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इस जंगल में घूमते हुए अनजान में मुझ-पापी से एक विद्याधर की हत्या हो गई है । अतः आप कृपा करके उस पाप का कोई प्रायश्चित्त दीजियें । मुझे मेरा पाप कांटे की तरह खटकता है।- ..
यह सुन श्रीमुनिराज ने फरमाया,पुण्यशाली! तुम्हारी पाप-भीस्ता प्रशंसनीय है। यद्यपि तुम्हारे पाप की शुद्धि पश्चात्ताप और दान से हो चुकी है फिर भी इस प्रायश्चित्त के रूपमें श्रीं अरिहंत, भगवान को नमस्कार उन का नामजाप और मौका पाने पर एक जिनमंदिर का भी निर्माण करना ।
इस प्रकार सुधा-मधुर गुरु-वाणी को सुन कर आत्मा को कृत-कृत्य मानता हुआ कुमार बहुत प्रसन्न हुआ। क्रमसे चलता हुआ वह श्री कल्याणपुर नाम के नगर में पहुंचा।