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आचार्य महाराज ने फरमाया । " भव्यात्मन् ! यदि तू अपने सम्पूर्ण कर्मों का नाश चाहता है तो जिनेश्वर भगवान द्वारा बताये हुए तच्चों को सुन । अपने पापों के क्षय के लिये शास्त्रो में बताई हुई विधि के अनुसार यम्बिल वर्धमान तप कर । ऐसा करने से तेरे सारे निकाचित दुष्कर्म मी नष्ट हो जायेंगे ।
गुरुदेव के कथनानुसार चंदन ने अपनी स्त्री के साथ उस तप को करना प्रारम्भ किया । उसकी देखा देखी उसके कुटुम्बियों ने, पडौसियों ने और ओर भी कई स्त्री पुरुषों ने इस तप को करना शुरू किया । दही, दूध, घृत और पकवान आदि खाने योग्य स्वाष्टि पदार्थों से भरे पूरे घर में रहते हुए भी वे दोनों उस तप में इतने तत्पर हुए कि कोई भी उन्हें उस तप से विचलित करने में समर्थ नहीं हुआ उसके मित्र नरदेव ने उनके तप की प्रशंसा की परन्तु उसने उनके दतौन बगैरह न करने पर अपने दिल में कुछ घृणा प्रकट कर नीचगोत्र का कर्म बांधा । तप समाप्त होने पर उन्होंने विस्तार पूर्वक उद्यापन आदि किये और सप्त क्षेत्रों का भी पोषण किया ।
तदनन्तर पंचत्व को प्राप्त हो कर अच्युत देवलोक में चंदनसेठ इन्द्र हुआ और अशोकश्री उसी देव लोक में सामानिक देव हुई | अच्युतेन्द्र तो वहाँ से चव कर
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