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( २६४ ) राजा आदि सब प्रसन्न हुए । महेन्द्रपुर की रानी और वीरमती आपस में धर्म की बहनें बन गई । उसी रोज कुशस्थल से कुण्डलपुर होता हुआ कोई बंदीजन वहां आया। उसने कुमार श्रीचन्द्र के लोकोत्तर चरित्र का गान किया । सुलोचना और चन्द्रलेखा बहुत प्रसन्न हुई मानो प्यासे पपीहे को स्वाति की बूदे मिल गई हों। उन्होंने उस बंदी को भारी पारितोषिक देकर आदर से विदा किया।
कुछ दिन ठहरकर सुलोचना और उसकी माता से कुण्डलपुर के लिए वीरमती ने आज्ञा ली और अपने परिवार के साथ कुछ ही दिनों में कुण्डलपुर जा पहुंची।
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