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( २४८ ) मंत्रिवर्य! सुनो, कुशस्थलपुर में लक्ष्मीदत्त नाम का एक सेठ रहता है । मैं उसीका व्यसनी दुराग्रही और जुआरी पुत्र हूं। मैं पिता के छांने घर से धन चुराकर इधर उधर व्यय कर देता था। इससे पिता ने रुष्ट होकर मुझे घर से निकाल दिया । घर से निकाले जाने पर पर मेरा आचरण और चरित्र और भी ज्यादा भ्रष्ट होगया है । जुत्रा आदि दुर्व्यसनों में फंस जाने पर प्राणी को दुःख के सिवाय और मिल ही क्या सकता है ?
मैं इधर उधर दुःखी अवस्था में भटक ही रहा था. कि मेरी अचानक एक सिद्ध पुरुष से भेंट हो गई, मैं उसकी सेवा में बहुत दिनों तक रहा । उसने मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मुझे यह मंत्र दिया। मैं उस सिद्ध पुरुष . को छोड़ कर इधर चला आया हूँ क्योंकि जुआ खेलने की उत्कट इच्छा ने मुझे वहां टिकने नहीं दिया। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बिनाधन के 'जुया' हो नहीं सकता अतः मैंने धन प्राप्ति की ही आशा से इस ढिंढोरे को स्पर्श किया था।
उसके मुख से इस प्रकार परिचय पाकर मंत्री ने राजा को उसका सारा परिचय कह सुनाया। सुनकर राजा मंत्रियों समेत बड़ा दुःखी हुआ। वह कहने लगा "मैं ऐसे जुआरी को अपनी ऐसी सुशील कन्या कैसे दे