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( ४४८ ) - इसके बाद विद्याधरों की सेना के विमानों से आकाश को चित्र विचित्र करता हा, रत्नों की कान्ति से आसमान में बिजली चमकाता हुआ, सुरीले गम्भीर बाजों की आवाज़ से मेघगर्जन का भ्रम उत्पन्न करता हा, हाथियों के मद रूपी जल से पृथ्वी को सींचता हुआ, याचकों की दरिद्रता रूप गर्मी को दूर करता हुआ श्रीचन्द्र रूपी इन्द्र क्रमशः कुशस्थल नगर में आ पहुंचा।