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( ४१४ ) कर कांपिल्य पुर आये । वहां पर बड़ी घूमधाम से उनका पुर प्रवेश हुआ। वहां पर उनने अपनी माता के आग्रह से कनकवती आदि चारों कन्याओं के साथ बड़ी सजधज और धूमधाम से विवाह किया।
वीणारव नामक गायक का भी नगर कहीं प्रास पास में ही था। जब उसने सुना कि महाराज श्रीचन्द्र कांपिल्यपुर में पधारे हुए हैं, तो वह भी वहां आ उपस्थित हुआ, उसने प्रसन्न हो कर महाराजा की प्रशंसा के कई आश्चर्य उत्पन्न करने वाले श्लोक पढे । जैसे
बलगत्तुं गतुरंग-निष्ठुरतर-क्षुण्ण द्रणमातले । निभिन्न द्विप-कुंभ मौक्तिककण-व्याजेन बीजापलि ।। खड्गस्ते वपतिस्मकुण्डलपते ! लोक-त्रयीमण्डप
प्राप्त प्रौढ़तमस्य कीर्तिलतिकागुल्मस्य निष्पत्तये ।। अथात् हे कुडलेश्वर ! आपकी कीर्तिरूपी लता को पुष्पित बनाकर त्रिभुवन में फैलाने के लिये अपका घोड़ा रणभूमि को खोद कर बीज बोने योग्य बताना है और
आपकी तलवार मदमस्त हाथियों के कुभस्थलों को चीर कर उनमें से निकले हुए मुक्ता कणों को बीज के रूप में बोती है, तथा हताहतों से निकला हुआ रक्त उसकी सिंचाई करता है।