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दिया, पर गुप्त-गुप्त जिससे उस कुछ मी मालुम न पड़े। .. कुछ दूर आगे बढने पर वह छाया सघन वृक्षों में लोप होगई। बस कुमार वहीं ठहर गया। जब सुबह हुआ और उजाला चारों तरफ फैल गया तब उसके पद चिह्नों को देखता हुआ कुमार उन्हीं के सहारे आगे बढ़ने लगा । चलते चलते वह एक बडे पहाड़ की गुफा पर पहुँचा । उसका मुहँ एक बहुत बडे शिलाखंड से ढंका हुआ था । कुमार ने उस पदपक्ति को गुका के भीतर जाते हुए तो देखा पर बाहर वापस निकले हुए चिह्न दिखाई नहीं पड़े । अतः बुद्धिमान् कुमार ने उस पुरुष के भीतर होने का अनुमान किया । उस स्थान से नजदीक ही एक बावड़ी के तट पर लगे हुए एक पेड़ की खोखल जाकर कुमार बैठ गया। वहीं पर उसने कुछ फलाहार कर, जल-पान करके अपनी जठराग्नि को शान्त किया।
कुमार दिन भर उस गुफा की ओर ध्यान लगाए उस पेड की खोखल में बैठा रहा। फिर भी कोई मनुष्य उसमें से निकलता हुआ नजर नहीं आया। तीसरे पहर में एक मनुष्य शिला-खएड को हटा कर गुफा में से निकला
और बावडी पर भाया । वहां पर उसने अपने हाथ मह घोकर जल पिया, और हाथ में लाए हुए वर्तन को पानी