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________________ ( २७६ ) रहें । वहां पर तुम याचकों को विशेषकर के गुप्तदान देना । इससे तुम्हारी प्रसिद्धि अपने आपही हो जायगी। इसके बाद मैं तुम्हारी सहायता के लिये ऐसे ऐसे कार्य करूगा जिससे राजा को यह बात मालूम हो जायगी कि श्रीचन्द्र चुपके से अपने नगर से यहां आया है । इसके आगे तुम्हारे भाग्य ही प्रमाण हैं, क्योंकि, सबसे बढ़कर भाग्य ही एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को इस जीवनसंग्राम में सफल और निष्फल बनाती है। यह सुनकर मदन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उन दोनों ने जैसा विचारा वैसा ही किया । मदन मकान के ऊपरी भाग में बैठा रहता था, और कुमार द्वार पर द्वारपाल के के रूप में बैठा उचित कार्यवाही किया करता था। श्रीचन्द्र के दान की वाहवाही सारे शहर में फैल चुकी थी। छोटे-बड़े, धनी-निर्धन, सबल-निर्बल सभी की जबान पर उसीका नाम था । शनैः शनः उसकी यशोराशि शारदीय चन्द्रिका के तरह राजा को भव्य सुधालिप्त राज्य प्रासाद में भी फैल गई। राजा भी अपने नगर में श्रीचन्द्र का आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने मंत्रियों को उसके पास भेजकर आने जाने का मार्ग खोल दिया।
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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