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( २५६ ) श्राज्ञा पाते ही उस सखी ने आदर पूर्वक कहाहे ब्रह्मचारी ! आत्रो। इस पेड की सघन छाया में विश्राम करो। आपको आगे कहां जाना है ? कृपा करके हमारा प्रातिथ्य ग्रहण करो।
यह सुनकर कुमार राजादनी खिरनी-रायण के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया । सखी ने खूब फल-फूल कुमार को लाकर दिये और कुमार ने बड़ी प्रसन्नता से उन स्वादिष्ट फलों को खाया ।
कुमार उनको उनका परिचय पूछने ही वाला था कि एक अन्य रमणी वहां पर गाती हुई आई :. चन्दकला रायसुआ, सा सव्व कलाणभायणं जयइ । सिरिचंद वरो जीए, सयमेव परिक्खिऊण को।
यह सुनकर कुमार को बड़ा अचंभा हुआ और वह विचार करने लगा-कहां तो चन्द्रकला है और कहां ये रहते हैं ?। कहां तो वह स्थान, और कहां इतनी दूर यह स्थान ? इन सब बातों को ये कैसे जानती हैं। . इस प्रकार वह विचार कर ही रहा था, कि एक बुढिया निर्मल वस्त्र धारण किए हुए वहां आ पहुंची। वह अपनी पोशाक से विधवा जान पड़ती थी। उसने