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( ३१८ ) रही थी। अपने पूर्व-पूण्य-कर्मों की प्रधानता से उस के विरोधी उस का कुछ न बिगाड सकते थेबल्कि वे बिगाडने की भावना वाले ही बिगड जाया करते थे।
कल्याणपुर की ही बात है । कुमार मदन-सुदरी को लिये एक दिव्य-देव मंदिर में विश्राम कर रहा था । भोजन की तैयारी थी। इतने में एक कापालिक-बाबा श्रीचन्द्रकुमार के पास आया । कुमार को बत्तीस-लक्षण, संपन्न देख कर मन ही मन मुदिले होता हुआ कुमार से कहने लगा
विरला जाणंति गुणा, विरला जाणंति अत्तणो दोसे। . विरला परकज्जपरा, पर दुक्खे दुक्खिया विरला ॥
कुमार ! दूसरे के गुणों को देखने वाले, अपने दोषों को देखने वाले, परकीय कार्य को सधाने वाले, और परामे दुःखों में दुःखी होने वाले पुरुष संसार में विरले ही होते हैं। . 'कुमारने योगी के भाव समझ कर उससे पूछा बाबा ! तुम कौन हो । योगी ने कहा मैया ! मेरो नाम त्रिपुरानन्द भारती है । मैं पर योगी का छोटा भाई हूं।
मैं लोकोपकार की इच्छा से सुवर्ण पुरुष की सिद्धि के लिये भटकता हुधा यहाँ आया है। अभी तक कहीं
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