभी तो मैं सीर्फ इस रथ को ही लेता हूं। उनने भीलराज के सिपाहियों में से कु जर नाम के एक क्षत्रिय कुमार को अपना सारथी चुना । अपनी नाम मुद्रिका दिखाते हुए अपना संक्षिप्त परिचय भी दे दिया । यह श्रीचन्द्र कुमार हैं ऐसा जानकर भीलराज बडा ही खुश हो गया ।
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( ३७५ ) कुमार ने पल्लिपति और भीलों को लक्ष्य करके कहना शुरू किया-आप लोग ? कमसे कम आठम चौदश अमावस्या और पूर्णिमा इन चारों पर्यों में हिंसा आदि कतई न करें। पर्व तिथि में आनेवाले भव का आयुष्य पडता है। शास्त्रों में कहा भी है
अट्ठमी चज्दसी पुषिणमाय, तह मावासा हवह पव्वं । । मासम्मि पव्व-छक्कं, तिन्निय पव्वाई पक्खम्मि ।।
चतुर्दश्यष्टमी चैवा-मावास्या चैव पूर्णिमा। पर्वाण्येतानि राजेन्द्र ! रवि संक्रान्ति रेवच ।।
तैल-स्त्री-मांस भोगी स्यात् पर्वस्वेतेषु यः पुमान् । 'विरमुत्र-भोजनं नाम-प्रयाति नरकं मृतः॥ अर्थात-आठम चौदस अमावास्या पूर्णिमा दूज पंचमी और एकादशी महीने में ये छह और पक्ष में तीन बड़े पर्व होते हैं। विष्णु पुराण में कहा है कि-उपर बताये दिन
और रवि संक्रान्ति का दिन ये पर माने जाते हैं। इन पर्यों में तैल स्त्री और मांस का भोग करने वाले टट्टोपिसाव का भोजन करते हुए मर कर के नरक में जाते हैं।
. जीव की रक्षा करने में ही हमारी रता है, हमारी भलाई है। सभी जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी शास्त्रों का एक ही उपदेश है
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किसी जीव को मत सतायो। अगर सतानोगे तो सताये जाओगे। कोई अपना सताया जाना पसंद नहीं करता, तो दूसरों को भी नहीं सताना चाहिये । अभयदान सब दानों से श्रेष्ठ-दान है। अहिंसा, इंद्रीय-दमन-क्षमा, सचाई, ज्ञान, ध्यान और तप ये आठ बातें असली पुण्य है। इन्ही से देवता भी प्रसन्न होते हैं।
___ महानुभावों ! अभक्ष्य भक्षण करने से भी बड़ा भारी पार होता है। मांस और शराब दोनों ही जीवन को गिरानेवाले हैं। शराबियों को कोई हिताहित का ज्ञान नहीं रहता। उनमें पवित्रता तो नाम मात्र को भी नहीं होती। उन की स्त्रियां बाल-बच्चे दुखी होते हैं । शमी बेहोश होकर गिरता है तब उसके मुह में कुगे मृत जाते हैं । बडी बेइज्जती होती है। शराब से बुद्धि भ्रष्ट हो जाता है।
मज्जे महुम्मि मंसंमि-नवणीयम्मि चस्थए । उज्जति असंखाय-तव्वण्णा तत्थ जंतुणो॥ भागव में, शहद में, मांस में, और मक्खन, में असंख्याते त्रस-चलते फिरते जीव उसी वर्ण के पैदा होते हैं । अतः दयालू पुरुषों को विवेक से काम करना
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अस्तं गते दिवानाथे आमोरुधिर मुच्यते ।
अन्नं मांस-समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा॥ सूर्य-अस्त हो जाने पर पाणी पीना एक प्रकार से खून पीने जैसा होता है, और अन्न खाना मांस सने जैसा ऐसा मार्कण्ड महर्षि ने बताया है।
आप लोगों से मेरा अतिम कहना यही है, कि अगर आप लोग अपना भला चाहते हैं, तो चौरी, डकैती, जीव-हिंसा, मांस-भक्षण, मद्य--पान आदि का सर्वथा त्याग कर देना । अभी तो मुझे जाना है, वापस आउंगा तब सारी दहेज-सामग्री को और आपकी कन्याको मैं ले जाउंगा।
कुमार की हित की बातें सुन कर सभी लोग बड़े खुश हुए, और उस रोज से चोरी डकैती के नियम लेकर अपने आप को दुर्गति से बचाया, और धर्म के अधिकारी हो गये। कुमार श्री चन्द्र मदनसुदरी की खेज में एक दिन वहां से अपने सुवेग रथ में निकल
___कल कल करती गिरि-नदी बह रही थी। नावों में लोग हम खोरी का मजा लूट रहे थे। धोबी कपडे धोने में और दूसरे लोग न्हाने धोने में लगे हुए-गमा
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(३७८ ) गोदावरी नर्मदा आदि का नाम लेकर अपनी ठंडी भगा रहे थे । हमारा चरित नायक कुमार श्रीचन्द्र उस भीलपल्ली से पार होता हुआ नदी के कीनारे हवा के साथ बातें करता हुआ शाम होते २ कुण्डिन पुर जा पहुंचा। ... नगर के बाहरी उपवन में विश्राम के लिये डेरा डाल दिया। पडोस में ही एक यक्ष का मंदिर था । उस में सोने की व्यवस्था की गई। कुमार प्रसन्नता से सो रहा था। कुछ समय के बाद कोई राजकुमारी सरस्वती अपनी सहेलो सुनामिका और सुरुपिणी को साथ लिये विवाह की सामग्री लेकर वहां आ पहुंची। उन्होंने अवाज लगा कर कहा कि-मंत्रीपुत्र श्रीदत्त ! उठो ब्याह के लिये तैयार हो जाओ। वहां मंत्रीपुत्र तो कोई था नहीं । श्रीचन्द्र ही था वह उठ बैठा और बिना चपट किये चुपचाप ब्याह कर लिया। विवाह करके कुमार जब सोने लगा तो उन कन्याओं ने कहा स्वामिन् ! बाहर सांढनी खड़ी है, चलिये यहां से कहीं अन्यत्र चलें । इस पर कुमार ने कहा अभी रात्री है। मैं चल नहीं सकता, न मुझे सांढनी पर बैठने का ही अभ्यास है। चुपचाप सो जाओ गड़बड़ मत करो।
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उन कन्याओं ने आश्चर्य के साथ देखा कि अरे ! यह तो कोई अजनबी आदमी से हमारा ब्याह हो गया। हमारा पूर्व संकेतित मंत्रि-पुत्र श्रीदत्त का तो यहां पता भी नहीं । उन्होने पूछा अजी ! आप कौन हैं ? तब कुमारने कहा में कुशस्थल से आया हूँ, तुम कौन हो ? तुम यहां से अन्यत्र क्यों चलना चाहती हो ? कुमार के ऐसा पूछने पर उनमें से एकने कहा
हे आर्य ! इस नगर के स्वामी राजा अरिमर्दन की ये राजकुमारी हैं। ये सदा यक्ष की पूजा करती हैं एक समय गोद में बैठी हुई राजकुमारी को देख राजाने अपने मंत्रियों से पूछा कि बताओ ! इसके योग्य-वर कौन हो' सकता है ? इसी प्रसंग में किसी बंदिने कहा
___कुशस्थल नरेश महाराज प्रतापसिंह के कुमार श्रीचंद्र जो परिस्थिति के वश एक सेठ के घर बडे हुए हैं, वे बड़े त्यागी और अति-योग्य हैं, । पर वे अभी अपने पालक पिता सेठ लक्ष्मीदत्तसे नाराज हो कर विदेश-यात्रा कर रहे हैं। अगर वे राज कुमारी के पति हों तो सोने में सुगंध हो जाय । यह सुन राजा तो चुप हो गये। पर राजकन्या सरस्वतीजी इसी उधेड़ बुन में अपने इष्ट यक्ष की मनौती करने लगीं। एक समय रात्री में यक्ष ने कहा,
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( ३८० ) राजकुमारी ! आज से पांचवें दिन मैं अपने मन्दिर में रात्री के समय लम बेलामें तुम्हारे पति को ले भाउमा।
सुबह होने पर अपने स्वप्न को राजकुमारी ने बडी प्रसन्नता से हमें कह सुनाया। स्वप्न की बात जान कर हमने जो कुछ किया इसको भी आप सुनियें
इसी नगरी में श्रीदत्त नाम का एक मंत्री पुत्र रहता है। उसने राजकुमारी के रूप-गुणों से अकृष्ट होकर इनकी प्राप्ति के लिये कई उपाय किये । किन्तु राजकुमारी तनिक भी उसे नहीं चाहती थी । उसने मुझे लोभ दे दिया, मैं उसके फंदे में फंस गई। मैंने राजकुमारी का स्वप्न उससे कह दिया। उसने मुझे बताया कि तुम जाकर राजकुमारी को यह कह दो कि मंत्री कुमार श्रीदत्त को भी ऐसा ही स्वप्न आया है। मैंने वैसा ही किया और राजकुमारी को जाकर झूठमूठ ही निवेदन किया कि आज रात्रि में श्रीदन ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा है ।
राजकुमारी ने कहा, यदि ऐसा है तो यक्ष के बचन मुझे मान्य हैं। यह कह कर राजकुमारी चुप हो गई
और उसने सखियों को सारी विवाह-सामग्री तैयार करने की आज्ञा दे दी। मैने मंत्री-पुत्र से भी सारा कार्यक्रम
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सूचित कर दिया । पर न जाने वह क्यों नहीं आया । देवताओं के वचन भी तो महिमावाले होते हैं न ?
अब राजकुमारी कहने लगी देव ! मैं भी तो देव द्वारा ठगी गई हूँ । मेरे भाग्य से ही यक्ष- द्वारा आप मुझे मिले हैं। मेरी आपसे प्रार्थना है कि हम दोनों का यहां अधिक ठहरना खतरनाक होगा । न जाने पिताजी क्या कर बैठें ?
श्रीचन्द्र ने कहा प्रिये घबडाओ नहीं । वे भी मनुष्य हैं और मैं भी मनुष्य ही हूँ । देखलुगा वे कितने पानीमें हैं। रात तो राजकुमारी की दुविधा में ही बीती । प्रातः काल में जब स्पष्ट रूप से कुमार के दर्शन हुए तब वह बडी ही प्रसन्न हुई ।
यक्ष - मंदिर के पुजारी ने राजा से सारी घटना कह सुनाई। उसने क्रोधावेश में अपने सेनापति और सिपाहियोंको भेज दिये । कुमारी थर थर कांपने लगी । कुमार ने कहा- प्रिये ! डरो मत । ये बेचारे अभी भागते हैं। कुमार ने एक सिंह गर्जना की, मीदड़ के समान सारे सिपाही भाग खड़े हुए। राजा को पता चला, तब वह अधिक क्रोध में आकर पूरी ताकत के साथ आया । कुमार ने सखियों सहित पत्नी को गुठी की नाम मुद्रा दिखा
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( ३८२) दी। उनके कान में कुछ कह कर-सार वस्तुए एक गठरी में बांध कर अजन-योग से उसे बंदरिया बना दी। सामने आनेवाले सिपाहियों को दायें बांये हाथ के धक्के से गिरा कर राजा के हाथी पर शेर के जैसे दहाड़ता हुआ चढ गया, और राजा की तलवार छिन कर उसे. बांध वहीं छोड दिया ।
इतने में किसी बंदि ने कुमार को पहचान कर ये गाथाएं गई:-.
कुण्डल पुरस्स रज्जं, चंदमुही राय कन्न-परिणयणं । जक्ख विहिणा उ विहिरं, चंदरं वासिय जेण ॥ सो कुण्डल पुर सामी, सिरिचंदो जय र पयावसिंह कुलचंदो । संफुसइ जस्स तइया, जक्खो भत्तीइ पायतले ॥
अर्थात्-कुण्डलपुर के राज्य को और विवाह के द्वारा चन्द्रमुखी नाम की राज-कन्या को पानेवाले, यक्षके आदेश से नया चन्द्रपुर बसानेवाले, यक्ष द्वारा अपने पैरसहलाने वाले कुण्डलपुर के स्वामी और महाराजा प्रतापसिंह के कुल में चन्द्रमा के जैसे कुमार श्रीचन्द्र की जयहो ।
इन गाथाओं को सुनकर श्रीचन्द्रराज ने उस चारण को पर्याप्त धन देकर संतुष्ट किया। बाद में वनमें जाकर अपने रथ पर सवार हो कुमार वहां से नौ दो ग्यारह हो गये।
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( ३८३ ) इधर मंत्रियों ने मिलकर राजा अरिमर्दन के बंधन काटे, और मन्दिर के चबूतरे पर उन्हें ला बिठाया। श्रीचन्द्र से वांछित धन को पानेवाला वह चारण भी वहां
आ पहूँचा । उसने राजा से श्रीचन्द्र की महती महिमा श्रीचन्द्र-प्रबंध के रूप में गा सुनाई । भट्ट द्वारा मुझे बांधनेवाला पुरुष श्रीचन्द्रराज ही था यह जानकर राजा बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने अपने सिपाहियों को श्रीचन्द्र राज को लेने के लिये भेजे पर उसे वे न पा सके, और योंही निराश होकर वापस लौट आये ।।
राजा मंदिर में अपनी कन्या सरस्वती के पास गया, वहां वह वंदरी के रूप में आंसू भरे खड़ी थी। उसे देख कर राजा बड़े ही दुखी हुए। जब सखियों ने सारा रहस्य समझाया तो उन्हें कुछ धीरज' हुआ, और वे कुमार की कला को सराहने लगे। अपनी पुत्री से उनने कहा-बेटा ! महाराजाधिराज प्रतापसिंह के परम प्रतापी पुत्र श्रीचन्द्र ने तुझे ब्याहा है । तू बड़ी भाग्यशालिनी है। मैं तुझे हाथी घोडे आदि हहेज की उत्तम सामग्री के साथ कुशस्थलपुर. पहुँचाउंगा । तू जरा भी चिंता मत कर । राजाने उस भट्ट को खूब दान दिया। एवं अपनी उस वानरी कुमारी सरस्वती को अपने महल में ले गया। सारे शहर में प्रसन्नता छा गई ।
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पुण्यवान जहँ पद धरे-प्रकटे नवे निधान ।
सुख दुख इस संसार में-पुण्य पाप फल जान। वीर पुरुष जब तक अपने आश्रित को सुखी नहीं बना लेते, वहां तक वे खुद सुख से नहीं बैठते हैं। यही हालत चरितनायक कुमार श्रीचन्द्रराज की थी । मदनमंजरी कहां गई ? वह सुखी है या दुःखी ? इन प्रश्नों का सही उत्तर नहीं मिल जाता, तब तक उनके लिये कहीं शांति से बैठ जाना असंभव था । राजा अरिमर्दन को छोडकर वे मदनमंजरी की खोज में पहाडों में, बीहडवनों में नगरों में घूमते ही जाते थे। .. शुभ-शुकनों द्वारा प्रोरित हुए के एक रोज एक बगीचे में रात्री विताने के ख्याल से टिके हुए थे। इसी बीच
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( ३८५ ) में उन्हें थोड़ी दर से बड़ी ही मधुर मुरज-ध्वनि सुनाई दी। अपने सारथि कुजर को सावधान करके वे उस ध्वनि को लक्ष्य करके चले । एक छोटी सी पहाड़ी पर किसी यच के मंदिर में द्वार बंद करके कुछ स्त्रियां श्रीचन्द्र के गीत मा रही थीं। उनकी उत्कण्ठा
और भी बढ़ गई। किंवाड़ के छेद से अंदर की गति विधि को देखा तो वहां आठ सुदर कन्याओं के साथ मदन मंजरी नाच गान कर रही थी। उसे देख कुमार को भारी प्रसन्नता हुई। गुप्त रूप से सारे कार्य कलाप को देखना, उनने तय किया सारी रात भर उन कुमारियोंको मदन सुदरी ने श्री चन्द्र-प्रबंध को नाच-गान के साथ समझाया।
रात बीत गई । मदन सुदरी उन कुमारियों के साथ यक्ष-मंदिर से निकल पड़ी। यह देखकर कुमार का हृदय खुशी के मारे उछल पड़ा। वे एकदम मन ही मन में बोल उठे "ओहो ! आज मेरा बड़ा भारी सौभाग्य है, कि मेरी स्त्री मुझे मिल गई।"
कौतुक देखने के इच्छुक कुमार अब भी प्रकट होना नहीं चाहते थे। अतः वे उस गुटिका के योग से अदृश्य रूप से उनके पीछे पीछे हो लिये । तब वे एक पहाड
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(३८६ )
की
गुफा
में घुसीं और एक बारी में से होकर पाताल नगर में जा पहुँची सारा नगर मणि- प्रदीपों की कान्ति
से जगमगा रहा था मदन अपनी
सहेलियों समेत अपने
पर
महल में चली गई, और वहां कर अपनी मुख्य सखी से मेरा बाँया नेत्र बार बार फड़क मानती हूँ, कि या तो मेरे पति स्वयं ही आज यहाँ जायँगे या उनका संदेश मुझे जरूर मिल जायगा !
