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( २६७ ) ध्यान से देखियें, राधावेध साधने के लिए बडी २ उमंगोंको लेकर राजकुमार स्तम्भ के पास आते हैं । असफल होकर, निराशा और अपमान को अपने हृदय में लेकर ये लौट जाते हैं । देखियें, यह श्रीचन्द्र का वेष बनाकर कुमार कनकरथ आया है। देखिये इसने श्रीचन्द्र की तरह बाण चला दिया है। बाण लगा या नहीं तब भी उस कृत्रिम तिलकमंजरी ने उसके गले में वर माला डाल दो है । अहा हा हा ! कितना सुन्दर नाटक है। ये भाट चारण-"सूरो सिरि चंदो जयउ" कहकर आशीर्वाद के साथ प्रशंसा के गीत गाते हैं । इस प्रकार नाटक-दिखानेवाले पुरुष को कुमार ने प्रसन्न होकर बहुतसा पारितोषिक प्रदान किया।
नाटक देखकर मन ही मन कुमार प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ खडा था। उस समय पास में खडी हुई राजकुमारी कनकवती समुद्र के प्रति नदी के समान प्रेम, से नाटकीय कुमार श्रीचन्द्र के प्रति उमड़ रही थी। उसने पास खडी अपनी धामाता के सामने लज्जा और संकोच को छोडकर यह बात प्रकट कर दी। अहा ! कितना सुन्दर स्वरूप है। महामहिम इस उदार शूरवीर, धीर
और गंभीर पुरुष को मैंने मेरा जीवन-साथी मान लिया है। आज से यही मेरे पति हैं। वहां खडी मंत्री की कन्या प्रेमवतो, सार्थपति की कन्या धनश्री ने और नगर