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( ४१८ ) यह सुनकर वहाँ पर उपस्थित, सेठ साहूकारों राजाओं और मंत्रियों के सामने कुण्डलपुर नरेश श्रीचन्द्र ने राजा जितशत्रु को धिक्कारते हुए कहा, "राजन् !
आपके राज्य में बार बार चोरियां होती हैं। प्रजा को सुख नहीं है। फिर आपक्या राज्य करते हैं ? जिस राजा से अपने देश का शासन भी ठीक नहीं सम्हलता । उसकी इज्जत लोगों में कैसे रह सकती है ? राजा जितशत्रु ने मारे लज्जा के सिर नीचा करलिया।
श्रीचन्द्र ने सभा में एक बीड़ा रक्खा और सभी सदस्यों को सम्बोधित करते हुए बोला, "जो कोई भी व्यक्ति किसी भी उपाय द्वारा चोरों को पकड़ लेगा उसको यहाँ मिली हुई विवाह की पहरामणी में दे दूंगा।" सब लोगों ने उत्तर देते हुए कहा, महाराज ! हम में से यहाँ कोई भी बीड़ा उठाने वाला नहीं है ।" इस प्रकार करते धरते कुछ न बन पड़ा और इस चर्चा में ही सूर्य सिर पर आगया।
इधर सूर्यवतीजी ने पुत्र को दैनिक कार्यों में विलम्ब करते देखा, तो उनने कहला भेजा, “पुत्र ! आज देवपूनन भी अभी तक नहीं हुआ है और न भोजन ही हुआ है। अतः अब तुम्हें जल्दी आजाना चाहिये । क्योंकि