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( २४० ) कर्मठ होते हुए विवेक के साथ प्रत्येक कार्य का संपादन करते रहते हैं। सच्चे वीरों का रणभूमी में हृदय की दुर्बलता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा करता । वे तो वीरता से कर्त्तव्य-मार्ग में अग्रसर होते ही जाते हैं।
चरित्र नायक श्रीचन्द्र-कुमार बैठनेवाले प्रमादी आदमी नहीं थे । कुण्डलपुर की राज्य--व्यवस्था ठीक करके अपनी सास, पत्नी, मन्त्री, सेनापति, और अधिकारियों को अपना २ अधिकार संभला कर, सबको ठीक ढंग से समझा बुझा कर, देश में अपनी आज्ञाप्रचारित कर, पुनः कुण्डलपुरमें लौट आने की प्रतिज्ञा करके सायंकाल के समय अपने कार्पटिक-बाबाजी केवेश को धारण कर वहां से चल दिये। चलते २ महेन्द्र पुर पहुंच गये। रात हो जाने के कारण नगर के बाहर ही किसी शून्य-देव-मंदिर में निर्भय रूप से सो गये। __ आधी रात्री का समय था । लोहखुर नाम का एक चोर अवस्वापिनी आदि विद्याओं के योग से नगर में चोरी करके काफी धन की गठरी उठाकर वहां आया उसने सोये हुए कुमार को देखा उन्हें उठाकर बोला-अरे बाबा ! तू मेरा बोझा उठाकर मेरे साथ चल । मैं तुझे निहाल कर दूंगा। चोरकी अजीब बात को सुनकर,