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अपना स्वामी बना देख उसके आनन्द की सीमा न रही। अपने स्वामी की उदारता, दयालुता और दक्षिणता देख उसका रोम रोम हर्षित हो उठा । उसने अपने स्वामी से विनय पूर्वक प्रार्थना की कि वे भोजन करने बैठजायें। ..श्री चन्द्र ने उत्तर देते हुए कहा “सुभ्र ! आज बड़ा सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे अपनी धर्मपत्नी के हाथ का पकाया हुप्रा. भोजन मिल रहा है। अतः मेही इच्छा है कि किसी साधु महाराज को पहले भोजन करा कर फिर मैं भोजन करूँ, और अपने सौभाग्य में चार चाँद लगा हूँ। इतना कह कर कुमार तालाब को पाल पर चढ़ कर इधर उधर देखने लगा। इतने में उसके भाग्य से खींचे हुए दो साधु वहाँ आते हुए दिखाई दिये । वह सामने जाकर उन्हें बड़े ही आदर पूर्वक से
आया और घेवर तथा पुए आदि पक्वान उन्हें बहरा दिया, फिर उसने अपनी स्त्री के और औरभी उपस्थित दूसरे
लोगों के साथ भोजन किया । । ...... भोजन, आदि से. निवृत्त होकर कुमार श्री चन्द्र
अपनी स्त्री के साथ उन साधुओं की सेवा में जा उपस्थित हुआ । चन्दन करके उन वत्स और कुच्छ नाम के दोनों साधयों के सामने वह बैठ गया । वत्स नामक साधु ने उन्हे धर्मोपदेश देना शुरू किया।
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