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कंधे पर लाठी, और हाथ में जल-पात्र लिये हुए एक पुरुष भाता हुआ दिखाई दिया । राजा श्रीचन्द्र ने अपने सिपाहियों को मेज़ कर उसे अपने पास बुलाया। पास पहुँचते ही उसने राजा को पहचान लिया। आगन्तुककी आंखों में हर्ष के आंसू छलछला गये। शरीर पुलकित हो गया।
जय श्रीचन्द्रकुमार जय, जय जय मेरे मीत! छोड़ गये गुणचंद को, पाये प्रेम-प्रतीतः ॥
आ ! हा !! हा !!! प्यारे मित्र गुणचन्द्र ! तुम यहां कैसे आगये ? दोनों अभिन्न-मित्र बड़े प्रेम से एक दूसरे से भेटे । वायु मण्डल में खुशी ही खुशी छा गई। उपस्थित मन्त्रियों, सेनापतियों, एवं पुरवासियों ने नृपमित्र गुणचन्द्र का बड़े भावभरे शब्दों में स्वागत किया।
राजा श्रीचन्द्र ने बड़े सौहार्द-भाव से कुशल-प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया । मित्र ! कुशल तो हो ? तुम अकेले इधर कैसे पाये ? कहां कहां होते हुए आ रहे हो ? कुशस्थल कब छोडा था ? माता-पिता तो कुशल. हैं? मेरे चले आने के बाद वहां क्या २ घटनायें घटी? सब बातें सुनामो