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( ३३८ ) जब - मैं उस प्रकाशपुञ्ज का पता लगाने गया था, तम किसी ने पीछे से मेरी मदना का अपहरण किया है । वह अवला मदना मेरे विना कैसे जीवन धारण कर सकेगी ! हायरे विधाता ! बेचारी के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा है ? अभी तो उसे विद्याधर के पंजे से बड़ी मुश्किल से छुड़ा पाया था, इतने में तूने उस पर यह दूसरा दारुण वज्रपात कर दिया । सच है, तूं क्या नहीं कर सकता ? यत्कदापि मनसा न चिन्त्यते, यत्स्पृशन्ति न गिरःकवे रपि । स्वप्नवृत्तिरपि यत्र दुर्लभा, हेलयैव विदधाति तद्विधिः॥
अर्थात्-जिस बात का कभी मन में चिंतन नहीं होता, जिसे कवियों की कल्पना भी छू नहीं पाती, जहां स्वप्न की भी पहुँच नहीं होती उस काम को पूर्व-कृत कर्म रूप-विधि बना देती है। ___ संसार में किसके मनोरथ पूर्ण हुए हैं ? । आदि से अन्त तक कौन सुखी रहा है ? यह भी एक कसौटी है। कसौटी पर कस जाने पर ही सोने की कीमत होती है, वैसे इस प्रकार की घटनाओं के घटने से ही जीवन महान् जीवन बन जाता है, अस्तु, मुझे अपने पथ से विचलित न होते हुए मदना की प्राप्ति का उपाय करना चाहिये । इस प्रकार कुमार आगे बढता हुआ एक कंनकपुर नाम के नगर में जा पहुँचा।