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( ३०१ ) उस शय्या को अपने सोने योग्य मानकर उसकी देखभाल-पडिलेहना की।
शय्या को ऊंची नीची करके देखने पर उसके नीचे लकडियों से ढकी एक खोखल कुमार को दिखाई दी। आश्चर्य से लकड़ियों को हटाकर क्षण भर में वह साहस का पुतला-कुमार उसमें उतर गया । वृक्ष के मुल में जा पहुँचा-वहां पर पड़ी हुई एक विशाल पत्थर की शिला को हटा कर नीचे के गड्ढे में हाथ डालकर टटोला तो उसे नीचे उतरने की एक सीढ़ी का पता चला । शनैः शनैः वह अपनी हिम्मत के बल पर नीचे उतरा। उसके आगे एक खोह उसे दिखाई दी। कुमार बात का पक्का, हिम्मत का धनी और पान का सच्चा था । वह कभी निराश होनेवाला जीव न था। भय तो उसे छू तक नहीं गया था। वह बिना हिचकिचाहट के उस खोह में भी जा घुसा। वहां पर उसने भूगर्भ में एक विशाल भवन देखा । रंगविरंगे रत्नों की दीपमालाओं के प्रकाश से प्रकाशित वह दुमंजिला मकान इन्द्रधनुष की भांति शोभा दे रहा था।
कुमार पहले पहली मंजिल में घूमा, फिर बाद में दूसरी मंजिल में पहुँचा । वहां पर तरह तरह की रंग