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(३८७ ) वाद विवाद में काफी देर हो जाने के कारण माता जी स्वयं उन्हें बुलाने के लिये वहां आ पहुँची । उसने मदनासे कहा कि मदने ! आज तुम भोजन क्यों नहीं कर रही हो ? यह सुन मदना ने उत्तर दिया "माताजी ! आज न मालुम मुझे क्या हो गया है, कि मेरी तबियत किसी भी काम में नहीं लगती। . विद्याधरी ने कहा, "पुत्री ! तनिक भी विचलित मत हो । जो तुम्हारा पति है उसी को मेरी इन पुत्रियों ने भी अपना पति स्वीकार किया है। धीरज धरो बेटी ! निमित्तिक का वचन कभी झुठा नहीं हो सकता । मैं बड़ी ही अभागिनी हूं। मेरे दुःख. अपनी चरम सीमा पर पहूंच चुके हैं। मेरे स्थान आदि भी मेरे हाथों से निकल चुके हैं, और मेरा पति भी वन में मृत्यु को प्राप्त हो चुका है । मेरा देवर अपने पुत्र समेत सुमेरु पहाड़ पर बहुत पहले से ही जा बैठा है। कुशस्थल को भेजे हुए दृत भी अभी तक कोई खबर लेकर वापिस नहीं लौटे हैं। पुत्रि ! क्या करू मैं सब ओर से निराधार हूं। तुम स्वयं बुद्धिमती हो सभी बातों को जानती हो । अतः जानते हुए इस प्रकार हठ करना तुम्हें शोभा नहीं देता उठो । भोजन करो। हमारे इस कार्य में तुम अंतराय मत बनो।" इतना समझाने पर भी जब मदना भोजन