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कुशस्थल में तुम श्रीचन्द्र हुए और वह तुम्हारा साम्रानिक देव चव कर तुम्हारी प्रियतमा चन्द्रकला हुई । घृणा करने के कारण नरदेव भी बहुत से भव भटक कर सिंह पुर में ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ, नाम धरण रक्खा गया । उसी भव में उसने सिद्धाचल की यात्रा की उसके प्रभाव से वह इस भव में मंत्री पुत्र गुणचन्द्र के रूप में तुम्हारा अत्यंत प्रिय मित्र हुआ है । वह तुम्हारी उपमाता धा और हालिक सेवक वे दोनों पुण्य के योग से कुशस्थल में सेठ लक्ष्मीदत्त और सेठानी लक्ष्मीवती के रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने पूर्वभव के स्नेह के कारण ही अपने पुत्र की तरह तुम्हारा पालन किया । तुम्हारे साथ तप करने वाली वे सोलहों स्त्रियें, राज - कन्याएँ हुई जो तुम्हारी प्रियतमाएँ बनीं। सुलस के भव में जो वेश्या थी वह भीलराजकुमारी मोहिनी बनी । इस प्रकार आचार्य देवने श्रीचन्द्र का सारा चरित्र कह सुनाया ।
अपने चरित्र को सुनकर कुमार को जातिस्मरण हो आया । गुरु द्वारा फरमाये हुये अपने पूर्व भवों को उसने साक्षात् ज्ञान से देखा । उन चन्द्रकला आदि रानियों ने और मित्र ने भी पहले की तरह अपने पूर्व जन्मों को देखा और वे सब उस समय उन पूज्य सूरिजी महाराज की स्तुति करने लगे ।
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