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आज्ञा की ही देर थी 1 र भेरी बज उठी । शंख= ध्वनि से दिशायें गूंजा उठी। रण- बँके सैनिकों के अस्त्रशस्त्र सूर्य प्रकाश में झिलमिला उठे । पृथ्वी कांप उठी । घोड़ों? की टापों से उठती हुई धूल हाथियों के मद से शांत हुई । महाराज श्रीचन्द्र की जय के नारों से आकाश का पर्दा फटने लगा। राजा श्रीचन्द्र भी अपने तेजस्वी घोड़े पर सवार हो कर प्रयाणोन्मुख सेना के सामने आकर खड़े
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हो गये। सैनिकों ने फौजी ढंग से अपने महाराजा का अभिवादन किया। आज्ञा पाकर सेना ने आगे : को कूच किया । महाराजा तीन, पड़ाव तक साथ गधे । गुणचन्द्र को अपना चन्द्रहात खड़ग दे कर श्रीगिरि की ओर वापस लौटें ।
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रास्ते में एक विशाल वट वृक्ष की छाया में विश्राम के लिये सो गये पर किसी अतर्कित कारण से कुमार श्री चन्द्र को नींद नहीं आ रही थी। इतने में वहां कुछ जोगणियां उस बड पर बैठ कर कहने लगी- कुशस्थलपुर का राजा राणी के वियोग में जल मरेगा, चलो ! देखने के लिये इसी बड़ पर बैठ कर उड़ चले
कुमार ने भी फूर्ति से बड़ की खोखला में अपना आसन जमा लिया। बड़ उड़ा । कुमास्थलपुर के बाहिर