Book Title: Shreechandra Charitra
Author(s): Purvacharya
Publisher: Jinharisagarsuri Jain Gyanbhandar

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Page 463
________________ अशोकश्री और अन्य पुरवासियों के साथ उनके दर्शनाथं गया । वहाँ जाकर सब के साथ गुरुमहाराज को नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठ गया । गुरुदेव ने धर्मलाभ का अशीर्वाद देकर धर्मोपदेश देना वक किया। ... तालदिव नक्नोतं, पंकादिवपन्न समुलमिव जलवेः । मुक्ताफलमिक वंशाधर्मः सारं मनुष्यभवात् ॥१॥ . अर्थात् जिस प्रकार छाछ का सार मक्खन कीचड़ का सार कमल, समुद्र का सार अमृत, बाँस का सारमोती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य जन्म का सार धर्म है। अतः हे भव्यात्माओं ! हर तरह से धर्म का पालन करते रहो । यही तुम्हारी मनोकामनाओं को पूर्ण करेगा। ____ उपदेश के समाप्त होने पर राजा ने हाथ जोड़ कर आचार्यदेव से पूछा कि भगवन् ! किस कर्म के प्रभाव से अशोकश्री को पति का वियोग और संयोम-सुधा! इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव ने कहा कि : :: राजन् ! प्राणी अपने ही द्वारा किये गये शुभाशुभकमों के कारण सुख दुःख भोगते हैं। उनके लिये कोई दसरा कर्म नहीं बाँधता।

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