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(२८१ ) कुमार श्रीचन्द्र विवाह के मांगलिक कृत्यों से निवृत्त "होकर घर में प्रवेश करके, सबको यथास्थान स्थापन करके, याचकों को दान देकर के अपने महल में विश्राम के लिए चला गया ।
पूज्य पतिदेव के महल में आ जाने पर सुन्दरी प्रियंगुमैजरी भी पति के पास प्रसन्नता के फूल बखेरती "हुई पहुँच गई । काव्यालाप और साहित्य चर्चा हो रही थी । परस्पर एक दूसरे के पांडित्य का परिचय हो रहा था । मुखावलोकन और संभाषण के आनन्द का अमृत पिया जा रहा था । लहराती हुई आनन्द की लहरों से वे दोनों किसी अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे थे इतने में मदनपाल ने वहां पहुँच कर आंख के इशारे से श्रीचन्द्र को प्रतिज्ञा की याद दिला दी। श्रीचन्द्र अपनी प्रतिज्ञा को याद करके शौच के बहाने से ज्योंही महल से निकला, प्रियंगुमंजरी भी पानी लेकर उसके पीछे पीछे चली । कुमार ने उसे वहीं रोक दिया। खुद ऊपर से नीचे चला आया। अपने कुण्डल, मुद्रिका एवं प्राचीन "वेश को लेकर बोला-मित्र ! मैंने तुम्हारी मनोभिलाषा पूर्ण कर दी है । मैं अन्यत्र जाता हूँ। अब गृह सरवण का भार तुम्हारी योग्यता पर निर्भर है।