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( ३१३ ) मार्ग द्वारा वापस बाहर निकल कर उसे एक विशाल शिला से ढक दिया । वहां पर कुछ धन विखेर करके वे वहां से आगे चले।
: हाथ में तलवार लिये हुए कुमार वन में शेर की तरह निश्शंक चला जा रहा था, और छाया की तरह सिंहनी मदनसुन्दरी उसका अनुगमन कर रही थी। क्रमशः वे उस भयानक. वन को पार करके किसी एक गाँव में पहुँचे। विश्राम करने के विचार से वे विश्राम करने योग्य स्थान को हूँढ़ते हुए एक सुन्दर तालाबकी तीर पर पहुँचे । वहाँ उद्यान में डेरा डाला गया। कुमार ने भोजन बनाने का सामान जुटा दिया और बात की बात में राजकुमारी ने वेवर और पूए बना कर तैयार कर दिये।
इधर श्रीचन्द्र ने स्नानादि से निवृत्त हो आभूषण आदि पहन अपने पास रहे तीर्थकर भगवान् के चित्र के सामने खड़े होकर देव-वंदन किया । उस समय मदनसुन्दरी ने कुमार की नाममुद्रा से उसका नाम मालूम कर लिया। उसने जो पहले चारणों भाटों और स्तुतिपाठकों के मुंह से कुशस्थल के स्वामी महाराज प्रतापसिंहके पुत्र श्रीचन्द्र की प्रशंसा सुन रक्खी थी, उसी को