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.. गणधर महाराज श्री गौतम स्वामीजी ने राजा प्रजा को लक्ष्य करके धर्मदेशना देते हुए फरमाया.. देवानुप्रियों ! धर्म, दान, शील, तप और भाव रूप से चार प्रकार का होता है। उन चारों में भी इच्छारोधन रूप तपोधर्म आत्मविकास में सर्वाधिक लाभदायक माना गया है । शास्त्रों में उसके अनेक भेद बताये गये हैं। उनमें श्री "आयंबिल वर्द्धमानतप" निकाचित कर्मों का भी नाश करने वाला है। उसका स्वरूप इस प्रकार है:
एगाइआणि आयंबिलाणि इक्कक्क वुढिमंताणि । पजन्तमब्भतहाणि, जाव पुण्णं सर्य तेसिं।। इयमंबिलवड्ढमाणं, नामं महातवचरणं । वरिसाणि तव चउदस, मास तिगं वीस दिवसाणि ।।
अर्थात्-एक आंबिल एक उपवास, दो आंबिल एक उपवास, तीन आंबिल एक उपवास यावत् सौ आंबिल एक उपवास हो तब यह तप पूर्ण हो जाता है। यह आंबिल बर्द्धमान तप लगातार करे तो चौदह वर्ष तीन मास और बीस दिन में पूरा होता है।
ज चंदणेण तइया, भविश्र अइ गरुय वद्धमाणतवं । तस्स फलेण हुओ, सोइ सिरिचन्द निवो सया मुहिओ।" अर्थात्-ऊपर बताये हुए उस बड़े भारी वर्द्धमान