रत्न- जटित पलंग पर बोली, “सखि ! आज रहा है इससे मैं यह
यह सुन रत्नचूला ने कहा, “सखि ! मेरी भी आज ऐसी ही मान्यता है कारण कि जिस दिन से तुम यहाँ आई हो, उसी दिन से वित्त और उपवास आदि से खूब तपस्या कर रही हो अतः वह तपस्या के प्रभाव से यहाँ तुम्हें जरूर मिलेंगें ।
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इसी वार्तालाप के बीच में किसी दासी ने आकर रत्नचूला से कहा कि चलिये आपकी माता जो भोजन के लिये बुला रही हैं। यह सुन मदना ने उन सब से कहा कि बहनों ! तुम भाग जाओ, और भोजन करो। भूख न होने के कारण आज मैं भोजन नहीं करूँगी । परन्तु वे सब वहां से टस से मस न हुई, और बोली, " बहन ! हम तुम्हारे बिना अकेली भोजन नहीं करेंगी । " इम
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(३८७ ) वाद विवाद में काफी देर हो जाने के कारण माता जी स्वयं उन्हें बुलाने के लिये वहां आ पहुँची । उसने मदनासे कहा कि मदने ! आज तुम भोजन क्यों नहीं कर रही हो ? यह सुन मदना ने उत्तर दिया "माताजी ! आज न मालुम मुझे क्या हो गया है, कि मेरी तबियत किसी भी काम में नहीं लगती। . विद्याधरी ने कहा, "पुत्री ! तनिक भी विचलित मत हो । जो तुम्हारा पति है उसी को मेरी इन पुत्रियों ने भी अपना पति स्वीकार किया है। धीरज धरो बेटी ! निमित्तिक का वचन कभी झुठा नहीं हो सकता । मैं बड़ी ही अभागिनी हूं। मेरे दुःख. अपनी चरम सीमा पर पहूंच चुके हैं। मेरे स्थान आदि भी मेरे हाथों से निकल चुके हैं, और मेरा पति भी वन में मृत्यु को प्राप्त हो चुका है । मेरा देवर अपने पुत्र समेत सुमेरु पहाड़ पर बहुत पहले से ही जा बैठा है। कुशस्थल को भेजे हुए दृत भी अभी तक कोई खबर लेकर वापिस नहीं लौटे हैं। पुत्रि ! क्या करू मैं सब ओर से निराधार हूं। तुम स्वयं बुद्धिमती हो सभी बातों को जानती हो । अतः जानते हुए इस प्रकार हठ करना तुम्हें शोभा नहीं देता उठो । भोजन करो। हमारे इस कार्य में तुम अंतराय मत बनो।" इतना समझाने पर भी जब मदना भोजन
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(३८८ ) करने के लिये तैयार नहीं हुई तब वह विद्याधरी उसे अपनी छाती से लगा कर उसके दुःख से दुःखी हो फूट फूट कर रोने लगी।
कुमार अदृश्य रूप से वहां खड़ा ये सारी घटनाएँ देख रहा था । विद्याधरी की बातें सुनकर उसको ध्यान हो पाया कि बन में मुझ से जो विद्याधर मारा गया था यह उसी की पत्नी है । मुझ में अत्यन्त स्नेहवती है। इसके दिल में मेरे लिए लेशमात्र भी वैर प्रतीत नहीं होता है। ऐसा विचार कर कुमार उस नगर द्वार पर प्रकट होकर बैठ गये। उन ने द्वारपाल से कहा कि तुम अन्दर जाकर सूचित करो कि कोई व्यक्ति आप लोगों से मिलना चाहता है। द्वारपाल ने भीतर जाकर सूचना दी, और सूचना पाकर मणिवेगा वहां पर आ उपस्थित हुई । उसने रूप रंग और आकार से सुन्दर उस पुरुष से पूछा, "आप कौन हैं और आप कहां से
आये हैं ?" ... श्रीचन्द्र जबान देने ही वाला था कि इतने में मदन सुन्दरी भी सखियां समेत वहाँ पा पहुँची। वहाँ अपने पति को देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। मारे प्रसन्नता के उसके रोमांच हो आये और कंठ गदगद होगया । आँखों में हर्ष के आँसू छल छला आये । रुंधे हुए स्वर से
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( ३८६ )
उसने विद्याधरी से कहा, माताजी ! आज आपके द्वार पर खड़े हैं ।"
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इस शुभ समाचार को सुनते ही विद्याधरी दौड़ी आई और कुमार को महल में ले जा कर उसका गुणगान करने लगी महाराज -- प्रतापसिंह के सुपुत्र श्रीचन्द्र ! आप हम लोगों के अहो भाग्य से ही यहां आये हैं । यह आपको प्यारी मदना रातदिन आपके वियोग में रोती हुई आपके मिलन की आशा का आधार पाकर हो आज तक जीवित बची है। आपके प्रेम और गुणों को स्मरण करके आपके विछोह में इस बाला ने अपने नेत्रों को सावन-भादों के बादल ही बना डाले हैं । आप दोनों का पारस्परिक प्रेम अत्यन्त सराहनीय है ।
sar उस विद्याधरी के आदेश से वे आठों कन्याएँ हाथों में वरमालाएँ लेकर कुमार के गले में पहनाने के लिये वहाँ उपस्थित हुई । यह देख कुमार श्रीचन्द्र ने उस विद्याधरी से कहा आपकी "ऐसी स्थिति क्यों है ? और ये कुमारिकाएँ कौन हैं" !
कुमार के प्रश्न का उतर देती हुई विद्याधरी ने कहना शुरू किया, वीरों के मुकुटमणि कुमार ! सुनो । मैं आपको अपना सारा वृतान्त सुनाती हूँ ।
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इसी वैतादव नामक पहाड़ पर मणिभूषवा नामका नगर है । वहाँ पर पहले रत्नचूड़ नामके राजा राज्य करते थे। उनके छोटे भाई मणिचूड़ वहाँ के युवराज पद को सुशोभित करते थे । रत्नवेगा और महावेगा हम दोनों उनकी स्त्रियां हैं । ये रत्नचूला, मणिचूला श्रादि उनकी पुत्रिय हैं। रत्नकांता आदि ये चार उनकी भानजिये हैं, रत्नचूड़ और मणिचूड़ इन दोनों को "अपने गोत्री विद्याधरों के साथ आकाश में घूमते हुए उत्तर-श्रेणी के स्वामी सुग्रीव विद्याधर ने जीत लिया। वे दोनों अपने समस्त धनमाल व परिवार समेत उस नगर को छोड़कर यहां चले आयें, और यहां पाताल नगर "बसा कर रहने लगे।
एक समय पुनः राज्य प्राप्ति के लिये मेरे पति रत्नचूड़, विद्यार चन्द्रहास तलवार को पाकर उसकी प्रयोगसिद्धि के लिये वन में गये बहाँ पर विधि के अनुसार नीचा मह किये उस विद्या को ज्योंही साधने लगे त्योंही किसी ने उन्हें मार दिया।
जब प्रातःकाल हम पूजा की सामग्री लेकर वहाँ पहुँची तो वे मरे पाये। उसी जगह उनकी प्रेत-क्रिया करके हम अपने स्थान पर लौट आई।
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( ३६१ ) एक समय रत्नचूड़ का पुत्र और रत्नचूड़ा का भाई रत्नज पिता की मृत्यु से दुःखी हो कर इधर उधर भटकता हुआ एक बड़ी भारी अटवी को प्राप्त हुआ वन में किसी स्थान में प्रकाश का भ्रम पैदा कर, इस मदनसुन्दरी को अपने पति से पृथक करके यहाँ ले आया। इस के शील के प्रभाव से एवं. हमारी धाक से वह इस के साथ कोई अत्याचार नहीं कर सका । उस दिन से मैंने इस सदाचारणी सुशीला मदना को अपनी धर्म-पुत्री बनाकर रक्खा है। यह इन सभी कात्याओं को अपने पति के गुणों और चरित्र का ज्ञान कराती है। मदना द्वारा कहे हुए आपके गुणों को व परोपकार युक्त कार्यों को सुन कर ये आप की हो चुकी हैं, और साथ में मदना को भी ये कह चुकी हैं, कि जो आपके पति हैं वे हमारे भी पति होंगे। .. एक समय मणिचूड़ ने किसी नैमित्तिक से पूछा कि भाई ! कृपा कर यह तो बताओ कि हमारा खोया हुआ राज्य कब मिलेगा ? उसने उत्तर देते हुए कहा, "महाभाग ! तुम्हारी आठों कन्याओं द्वारा वरण किया हुावर ही तुम्हारे खोये हुए राज्य को जीत कर लौटा लावेगा। ऐसे महापुरुष का संयोग अप्रतिचक्रा विद्या की साधना से ही हो सकेगा। उसके कथनानुसार मणिचूड और रत्नध्वज दोनों छः महिने में सिद्ध होने वाली उस
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( ३९२ ) विद्या को विधि पूर्वक साधने के लिये मेरु पहाड़ पर गये
_ साधना करते२ उन्हें चार महीने बीत गए हैं । अब केवल दो महीने साधना-क्रम के बाकी हैं। हम लोगों के अहो भाग्य से ही आप यहां आए हैं। अतः कृपा कर इन कन्याओं को स्वीकार कीजिये । प्रेम पूर्वक कुमार की मौन स्वीकृति से विद्याधर-बालाओं ने उनके गले में वर मालायें पहना दी। उनके साथ श्रीचन्द्र ने भोज किया। बातचीत के प्रसंग में सासुओं ने उसे अकेले ही आने का कारण पूछा । तब उसने अपना कुछ कुछ हाल ठीकतौर से उन्हें कह सुनाया। यह सुन रत्नवेगा ने कहा, "कृपाकर जब तक मणिचूड़ वापिस यहाँ लौटकर न आवें तब तक आप सुख पूर्वक यहीं रहें। .
श्रीचन्द्र ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, "माता जी मुझे काम बहुत हैं, अतः मैं इतने दिन--तक यहाँ ठहर नहीं सकता। मैं यहाँ से शीघ्र ही कनकपुर जाना चाहता हूं। जब मणिचूड़ अपनी विद्या -सिद्धि कर के दो महीने बाद लौट आवें तब आप मुझे कुशस्थल
आदि मेरे शहरों में जहाँ कहीं होऊ वहां सूचना भेज देवें। बाद में सब कुछ ठीक होगा। आप लोगों के
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( ३६३ ) साथ मेरा जो सम्बन्ध हुआ है, इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ"।
विद्याधरियों ने कहा कुण्डलपुर-नरेश ! हम अनुनय विनय कर के आपको रोक कर आप के कार्य में कोई बाधा पैदा करना नहीं चाहती हैं। केवल एक ही प्रार्थना है, कि इन कन्याओं का पाणि-ग्रहण करके इन को साथ ले पधारें। ताकि मदन सुन्दरी के साथ इन का जो प्रेम है उसमें वियोग का कष्ट इन्हें न हो।
श्रीचन्द्र ने उत्तर दिया माताजी! आप क्यों इतना विचार करती हैं ? विवाह तो जब चाहेंगे तभी हो जायगा। जब आप लोगों को पुनः राज्य की प्राप्ति होगी तभी मैं इन से ब्याह करूगा । किसी प्रकार समझा बुझा कर उनकी अनुमति से वह मदना को साथ ले कर वहां से रवाना हुआ, तब रत्नचूड़ा रो पड़ी। उसने रुधे हुए स्वर में कहा-स्वामिन् इधर आप पधारने का विचार कर के हमारे लिए दुस्सह विरह की आग भड़का ही रहे हैं, पर इन हमारी बड़ी बहीन मदन सुन्दरी जी को आप क्यों लिये जाते हैं ? हमारी हालत पर भी तो जरा गौर कीजिए । हम यहां इस वियोगी दशा में कैसे जीयेंगी ? उसकी प्रार्थना पर कुमार का हृदय पाघल गया। उनने
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( ३६४ )
मदन सुन्दरी से कहा- ये ऐसा कहती हैं तो रह जाओ । मदना ने कहा 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' - न्याय उपस्थित हुआ हैं। स्वामिन् ! देव योग से बिछुड़े हुए आपका मिलाप बड़ी मुश्किल से हुआ है। हालांकि इन बहनों को छोड़ते हुए भी मुझे कष्ट होता है, पर मैं आपको तो कतई नहीं छोड़ सकती । मैं तो आपके साथ ही चलूंगी ।
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है
श्री चन्द्रराज ने उन विद्याधर - कन्याओं को मैं निश्चित अवधि में लौट आउगा की प्रतिज्ञा करके आश्वा सन दिया । और उन्हें वहीं रहने को विवश किया । उन्हें देने योग्य वस्तुएं देकर सन्तुष्ट किया, और मदना को लेकर वहां से चल दिये। जहां रथ खड़ा किया था, वहां पहुंच कर कुमार रथ में बैठ कर कनकपुर की ओर चल दिये । आपस में विरह की अवधि में बीती हुई अपनी घटनाओं को सुनाते हुए वे दोनों मार्ग में चले जा रहे थे । जाते जाते रुद्रपल्ली नामक नगरी के समीप पहुँचे ।
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नगर की बाहर विशाल जन समुदाय इकट्ठा हो रहा था | क्या बात है ? यह जानने के लिये कुमार उधर की तरफ आगे बढ़े। उनने देखा एक चिता बनी हुई हैं। एक कुश काय कन्या उसके पास खड़ी है । राजा आदि उसे समझा रहे हैं बेटी ! अग्नि प्रवेश मत करो। जीवित
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नर कल्याण को प्राप्त करता है । मर कर अन्धकार के गहरे गर्त में चला जाता है। दूसरी ओर शहर कोतवाल द्वारा गिरफ्तार किया हुआ व्यक्ति रस्सियों से बंधा हुओं
खड़ा है।
कुमार रथ से उतर पड़े । पास खड़े प्रधान से उनने पूंछा माई क्या बात है ? उसने कहा महाभाग ! इस नगरी का नाम रूद्रपल्ली है । ये सामने खड़े हैं के यहाँ के नरेश हैं । पास ही उनकी महारानी क्षेमवती खड़ी हैं। यह उन्हीं की राजकन्या दुर्बल और दुःखी हंसावली है। इसके आगे वह कुछ कह ही रहा था कि-राजा की दृष्टि रथ पर पड़ी । इतना सुन्दर रथ, और ऐसे प्रभावशाली कुमार को देखकर राजा को बड़ा भारी विस्मय हुआ । उनने मन्त्रियों को एवं प्रतिष्ठित. नागरिकों को कुमार के पास भेजा। वे सब कुमार के पास पहुँचते हैं इतने में वहां आये हुए हरि बारहट के भाई अंगद भट्ट की दृष्टि कुमार पर पड़ी । वह बोल उठा
कणग उभयस्स रज्जं, पुतिं कणगाउली च कणगरे । बिलसइ सुरदिन्न जो, नव लक्खवईस सिरिचंदो ।' सिरिपत्रयग्गसिहरे, चंदप्पह-जिएस्स चेइयं जैण। कारवियं चउदारं, रम्म सो जयउ सिरिचंदो ॥
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( ३६६ ) - - अर्थात्--देवताओं से दिये हुए कनकध्वज के राज्य कनक पुर के और उसकी पुत्री कानकावली के जो स्वामी हुए हैं उन नवलक्षाधिपति श्रीचन्द्र कुमार की जय हो । जिनने श्रीपर्वत के अग्रिम शिखर पर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी का विशाल चतुमुर्ख मन्दिर बनाया उन श्रीचन्द्र कुमार की जय हो । ये कुमार ही श्रीचन्द्रराज हैं ऐसा "जानकर पास में खड़े मन्त्री आदिकों ने राजा के पास पहुंच कर निवेदन किया कि महाराज ! श्री चन्द्रकुमार यहीं आये हुए हैं । इतना सुनते ही राजा वज्रसिंह अपनी कन्या हंसावली को साथ लेकर वहां आ पहूंचे । परस्पर में शिष्टाचार--स्वागत सत्कार के बाद कुमार ने पूछा कन्या को क्या दुःख है ? वज्रसिंह ने कहा--महाराज यह मेरी पुत्री हंसावली कनक नरेश की पुत्री कनकावली की सखी है। कनकपुर और कनकावली के आप स्वामी हो गये हैं । यह जानकर इसने भी निश्चय किया कि कनकावली के पति ही मेरे पति होंगे।
..इस दृढ़-निश्चय को जानकर मैंने विश्रुत नाम के अपने मन्त्री को आपकी सेवा में कनकपुर भेजा था । वहां लक्ष्मणमन्त्रि-द्वाराआप अनिश्चित काल के लिये अनिश्चित विदेश यात्रा में पधारे हुए हैं। विश्रुत मन्त्री से ऐसा
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( ३६७ ) जानकर यह कन्या अन्दर ही अन्दर दुःख पाती हुई
आपके स्मरण में जीवन व्यतीत कर रही है। ___इधर कुण्डिनपुर के नरेश अरिमर्दन का पुत्र चन्द्रसेन हंसावली से विवाह करना चाहता था, इसीसे चन्द्रा वली की प्रतीज्ञा और आपका विदेश गमन जानकर उसके मन में कुमति पैदा हुई । वह अपने नगर से निकल पड़ा । कनकपुर में पहुँच कर उसने आपको सारी स्थिति का अध्ययन किया । इसके बाद वह एक मनुष्य को साथ लेकर यहाँ आया। उसने अपना नाम श्रीचन्द्र रखा । उसके छल कपट का हम लोगों को कोई पता न चला । हम और कन्या उसको सचमुच श्रीचन्द्र समझ कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उसने कपट जाल बिछा दिया। एक समय कनकपुर का व्यापारी हमारे यहां आया। उसने राजकुमार को पहिचान लिया। यह जानकर हम बड़े दुखी हुए कि श्रीचन्द्र के बदले में चन्द्रसेन ने हमें धोखा दिया है, हमारी पुत्री के दुख का तो क्या पूछना ? मन्त्री चिंतित हो उठे । विवाह विष होगया।
कुमारी हंसावली प्रायश्चित्त के लिए अग्नि में जलने को तैयार हुई। हमने बहुत रोका पर यह अपने आग्रह पर डटी रही। हमें अपनी अज्ञानता पर पश्चात्ताप हो
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(३ ) रहा है। चन्द्रसेन की क्रूरता, नृशंसता और अदूरदर्शिता पर क्रोध आ रहा है। उस अपराधी को भी हम यहां चौर की तरह बांध कर लाए हैं। ...
इस बात को सुन कर सान्त्वना देते हुए कुमार ने कही-राजन् ! आपका या राजकुमारी का इसमें कोई दोष नहीं है।
"सा सा सम्पद्यते युद्धिः-सा मतिः सा च भावना ।
संहायास्ताहशा ज्ञेया, · यारशी भवितव्यता ।। .. अर्थात्-जैसी होनी होती है, मनुष्य में वैसी ही बुद्धि मति और भावना उत्पन्न हो जाती है। वैसी ही उसे सहायता मी प्राप्त हो जाती है।
जो भावी संसार में, होती अपने हाथ ।
राम न जाते हरिण संग सीय न रावण हाथ ॥ अतः हे राजन् ! इसके लिए आप जरा भी दुखी न होइए, चन्द्रसेन के बंधन. कटवा कर उसे यहां बुलाइयें । राजा ने ऐसा ही किया । उसके आने पर श्री चन्द्रने कहा-अरे श्रेष्ठ राजकुल में जन्म लेकर भी तैने यह नीच कुर्कमा क्यों किया ? वह लज्जावनत हो कर बैठा रहा ।
" श्रीचन्द्र ने हंसावली से भी कही-भद्रे ! इतनी दुखी क्यों हो रही हो । अवेश में आकर विना सोचे समझे
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( ३६६ ) जल मरने का अकार्य मत करो । दुर्लभ मानव-भव बार नहीं मिलने का । आत्महत्या एक घोर पाप है। उसे करके अपने आप को क्यों कलंकित करती हो। चाहे मन से और बचन में वरण न किया हो पर पाणि-ग्रहण कर लेने पर वह निश्चित रूप से पति हो ही जाता है
सिंह-गमन सुपुरुष-वचन, कदली फले इक बार । तिरिया तेल हमीर-हठ, चढे न दूजी बार ।।
सज्जनों का वचन और स्त्रियों का व्याह एक बार ही होता है।
हंसावली ने कहा-महापुरुष ! जो आप फरमाते हैं वह सच है। फिर भी आप सती स्त्रियों के कुल धर्म पर दृष्टि डालिए । स्त्री मन से जिसको अपना पति स्वीकार करलेती है वही उसका पति हो सकता है, दूसरा नहीं। मैंने
आपके भ्रम में उसका हाथ पकड़ा था, लेकिन अब प्रम के न रहने पर मैं उसे क्यों मानू मैं दृढ़ता से उसका त्याग करती हूँ शास्त्रों में कहा भी गया है।..
