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( ४४० ) ...वहाँ पर राजकुमार और श्रीष्ठि-पुत्र दोनों समवयस्क
और मिलनसार होने के कारण बहुत जल्दी ही परस्पर में अत्यन्त स्नेही बन गये । शिक्षा पाते हुए क्रम से वे दोनों सारी कलाओं में कुशल होगये । परस्पर में अगाधस्नेह होने के कारण उनका एक काम, एक वचन और एक चित्त था। आखिर हृदय को हरा भरा बनाने वाला यौवन भी खेलता कूदता और मचलता उनके पास श्रा पहुँचा । वे उसके पूरे शिकार हो गये।
इधर क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री अशोकश्री के विवाह के लिये अपने नगर के उद्यान में एक विशाल स्वयंवर मण्डप तैयार करवाया । देश विदेश के राजा और राजकुमार निमंत्रण पाकर वहां एकत्रित होने लगे। राजकुमार नरदेव भी अपने प्रिय मित्र चन्दन के साथ वहाँ जा पहुंचा । स्वयंवर में आये हुए सभी राजाओं और राजकुमारों को छोड़ कर राज-कन्या ने श्रोष्ठि पुत्र-चन्दनके गले में वरमाला डाल दी। राजा प्रजापाल ने अपनी राज कन्या अशोकश्री का चन्दन के साथ और अपनी भानजी श्रीकांता का विवाह नरदेव के साथबड़ी धूमधाम से कर दिया। वहां से वे दोनों दहेज में मिली हुई सामग्री को और अपनी नवोदाओं को साथ लेकर बड़े ठाट बाट से अपने नगर को लौट आये।