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( ३०६ ) कुमार के वचनों का उत्तर देते हुए मदनसुदरी ने कहा हे आर्य ! आप के स्वरूप को देख कर मैं आप को निर्धन नहीं मानती । मेरा अन्तः करण श्राप के प्रति आकृष्ट हो रहा है । कहा है:
सतां हि सन्देह--पदेषु वस्तुषु.
प्रमाण मन्तः करण-प्रवृत्तयः । अन्तः करण ही सन्देहवाली वस्तुओं में प्रमाण भूत होता है । आप को पाकर मुझे विद्याधरत्व की कोई अभिलाषा नहीं है। मेरे भाग्य ने ही आप को यहां भेजा है । आप ही बत्तीस-लक्षण संपन्न मेरे स्वामी हैं । मैं ही नहीं शास्त्र भी आप को महान् बताते हैं। देखिये सामुद्रिक शास्त्र में बत्तीस-लक्षण जो आप में मौजूद हैं, उन का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है।
. भुजा, नेत्र, उगलियां, जीभ और नासिका लम्बी होनी चाहिये । पीठ, कण्ठ, लिङ्ग और जांघे छोटी होनी चाहिये । दांत, त्वचा नाखून और केश सूक्ष्म होने चाहियें । हथेली पैरों के तलिये, तालु, आंखों के कोने, जीभ, नाखून और होठ ये लाल होने चाहियें । ललाट और वक्षस्थल विशाल, तथा नाभि और स्वर गंभीर होने