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( ४६१ ) के परिणाम से द्वादशांगी के वेत्ता होकर श्रीचन्द्र राजऋषि आठ वर्ष तक छमस्थ भाव में विचरते हुए, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घनघाती कर्मों को खपा कर निर्मल अनन्त केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त हुए। लोकालोक के त्रैकालिक भावों को संपूर्ण रूपसे जानने देखने लगे। - उनके केवल ज्ञान का उत्सव राजाओं ने सुरासुरोंने बड़ी धूमधाम से मनाया राजर्षि श्रीचन्द्र केवली होकर गामानुगाम विचरते हुए लोगों को धर्म-मार्ग के अनुयायी बनाये । नव्वे हजार करीब नर-नारियों को दीक्षा देकर महाव्रतधारी साधु साध्वी बनाये । सम्यक्त्व अणुव्रत आदि नियमों को दिलाकर उनने गृहस्थों को अणुव्रतीश्रावक संघ में सम्मिलित किया । गुणचन्द्र आदि साधुओं को एवं चन्द्रकला कमलश्री आदि साधियों को भी केवल ज्ञान हुआ।
इस प्रकार पैंतीस वर्षों तक भव्यात्माओं को बोध देते हुए श्रीचन्द्र केवली एकसौ पचपन वर्षे को भोगकर अक्षय-मोक्षपद को प्राप्त हुए । इसी बात को शास्त्रकारों ने इस प्रकार कही है_ साहिय वास सयं जो, तिखंड-निव-सय-सेवियग्यकमलो।
एगच्छत्तं रज्जं, पालइ इन्दुव्व सिरिचंदो।
णोयु