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः । तथैवालिङ्ग्यते भार्या- तथैवलिङग्यते स्वसा॥
अर्थात-मन ही मनुष्यों के बंध और मोक्ष का कारण है जिस प्रकार स्त्री का आलिंगन किया जाता है
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- ( ४०० ) वैसे ही बहन का भी किया जाता है, परन्तु मन बहन को वहन की दृष्टि से स्त्री को स्त्री की दृष्टि से जुदा कर देता है । मन से किया हुआ काम ही सब ठीक और शास्त्रीय माना जाना चाहिए । अतः मेरी आप से यही प्रार्थना है कि मेरे विना मन से किये हुए कामों को व्यर्थ मान कर बिना किसी हिचकिचाहट के आप मुझे स्वीकार कर लें।
राजकन्या हंसावली के चतुराई भरे बचनों को सुनकर श्रीचन्द्रने कहा-राजकुमारी ! वास्तव में तुम सदाचारिणी हो । कांच और मणि का परिवर्तन निश्चय ही हो सकता है, परन्तु विवाहित स्त्री का विनिमय नहीं हो सकता । बुद्धि के भ्रम से दूध में डाला हुआ नमक क्या बदल सकता है ? कभी नहीं । ठीक उसी प्रकार भ्रम से किया हुआ विवाह, विवाह ही रहता है । भ्रमसे विवाहित पति पत्नी, पति पत्नी ही रहते है । वैसी स्त्री को मैं पर स्त्री ही मानता हूँ , और पर स्त्री को अपनाने से घोर पाप लगता है।
हंसावली ने कहा देव ! यदि आप मुझे पराई स्त्री ही समझते हैं, तो आग में जल मरने के सिवाय मेरे लिये दूसरा क्या मार्ग हो सकता है ? मैंने तो मन वचन
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( ४०१ )
से आपको ही अपना पति माना है, और मानती हूँ । छल-कपट से बने हुए पुरुष को पता लग जाने के बाद पति मानना मेरे लिये एक घोर अपराध है । मैं ऐसे पुरुष को पर पुरुष मानती हूँ और पर पुरुष से संबंध करना क्या घोर पाप नहीं है ?
वज्रलेप के समान राजकुमारी के ऐसे अमिट निश्चय को जानकर राजा श्रीचन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। सबके सामने उनने कुमारी की शील- दृढ़ता को सराहा । दण्डनीय और निरोध करने योग्य उस अपराधी चन्द्रसेन को दया करके राजा से छुटकारा दिलवा दिया। वे कहने लगे
राजन् ! संसार की स्थिति ही ऐसी है । सभी प्राणी विषयों द्वारा सताये जाते हैं। वासना ही सब दुःखों की जेड़ है। मन में जरासी शिथिलता आने पर वासना बढती ही जाती है, और मनुष्य को अपने स्थान से गिरा देती है । मदिरा मनुष्य को उन्मत्त बनाती है पर वासना में उससे अनंत गुणी मादक शक्ति होती है । मदिरा एक जन्म तक ही काम करती है, और वासना अनंत जन्म तक पीछा नहीं छोड़ती। वासना को सर्वथा जीतने वाले पुरुष जिन भगवान् कहलाते है और वासना को जीतने का अभ्यास करने वाला जैन होता है । अनंते जन्म-जन्मा
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( ४०२ ) न्तर होने पर भी सच्चे जैनत्व के अभाव में हम संसार के दुःखों से मुक्त नहीं हुए हैं। सर्वथा वासना को जीतने वाले और वासना को जीतने का अभ्यास करने वाले महापुरुष सदा वंदनीय होते हैं । वह दिन धन्य, परमधन्य होगा जब कि हम वासनाओं पर काबू कर लेंगे। . इस प्रकार जीवन को उन्नत बनाने वाले श्रीचन्द्रराज़ के प्रवचन को सुनकर राजा, मंत्री, राजकन्या, आदि सभी लोग बड़े प्रसन्न हुए । चन्द्रसेन कुमार-श्रीचन्द्र के चरणों में गिरकर कहने लगा-स्वामिन् ! आपने मेरे प्राणों की तो रक्षा की ही है पर इससे भी बढ़कर वासना विजय-विवेक को समझाकर आपने मेरा परम उपकार भी किया है। आज से मुझे आप अपना एक छोटासा सेवक समझे।
इधर कुमारी हंसावली के ज्ञान-चक्षु भी खुल गये। उसके मनोभावों में सहसा परिवर्तन हो गया। उसका मुख-मण्डल ज्ञान की ज्योति से चमक उठा । वह हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से कहने लगी-देव ! पहिले तो
आपने सौंदर्य, शोर्य, औदार्य आदि गुणों से मेरा मन हर लिया था, और प्रांज इस प्रकार का अद्भुत ज्ञान सुनाकर, आपने मेरी रक्षा की है। आज से मैं आपको
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अपना धर्म-गुरु मानती हूँ। अब में वासनाओं पर मरने काली नहीं हूं प्रत्युत वासनाओं का विजय करगी। आपकी दया से आज मैंने जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ पाया है। आज से पूर्ण वीतरागी-श्रीजिन भगवान् को-देव, वीतराग भावमें रमण करने वाले को गुरु, और उन्हीं के बताये विधि विधानों को-धर्म रूप मामूगी छल कपट से हुए विवाह के बंधन को काटकर मैं अब जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारिणी रहूँगी । शील ही मेरे जीवन का आदर्श रहेगा।
राजा श्रीचन्द्र ने कहा देवी ! तुम धन्य हो । तुम्हारे जैसी सती माताओं के कारण ही हमारा मस्तक गौरव से ऊंचा है। हमारा देश आर्य देश कहलाता है। तुम्हारे त्याग और तप की बराबरी कौन कर सकता है ? इस त्याग और तप से मैं वंदन करता हूँ। ___ राजा बज्रसिंह और उनका परिवार राज कन्या हंसावली की वीर-प्रतिज्ञा को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। सारा वायु मण्डल ही आनन्दमय हो गया। राजा बज्रसिंह ने बड़े भारी समारोह के साथ कुमार को नगर प्रवेश कराया। यहां श्रीचन्द्र कुमार से प्रार्थना की कि कुमार ! हंसावली के मनोरथ तो दैव योग से सफल न हो सके,
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(४०४ ) पर हमारी एक प्रार्थना को आप सफल बनावें । हंसावली की छोटी बहीने चन्द्रावली विवाह के योग्य हो चुकी है, उसका पाणि ग्रहण कर के हमें कृतकृत्य करें। .. हंसावली: मदन सुन्दरी और राजा वज्रसिंह के विशेष आपदा करने पर श्रीचन्द्र ने विवाह मंजूर किया। बड़े साठ के साथ विवाह संपन्न हुआ। कुछ दिन के लिए कुमार यहां ठहरे।
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जीवन एक संग्राम है। इसमें कई दांव पेच खेलने होते हैं ! धीर और वीर पुरुष ही इसमें फतेह पा जाते हैं। संसार में हार और जीत दोनों साथ २ चलती हैं। चूके को चौरासी के गोते खाने पड़ते हैं। इसमें अनुकूल
और प्रतिकूल ऐसे दो प्रकार के संघर्ष चलते हैं। विवेकी विजयी होता है, और अविवेकी का कचूमर निकल जाता है। - राजा श्रीचन्द्र भी अपने जीवन संग्राम का ठीक ढंग से संचालन कर रहे थे। रुद्रपल्ली में राजा बज्रसिंह के यहां-सुसराल के स्वर्ग-सुखों को भोगते हुए उनने एक रोज कनकपुर का ख्याल किया। राजा बज्रसिंह से बड़े
आग्रह से आज्ञा लेकर रति और प्रीति के समान परम सौंदर्य शालिनी दोनों स्त्रियों को साथ लेकर कामदेव के
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जैसे कुमार ने कनकपुर की ओर प्रस्थान किया । दलबल के साथ नवलक्ष देश की सीमा पर उनने पड़ाव डाल दिया ।
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इस के बाद कुछ गुप्त चरों के साथ राजा पद्मनाभ को, मंत्रिराज गुणचन्द्र को और प्रधान लक्ष्मणदेव को अपने आगमन की सूचना भेज दी। सूचना पाते ही वे लोग बड़ी तेजी से वहां आ पहुँचे । राजकीय ढंग से राजा श्रीचन्द्र ने सबकी सलामी ली । युद्ध के समाचार पूछे कि क्या हाल चाल है ? । प्रधान मंत्री गुणचन्द्र ने हाथ जोड़ कर कहा- राजाधिराज ! गुणविश्रम अत्यन्त पराक्रमी और दुर्जेय शत्रु है । वह घेरा डाले पड़ा है टस से मस नहीं हो रहा । वह कहता है दश गुणा दण्ड लेकर ही हटू गा । राजेन्द्र ! आज तक तो इसका पलड़ा भारी ही रहा है । सारा कनकपुर एक प्रकार से इसकी कैद में दुःख पा रहा है । उसे छह राजाओं की सहायता प्राप्त है । वह हमारे देश को जबरन छीनना चाहता है ।
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महाराज ! हम बड़े भारी पशो-पेच में थे कि क्या करना ? इतने में आपका शुभागमन हो गया। आपके शुभागमन से आज हमारी सेना का रंग और हो हो गया है । हमारे सेनापति सेना के साथ भारी प्रसन्नता से
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( ४०७ )
उत्साहित हो उठे हैं । जोश का एक नया तूफान उफन रहा है।
यह सुनते ही राजा श्रीचन्द्र का शरीर वीर रस की साक्षात् मूर्ति हो गया । आँखे लाल हो गईं । भौंहे कमान की तरह तन गई । शत्रुओं पर प्रहार करने वाली भुजायें फड़क उठीं। वह शीघ्रता से सब में वीरता के भाव भरता हुआ चन्द्रहास खड्ग को हाथ में लेकर सहस्रकिरण सूर्य के समान अपनी सेना में प्रदीप्त हो उठा। राज राजेश्वर श्रीचन्द्र को वहां आये जानकर शत्रुत्रों के सिपाही कांप उठे । उनके हृदयों में खलबली मच गई। मुखमंडल निस्तेज हो गये । चेहरों पर मारे भय के हवायां उड़ने लगीं । अब उन्हों ने अपनी जीत की श्राशा को छोड़ दी ।
राजाधिराज श्रीचन्द्रने साम-दाम भेद और दण्ड की राजनीति में चतुर अपने दूत को गुणविभ्रम के पास भेजा, और कहलाया की तुम ने पहिले कनकपुर नरेश से जो दण्ड लिया है, उस को सौगुना कर के हमारे खजाने में जमा करा दो। अन्यथा लडने की पूरी तैयारी कर मोर्चे पर आजाओ ।
राजा गुणविभ्रम को दूतने महाराज श्रीचन्द्र का सन्देश सुना दिया । सुनते ही वह आग बबूला हो गया।
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४०८ ) अंदर से बौखला कर उपर दृढता दिखाते हुए उसने कहा-जा अपने उस छोकरे से कह देना कि तुझे युद्ध के मैदान में ही मैं जवाब दूंगा। - दूत लौट आया । महाराज श्रीचन्द्र अपने सन्देश का जवाब सुन कर अपनी फौजों को मैदाने जंग में पहूँचने का आदेश दे दिया। दोनों ओर से मजबूत मोर्चे लग गये। दोनों सेनायें अपने २ स्वामी की आज्ञा पाकर आपस में भीड़ गई । बडा भयंकर युद्ध होने लगा। जयश्री कभी इधर और कभी उधर डोलती दिखाई देने लगी। राजा गुण विभ्रम ने मौका पाकर बाणों की भयंकर बौछार करके महाराज श्रीचन्द्र की सेना को तीतर बीतर कर दिया।
__ अपनी सेना के पैर उखड रहे हैं। राजा पद्मनाम, वज्रसिंह और लक्ष्मण मंत्री धिरे जारहे हैं । यह सब देख कर राजाधिराज श्रीचन्द्र शीघ्रता से हाथी पर सवार हो गये । शत्रु के निकट पहुँच कर कहने लगे कि-महोदय ! अपनो कुशलता चाहते हो तो अब भी झुक जाओ, और यदि लडना ही है, तो आयो पहिले वार कर दो। ___ गुणविभ्रम ने कहा-कि अभी तू बच्चा है, युद्ध के मैदान से हट जा, यदि लौटने की इच्छा ही नहीं है, तो
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( ४०६ )
ले अपना शस्त्र संभाल ले । यह कह कर उसने श्रीचन्द्र पर तलवार का प्रहार किया । राजाधिराज श्रीचन्द्र ने बडी फुर्ती से अपने चन्द्रहास से उसे बीच में ही काट दिया । चन्द्र हास के सामने वह निस्तेज हो गया । श्रीचन्द्र ने गुणविभ्रम को हाथी से गिरा दिया। सैनिकों ने उसे कस कर बांध लिया और एक लकड़ी के पींजड़े में उसे डाल दिया । बाकी के राजाओं को भी और उन की सारी सेना को हराकर हिरासत में ले लिया । सभी पराजित अधिकारी अपराधियों की भाँती श्रीचन्द्र के सामने हाथ बांधे खडे थे । विजयश्री कुमार से और कुमार विजयश्री से -बर वधू के रुपमें एक दूसरे से शोभा पा रहे थे ।
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कल्याण पुर में और उसके सातों देशों में अपने मंत्रियों को भेज कर श्रीचन्द्र ने अपनी आज्ञा प्रचलित करवा दी । कनकपुर में उसके निवासियों ने विजयी महाराज श्रीचन्द्रका नगर, हाट, मकान, मन्दिर, महल -राजमार्ग आदि खूब सजाकर जय जय शब्दों से बडे भारी समा-: रोह के साथ स्वागत किया ।
कुछ समय वहां ठहर कर कुमार अपनी दोनों स्त्रियों के और अधीनस्थ राजाओं के साथ मातृ दर्शन की उत्कण्ठा से श्री पर्वत पर बसे हुए अपने श्री चन्द्रपुर नगर
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( ४१० )
की ओर चले । मार्ग में ही माता सूर्यवतीजी के पुत्ररत्न यानि भाई उत्पन्न होने की खुशी के समाचार कुमार को मिले । अपने भाई के उत्पन्न होने की खुशी में कुमार ने भारी समारोह किया । भारी खुशियाँ मनाई गई । सारे अधीनस्थ देशों में भी उत्सव आनन्द मनाये गये । राजा गुण विभ्रम को इस खुशी में कैद से छोड़ दिया गया । दूसरे भी कई कैदी छोडे गये ।
सत्कार किया । विनीत भाव से
कुमार ने गुणविश्रम का यथायोग्य उसने भी अपने सभी अपराधों के लिये क्षमा चाही । कुमार ने उसे अपने पास बिठाकर पुनः इज्जत प्रदान की। वहां से चलते हुए क्रमशः भारी ठाठ के साथ चन्द्रपुर में प्रवेश किया, जनता ने अपने राजा का पितृ प्रेम से स्वागत किया और राजा ने प्रजा को अपने पुत्रवात्सल्य से आनंदित किया। राजमहल में कुमार श्रीचन्द्र ने अपनी माता श्रीसूर्यवतीजी को बडे विनीत भाव से प्रणाम किया । मदनसुन्दरी आदि बहुएँ सासूजी के पैरों पड़ीं । माता ने पुत्रवती हो, सौभाग्यवती हो, ऐसे आशीर्वाद दिये । राजाओं ने मन्त्रियों ने भी महारानी सूर्यवतीजी को प्रणाम किया। स्वागत शिष्टाचार खूब अच्छे ढंग से हुआ ।
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( ४११ )
श्रीचन्द्र ने अपने छोटे भाई को गोदी में लिया, गुण: लक्षणों के अनुसार उसका एकांगवरवीर ऐसा नाम रक्खा । राजाओं के नाम पत्र लिखे गये । पत्र पाकर सभी राजा लोग श्रीचन्द्र की सेवा में था उपस्थित हुए । कईयों ने कन्याएँ देकर, कईयों ने धन, रत्न, हाथी घोडे आदि अपूर्व वस्तुएं भेंट कर अपनी कृतज्ञता प्रकट की । पद्मिनी चन्द्रकला वामांग, वरचन्द्र, सुधीराज़ और धनंजय ये लोग भी एक बडी भारी सेना के साथ वहां आ पहुँचे ।
कुमार के वैभव को देखकर सभी लोग बहुत खुश हुए । महाराज श्रीचन्द्र ने भी वामांग को सचिव, धनंजय को सेनापति इस प्रकार उन सबको अलग २ यथायोग्यपदों पर नियुक्त किये। रानी चन्द्रकला को महारानी बनाया । चत्रिय कुमार कुजर को और मल्ल - भील को उचित शिक्षा के साथ वहीं श्रीपर्वत के रक्षाधिकारी कायम किये ।
सारे परिवार के साथ श्रीचन्द्र ने भगवान श्री जिनेश्वरदेव के मंदिर में वंदन पूजन किया । अष्टान्हिक महोत्सव कर के अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल किया । निग्रंथ पंचमदाबत धारी त्यागी संयमी साधु गुरुयों की सेवा
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( ४१२ ) भक्ति की । उनके सत्संग से विशेष धर्म-लाभ को प्राप्त किया।
तदनंतर अपनी माताजी को, भाई को, रानियों को मित्रों को, मंन्त्रियों को साथ लेकर भारी समारोह के साथ कुशस्थल की ओर महाराजा श्रीचन्द्रराज रवाना हुए। हाथी, घोडे, रथ, मनुष्य, सैनिक, बैलों, ऊंटों, पालकियों आदि से उनकी सेना लहराते हुए विशाल समुद्र की तरह शोभा पारही थी। उस सेना के दबाव से शेषनाग विचलित हो उठा । कूर्मराज घबडा उठे । पृथ्वी अंदर को फँसने लगी । दिशाओं के हाथी कराह उठे । पैरों से उडी हुई धूल से आकाश में सूरज ढंक गया । पहाड़ कापसे गये । समुद्रों में यावत् सारे संसार में हलचल मच गई।
.. पहाड़ पर पड़ाव करते हुए महाराजा श्रीचंद्रराज अपने अभीष्ट-स्थान की ओर बढ़ते जा रहे थे । मार्ग में स्थान २ पर कहीं मन्दिर, कहीं धर्मशाला, कहीं किले कहीं प्याउएँ, कहीं नहरें प्रादि नव निर्माण करते और कराते जाते थे । क्रमशः वे कनकपुर पहुंचे। वहां कुछ दिन ठहर कर कल्याणपुर गये । राजा गुणविभ्रम को पहले की तरह पदस्थ किया। उनकी राजकन्या गुणवती
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( ४१३ ) से विवाह किया। मदन .सुदरी के मुह से यहां सुवणपुरुष आदि के वृत्तांत को सुनकर महारानी सूर्यवतीजी चंद्र कलाजी आदि सब लोग बडे विस्मित हुए।
वहां से भी राजा को, गुणवती रानी को, एवं स्वर्ण पुरुष को, साथ लिया । जंगल में जहां पर बड़ के पेड़ में मणिगृह छिपा हुआ था। वहां से सार वस्तुएँ ग्रहण की रत्न चूड़ के मृत्यु-स्थान पर आये । उसके दाह स्थान पर एक जिन मन्दिर बनवाया । वहाँ से कान्ती पुरीगये कान्ती नरेश नरसिंह ने बड़े उत्सव के साथ नगर प्रवेश कराया, कान्ती के पास में ही बड़गाँव में गुणधर कलाचार्य रह रहे थे। श्रीचन्द्र ने अपनी पत्नी सहित वहाँ जाकर गुरु
और गुरुपत्नी को नमस्कार किया और अपूर्व भेंट अर्पण की। गुरु के पुत्रों, कुटुम्बियों और बाँधवों आदि का भी यथा योग्य सत्कार किया। कलाचार्य ने भी अपने शिष्य श्रीचन्द्रकुमार को भूरि भूरि अशीर्वाद दिये। - इसके बाद रानी प्रियंगुमंजरी और राजा नरसिंह
साथ वह हेमपुर को गये। वहां पर मदनपाल का पिता मकरध्वज राज्य करता था। मदनसुन्दरीने श्रीचंद्र को अपना पति बनाया है यह सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन दोनों के साथ फिर वहां से राजा श्रीचन्द्र चल
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( ४१४ ) कर कांपिल्य पुर आये । वहां पर बड़ी घूमधाम से उनका पुर प्रवेश हुआ। वहां पर उनने अपनी माता के आग्रह से कनकवती आदि चारों कन्याओं के साथ बड़ी सजधज और धूमधाम से विवाह किया।
वीणारव नामक गायक का भी नगर कहीं प्रास पास में ही था। जब उसने सुना कि महाराज श्रीचन्द्र कांपिल्यपुर में पधारे हुए हैं, तो वह भी वहां आ उपस्थित हुआ, उसने प्रसन्न हो कर महाराजा की प्रशंसा के कई आश्चर्य उत्पन्न करने वाले श्लोक पढे । जैसे
बलगत्तुं गतुरंग-निष्ठुरतर-क्षुण्ण द्रणमातले । निभिन्न द्विप-कुंभ मौक्तिककण-व्याजेन बीजापलि ।। खड्गस्ते वपतिस्मकुण्डलपते ! लोक-त्रयीमण्डप
प्राप्त प्रौढ़तमस्य कीर्तिलतिकागुल्मस्य निष्पत्तये ।। अथात् हे कुडलेश्वर ! आपकी कीर्तिरूपी लता को पुष्पित बनाकर त्रिभुवन में फैलाने के लिये अपका घोड़ा रणभूमि को खोद कर बीज बोने योग्य बताना है और
आपकी तलवार मदमस्त हाथियों के कुभस्थलों को चीर कर उनमें से निकले हुए मुक्ता कणों को बीज के रूप में बोती है, तथा हताहतों से निकला हुआ रक्त उसकी सिंचाई करता है।
