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( धन राशि भरी हुई थी । यह देख सभी श्रीचन्द्र के भाग्य, बुद्धि और परोपकारिता की प्रशंसा करने लगे ।
इसके बाद श्रीचन्द्र ने उस चोरी के धन में जिस जिस का धन था उन सब को पहचान पहचान कर दे दिया । उन तीनों चोरों को राजा जितशत्रु के हवाले करके और बाकी बचे हुए धन को लेकर अपने निवासस्थान पर लौट आया ।
इधर राजा जितशत्रु ने उन चोरों को खूब निर्दयता से पिटवाया, परन्तु उन्होंने लेश मात्र भी अपना अपराध स्वीकार नहीं किया । अन्त में राजा ने उनके पास चोरी से सम्बन्ध रखने वाली कुछ वस्तुएँ और कुछ चिन्ह आदि देख कर उन्हें मृत्यु दण्ड की आज्ञा दे दी । सिपाही उन्हें लेकर वध्यभूमि में शूली के पास पहुँचे ।
जब श्रीचन्द्र को इस बात का पता लगा तो उनने उन चोरों को वहाँ से अपने पास बुलाया, और पूछा, कि बताओ तुम लोग कौन हो ? और तुम्हारे क्या क्या नाम हैं ? इस पर उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । तब कुमार ने कहा, लोहखर ! क्या तुम मुझे नहीं जानते ? महेन्द्रपुर की सीमा में मैंने तुमको पुत्री समेत दया करके जिन्दा छोड़ दिया था । मैं अवस्वापिनी विद्या जानता हूँ ।