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( ४१७ ) तीनों उस गायक के डेरे की ओर चले। उस मर्म को जानने वाले श्रीचन्द्र भी उनके पीछे हो लिये ।
बाद में वे वहाँ जाकर गंधज्ञान से धन का अपहरण करके वापिस उसी जगह लौट आये और फिर वहाँ से नगर के बाहिर निकल गये। किसी एक मठ में पहुँचकर उन्होंने उसके पीछे की ओर एक बड़ी शिला को उखाड़ कर नीचे के भोयरे में सब धन रख दिया। बाद में फिर उस शिला को उस पर रखकर उन्होंने बाबाओं का वेश बनाया और उस मठ में आकर सो गये । श्रीचंद्र इस क्रिया को देखकर अपने स्थान पर लौट आये ।
इधर जब प्रातःकाल हुआ तो वीणार जगा | उसको अपनी कुछ वस्तुएँ अस्त व्यवस्त पड़ी मिलीं । उसको चोरी होने का सन्देह हुआ । ज्योंहीं उसने जाकर अपना कोठा सँभाला त्योंही वह चीख पड़ा। उसके हृदय में घिग्घी सी बंध गई । उसका सर्वस्व चुराया जा चुका था ! वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिरने को ही था, कि साहस ने उसका साथ दिया । वह सम्हल गया । दौड़ता हुआ श्रीचन्द्र के पास आ पहुँचा। महाराज ! 'मेरा तो आज भी फिर सब कुछ चला गया' कहता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने भाग्य की निन्दा करने लगा ।