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( ४१५ ) श्रीचन्द्र ने प्रसन्न होकर उसको पाँचलाख के मूल्य का धन दिया । ओरों ने भी उसे यथा शक्ति इनाम देकर संतुष्ट किया ) we are mes आभूषणादि को लेकर श्रीचन्द्र की सराहना करता हुआ प्रसन्नता से अपने डेरे पर चला गया । रात्रि में चोर उसका सर्वस्व हरण करके ले गये। जब सुबह हुआ तो उसने अपने मालकी एक दम चोरी हो गई, देखी। घबडाते हुए उसने राज सभा में आकर श्रीचन्द्र से सारा हाल कह सुनाया। इस बात को सुनकर श्रीचन्द्र ने वहां के राजा जितशत्रु को उपालम्भ दिया ।
तब जितशत्रु ने महाराज से निवेदन किया कि स्वामिन् ! यहाँ पर तीन चौर हैं, और वे बहुत प्रयत्न करने पर भी पकड़े नहीं जा रहे हैं। उन्होंने इस नगर को चौरियां करके परेशान कर रक्खा है। यह उत्तर पाकर राजाधिराज श्रीचन्द्र ने वीणारव को पहले से दुगुना धन दिया । वह भी प्रदत्त धन राशि को लेकर पहले की तरह अपने डेरे पर चला गया ।
इधर महाराज श्रीचन्द्र स्वयं गुटिका के प्रयोग से अदृश्य होकर रात्रि में नगर में इधर उधर घूमने लगे। आधी रात के समय उनने तीन मनुष्यों को कहीं देखा।
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( ४१६ ) गौर से देखने पर उनने दो को तो अच्छी तरह पहचान लिया, मगर तीसरे को न पहचान सके । तब वे उनके काम देखने के विचार से वहीं रुक गये।
___ चौर आपस में विचार करने लगे। लोहखर ने कहा, यहाँ पर जो राजा आया है उसने गायक को कल से दुगुना धन दिया है सो चलो वहीं चलें।" तब वज्रजंघ बोला, "सुनो । आगन्तुक राजा के पास एक सुवर्णपुरुष सुना जाता है, सो चलकर उसे ही क्यों न चुरा लिया जाय जिससे अपना जन्मजन्मान्तर का दारिद्यू ही दूर हो जाय । तुम अवस्वापिनी विद्या के जानकार और तुम्हारा भाई धन की गंध का जानकार है। तुम्हारा भतीजा मैं एक बार सूबे हुए धन को गंध मात्र से ही जान लेता हूँ।"
लोहखर ने उत्तर दिया, भाई ! यह राजा बड़ा धर्मात्मा भाग्यशाली, न्यायी और परोपकारी है इसलिये इसका कोई कुछ भी हरण नहीं कर सकता। अपना किया हुश्रा उद्यम व्यर्थ जायगा। इस प्रकार सलाह करके लोहखर ने हाथ से कुछ धूल उठाई और उसे मंत्रित करके वीणारव के डेरे की ओर ऊपर को उछाल दी। फिर वे
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( ४१७ ) तीनों उस गायक के डेरे की ओर चले। उस मर्म को जानने वाले श्रीचन्द्र भी उनके पीछे हो लिये ।
बाद में वे वहाँ जाकर गंधज्ञान से धन का अपहरण करके वापिस उसी जगह लौट आये और फिर वहाँ से नगर के बाहिर निकल गये। किसी एक मठ में पहुँचकर उन्होंने उसके पीछे की ओर एक बड़ी शिला को उखाड़ कर नीचे के भोयरे में सब धन रख दिया। बाद में फिर उस शिला को उस पर रखकर उन्होंने बाबाओं का वेश बनाया और उस मठ में आकर सो गये । श्रीचंद्र इस क्रिया को देखकर अपने स्थान पर लौट आये ।
इधर जब प्रातःकाल हुआ तो वीणार जगा | उसको अपनी कुछ वस्तुएँ अस्त व्यवस्त पड़ी मिलीं । उसको चोरी होने का सन्देह हुआ । ज्योंहीं उसने जाकर अपना कोठा सँभाला त्योंही वह चीख पड़ा। उसके हृदय में घिग्घी सी बंध गई । उसका सर्वस्व चुराया जा चुका था ! वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिरने को ही था, कि साहस ने उसका साथ दिया । वह सम्हल गया । दौड़ता हुआ श्रीचन्द्र के पास आ पहुँचा। महाराज ! 'मेरा तो आज भी फिर सब कुछ चला गया' कहता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने भाग्य की निन्दा करने लगा ।
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( ४१८ ) यह सुनकर वहाँ पर उपस्थित, सेठ साहूकारों राजाओं और मंत्रियों के सामने कुण्डलपुर नरेश श्रीचन्द्र ने राजा जितशत्रु को धिक्कारते हुए कहा, "राजन् !
आपके राज्य में बार बार चोरियां होती हैं। प्रजा को सुख नहीं है। फिर आपक्या राज्य करते हैं ? जिस राजा से अपने देश का शासन भी ठीक नहीं सम्हलता । उसकी इज्जत लोगों में कैसे रह सकती है ? राजा जितशत्रु ने मारे लज्जा के सिर नीचा करलिया।
श्रीचन्द्र ने सभा में एक बीड़ा रक्खा और सभी सदस्यों को सम्बोधित करते हुए बोला, "जो कोई भी व्यक्ति किसी भी उपाय द्वारा चोरों को पकड़ लेगा उसको यहाँ मिली हुई विवाह की पहरामणी में दे दूंगा।" सब लोगों ने उत्तर देते हुए कहा, महाराज ! हम में से यहाँ कोई भी बीड़ा उठाने वाला नहीं है ।" इस प्रकार करते धरते कुछ न बन पड़ा और इस चर्चा में ही सूर्य सिर पर आगया।
इधर सूर्यवतीजी ने पुत्र को दैनिक कार्यों में विलम्ब करते देखा, तो उनने कहला भेजा, “पुत्र ! आज देवपूनन भी अभी तक नहीं हुआ है और न भोजन ही हुआ है। अतः अब तुम्हें जल्दी आजाना चाहिये । क्योंकि
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( ४१६ )
या सद्र पविनाशिनी स्मृतिहरी पंचेन्द्रियाकर्षिणी । चक्षुः श्रोत्रललाटदैन्यकरणी वैराग्यमुत्पाटिनी ॥ बंधूनां त्यजनी विदेशगमनी चारित्रविध्वंसिनी । सेयं धावाति पंच-भूत-दमनी प्राणापहर्त्री क्षुधा ॥
अर्थात् जो सुन्दर रूप को बिगाड़ ने वाली, स्मरण शक्ति को नष्ट करने वाली, इन्द्रियों को मुर्झाने वाली, ख कान और ललाट आदि को मलिन और निर्बल करने वाली वैराग्य उत्पन्न कराने वाली, बंधुओं का त्याग कराने वाली, परदेश में ले जाने वाली, चारित्र और सतीत्व को भंग करने वाली पांच भूतों का दमन करने वाली और प्राणों का नाश करने वाली है वह भूख बढ़ी तेजी से पेट में खलबली मचा देती है।
श्रीचन्द्रने संदेश लाने वाले सेवक को संकेत से ही समझा दिया कि आज बड़ी भारी मंत्रणा हो रहीं है अतः मैं आने में असमर्थ हूँ सो तुम जाकर माताजी से अर्ज करदो कि आप सब शीघ्र ही भोजन करलें । मेरेलिये तनिक भी इन्तजार न करें। भेरा रखा हुआ बीड़ा श्राज तक कभी निष्फल नहीं गया । इसलिये में जब तक यह मेरी प्रतिज्ञा पूरी न हो जायगी तत्र तक भोजन नहीं करूंगा । गुणचन्द्र ने कहा, "महाराज ! आपको ऐसे वचन
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( ४२० ) सहसा अपने मुख से नहीं निकालने चाहिये कारण कि न मालूम यह चोरी कितने दिनों बाद जाकर पकड़ी जावे" ___ यह सुनकर श्रीचन्द्र एक दम वहां से उठ खडे हुए
और उन राजाओं के साथ बगीचे में जाकर पैदल ही वन विहार करते हुए उस मठ के पास जा पहुंचे। वहां पर उनने पांच छः योगियों के साथ पान खाये हुए उन तीनों चोरों को देखा। राजा श्रीचन्द्र ने मठ के सामने की चबूतरी पर बैठ कर उन सभी योगियों को अपने पास बुलाया। वे सब वहां से चले आये और आशीर्वाद देकर बैठ गये। - आप लोगों में कौन कौन योगी और कौन कौन भोगी हैं ? राजा ने पूछा राजन् ! हम लोग तो योगी हैं
और आप भोगी हैं। योगियों ने उतर दिया । तो फिर यह पान की लालिमा आपके मुख में क्यों ? राजा ने कहा। .. यह सुन उन तीनों का मुंह काला पड़ गया। महाराज का संकेत पा कर गुण चंद्र ने उन तीनों को हिरासत में लेलिया साथ के मनुष्यों ने हुक्म पाकर उस मठ के पास की शिला को उठा कर दूर फेंक दिया, उसके नीचे एक विशाल और अद्भुत भूगृह था, उसमें अपार
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४२१ )
( धन राशि भरी हुई थी । यह देख सभी श्रीचन्द्र के भाग्य, बुद्धि और परोपकारिता की प्रशंसा करने लगे ।
इसके बाद श्रीचन्द्र ने उस चोरी के धन में जिस जिस का धन था उन सब को पहचान पहचान कर दे दिया । उन तीनों चोरों को राजा जितशत्रु के हवाले करके और बाकी बचे हुए धन को लेकर अपने निवासस्थान पर लौट आया ।
इधर राजा जितशत्रु ने उन चोरों को खूब निर्दयता से पिटवाया, परन्तु उन्होंने लेश मात्र भी अपना अपराध स्वीकार नहीं किया । अन्त में राजा ने उनके पास चोरी से सम्बन्ध रखने वाली कुछ वस्तुएँ और कुछ चिन्ह आदि देख कर उन्हें मृत्यु दण्ड की आज्ञा दे दी । सिपाही उन्हें लेकर वध्यभूमि में शूली के पास पहुँचे ।
जब श्रीचन्द्र को इस बात का पता लगा तो उनने उन चोरों को वहाँ से अपने पास बुलाया, और पूछा, कि बताओ तुम लोग कौन हो ? और तुम्हारे क्या क्या नाम हैं ? इस पर उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । तब कुमार ने कहा, लोहखर ! क्या तुम मुझे नहीं जानते ? महेन्द्रपुर की सीमा में मैंने तुमको पुत्री समेत दया करके जिन्दा छोड़ दिया था । मैं अवस्वापिनी विद्या जानता हूँ ।
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(२२)
क्या वह तुमने नहीं दी भी तुम
क्या तुमन खर नहीं हो ? राजा ने दूसरे से बचा। पहले खान हुए आम के फल तुम्हें याद नहीं हैं ? जब जल्दी बताओ यह तीसरा कौन है और इसका क्या परिचय
इतना सुनते ही वे तीनों उनके चरों पर गिर पड़े और गिड़गिड़ा कर माफी माँगने लगे। बादमें चोरोंने अपना वक्तव्य शुरु किया, "राजन् ! लोहजंघ इस नामका एक बड़ा मशहूर चोर हो गया हैं। उसके तीन पुत्र हैं। एक रत्नखर, लोहखर, और वज्रखर । ये तीनों कभी कुण्डलपुर में, कभी महेन्द्रपुर में, कभी पहाड़ों में, कभी नदियों के कगारों की खोहों में निवास करते हैं । वज्रखर के पास तालोद्घाटनी विद्या थी परन्तु उसके मरने के बाद वही विद्या उसके पुत्र वज्रंजंघ को प्राप्त हुई । रत्नखर को पिता ने अपना सब से छोटा पुत्र समझ कर अदृश्यगुटिका दीथी । लोहखर मैं हूँ ही । इस प्रकार मैंने आपके समक्ष हमारा सारा वास्तविक हाल कह सुनाया है, अब आज से आप ही हमारे स्वामी हैं ।"
महाराज श्रीचंद्र गुणी थे, गुणियों का आदर करते थे। उन्होंने विद्यागुण संपन्न उन चोरों को जीवन-दान किया। अपने सत्संग से उन को भी वीतरांग मार्ग के अनु
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( ४२३ ) यायी बनाये । अपने प्रयास में उन्हें भी साथ ले लिया। कमशः महेन्द्रपुर में पहुंच कर वहां की उस चौर गुफा से धन निकाल कर जिस का था उस को दे दिया । राजकुमारी सुलोचना के साथ बडे ठाठ से ब्याह भी कर लिया।
प्रधान मंत्री गुणचंद्र को चौदह राजाओं के साथ कांपिल्य-पुरसे सेना आदि को लाने के लिये भेजा। साथ साथ चलने वाले श्रीलक्ष्मण, सुधीराज, सुदर और बुद्धिसागर नाम के मंत्रियों ने आगे जाकर महाराजा प्रतापसिंह को वधाई दी । उन्होंने कहा कि महाराज ! आप के चिरंजीवी कुमार श्रीचंद्रजी अपनी माता भाई और रानियों के साथ आपकी सेवा में आ रहे हैं । महेन्द्रपुर से तिलकपुर, रत्नपुर, और सिंहपुर होते हुए यहां पहुँचेगे।
इधर से गुणचन्द्र ने कुमार से कहलाया देव ! आप के द्वारा छोडा हुआ गंध हाथी दूसरे के काबू में नहीं आ रहा । यह जान कर महाराज श्रीचन्द्र अकेले वहां पहूँचे । उनके प्यार भरे वीर-बर्ताव को देख कर हाथी पानी पानी हो गया।
गजारूढ कुमार अपने मित्र गुणचन्द्र के साथ अपनी चन्द्रमुखी-चन्द्रलेखा आदि रानीयों को एवं राजा वीर
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( ४२४ )
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वर्मा के परिवार को लेकर महेन्द्रपुर लौट आये । वहाँ के राजा त्रिलोचन को साथ लेकर मार्ग में आने वाले राजाओं से श्रादर पाते हुए वे वसन्तपुर पहुँचे। वहां का राज्य वीरवर्मा को देकर वे कुछ दिन वहां ठहरे ।
पत्रों द्वारा बुलाये हुए, और स्वेच्छा से आये हुए राजा लोग वहां एकत्रित हुए । श्रीचन्द्र राजमुकुट-कुण्डल- छत्र चामर आदि राज्य चिन्हों से अलंकृत हो कर अपने उस गंधहाथी पर सवार हुए ऐरावत — स्थित इन्द्र के समान चलते हुए तिलकपुर पहुँचे ।
तिलकपुर के राजा तिलकसेन ने कुमार का भारी स्वागत किया । इधर से पुत्र का आगमन सुन कर महाराजा प्रतापसिंह अपने भारी लवाजमे के साथ कुशस्थलपुर से निकल पडे | सेठ लक्ष्मीदत्त भी राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके आठ व्यवहारीयों के कुटुम्ब के -साथ सामान तैयार करने के लिये रत्नपुर में गया ।
गुप्तचरों से पिताजी पधार रहे हैं, ऐसा जानकर श्री चन्द्रराज सारे दलबल के साथ पितृ - मिलन के लिये सामने आये दूरसे दोनों एक दूसरे के बाजों को सुनकर आनन्दित हुए । सेना की अग्रिम टुकडियों ने एक दूसरे के राज्य-ध्वजों के दर्शन किये। कुछ आगे बढने
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पर कुमार, की दृष्टि महाराज प्रतापसिंह के हाथी पर पडी । कुमार अपनी सेना को पंक्तिबद्ध बनाकर पिता का फौजी स्वागत करने के लिये, आगे बढे । महाराज प्रतापसिंह हाथी से उतर पड़े । कुमार श्रीचन्द्र ने बड़े विनीत भावसे पिता के चरणों में प्रणाम किया । पिता ने बड़े प्यार से अपने वीर शिरोमणि बेटे को हृदय से लगा कर अनेकौं हार्दिक भाव भरे आशीर्वाद दिये। दोनों फौजों का परस्पर में प्रेम स्वागत हुआ। .. महाराज का संकेत पाकर सेवकों ने रत्नजडाउ सुवर्ण सिंहासन लगा दिया । क्षण भर में वह स्थान पारिवारिक सभा के रूप में परिणत हो गया । सिंहासन पर महाराजने अपनी गोदी में कुमार को बिठाकर असीम प्यार किया । महारानी सूर्यवती ने भी महाराज के दर्शन कर अपनी चिर-वियोग-व्यथा को शान्त की । सब की आंखोंमें हर्ष के आंसू थे । हृदय गद् गद् हो रहे थे । सारी बहुओं ने अपने सास ससुर को भक्ति भाव से प्रणाम किया सबने आशीर्वाद पाकर अपने को कृतार्थ माना। जंगल में मंगल हो गया।
विजित ओर संबंधित राजाओं ने अपनी इज्जत के अनुरूप महाराजा की भेटें की। सब का परिचय कराया
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( ४२६ । मथा। लक्ष्मण और विसारद आदि मंत्रियों ने कनकपुर और कुण्डलपुर राज्यों की भेटें अर्पण की ।
कुमार श्रीचन्द्र ने अपना अपूर्व खड्ग, सुवर्णपुरुष, पारसमणि, और अनमोल. रत्न, घोडों सहित सुवेग रथ धहाथी आदि सारी वस्तुएँ पिता के समक्ष हाजिर की।
सासुओं ने सौतों ने सैन्ध्री आदि सखियों ने परस्पर में एक दूसरे को नमस्कार कर यथोचित रीतिरिवाज संपन्न किया। एक दूसरे के कुशल समाचारों से अवमत होकर महाराजा प्रतापसिंह ने कुमार मित्र गुणचन्द्रके मुह से श्रीचन्द्र के चरित्र को बड़े चाव से सुना। बहुत २ आनन्दित हुए । कुमार ने अपने छोटे भाई वरबीर को पिता की गोद में लिटा दिया। बाद में महाराज ने भी महारानी के वियोग की, अवधूत मिलन की बातें कह सुनाई । अवधूत का नाम लेते समय महाराज के हृदय में एक टीस सी चलती थी। उस ने मेरे प्राण बचाये, मैं कुछ नहीं कर सका इस बात का खेद जाहीर करने लगे।
कुमार ने हँसते हुए कहा पिताजी आपकी दया से उसका सब जगह कल्याण ही कल्याण होगा। उस का भविष्य चमक उठेगा। आप उसकी चिंता न करें।
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वर्तमान की अवस्था प्रायः भूतकाल के कार्यकलापों पर अवलम्बित होतीहै । उन्ही कार्य-कलापों से पैदा होने वाले सूक्ष्माति सूक्ष्मतम संस्कारों को हम भाग्य, दैव, विधि, कर्म, तकदीर और नशीब रूप से मानते हैं। उनमें जो शुभ होते हैं उन्हें पुण्य, और अशुभ होते हैं उन्हें पाप रूप मानने की परिपाटी चली आ रही है । पुण्य-पाप रूप कम आत्मा और जड द्रव्य दोनों के संबंध से हुआ करते हैं । दुःख, पाप-कर्मों का फल और सुख, पुण्यकर्मों का फल माना जाता है । इन का नियंत्रण काल, स्वभाव, नियति, और पुरुषार्थ से हुआ करता है । इन्हीं को शास्त्रों में पांच समवाय नाम से बताया है। अच्छी और बुरी दोनों अवस्थाओं के कर्ता धर्ता हमारे
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( ४२८ ) लिये हम खुद ही हैं। परमेश्वर खुदा या गोड़ नाम की कोई दूसरी महाशक्ति का इस के साथ कोई सीधा संबंध नहीं होता।
हमारा चरित्र-नायक कुमार श्रीचन्द्र भी अपने ही •पुण्य-कर्मों से जीवन का विकास करता हुआ सुखी, और सम्पन्न हो गया था । अनुकूल काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत-कर्म और पुरुषार्थ के समवाय से ही कार्य सिद्धि हो सकती है। कुछ न होते हुए भी सब कुछ बन जाने का नाम ही तो कार्य सिद्धि है।
तिलकपुर की सीमा में महाराजाधिराज प्रतापसिंह को उनकी प्रियतमा महारानी सूर्यवतीजी अपने परम प्रतापी पुत्र कुमार श्रीचन्द्रराज के साथ मिली । पिता पुत्र के उस सुखदायी मिलन से सर्वत्र आनंद ही आनंद का अनुभव होने लगा । संबंधितव्यक्तियों को उन की यथायोग्य सेवा का सिरोपाव दिया गया । जंगल में मंगल हो गया।
उधर तिलकपुर के राजा तिलकसेन राधावेध साधना के समय से कुमार श्रीचन्द्र को चाह रहे थे । आज उन्हें पता लगा कि वे कुमार ही अपने प्रतापी पिता महाराज
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( ४२६. ). . प्रतापसिंह के साथ अतर्कित रूप से हमारी सीमामें आ. गये हैं । उल्लसित मन से उनने भी वहां पहुंच कर महाराज से तिलकपुर आने का निमंत्रण किया। उनके अनुरोध से महाराजा अपने चिरंजीवी के साथ बडे भारी स्वागत समारोह से तिलकपुर में पधारे । तिलकसेन की राजकुमारी तिलक मंजरी ने श्रीचन्द्रराज के गले में वरमाला डाली । महाराजा प्रतापसिंह ने अपने पुत्र का विवाह बड़ी धूमधाम से किया। ___ इस प्रसंग में रत्नपुर से लक्ष्मीदत्त सेठ और लक्ष्मी -. वती सेठानी भी वहां पर प्राय । कुमार ने उनको माता पिता के रूप में ही मान्यता प्रदान की । उन दोनों माताओं
और पिताओं के एवं पुण्यशाली कुमार श्रीचन्द्र के हृदय में उस समय अनंत आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा । उसी समय वहां कुमार के नानाजी दीपशिखा के अधिपति गाजा दीपचंद्रदेव और सिंहपुर के स्वामी श्वसुर शुभगांग नरेश भी वहाँ आ पहूँचे । सब के मनोरथ सफल हो गय।
विवाह के बाद कुमार श्रीचन्द्रराज वहां से तिलक नरेश एवं अपने माता पिताओं के साथ रत्नपुर की ओर रवाना हुए। रास्ते में जहां पिता से प्रथम वार मिलन
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( ४३० ) हुमा था, वहां प्रियमेलक नाम का नगर वसाया । कुछ
आगे बढकर समुद्र के किनारे पर अपने पिता महाराजा के नाम से प्रताप नगर बसाया। उन्हीं के नाम से सोने चांदी के सिक्के चलाये। .
