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( ३५३ ) ही तो ठहरे । बेचारे घोड़े थक कर चूर चूर हो गये। मुह से भाग निकलने लगे। घोड़े अपने आखिरी अक्षांश पर दौड़ रहे थे। यह देख उन दोनों ने लगाम ढीली छोड दी। घोड़े ठहर गये । वे दोनों उतर पड़े । पीठ सहलाते हुए पास ही के तालाब के तीर पर सघन पेड़ की छाया में विश्राम के लिये डेरा डाल दिया ।
घोड़ों की जीन उतार दी गई। धोड़ों ने भी हिन हिनाते हुए अपनी थकावट को दूर की । कुमार ने पसीना सूखा कर निर्मल शोतल जल का पान किया। बाद पेड़ की छाया में कोमल घास के विछोने पर लेट गये । उन्हें नींद आगई
नींद में कुमार ने एक स्वप्न देखा कि-मेरु पर्वत पर कल्प, वृक्ष की छाया में कोई अद्भुत स्त्री, मानो कोई कुल देवी, लक्ष्मी या सरस्वती हो बैठी हुई थी। उसने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया । कुमार ने मित्र से कहा सखे ! इस दिव्य स्वप्न का सुन्दर फल आज हमें जरूर
मिलेगा। ...
..इतने में जंगल में से व्यथित हरिणी की तरह चकित नेत्रों वाली दिव्य अलंकारों से देदीप्यमान लाल-वस्त्रोंको धारण की हुई गर्भवती कोई सधवा स्त्री पाती हुई