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(२५२.) मदनपाल ने उत्तर दिया-भाई ! तुमने मेरे लिए सब कुछ किया । मैं बदुला नहीं चुका सकता। एक प्रकार से आपने मुझे जीवन दान दिया है । अब आप अपनी इच्छानुसार जा सकते हो । प्रत्येक व्यक्ति का कष्ट दूर करने में समर्थ बने रहो, यही मेरा हार्दिक आशीवाद है । कुमार श्रीचन्द्र बाहर निकल गया।
मदनपाल ने प्रसन्नता के साथ आँखों में सुरमा लगाया, पान चबाया, कुमार के विवाह का वेश धारण कर, चिरकाल की अभिलाषा पूर्ण करने करने के लिए, भारी उमंग को हृदय में लिये वह महल में पहुँचा। अजीब प्रकार से आते और बैठते हुए निस्तेज मदन को देखकर प्रियंगुमंजरी के मन में संदेह हुआ। वह विजली की तरह चमक कर बाहर निकल गई। उसने अपनी संखियों से कहा-यह अजनबी पुरुष मेरे महल में कौन घुस आया है। अरी सखियों ! जरा देखो तो सही। वेशभूषा तो मेरे पतिदेव के जैसी ही मालुम होती है परन्तु व्यवहार, आचरण और सूरत में जमीं आसमान का अन्तर हो गया है । सखियों ने कहा-स्वामिनि ! आप पागल तो नहीं हो गई हैं जो इस प्रकार कह रही हैं। भला पति के सिवाय यहाँ अभी दूसरा पुरुष कौन आ या है.? उनकी वेशभूषा से ही निर्णय कर लेना चाहता