इधर कर्कोटक द्वीप के स्वामो रविप्रभ का पुत्र कनकसेन अपनी कनकसेना आदि नव बहिनों के साथ समुद्र मार्ग से वहां आया। उसने महाराजा प्रतापसिंह से अपना परिचय देकर प्रार्थना की कि-देव उमा और खपरा नाम की जोगणियों से गवाते हुए आपके प्रतापी कुमार श्री चन्द्र राज के गुणों से आकुष्ट हुई ये मेरी बहिने स्वयंवरा हो कर पिताकी आज्ञा से यहां आई हैं। हमारी इन बहिनों का विवाह यहां सम्पन्न होना चाहिये । महाराजा ने प्रसन्नता से अनुमति प्रदान की और वहीं उन कन्याओं के साथ श्रीचन्द्रराज का विवाह बड़े ठाठ से कर दिया।
उस समय दहेज रूप में दश हजार हाथी, तीस हजार घोड़े, एक करोड़ पैदल सेना और अपरिमित सोना चांदी मणि रत्न आदि कर्कोटक द्वीप से लाई हुई सारी दहेज सामग्री कुमार को प्रदान की गई। अद्भुत गुण और सौन्दर्य शालिनी उन कन्याओं ने अपने सास श्वसुर
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(४१) के पावां घोंक दी। समस्त सामाजिक रीति रीवाज संपन्न हुए।
के प्रसंग में महाराजाने उस उपकारी अवधूत की. चर्चा छेड दी। कुमार कुछ बहाने से बाहर जाकर अवधूत.का वेश बनाकर आगया । महाराजा अवधूत को देख कर , खुश होगये । धीरे २ अवधूत ने अपनी डाढी हटाई. कुमार को पहिचान कर कहा कि अरे बेटा ! क्या अवधूत भी तुही है। तेरी लीला अपरंपार है। तब उसने सारी घटना का वर्णन किया । सुनकर सारा राजन्य परिवार और अन्तःपुर दांतों तले उंगली दबाने लगा।
इस प्रकार नित नये विनोदों को करते हुए कुमार महाराज के साथ कुशस्थलपुर पधारे । पुरवासियों ने कुमार के सद्गुणों और सच्चरित्रों से प्रसन्न हो कर अनेक उत्सव समारोह किये । इस प्रकार कुशस्थलपुर में अमोद प्रमोदों का एक विशाल कार्य क्रम हो गया। महाराजाने एवं सारी राज-सभाने कुमार के अलौकि चरित्र को गुणचंद्र के मुख से सुन कर ये सब पूर्वकृत पुण्य-कर्मो के ठाठ हैं, कहते हुए बडा आनन्द अनुभव किया ।
- इधर भील्लराज मल्ल ने भी कुमार को प्रणाम किया उसे वापुतिका की रक्षा का अधिकारी बनाया गया ।
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( ४३२ ) राजा शुभगांग की प्रार्थना से महाराजा की आज्ञा से कुमार एक रोज सिंहपुर पधारे । गुणचन्द्र वहां साथ ही था। वहां उसके पूर्व जन्म की जन्मभूमी थी । उसे देख कर वह मूर्छित हो गया । कुमार ने उसे सावधान किया
और उससे उसके पूर्व जन्म का सारा हाल सुना । सब को इस बात का पता चला कि निमिच देखने वाला धरण ही गुणचंद्र है । इसने पूर्वभवमें तीर्थों का अाराधन कर उस पुण्य द्वारा की हुई हत्या के पापसे छुटकारा पाकर इस रुप में जन्म पाया।
. गुणचंद्र की पत्नी कमल श्री को भी जाती-स्मरण हो पाया। मैं पहिले जन्म में धरण की पत्नी श्रीदेवी थी। दूसरे भाव में जिनदत्ता हुई, और यह तीसरा भव कमलश्री का हुआ । लोगों ने उनके चरित्रों को सुनकर तीर्थों की महिमा परमेष्टी महामंत्र का प्रभाव मुक्त-कण्ठसे गाया। राजा शुभगांग ने अपनी पुत्री चंद्रकला और श्रीचंद्रराज को उस समय नहीं दिया गया दहेज अपूर्व ढंग से दिया । . .
_मातामह-नानाजी श्रीदीपचंद्रदेव के आग्रहसे दीप शिखा में कुमार की पधरावणी हुई। रानीप्रदीपावती जो कुमार की नानीजी लगती थीं उनने अपने दौहित्र कुमार
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( ४३३ ) श्रीच'द्रराज का भारी लाड प्यार किया । रास्ते में पिताकी
आज्ञा से कुमार ने राजा कनकदत्त की राजकन्या कुमारी रूपवती से ब्याह किया । ___ एक दिन कुमार ने अपने जीवन का सिंहावलोकन करते हुए अपने भाई जयकुमार आदि कुमारों के कैद की बात याद कर के अपने पिता से विनीतभाव से प्रार्थना की कि देव ! आप उन्हें अपराधों की माफी देकर उदारभाव से मुक्ति दीजियें । कुमार की प्रेरणा से महाराजा ने भी उन्हें छोड दिया । वे लोग पछताते हुए महाराजा ओर कुमार श्रीचन्द्र के पास गये । उनको कुमार ने योग्य पद प्रदान किया । इस प्रकार समय आनन्द से बीतने
लगा।
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.
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संसार तप और त्याग का ही पूजारी है । जिस के जीवन में तप और त्याग की जितनी मात्रा होती है, वह उतनी ही पूजा का पात्र बन जाता है । यही बात अतीत में वर्तमान में और भविष्य में ज्ञानी पुरुषों ने फरमाई है। इसीलिये उन्हीं तप और त्याग से संबंधित पुरुषों की जीवन कथायें लोग बड़े आदर के साथ गाते और सुनते हैं। . हमारे चरित नायक कुमार श्रीचंद्रराज की लीलापुर्ण जीवन कथा को मानव, दानव और देवता सर्वत्र गाया करते थे।
एक दिन की बात है। विद्याधरों के स्वामी मणिचूड और रत्नध्वज अपनी महा विद्या को साधकर मेरुपर्वत के नंदन वन से लौट कर पातालनगर में चले आये।
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( ४३५ ) उनको पाया देख रत्नवेगा आदि बहुत प्रसन्न हुई। रत्नवेगा ने उनके जाने के बाद जो जो घटनाएँ घटी,
और श्रीच'द्र आदि का जो आगमन हुआ वह सब उन्हें कह सुनाया। श्रीचंद्र का आगमन सुन कर उन को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्हें अपने कार्य की सिद्धि का पूर्ण रूप से विश्वास हो गया। वे दोनों शीघ्र ही अपना विमान तैयार कर के वहां से उड़े और कुशस्थल के बाहर जहाँ पर श्रीचन्द्र का पड़ाव पड़ा था वहाँ पर आकाश से उतरने लगे।
आकाश से उतरते हुए और रत्नों की कान्ति से अाकाश को देदीप्यमान करते हुए उन दोनों को देख कर श्रीचंद्र सभा में सहसा उठ खडा हुआ। नीचे उतर आने पर परस्पर में प्रणाम आदि की प्रथा के पूर्ण होने के बाद वे दोनों संकेत पाकर योग्य सिंहासनों पर बैठ गये । कुछ देर बाद उन्होंने अपने आगमन का प्रयोजन कुमार को कह सुनाया। कुमार ने बिना किसी आनाकानी के उनकी प्रार्थना स्वीकार करली और अपने माता पिता, मित्र, सेठ, सेठानी, अधीनस्थ राजाओं
और अपनी पत्नियों समेत विमान में बैठ कर आकाश मार्ग से पाताल नगर में पहुंचे वहां जाकर आवश्यक सामग्री तैयार करके वे उन दोनों विद्याधरों के साथ वैचा
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( ४३६ )
य पर्वत पर स्थित नगर के बाहरी प्रदेश में जा पहुँचा ।
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वह उसने मनुष्य आदिकों से परिपूर्ण भूखण्ड को देखा गुप्तचरों को इस बात का पता लगाने का आदेश दे कर वह एक सघन वृक्ष की छाया में विश्राम करने लगा ।
कुछ ही समय बाद गुप्त चरों ने आकर सूचना दी कि राजन् ! यहाँ पर धर्म घोष सूरिजी महाराज विराजमान हैं और सुग्रीव आदि सभी विद्याधर उनका उपदेश सुन रहें हैं । इतना सुनते ही कुमार उन सब के साथ श्री गुरु माहाराज के पास जाकर वन्दना करके उचित स्थान पर बैठ गया । उस समय आचार्य महाराज उपस्थित भव्यों को तप कर्मपर श्रीचंद्र कुमार की प्रसिद्ध कथा फरमा रहे थे। उस समय उसको स्वयं वहां आया देख, वे और भी विशेष रूप से तपस्या के प्रभाव को बतलाने वाली देशना देने लगे ।
न नीचे जन्म स्यात् प्रभवति न रोग व्यतिकरो, नवाप्यज्ञानत्वं विलसति न दारिद्रय-ललितं ॥ पराभूति न स्यात् किमपि न दुरापं किल यतः, । तदेवेष्ट प्राप्तौ कुरुत निज शक्त्या पि सुतपः ॥
अर्थात् - तपस्या के प्रभाव से मनुष्य का उत्तम कुल में जन्म होता है । वह सदा नीरोग रहता है। दरिद्रता
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और अज्ञान उसके पास तक नहीं फटकते । कभी कहीं पर भी उसकी पराजय नहीं होती । उसके लिये कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं होता । अतः अपने मनोरथों को पूर्ण करनेके लिये मनुष्यों को चाहिये, कि अपनी सामर्थ्यानुसार तप करें। ' तपस्या से सभी प्राणियों को सब प्रकार की सम्पत्तियां मिलती हैं । सर्वत्र उनका आदर होता है, और अन्त में वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं । देखो! श्रीचन्द्र को तपस्या के प्रभाव से कैसा अलौकिक लाभ हुआ, श्री चन्द्र के विषय में श्रोताओं के पूछने पर उन्होंने उसके चरित्र की कुछ मोटी मोटी बातों पर प्रकाश डालते हुए कहना शुरु किया । ___भरत क्षेत्र में कुशस्थल नामका एक बड़ा रमणीय नगर है । वहां पर प्रतापसिंह नामके एक प्रसिद्ध क्षत्रिय राजा राज्य करते हैं। उनकी महारानी सूर्यवती के गर्भ से श्रीचन्द्र का जन्म हुआ है । उसकी माता ने अपने सौतेले पुत्रों के भय से अपने उस नव जात शिशु श्रीचंद्रको राजकीय उद्यान में एक शुष्कपुष्पपुज के भीतर छिपा कर त्याग दिया था। कुल देवी का आदेश पाकर लक्ष्मीदत्त नाम का एक सठ उद्यान में जाकर आभूषण
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और सहा से विभूषित उस श्रीचन्द्र को अपने घर से खाया। पति-पत्नी ने मिल कर बड़ी धूमधाम से उसका अन्मोत्सव मनाया। वह लक्ष्मीवती की गोदी में शुक्स पच के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। ..
इधर महारानी सूर्यवती को नवजात पुत्र के विरह में अतीव व्याकुल देख, राज्य की कुल-देवी ने रात्रि में
आकर यह आश्वासन दिया कि भद्र ! दुःखी मत हो तुम्हारा पुत्र श्रीचन्द्र तुम्हें बारह वर्ष बाद मिल जायगा।
इस प्रकार प्रारम्भ से लेकर पितृमिलन तक उन्होंने उसका सारा चरित्र कह सुनाया। इसके बाद उन्होंने सुग्रीव को सम्बोधित करते हुए कहा, राजन् ! देखो ! यह वही श्रीचन्द्र तुम्हारे सामने विद्यमान है जिसका उज्ज्वल चरित्र मैं तुम्हारे सामने अभी कह रहा था । महाराज प्रता'सिंह, महारानी सूर्यवती, रानी चन्द्रकला और गुणचन्द्र
आदि सारा परिवार यहाँ पर मौजूद है । यह सुन कर वहां पर उपस्थित सारी जनता ने एक साथ श्री चन्द्र को 'धन्य २ कही।
बाद में कुमार श्री चन्द्र ने भी प्राचार्य महाराज से बड़ी नम्रता पूर्वक पूछा कि महाराज ! मैंने पूर्व-भव में जिनेश्वर भगवान् द्वारा बतलाया हुआ ऐसा कौन सा
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( ४३६ ) पुण्य किया था ? जिससे मुके ये सब देवताओं से भी बड़ कर सुख सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं। उसको मार्थना का उत्तर देते हुए आचार्य देव ने फरमाया। ___पुण्यात्मन् ! तुमने अपने पूर्व भव में ऐरवल नामक क्षेत्र में विधि पूर्वक प्रायम्बिल-वर्धमान तप किया था यह सारा ऐश्वर्य उसी तप के प्रभाव से तुम्हें प्राप्त हुआ है। तुम्हारे पूर्व-भव की कथा इस प्रकार है
ऐरवत क्षेत्र के बृहण नामके नगर में जयदेव नामके राजा' राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम जयादेवी था। बहुत से देवी और देवताओं को मनाने के बाद उनके नरदेव नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह शिक्षा पाने योग्य हुआ तो राजा ने शुभ महूर्त में उसी नगर के एक ख्यातनामा विद्वान् के पास विद्याभ्यास करने के लिये उसे रख दिया।
जयदेव राजा के वर्तमान नामका एक धनवान सेठ अमिन्नहृदयी मित्र था । उसके वल्लभादेवी नामकी पत्नी थी। उनके चंदन नामका एक पुत्र हुश्रा जिसे देख कर सेठ दम्पती माता-पिता ने पढ़ने लिखने योग्य हुआ समझ उसे उसी विद्वान् के पास पठनार्थ भेज दिया।
ने पढ़ने जिस देख कर
समझ उसे उसी
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( ४४० ) ...वहाँ पर राजकुमार और श्रीष्ठि-पुत्र दोनों समवयस्क
और मिलनसार होने के कारण बहुत जल्दी ही परस्पर में अत्यन्त स्नेही बन गये । शिक्षा पाते हुए क्रम से वे दोनों सारी कलाओं में कुशल होगये । परस्पर में अगाधस्नेह होने के कारण उनका एक काम, एक वचन और एक चित्त था। आखिर हृदय को हरा भरा बनाने वाला यौवन भी खेलता कूदता और मचलता उनके पास श्रा पहुँचा । वे उसके पूरे शिकार हो गये।
इधर क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री अशोकश्री के विवाह के लिये अपने नगर के उद्यान में एक विशाल स्वयंवर मण्डप तैयार करवाया । देश विदेश के राजा और राजकुमार निमंत्रण पाकर वहां एकत्रित होने लगे। राजकुमार नरदेव भी अपने प्रिय मित्र चन्दन के साथ वहाँ जा पहुंचा । स्वयंवर में आये हुए सभी राजाओं और राजकुमारों को छोड़ कर राज-कन्या ने श्रोष्ठि पुत्र-चन्दनके गले में वरमाला डाल दी। राजा प्रजापाल ने अपनी राज कन्या अशोकश्री का चन्दन के साथ और अपनी भानजी श्रीकांता का विवाह नरदेव के साथबड़ी धूमधाम से कर दिया। वहां से वे दोनों दहेज में मिली हुई सामग्री को और अपनी नवोदाओं को साथ लेकर बड़े ठाट बाट से अपने नगर को लौट आये।
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( ४४१ ) ... पूर्व--कर्मों के उदय से छह महीनों के बाद ही चन्दन को अपने आदमियों के साथ विदेश जाना पड़ा । वह पाँच व्यापारी जहाजों को लेकर रत्न-द्वीप में गया वहाँ पर उसे खूब लाभ हुआ। वहाँ से कोणपुर की ओर लौटते हुए वह और उसके जहाज तूफान के कारण संकट में पड़ गये । एक बहुत बड़ा जहाज टूटफूट गया, और बाकी के अलग २ हो कर कहीं के कहीं चले गये । दैवयोग से चंदन का जहाज शर्वरमंदिर नामके बंदरगाह पर आ लगा । वहाँ पर उस जहाज को मोतियों से भर कर वह घूमता घामता बारह वर्षों से कोणपुर के तट पर जा पहुँचा। .
