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देवानुप्रियों ! चित्त, वित्त और सुपात्रों का योनी बड़ा ही दुर्लभ होता है । कहा भी है
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काले सुपत्त दाणं सम्मत्त-विसुद्ध - बोहिलाभं च । अन्ते समाहि-मरणं, अभव्व-जीवा न पावति ॥ उत्तम-पत्त' साहू, मज्झिम-पत्त च सावया भगिया । अविरय सम्मद्दिट्ठी, जहन्न - पत्त' मुणेयव्वं ॥
अर्थात्-समय पर सुपात्र में दान देना, सम्यक्त्व से विशुद्ध ज्ञान-लाभ को प्राप्त करना और अन्त में समाधि मरण ये तीन बातें अभव्य जीवों को प्राप्त नहीं होती । साधुओं को उत्तम पात्र, श्रावकों को मध्यम पात्र और अवरित सम्यग् - दृष्टियों को जघन्य पात्र शास्त्रों में बताये हैं ।
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दान धर्म से मनुष्य आत्म-धर्म को पाता है.. दात से ही त्याग की साधना होती है । इसीलिये कहा कि-न्यायोपार्जित वित्त और त्याग - प्रधान चित्त की साधना से सुपात्र में दान देते रहना चाहिये । दान-धर्मधर्म - लाभ के अधिकारी आत्मा इस लोक और पर लोक की परम लक्ष्मी को पाते हैं ।
इस प्रकार श्रीवत्स महर्षि के सदुपदेश को सुन कर कुमार ने मुनिराज से प्रार्थना की कि - हे भगवन !