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अहो ! अज्ञान से यह भारी पाप मुझ से हो गया । निरपराधी को मारने से मुझे नरक में भी शायद स्थान मिलना कठिन है । उस अधमरे आदमी के हाथ में तलवार पकड़ाकर कुमार ने कहा- भाई ! भूल में मेरे हाथ से तुम्हारे चोट आ गई है । मैं अपराधी हूँ । क्षमा करके अपनी तलवार ले लो, और जो दण्ड देना चाहो मुझे दे दो ।
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बोलने में असमर्थ उस अधकटे आदमी ने तलवार वापस करते हुए इशारे से जल की मांगनी की । कुमार ने उसे पानी लाकर पिलाया । थोड़ी देर बाद उसके प्राण-पखेरु उड गये । कुमार श्रीचन्द्र इस दुर्घटना से दुःखी हुआ । बिना कुछ खाये पिये ही वह आगे की ओर बढ गया ।
रात हो चली थी । चन्द्रहास खड्ग ही उसका एक मात्र संगी था । मार्ग के कष्टों और अनजान में हुई नरहत्या के दुःख से वह सदा की अपेक्षा आज अधिक थक चुका था । सामने उसे एक सघन वट-वृक्ष दिखाई दिया कुमार ने उसी पर अपना पडाव डाल दिया । ज्यों ही वह आस पास देखता है । डाभ के पुल से बनी एक शय्या उसे दिखाई दी । उसे देखकर - " अवश्य ही यहां कोई यात्री पहिले सोया होगा" - ऐसा सोचकर कुमारने