इधर जहाज के टूटफूट जाने पर जो लोग लकड़ी के लट्ठों की सहायता से पहले ही बृहणपुर में आ पहुँचे थे। उन्होंने चंदन सेठ के जहाज डूबने के समाचार लोगों से कह दिये, ऐसे दर्द और शोक भरे समाचार सुनकर चंदन के पिता, उसके मित्र, और अशोक श्री आदि बहुत दुःखी हुए। उन्होंने कई कोसों तक के समुद्री किनारे को छान मारा परन्तु चंदन का कहीं पता न चला। आखिर छः सात साल के बाद लोकापवाद से अशोकश्री-चंदन की स्त्री ने विधवा-वेष
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( ४४२ )
धारण कर लिया, मगर उसके दिल में पति के मिलने का पूरा पूरा विश्वास था । समय बीतते क्या देर लगती
। इसी आशा में उसके बारह वर्ष व्यतीत हो गयें । बारह वर्ष के बाद वहां के निवासियों को अचानक ही एक दिन चंदन के लौट आने के समाचार मिले | यह सुन कर चंदन के पिता और अशोकश्री आदि की प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही न रहा । वे सब के सब उसके सम्मुख दौड़ पड़े । पिता, श्वसुर, मित्र, पत्नीं, और पुरवासियों को हर्षित करता हुआ और यथायोग्य दान देता हुआ वह उन सबके साथ अपन े नगर बृंहणपुर में बड़ी धूमधाम से प्रविष्ट हुआ ।
अशोकभी द्वारा किया हुआ धर्म रूपी कल्पवृक्ष आज फलित हो उठा । दुःख कपूर की तरह उड़ गया मानो वह कभी था ही नहीं । अशोकभी अपने पति के साथ बड़े आनन्द से फिर से रहने लगी ।
.
पिता के परलोक सिधारनें पर राज - कुमार नरदेव उस नगर का राजा बना । तब उसने अपने मित्र चंदन सेठ को नगर सेठ बनादिया ।
एक समय विहार करते करते कोई ज्ञानी गुरु उस नगर में निकले। सूचना पाते ही राजा सेठ, श्रीकांता,
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अशोकश्री और अन्य पुरवासियों के साथ उनके दर्शनाथं गया । वहाँ जाकर सब के साथ गुरुमहाराज को नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठ गया । गुरुदेव ने धर्मलाभ का अशीर्वाद देकर धर्मोपदेश देना वक किया। ... तालदिव नक्नोतं, पंकादिवपन्न समुलमिव जलवेः ।
मुक्ताफलमिक वंशाधर्मः सारं मनुष्यभवात् ॥१॥ . अर्थात् जिस प्रकार छाछ का सार मक्खन कीचड़ का सार कमल, समुद्र का सार अमृत, बाँस का सारमोती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य जन्म का सार धर्म है। अतः हे भव्यात्माओं ! हर तरह से धर्म का पालन करते रहो । यही तुम्हारी मनोकामनाओं को पूर्ण करेगा। ____ उपदेश के समाप्त होने पर राजा ने हाथ जोड़ कर
आचार्यदेव से पूछा कि भगवन् ! किस कर्म के प्रभाव से अशोकश्री को पति का वियोग और संयोम-सुधा! इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव ने कहा कि :
:: राजन् ! प्राणी अपने ही द्वारा किये गये शुभाशुभकमों के कारण सुख दुःख भोगते हैं। उनके लिये कोई दसरा कर्म नहीं बाँधता।
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'
( ४४४ )
चंदन सेठ इस भव से पहले तीसरे भव में श्र ेष्ठी
.
पुत्र था । इसका नाम मुलस था। इसके बाद दूसरे भव में यह कहीं कुलपुत्र हुआ । यह अशोक श्री उस जन्म में कुलपुत्र की पत्नी थी । इसने उस जन्म में हँसी हँसी में वियोग कराने वाला अंतराय कर्म बाँध लिया। सुलस के भवमें भी यह उसकी भद्रा नामकी पत्नी थी । उस समय भी इसको चौबीस वर्षों का वियोग सहना पड़ा | सुलस ने एक दिन के अन्तर से पाँच सौ प्रायम्बिल किये, और उसकी स्त्री भद्रा ने निरंतर दो बार पाँच पाँच सौ आय
बिल किये | उस तपस्या के प्रभाव से वे दोनों स्वर्ग को प्राप्त हुए और बाद में वहाँ से चव कर भद्रा तो राजा की पुत्री अशोक और सुल चंदन सेठ हुआ है। पूर्व जन्म के स्नेह के कारण ही इसने चंदन को अपना पति बनाया है । उसी पूर्वजन्म के कर्मबन्धन के कारण ही इन दोनों का विछोह हुआ । इसने पूर्व जन्म में रस कूप में से जिस मनुष्य को बाहर निकाला था वही तुम स्वर्ग से चक्कर इस भव में इसके मित्र बने हो ।
आचार्य देव के इतना ने कहा, "सूरीश्वर ! अगर भी हैं, तो हमें बताइयें कि अवशिष्ट कर्म किस प्रकार नष्ट होंगे ।"
कह कर रुक जाने पर चंदन हमारे वैसे कर्म आज मौजूद हमारे यह कर्म या अन्य
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( ४४५ )
आचार्य महाराज ने फरमाया । " भव्यात्मन् ! यदि तू अपने सम्पूर्ण कर्मों का नाश चाहता है तो जिनेश्वर भगवान द्वारा बताये हुए तच्चों को सुन । अपने पापों के क्षय के लिये शास्त्रो में बताई हुई विधि के अनुसार यम्बिल वर्धमान तप कर । ऐसा करने से तेरे सारे निकाचित दुष्कर्म मी नष्ट हो जायेंगे ।
गुरुदेव के कथनानुसार चंदन ने अपनी स्त्री के साथ उस तप को करना प्रारम्भ किया । उसकी देखा देखी उसके कुटुम्बियों ने, पडौसियों ने और ओर भी कई स्त्री पुरुषों ने इस तप को करना शुरू किया । दही, दूध, घृत और पकवान आदि खाने योग्य स्वाष्टि पदार्थों से भरे पूरे घर में रहते हुए भी वे दोनों उस तप में इतने तत्पर हुए कि कोई भी उन्हें उस तप से विचलित करने में समर्थ नहीं हुआ उसके मित्र नरदेव ने उनके तप की प्रशंसा की परन्तु उसने उनके दतौन बगैरह न करने पर अपने दिल में कुछ घृणा प्रकट कर नीचगोत्र का कर्म बांधा । तप समाप्त होने पर उन्होंने विस्तार पूर्वक उद्यापन आदि किये और सप्त क्षेत्रों का भी पोषण किया ।
तदनन्तर पंचत्व को प्राप्त हो कर अच्युत देवलोक में चंदनसेठ इन्द्र हुआ और अशोकश्री उसी देव लोक में सामानिक देव हुई | अच्युतेन्द्र तो वहाँ से चव कर
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( ४४६ )
कुशस्थल में तुम श्रीचन्द्र हुए और वह तुम्हारा साम्रानिक देव चव कर तुम्हारी प्रियतमा चन्द्रकला हुई । घृणा करने के कारण नरदेव भी बहुत से भव भटक कर सिंह पुर में ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ, नाम धरण रक्खा गया । उसी भव में उसने सिद्धाचल की यात्रा की उसके प्रभाव से वह इस भव में मंत्री पुत्र गुणचन्द्र के रूप में तुम्हारा अत्यंत प्रिय मित्र हुआ है । वह तुम्हारी उपमाता धा और हालिक सेवक वे दोनों पुण्य के योग से कुशस्थल में सेठ लक्ष्मीदत्त और सेठानी लक्ष्मीवती के रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने पूर्वभव के स्नेह के कारण ही अपने पुत्र की तरह तुम्हारा पालन किया । तुम्हारे साथ तप करने वाली वे सोलहों स्त्रियें, राज - कन्याएँ हुई जो तुम्हारी प्रियतमाएँ बनीं। सुलस के भव में जो वेश्या थी वह भीलराजकुमारी मोहिनी बनी । इस प्रकार आचार्य देवने श्रीचन्द्र का सारा चरित्र कह सुनाया ।
अपने चरित्र को सुनकर कुमार को जातिस्मरण हो आया । गुरु द्वारा फरमाये हुये अपने पूर्व भवों को उसने साक्षात् ज्ञान से देखा । उन चन्द्रकला आदि रानियों ने और मित्र ने भी पहले की तरह अपने पूर्व जन्मों को देखा और वे सब उस समय उन पूज्य सूरिजी महाराज की स्तुति करने लगे ।
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( ४४७ ) इसके बाद विद्याधरेन्द्र सुग्रीव की पुत्री रत्नवती ने भी अपने पूर्वजन्म की स्मृति के योग से परम प्रतापी श्रीचन्द्रको अपना पति स्वीकार किया उसी समय श्रीचन्द्र ने वहाँ गुरु देव के सामने रत्नचूड़ की हत्या प्रकट करके रत्नवेग आदि से क्षमा माँगी । सुग्रीव और मणिचूड़ दोनों को श्रापस में एक दूसरे से क्षमा मँगवा कर उनमें मैत्री करवा दी। फिर उन दोनों के साथ वह धूमधाम से मणिभूषण नगर में प्रविष्ट हुआ । वहाँ पर दक्षिण और उत्तर श्रेणि के विद्याधर राजा अपनी अपनी कन्याओं और रत्नादिकों की भेंट लाये । श्रीचन्द्र ने उनको यथायोग्य सन्मानित किया।
तदनन्तर रत्नवती रत्नचूड़ा मणिचूलिका और रत्नकांता आदि विद्याधरों की दूसरी पुत्रियों के साथ भी कुमार ने विवाह किया । उनके दहेज में उसको बहुत सी अमूल्य वस्तुएँ और आकाशगामिनी आदि विद्याएँ प्राप्त हुई । फिर सुग्रीव आदि एक सौ दश विद्याधर नरेशों ने मिल कर बड़े भारी उत्साह से बल और भाग्य में सर्व श्रेष्ठ श्रीचन्द्र को विधिपूर्वक विद्याधरों का चक्रवर्ती बनाया । बाद में उसने बड़े प्रेम और ठाटबाट से सिद्धाचल तीर्थराज की यात्रा की फिर माता-पिता, स्त्री, मित्र और विद्याधरों के साथ चक्री श्रीचन्द्र ने वैताढ्य पर बसे हुए सभी नगरों का निरीक्षण किया ।
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( ४४८ ) - इसके बाद विद्याधरों की सेना के विमानों से आकाश को चित्र विचित्र करता हा, रत्नों की कान्ति से आसमान में बिजली चमकाता हुआ, सुरीले गम्भीर बाजों की आवाज़ से मेघगर्जन का भ्रम उत्पन्न करता हा, हाथियों के मद रूपी जल से पृथ्वी को सींचता हुआ, याचकों की दरिद्रता रूप गर्मी को दूर करता हुआ श्रीचन्द्र रूपी इन्द्र क्रमशः कुशस्थल नगर में आ पहुंचा।
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सूर्य के प्रकाश ने अपनी लम्बी २ भुजाओं से अन्धकार को गर्दनियाँ दे दी हैं। कमल खिल उठे हैं । भौरे गूजते हुए प्रसन्नता को सुरीली तान छेड रहे हैं । कुशस्थल की प्रकृति में कुमार श्रीचन्द्र की पधरावणी से एक अलौकिक आलोक के दर्शन हो रहे हैं। . . . . - राज-प्रासाद सुंदर ढंग से सज रहे हैं । जगह २ तोरण बन्दनवारें लहरा रही हैं । स्थान २ पर कुकुम बिखर रहा है। नगर के मुख्य २ चौराहों पर दरवाजे बन रहे हैं । उन पर रंग बिरंगे वस्त्रों की सोना चांदी के वरतनों की, हीरे पन्न मणिरत्नों की, केले के थम्भों की
औरपांच-वर्ण के फूलों की सुन्दर सजावट हो रही है। सच्चे मोतियों की मालरियां, पुष्पमालायें, मकानों के
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( ४५० )
दरवाजों पर खिड़कियों पर लटक रही हैं। चारों ओर धूपदानों में दशांग धूप की लपटें उठ रही हैं। गुलाबजल के छिडकाव हो रहे हैं । जात २ के अतरों की मधुर महक दिल और दिमाग को तरोताजा कर रही है । बहुमूल्य जरकशी वस्त्रों के वितान बंधे हुए हैं। फर्शो पर मखमली कालीनें बिछी हुई हैं ।
उसी प्रसंग में ठोर ठोर गाना बजाना और नृत्य के ठाठ लग रहे थे । पुरनारियाँ मंगल गीत आलाप रही थीं। सुंदर बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित स्त्री पुरुष मूर्तिमान पुण्य स्वरूप कुमार श्रीचंद्र के दर्शन करने की खुशी में इधर उधर घूम रहे थे ।
इतने में तोप के धमाके होने शुरु हुए। दूर २ से इकट्ठे हुए नागरिक राजमार्ग के दोनों ओर जमा हो गये | जिनके मकान राजमार्ग के दोनों ओर थे उनकी तो खूब बन पडी । किनारे के पेड़ मकान उनके छज्जे चबूतरे कपोतालिकाऐं दर्शकों की भीड़ से भरचक भए गई थीं। उस समय का दृश्य रंग बिरंगे फूलों से भरे एक विशाल उद्यान के समान प्रतीत होता था |
शुभ घडि गई । कुमार श्रीचन्द्र बडी धूमधाम से नगर में प्रविष्ट हुए । किले पर सलामी की तोपें दगने
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( ४५१ ) लगीं । कवि, बन्दि, चारण, भाट आदि लोग उनकी यशोगाथायें गाने लगे। सवारी राजमार्ग को शनैः शनः पार करती हुई दुर्ग के सिंह-द्वार पर जा पहूँची। मार्ग में लोंगो ने फूल वर्षाये । कन्याओं ने पीले चावल उछाले राज मार्ग फूलों से पट गये। स्थान २ पर सधवास्त्रियों ने सच्चे मोतियों के स्वस्तिकों से बधा २ कर कुमार का स्वागत किया। ___दरबार में पहुंच कर कुमार ने कवियों, चारणों, विद्वानों को मनचाहा दान दिया। दरवारियों ने नागरिकोंने अपने कुमार की भेटें की । महाराज प्रतापसिंह और महारानी सूर्यवती के सौभाग्य में चार चांद लग गये।
महाराजा प्रतापसिंह रत्नजटित स्वर्णसिंहासन पर जा बिराजे । श्रीचन्द्रराज भी उन्हीं के श्रीचरणों में सिंहासनासीन हुए। उस समय विद्याधर-राजाओं से, राजाओं से
और दरबारियों से विराजित वह राज-सभा इंद्रसभा का तिरस्कार कर रही थी। ___ उसी समय कुण्डिनपुर के राजा अरिमर्दन एक बंदरिया को लेकर वहां आये । राजा के साथ बंदरी को देख सारी सभा चकित हो गई १ सजा अरिमर्दन ने बड़े विनीत भाव से कहना शुरु किया कि
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( ४५२ )
महाराजाधिराज ! पहिले मुझसे अज्ञात अवस्था में अपराध हो गया है महिरबानी करके उसकी माफी बचें ! कुमार श्रीचंद्र ने कहा- कैसा अपराध ? और कैसी माफी साफ २ कहियें ताकि पता चले ।
कुमार के ऐसा पूछने पर राजा अरिमर्दन ने हाथ जोडकर सारी घटना कह सुनाई। तब पिता की आज्ञा पाकर श्रीचंद्र ने उस बंदरीया की आंखों में काले अंजन का प्रयोग करके उसे एक रूपवती रमणी के रूप में परिणत कर दिया । सब लोग चकित हो गये ।
बंदरीपना मिट जाने से राजकुमारी सरस्वती लज्जा से अपना सिर झुका कर अपने सास-ससुर के चरणोंमैं नमस्कार कर के चंद्रकला आदि रानियों में जाकर खड़ी हो गई। रिमर्दन ने लाया हुआ दहेज महाराजकी सेवा में समर्पित किया । साथ ही हंसावली के साथ धोखा करनेवाले अपने कुमार चंद्रसेन की तरफ से भी पूर्णतया क्षमा चाही । महाराज ने उसे अपनी फौज में सन्माननीय पद पर स्थापित किया ।
भील्लराज मल्ल की कन्या मोहिनी पितृदत - दहेज सामग्री के साथ अपने भील धुत्रों को लेकर वहां आई । कुमार ने उसे भी रहने को एक सुदर महल दे दिया ।
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( ४५३ )
इस प्रकार सभी स्नेही-साथी - सखा और सेवक वहां आये, और अपना २ परिचय देकर महाराज द्वारा समानित सत्कारित हुए । सारे कुशस्थल में प्रसन्नता का
वातावरण छागया ।
दी
कुमार श्रीचंद्रराज ने अपने भुजबल भाग्य बल और बुद्धिबल से सहज में ही समुद्र पर्यंत तीन खण्ड पृथ्वीका साम्राज्य संप्राप्त किया । सोलह हजार देशों के स्वामियोंने अधीनता स्वीकार की । रथ हाथी घोडे और सैनिकों की अपरिमित संख्या से अर्धचक्री के जैसे प्रभुतासम्पन्न श्रीचंद्रराज को सर्वत्र जयजयकार होने लगी ।
महाराजा प्रतापसिंह ने मौका देखकर शुभ दिन के, शुभ मुहूर्त में शास्त्रोक्त विधि से कुमार का अपूर्व और अवर्णनीय ढंग से महामहोत्सव पूर्वक राज्याभिषेक किया। सभी बड़े २ राजा महाराजा विद्याधर सामन्त मंत्री सेठ सेनापति आदि उस समय उपस्थित थे | कुमार श्रीचन्द्र एक छत्रधारी राजराजेश्वर की उपाधि से विभूषित ए । चन्द्रकला को प्रधान - राजमहिषी का पद प्राप्त या । कनकावली - पद्मश्री - मदनसु दरी - प्रियंगु मंजरीरत्नचूला - रत्नवती - मणिचूला--तारलोचना -- गुणावली--चन्द्र मुखी - चन्द्रलेखा - तिलकमंजरी - कनकावती - कनकसेना सुलोचना और सरस्वती ये सोलह पट्टरानियां बनाई गई ।
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(४५४ ) चन्द्रावली-रत्नकान्ता और धनवती आदि रूप लावण्यवत्ती एकसो सोलह रानियाँ हुई । चतुरा कोविदा आदि हजारों भोग-पत्नियाँ बनी।
प्राचीन पुण्यों और भोग-कर्मों की महिमा से एवं अनेक-रूपकारिणी महाविद्या से उतने ही रूफ बना कर श्रीचन्द्रराज उनके साथ प्रानन्द पूर्वक समय बीताने लगे। सुग्रोव-विद्याधरेन्द्र को उत्तर-श्रीणि का एवं रत्नध्वज
और मणिचूड-विद्याधर को दक्षिण-श्रोणि का साम्राज्य प्रदान किया। अपने जय आदि चारों भाईयों को उनके मनपसंद देशों का स्वामित्व प्रदान किया।
सर्वत्र धर्म और सुख-शान्ति का सौराज्य हो गया। उनके गुणचन्द्र बुध्दिसागर लक्ष्मण प्रादि सोले हजार महामात्य और अमात्य हुए । उनकी सेना में बयालीस हजार हाथी दश क्रोड घोड़े अडतालीस क्रोड पदातियों की बड़ी तगड़ी संख्या थी। महासेनाधिपति का पद धनंजय को दिया गया। . .
