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लोगों के मन की बडी भारी भ्रान्ति के मिट जाने से लोगों में एक अनुपम उल्लास की लहर दौड़ गई । गुरुदेव को नमस्कार कर सब लोग अपने घरों को लौट गये । महाराज - प्रतापसिंह ने अपने पुत्र की खबर पाकर नगर में भारी उत्सव मनाया। महारानी सूर्यवती ने जिस गंध - हस्ती को अपने पुत्र के लिये छांट कर रखा था उसे यह श्रीचन्द्र का पट्ट---हाथी है ऐसा निश्चित कर दिया । पद्मिनी चन्द्रकला कभी महाराज के यहां, तो कभी सेठ के यहां, तो कभी श्रीपुर में रात दिन धार्मिक कृत्यों को करती हुई पति-विरह के दुःखमय समय को बिताने लगी । कहा भी है
धर्मोऽयं धन वल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः । राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमथवा नाना विकल्पैः कृतैः, मल्किं यन्न करोति किन्तु करुते स्वर्गापवर्गावपि ॥
अर्थात् धर्म धनार्थियों को धन, कामाभिलाषियों को काम सौभाग्य चाहने वाले को सौभाग्य, पुत्र की कामना करने वालों को पुत्र देने वाला होता है । इसी तरह से राज्य चाहने वालों को राज्य भी देता है । अथवा तरह २ के संकल्प विकल्पों से क्या ? धर्म क्या नहीं कर सकता है ? सब कुछ कर सकता है यावत् स्वर्ग और अपवर्ग- मोक्ष दोनों का भी देनेवाल होता है ।