राजराजेश्वर श्रीचन्द्र की राजसभा-वीणारव जैसे गायकों से हरि-तारक-मंगद आदि भट्टों से सुबुद्धि जैसे विद्वानों से विराजमान थी। सर्वत्र शांति का साम्राज्य छागया। सारी पृथ्वी को अनृणी बना दी। तब सभी ज्योतिषियों ने संसार में चन्द्र संवत्सर की स्थापना की ।
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५)
महाराजाधिराज श्रीचन्द्र ने हजारों जिन-मंदिर लाखों धर्मशालायें कुवे- तलाव - बावडिया दानशालायें बाग बगीचे आदिकों का निर्माण कराया। हमेशा श्रीजिनेश्वर भगवान की पूजा, आवश्यकादि नित्य-कृत्य, गुरु-भक्ति, : सत्संग, दानशील तप और भाव रूप चतुर्विध धर्म की आराधना में अपनी शक्ति का सदुपयोग किया । सिद्धाचल गिरनार सम्मेतशिखर आबु अष्टापद आदि तीर्थोंकी संघ यात्रायें कर के जन्म को सफल बनाया।
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साधर्मियों में तन-मन-धन से वात्सल्य दिखाते हुए धर्म भावना बढाई। कुव्यापारों का निषेध किया । कोई किसी को न सता सके ऐसा अभय-अमारी का ढिंढोरा पिटवा दिया।
इस प्रकार धर्म अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थो को साधते हुए महारानी चन्द्रकला की कूल से उन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। महाराजा प्रतापसिंह ने पौत्रदर्शन का आनंद लाभ पाया । उसका नाम पूर्णचन्द्र रखा। दूसरी रानियों के गर्भ से भी पुत्र पुत्रियाँ पैदा हुए। इस प्रकार अनेक सुयोग्य पुत्रों से राजाधिराज श्रीचन्द्र अतीव शोभा पाये ।
कुमार एकांगवरवीर भी युवावस्था को पाया । महाराजा महामल्ल की महारानी शशिकला से पैदा हुई
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( ४५६ )
प्रेमकलादेवी के साथ महाराजा प्रतापसिंह ने उसका विवाह बड़ी धूमधाम से किया । इस प्रकार संपन्न परिवार के साथ महाराजा सुखपूर्वक विराजमान थे ।
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एक दिन वनपालक ने बधाई दी कि आज महाज्ञानी श्रीसुव्रत आचार्य महाराज पधारे हैं। महाराजा अपने पुत्र पौत्रों और अन्तःपुर की रानियों के साथ गुरुवंदना के लिये पधारे -
गुरुमहाराज श्री सुव्रत आचार्य ने धर्मलाभ के साथ सुधा - मधुर वाणी में वीतराग धर्म का विशिष्ट स्वरूप धर्म देशना में फरमाया । महात्रत रूप सर्वविरति साधु धर्म और अणुव्रत रूप देशविरति गृहस्थ धर्म की सुन्दर व्याख्या की । श्रीसुत्रतमहाराज की देशना से प्रभावित हो महाराज प्रतापसिंह महारानी— सूर्यवती नगरसेठ लक्ष्मीदत्त सेठानी लक्ष्मीवती मंत्री मतिराज आदि प्रबुद्ध हुए । परिवार की आज्ञा से संवत्सर - दान देते हुए शासन प्रभावना करते हुए बडे ठाठ से उन सब ने दीक्षा ली । कइयोंने सम्यक्त्व ग्रहण किया ।
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अपनी २ शक्ति के अनुसार सब ने कुछ न कुछ व्रत ग्रहण किया । श्रीचन्द्र ने अपनी रानियों के साथ गृहस्थधर्म स्वीकार किया । श्रीसुव्रताचार्य महाराज को एवं
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त साधु-साध्वियों को वंदन कर के श्रीचन्द्रराज आदि अपने २ घरों को लौट आये । श्रीसुव्रताचार्य महाराज भी अपने परिवार के साथ अन्यत्र विहार कर गये। ___ राजाधिराज श्रीचन्द्र का राज्य मानों धर्म का साम्राज्य था । सब को अपने २ धर्मपालन में स्वतंत्रता थी। सब के प्रति उनका समान प्रेम था। शासन की प्रभावना, अभिवृद्धि और धर्म के साथ प्रशस्त कर्मों का प्रचार उनका जीवनोद श्य था।
. . . राजर्षि-प्रताप, महर्षि-लक्ष्मीदन, महत्तरा-सूर्यवती, साध्वी लक्ष्मीवती आदि सब उत्कृष्ट चारित्र पालन कर के अन्तिम अनशन से स्वर्गवासी हो एकावतारी हुए । उनके देहोत्सर्ग-स्थान पर बडे २ स्तूपों की रचना की गई। पूजा का प्रबंध किया गया। राजा और रानियों ने बड़ी २ रथ यात्रायें निकलवाई । उनके सोलह सौ पुत्र-पुत्रियाँ हुई । सतरह पुत्र बडे प्रसिद्ध हुए।
बारह वर्ष तक कुमार पद में समस्त कलाओं में कुशल हुए । सौ वर्ष तक एकछत्र साम्राज्य का भोग किया । सारी प्रजा को सुखी किया । पारसमणि और सुवर्ण पुरुष के योग से उनने स्थान २ पर दानशालायें
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( ४५८ ) सडकें खुलवाई और भई बनवाई। सडकों के दोनों ओर नये पेड़ लगवाये । जैन धर्म के विश्वव्यापी सिद्धान्तों का प्रचार-कीर्तिस्तंभों पर बडी २. लाटों पर गुफाओं की मित्तियों पर, अंकित कर करके-किया। शास्त्र लिखवाकर साधु संतों को विद्वानों को भेंट किये ।
प्राधक्ये मुनिवृत्तीना-के सिद्धान्त को स्मरण रखनेवाले महाराजाधिराज श्रीचन्द्र ने अपने छोटे भाई एकांगवावीर को श्रीपर्वत के चन्द्रपुर की ज्येष्ठ पुत्र पूर्णचन्द्र को कुशस्थल पुरका राज्य सौंप दिया। दूसरे भी कनकसेन आदि राजकुमारों को अलग २ देशों के
राज्य बांट दिये। सब को प्रसन्न कर दिया। स्वयं नव 'प्रकार के परिग्रह की मृच्छा से मुक्त होने लगे।
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जड़ और चेतन ये दोनों अनादि तत्त्व है। इन दोनोंके मिश्रण का नाम ही संसार है। संसार में चार गतियां हैं। नरक-गति और तिर्य च-गति पाप से प्राप्त होने वाली दुर्गति कही जाती हैं, तो मनुष्य गति और देव गति पुण्य से प्राप्त होती हैं। मनुष्य गति में सम्यगदशन समगज्ञान और सम्यक चारित्र की साधना से जड़ और चेतन में मेद पैदा हो जाता है। कर्मों के अभाव में चेतन सच्चिदानन्द रूप होकर आत्यन्तिक और एकान्तिक मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। .. प्राचार्य श्री धर्मघोष उसी एकान्तिक और आत्यन्तिक मोक्ष के लक्ष्य को अपनाते हुए जनता में उसका प्रचार भी करते हैं। अपने साधु-परिवार के साथ एक दिन कुशस्थल के बाहरी उद्यान में उनका समवसरण हुआ।
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( ४६० )
वनपालक ने राजाधिराज श्रीचन्द्र को आचार्य श्री के आगमन से अवगत किया । सत्संग- प्रेमी महाराजा ने अपने जन परिवार के साथ आचार्यश्री के दर्शन वंदन एवं सिद्धान्त श्रवण का लाभ लिया ।
आचार्यश्री ने आत्म- गुणों का वर्णन करते हुए ज्ञान- दर्शन - चारित्र तप और शक्ति-प्रयोग का विधान किया । भोग में फंसकर जीव जीव के पास अधिक पहुंचता है, और त्याग की साधना से जीव अपने रूपको पाता हुआ परमात्मा बन जाता है। इस निरूपण को आत्मसात् करते हुए महाराजाधिराज राजराजेश्वर श्रीचन्द्र ने त्याग धर्म को अपनाने की भावना व्यक्त की। उस समय चन्द्रकला आदि रानियाँ, गुणचन्द्र आदि मन्त्रि लोग, आठ हजार नागरिक, अनेकों सेठ साहुकार, और चार हजार सन्नारियाँ भी उसी त्याग मार्ग को अंगीकार करने के लिये तैयार हुए ।
बड़े ठाठ से भागवती दीक्षा का महासमारोह सम्पन्न आ । गृहस्थी के त्याग से अनगार-धर्म को स्वीकारते हुए सबने सर्वविरति चारित्र रूप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और ममत्व - इन पांच महाव्रतों को स्वीकार किया। गुरु कृपा, कठोर साधना, और निरन्तर अभ्यास
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( ४६१ ) के परिणाम से द्वादशांगी के वेत्ता होकर श्रीचन्द्र राजऋषि आठ वर्ष तक छमस्थ भाव में विचरते हुए, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घनघाती कर्मों को खपा कर निर्मल अनन्त केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त हुए। लोकालोक के त्रैकालिक भावों को संपूर्ण रूपसे जानने देखने लगे। - उनके केवल ज्ञान का उत्सव राजाओं ने सुरासुरोंने बड़ी धूमधाम से मनाया राजर्षि श्रीचन्द्र केवली होकर गामानुगाम विचरते हुए लोगों को धर्म-मार्ग के अनुयायी बनाये । नव्वे हजार करीब नर-नारियों को दीक्षा देकर महाव्रतधारी साधु साध्वी बनाये । सम्यक्त्व अणुव्रत आदि नियमों को दिलाकर उनने गृहस्थों को अणुव्रतीश्रावक संघ में सम्मिलित किया । गुणचन्द्र आदि साधुओं को एवं चन्द्रकला कमलश्री आदि साधियों को भी केवल ज्ञान हुआ।
इस प्रकार पैंतीस वर्षों तक भव्यात्माओं को बोध देते हुए श्रीचन्द्र केवली एकसौ पचपन वर्षे को भोगकर अक्षय-मोक्षपद को प्राप्त हुए । इसी बात को शास्त्रकारों ने इस प्रकार कही है_ साहिय वास सयं जो, तिखंड-निव-सय-सेवियग्यकमलो।
एगच्छत्तं रज्जं, पालइ इन्दुव्व सिरिचंदो।
णोयु
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( ४६२ )
कम्मठु-गठि श्रद्ध-अहिं वरिसेहिं सच्छ जोगेणं । संखवियं जेण मुणीसो - सिरिचन्दो तित्थयरपासतित्थे, पण पन्नस्याउ सिद्धि पत्तो जो तं, सिरिसिरिचंदं
V
केवली जयउ ॥ पालिता ।
च
णमह खिच्चं ॥
आयंबिल वद्धमाणं महातवं वद्धमाणं- सुभावेण । सययं कुएंतु भव्वा ! लहंतु लहुयं सिवंसोक्खं ॥
अर्थात्–तीन खण्ड के सैकडों राजाओं से सेवित चरण श्रीचन्द्रराज ने कुछ अधिक सो वर्ष तक एक छत्र साम्राज्य का स्वामित्व किया। दीक्षा लेकर स्वच्छ योगों
आठ वर्ष में आठ कर्मों के आधे चार घनद्याती कर्मोंका अन्त करके जिनने केवल ज्ञान पाया, एसे मुनीश्वसे श्रीचन्द्र केवली की जय हो। इस प्रकार एक सो पचपन वर्ष की पूर्णायु को पालकर तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी के तीर्थ में सिद्धि को पाये उन श्रीचन्द्र महाराज को हमेशा प्रणाम करो । हे भव्यात्माओं ! बढते हुए भावों से श्रीचन्द्रराज के जैसे आयंबिल वर्द्धमान तपको करो और जल्दी से शिव-सुख को प्राप्त करो ।
श्री चन्द्र, केवली के परिवार में जो साधु साध्वी हुए उनमें से कई मोक्ष गामी, कई अनुत्तर विमानवासी देवता, और कई एकावतारी हुए। जो भवान्तर में मोक्ष जावेंगे ।
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( ४६३ ) गणधर श्रीगौतम स्वामीजी गणतंत्र के अध्यक्ष महाराजा चेटक प्रमुख श्रोताओं को लक्ष्य कर फरमाते
' सेणिय-निवस्स भणिय, रायगिहे भगवया परम-गुरुणा ।
यह सिरिचंदचरित्त', तह कहियं रायवर ! तुझ ।।
. अर्थात्-राजगृह नगरमें परम गुरु भगवान श्री महावीरस्वामी ने राजा श्रेणिक को श्रीचन्द्र चरित्र फरमाया बैसे ही हेमहाराज चेटक ! आपको मैंने कथा रूप से कह सुनाया है।
गणधर श्रीगौतमस्वामी के श्रीमुख से श्रीचन्द्र के चारू चरित्र को सुनकर राजा चेटक बड़े प्रभावित हुए और तपोधर्म की साधना के लिये दृढ-संकल्प किया ।
महाज्ञानी श्रीसिद्धर्षि महाराज आदि पूर्वाचार्य प्रणीत प्राकृत संस्कृत भाषा. निबद्ध श्रीचन्द्र चरित्र के आधार से
आचाम्ल वर्द्धमान तप की महिमा को बताने वाला श्रीचन्द्र केवली चरित्र श्री परमगुरु की परमदया से हिन्दी में लिखने का प्रयास किया है । इसमें कुछ कमी की गई हो अथ च प्रसंगवश कहीं अधिकता आगई हो तो
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( ४६४ )
मिच्छा मि दुक्कडं सुखसागर भगवान जिन-हरिपूज्येश्वर आप। परम-गुरु मेरा हरें, पाप-ताप मां-बाप !॥ श्री कवीन्द्र गुरु योग तें-बीकानेर मुठाम । इस सिरिचन्द चरित्र को-पूरा किया तमाम ।। पुण्य विवेक दयामयी-पूज्य दयागुरु पास । इन्द्रिय निधि निधि चन्द्रमित-वर्ष दीवाली खास ॥
बुद्धिश्री ने यह लिखा-है यह प्रथम प्रयास । . तपकर्ता तप साधकर-पावें आत्म प्रकाश ॥
ॐ तत्सत्-गुरूभ्यो नमः
विक्रम संवत् १९६५ को दीपावली के दिन बीकानेर में ____ पूज्य श्री दयाश्रीजी महाराज की अन्तेवासिनी ... साध्वी बुध्दिश्री ने श्रीचन्द्र चरित्र को
हिन्दी भाषा में लिखकर
पूर्ण किया ।
इति शुभम्
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॥अह नमः ॥ वन्दे वीरं जिनहरि-गुरु सर्वलोक प्रधानम् । * वर्द्धमान तप विधि *
शुद्धदेव, शुद्धगुरु और शुद्ध धर्म की श्रद्धा रखते हुए आत्मस्वरूप की साधना में लीन भव्यात्मा आसोज के महीने में सुद पक्ष से इस तप की शरुआत करे। प्रारंभ में कम से कम पांच ओली तो करनी ही चाहिये। एक आंबिल एक उपवास दो आंबिल एक उपवास ऐसे पांच आंबिल एक उपवास करने पर पांच ओलियां होती हैं। आगे छह आंबिल एक उपवास. यावत् सौ आंबिल एक उपवास करने पर यह वद्ध मान तप होता है। निरंतर करने पर चौदह वर्ष तीन महीने और वीस दिन लगते
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( ४६६ )
हैं। इसमें
नमो अरिहंताणं - इस पद की वीस मालायें जपनी चाहियें। अरिहंत के बारह गुणों को याद कर के बारह नमस्कार करने चाहियें । बारह साथिये करने चाहियें । फेरी फिरते समय ये दुहे बोलने चाहिये
इच्छारोधन रूप तप - श्रातम गुण अवधार । द्रव्य भाव से कीजियें - तप हैं तारण हार | परमेष्ठी पद पांच हैं— आदि नमो अरिहंत | सांचे मन से समरते — होवे भव भय अन्त ॥
अरिहंत १२ नमस्कार
१. अशोकवृक्ष प्रातिहार्य संयुताय श्री' अर्हते नमः । २. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य संयुताय श्री श्रर्हते नमः । ३. दिव्यध्वनि प्रातिहार्य संयुताय श्री श्रर्हते नमः ४. चामरयुग प्रातिहार्य संयुताय श्री श्रईते नमः । ५. स्वर्ण सिंहासन प्रातिहार्य संयुताय श्री श्रर्हते
नमः ।
महते
नमः ।
ऋहते
६. भामण्डल प्रातिहार्य संयुताय श्री ७. दुदुभि प्रातिहार्य संयुताय श्री ८. छत्रत्रय प्रातिहार्य संयुताय श्री श्रर्हते ६. पायापगमातिशयसंयुताय श्री श्रर्हते १०. ज्ञानातिशय संयुताय श्री बहते नमः । ११. वचनातिशय संयुताय श्री श्रहते नमः । १२. पूजातिशय संयुताय श्री अर्हते नमः ।
नमः ।
नमः ।
नमः ।
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.
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( ४६७ ) हमेशा तप के दिन दुपहरी में एक वार देव-वन्दन करें । देव वन्दन में वर्धमान तप के चैत्य-वन्दन स्तुति और स्तवनों का उपयोग करे* पर्द्धमान तक चैत्यकन्दन *
. (१) (द्रुत विलम्बित छन्दः) करम के बल को झटं तोड़के,
सहज में तप साधन से यहां । परम सच्चित आतम रूप हो, .... ____ जगत में जिन वीर जयी हुए। विशद भाव भरा भगवान ने,
सुखदः शासन सर्व हितार्थ ही
"
. कह दिया, जिसने सन पा लिया.
जगत में जन धन्य वहीं हुआ। विनय पूर्वक भाव विशेष से,
वरवमान करें तप साधना । .. सुखसमुद्र बनें भगवान वे, ....
हरि कवीन्द्र' नमोऽस्तु उन्हें सदा।३।
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( ४६८ )
(२) (वसंत तिलका छन्दः) आनन्द-धाम विभुवीर-जिनेश देव,
देवाधिदेव उपदेश विशेष--दाता । ज्ञाता समस्त जग के उपकारकारी,
वन्द् सदा विनय से भव भीतिहारी ॥१॥ श्रीवर्धमान-तप-धर्म निरूपणा से,
श्रीवर्धमान गुणवान सुभव्य होते । आयंबिलादि उपवास परंपरा से,
संख्या बढे शतक की सिरिचन्द जैसे ॥२॥ इच्छा निरोध तपका करना बताया,...
श्रीवीर ने बहिर अतर भाव भेदे । - हो निर्जरा सुतप से भव बन्ध टूटें,
श्रीवीर की हरि-कवीन्द्र सुकीर्ति गावें ॥३॥
... (३) ..
( हरिगीतिका छन्दः) श्रीवर्धमान महान ज्ञानी चरम तीरथनाथ ने,
श्री वर्दमान महान तप फरमा दिया जमनाथ ने ।
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। ४६६ ) आंबिल तथा उपवास से बढते हुए तप साधना,
जन जो करें संसार में उनकी सफल आराधना ॥१॥ आराधना आराधकों को मोक्ष पदका दान दे,
शुम ज्ञान दे विज्ञान दे निज आत्म-शुद्धि विधान दे । पुण्य प्रधान महान तारणहार तीर्थ कर कहा, __शासन सुवासित आतमा हो कर्म को काटू अहा! ॥२॥ कर्म कटने को ही कहते निर्जरा हैं ज्ञानिजन,
निर्जरा के साथ संवर से मिटे सारा विघन । विध्न लय से आतमा परमात्म पदवी को वरें,
परमातमा की पुण्य कीर्ति हरिकवीन्द्र सदा करें ॥३॥
____(४)
(दोहा-छन्दः) समवसरण सिंहासने, बैठा श्रीभगवान । परिषद बारह बीच में, वन्दू विनय विधान ॥१॥ चारों मुख से चहुँदिशे, निज निज भाषा भाव । उपदेशे समझ सह-धन धन प्रभु प्रभाव ॥२॥
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( ४७० )
भावना - भेद धरम के चार ।
दान - शील - तप नर-नारी आराध कर तिर जावें संसार ॥३॥ वर्द्धमान संख्या करे बिल तप जो सार | मिटे दुःख दुर्भाग्य सब बढे पुण्य संभार ||४|| श्री पारस प्रभु शासने - ज्यों सिरिचन्द कुमार | आत्मसिद्धि पाई नमो - 'हरि कवीन्द्र' तपधार ॥५॥ ( ५ )
( दोहा - छन्दः )
वर्तमान- शासन - घणो वद्धमान भगवान । वर्धमान तप उपदिशं वद्धमान गुणखान ॥१॥ तीर्थंकर तारक प्रभु-भवजल तारणहार | : वर्द्धमान तप साधना-समझावें सुखकार ॥२॥ इक विल उपवास इक-दो बिल उपवास । तीन बिल उपवास यों - सौबिल उपवास ॥३॥ करें भविक जो भाव से, ज्यों श्रीचन्द्रकुमार । - इह पर भव सुख पा लहें सर्व सिद्धि अधिकार | ४ | सुख सागर भगवान जिन हरिपूज्येश्वर वीर । कवीन्द्र श्रतम रूप से गाउं - जय महाबीर ॥५॥
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( ४७१ )
★ कमान तप स्तुतियाँ ★
॥ स्तुति १ ॥
आतम ज्ञानी का मिटता है मिथ्यात्व, मिथ्यात्व मिटे से प्रकटे जीवन तच । विकसित जीवन ही होवें अरिहंत देव, कर वरघमान तप साधन साधू से |१| व्रत मिटने से प्रकटे सुव्रत भाव, सुव्रत जीवन में प्रकटे पुण्य प्रभाव | पुण्यातम प्राणी वरघमान तप धार, सिद्धि गति पावें गाउँ जय जय कार |२| भव भाव टिकाउ कप, कपाय हैं चार, जो क्रोध मान अरु माया लोभ विचार | कर वरमान तप तज दो दूर कषाय, आगम विधि सुन लो बोध बुद्धि गुणदाव | ३ | मन वच काया व्यापार योग विरोध, कर श्री जिन शासन में निज आतम शोध । यातें सुख सागर पद में हो भगवान्, सुर गण नायक हरि गुरु कवि करें बखान | ४ | ॥ स्तुति २ ॥
हैं दान शील तप भाव धरम के भेद, राधें उनका मिट जाता है खेद ।
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. ( ४७२ ) धर्मीजन जीवन सुखसागर भगवान, श्री वर्धमान जिन वन्दू विनय विधान ।। श्री वर्धमान प्रभु तीर्थंकर जिनवीर, थे दीर्घ तपस्वी परमातम पद धीर । जिनने जीवन से दिया जगत को ज्ञान, ज्ञानी सिद्धों को नमूसहित बहुमान ।२। तप की है महिमा भारी भाव प्रधान, श्री वर्धमान तप करो भत्रिक गुणवान । सिरिचंद नरेश्वर जैसे केवल ज्ञान, पाओगे पावन पागम विधि विधान ।३।
दश चार वरष में मास तीन दिन वीस, : आंबिल उपवासे बढते विसवा वीस ।
जो करें निरन्तर तप भाविक नर नार, सुर गणनायक हरि गुरु कवि करें जयकार ।४।
॥ स्तुति ३ ॥ संकट कट जावें, पावें संपति योग,
श्रीचंद्रनरेश्वर जैसे शिव सुख भोग । जो वर्धमान तप करें कसवें भाव,
-धन वर्द्धमान प्रभु भा पुण्य प्रभाव ॥१॥
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(४७३ ) तप ज्योति जानो, तप मंगल गुण धाम,
आतम गुण तप है, तप उत्तम परिणाम। हो कर्म निर्जरा इच्छा रोधन रूप,
तप से ही होते, सिद्ध नमो निज रूप ॥२॥ चौदह वर्षों में तीन मास दिन वीस,
हो वरधमान तप करें भविक सुजगीश । सुब्रत विधि साधन प्रवचन सारोद्धार,
समझा जगमें जिन आगम जयकार ॥३॥ सुखसागर जगमें वर्धमान भगवान ,
शासन में करते सविवेकी गुणवान । जो वरधमान तप गाते कीरति सार,
सुर गण नायक हरि कवीन्द्र वारंवार ॥४॥
॥ स्तुति ४ ॥
सविवेक दयामय बोध बुद्धि दातार,
श्रीवर्धमान जिन विजयी जगदाधार । शासनपति भाषे वर्धमान तप सार ।
तपसी हो कर के वन्द वारंवार ॥२॥ आतम परमातम हो जाता है आप,
वप आराधन से मिटे करम संताप ।
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( ४७४ ) श्रीवर्धमान तप जो करते नर नार,
ज्योतिर्मय होते नमो सिद्ध अविकार ॥२॥ बढते भावों से वरधमान तप जोग,
आराधे उनका हो भव-भाव-वियोग । आंबिल उपवासे सौ तक संख्या धार,
फरमावे जय जय प्रवचन--सारोद्धार ॥३॥ श्रीजिन हरि पूज्येश्वर शासन परधान, .
तप वर्द्धमान नर नारी करें सुजान । नित कवीन्द्र कीर्तित चन्द्र नरेश समान, ____ सुख भरते शासन देवी-देव महान ॥४॥
॥स्तुति ५ ॥ शासने पार्श्वनाथस्य-जातः श्रीचन्द्र-केवली । ___वर्धमान-तपोवेधा-वर्धमानसुखाय नः॥१॥ एकादि-शतपर्यन्तै–राचाम्लैवर्धमानकं । - उपवासान्तरं कृत्वा-तपः सिद्धान्त तान्भजे ॥२। तप-प्रात्मगुणः प्रोक्तो-निर्जरापरनामकः ।
कुर्वतां कर्मसंक्लेशा-पगमःप्रभवेच्छिवम् ॥३॥ जिनचन्द्र-जिनाधीश-वर्धमानस्यशासनम् ।
श्रितानां श्रीकृते नित्यं-भूयाच्छासनदेवता ॥४॥
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( ४७५ )
श्री वर्द्धमान-तप-स्तवन
॥ स्तवन १ ॥
( तर्ज-- सुणो चन्दाजी सीमंधर ) अरिहंत नमो वर्धमान तप करके भविजन भाव से । भवमें न भमो वर्द्धमान तप करके भविजन भाव से ||टेर श्रतम - गुण तप उज्ज्वल करियें, निज कर्म - मैल सत्र परिहरियें । अरिहंत नमो वर्द्धमान ॥१॥
इच्छारोधन तप आदरियें
इक इक बढते बिल करियें, उपवासान्तर कर सौ भरियें ।
कर वर्द्धमान तप जय वरियें अरिहंत नमो वर्द्धमान ॥२॥
पारस प्रभु शासन अधिकारी, श्रीचन्द्र नरेश्वर अवतारी ।
गये शिवपुर तप कर बलिहारी अरिहंत नमो वर्द्धमान ॥३॥ कर्मोदय -- भय कट जाते हैं,
जय विजय निकट में आते हैं ।
सुख सभी प्रकट हो जाते हैं अरिहंत नमो वर्द्धमान ॥४॥ जब भाव कुसुम कलियां खिलती, अ ंतरतम हृतन्त्री हिलती ।
तप से तब सुख सुषमा मिलती- अरिहंत नमो वद्ध' मान ॥५॥
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( ४७६ )
सुखसागर की सीमा तप हैं, तप जीवन में प्रभु का जप है ।
बिन उसके सब जग गपशप है- अरिहंत नमो वद्धमान ॥ ६
भगवान वीर के शासन में
,
धारो तप हो दृढ आसन में ।
हो हरिकवीन्द्र परकाशन में अरिहंत नमो वद्ध मान ||७||
॥ स्तवन २ ॥
( तर्ज- अवधू सो जोगी गुरु मेरा आशावरी )
वन्दों वीर प्रभु अविकारी, शासन जय जयकारी । वन्दों टेर।
समकित धारी श्रोणिक राजा - श्रादिक सब नरनारी । समवसरण में प्रमुख सुनते तप गुण मंगल कारी ॥ वन्दों वीर प्रभु अविकारी |१|
वर्धमान तप ओली साधक - होवें कपट अशठ तथा वन्दों वीर
जो अविकारी - हो जावें
प्रभु जयकारी |२| स्वामी - नामी
नगर कुशस्थलपुर के तप कर त्रिभुवन ताजा होकर सारे
अधिकारी । भवपारी ॥
श्रीचन्दराजा ।
भातम काजा ॥
वन्दों वीर प्रभु जयकारी | ३ |
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( ४७७ ) हो जाती विपती संपतियां, दुःख भी हों सुख-सारे । तप ज्योति जीवन में होती, भटके न भव-अधियारे ।
___ वन्दों वीर प्रभु जयकारी ।४। सुखसागर भगवान महोदय शासन सुखद बताया । हरि कवीन्द्र यश गाते हर दम पार परन्तु न पाया ॥
वन्दों वीर प्रभु जयकारी ।।
बर्द्धमान तप-वृहत्स्तवन
(दूहा )
ओं अहं के ध्यान-से-वर्धमान हो भाव । वर्धमान तप भाव से-फैले पुण्य प्रभाव ॥ वर्तमान शासन पति-वर्धमान भगवान । फरमावे जगजीव को-मोक्ष हेतु परधान ॥ . अष्ट करम-दल बल टले-अष्ट परम गुण हेत । अष्टम अंग विशेष में-वर्धमान संकेत । तप ज्योति संसार में, जीव सुज्योति स्थान । तप ज्योति को प्रकट कर, पावो पद कल्यान ॥ श्रेणिक महाराजा प्रति-वर्धमान भगवान । फरमावें तप कीजियें-ज्यों सिरिचन्द महान ॥
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( ४७८ )
ढाल--१ (तर्ज-जिया बेकरार है नैया मझधार है ) तप से बेडा पार है तप ही तारणहार है। सुनलो भवि प्राणी तप-जगमें जय जयकार है।
हो गणधारी श्री गौतम स्वामी शासन पति अनुगामी हो शासन पति अनुगामी हो वैशाली के समवसरण में उपदेशे अभिरामी हो
तप से बेड़ा पार है ।।
हो परम उपासक चेटक राजा गण शासक गुणखाणी हो गण शासक गुणखानी हो।
परम गुरु पद वन्दन करके, सुने सुधामय वाणी हो सुने सुधामय वाणी हो ।तपा
हो करम काठ को मेदनहारा, तप ही तेज कुठारा हो तप ही तेज कुठारा हो ।
क्षमा सहित जन जो कर पायें, " तप मंगल श्रीकारा हो तप मंगल श्रीकारा हो ।तपा
सब तप में आंबिल तप जानो, विधन धनायन टारे हो विघन घनाघन टारे हो।
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( ४७६ )
वर्द्धमान भावों से करते, श्रीचन्द समसुखकारे हो श्रीचन्द समसुखकारे हो | तप । हो एक से लेकर सौ तक चढते,
उपवासान्तर करना हो उपवासान्तर करना हो । वर्द्धमान तप पूरण होते,
सहजे शिव सुख वरना हो सहेजे शिव सुख बरना हो । होम का गुण तप है पावन
जीवन उज्ज्वल कारी हो जीवन उज्ज्वल कारी हो । सुविहित सद्गुरु गम विधि पाकर
राध अधिकारी हो आरोधो अधिकारी हो । तप । हो चेटक राजा सविनय पूछे,
कौन हुआ सिरिचन्दा हो कौन हुआ सिरिचन्दा हो । फरमावें श्री गौतम स्वामी
सुनो चरित सुखकंदा हो सुनो चरित सुख कंदा हो । तप ।
ढाल- -२
( तर्ज - गज़ल - भिखारी बनके आयाहूँ )
वही जन धन्य हैं जगमें तपस्या भाव करते हैं । क्षमा का भाव धरते हैं - नहीं जो क्रोध करते हैं |टेर | कुशस्थलपुर नगर स्वामी - प्रतापीसिंह राजा थे ।
सती सूरजवती रानी - कँवर श्रीचंद ताजा थे । वही |
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। ४८० ) करम से भाई हो शत्रु-करम से शत्रु हो भाई। ___कवर श्रीचंद के भी तो-करम से शत्रु थे भाई ।वही। विकट संकट निकट में हो, प्रकट हो किन्तु पुण्याई ।
नही फिर दुःख होता है, समझलो सार हे भाई वही। जनमते राजघर छूटा-परंतु दुःख ना पाये।
तपस्याजोर से कीथी-सदा वे सुख ही सुख पाये ।वही। वणिक घर में बढे थे पर-हे रजपूत तेजस्वी।
कँवर श्रीचन्द्र थे जगमें-यशस्वी खूब औजस्वी ।वही। तपस्या के प्रभावों से-भरा था भाव जो भारी ।
उसी के योग से उन को-मिली चन्दरकला नारी।वही। बढे धन से बढे जन से-बढे सनमान से भी वे । ।
बढे मावों से तप करके-हुए थे केवली भी वे वही। प्रभु पारस के शासन में हुए थे जो महाभागी।
उन्हीं की कीर्तियाँ गाते, मविक जन भावना जागी।वही। तपस्वी की सदा जय हो, तपस्वी आप निर्भय हो। तपस्याजो करें उनके,करम के क्लेश भी लय हो।वही।
ढाल--३ वर्धमान तप कीजिये, वर्धमान धर भाव । वर्धमान गुण प्राप्ति ही, वर्तमान पद.दाव..॥
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(४८१ ) ( तर्ज-तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर०) भाखें श्रीगुरुगौतम-स्वाम, तपस्या से सुख होय तमाम | तपस्या गुरुगम विधिविधान, करो भव्यातम हो कल्यान ।। बाहिर के शत्रु मिटजावें, अतर के शत्रु हट जावें । जगत यह मित्र रूप वन जावे, तप की महिमा महा महान भा० तपस्या द्रव्य-भाव दो भेद, करते टारे सारे खेद । प्रकटता जीवन भाव अभेद, निजातम गुण है यह तप जान । तपस्या तत्व निर्जरा मानी, समझो सेवो सद्गुरु ज्ञानी। भव में भटकें वे आसानी करें तप तपसी का अपमान भा०। आंबिल वद्ध मान तप करते, श्रीचंदजैसे वे सुख वरते। आतम उज्ज्वल गुण से भरते, विचरते आतम लब्धिनिधान सुखकर वीर प्रभु की वानी,प्रातम परमातम पद दानी। चेटक नृप सुनते विनय विधानी, करते वन्दन विकसित प्रान। श्रातम सुखसागर भगवाना,होता जिन हरि पूज्य प्रधाना। तपपद धारक वर प्रणिधाना,गावें कीर्ति कवीन्द्र महान भा०।
कलश इम वर्धमान जिनेश शासन भाव भासन साधना, तप बर्द्धनाम विशेष करते आत्मगुण आराधना । उनकी समुज्ज्वल कीर्तियाँ विस्तार से गाया करें, सुकवीन्द्र साधुभाव से तप भावना भाया करें ।
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________________ ( 482 ) इस प्रकार दूसरे भी वर्धमान तप सम्बन्धी चैत्यवंदन स्तवन स्तुति गाये जा सकते हैं। तपस्या के दिन सुबह साम प्रतिक्रमण करना चाहिये गुरुवंदन देववंदन करना चाहिये / कषायों और वासनाओं से परे रहना चाहिये / धर्मध्यान में समय बीताना चाहिये / भगवान की द्रव्य भाव से पूजा करनी चाहिये / पारणे के दिन साधर्मी वात्सल्य करना चाहिये / यथाशनि दर्शन ज्ञान चारित्र में आत्मा को लगानी चाहिये। इससे अात्मा परमात्म पद को प्राप्त होजाता है। // इति श्री वर्धमान तप विधिः //