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( १४८ ) न कुमार श्रीचन्द्र को ही पता था कि इस समारोह में अपने को पहुंचना है। प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण से खींचे हुए ही कुमार दीपशिखा में केवल मनोरंजन के लिये पहूंचे थे । अपने दोस्त के साथ दीपशिखा की अपूर्व च्छटा को देखते हुए अपने पिता के अनन्य अनुरागी वरदत्त सेठ के घर में होनेवाले समारोह संगीत को अनजान अवस्था में देख सुन रहे थे । इतने में अचानक सेठ वरदत्त की दृष्टि श्रीचन्द्र कुमार पर जा पडी । उसने कुमार को पहचान लिया । भारी प्रसन्नता से बडे आदर के साथ स्वागत करते हुए उसने कहा-" अहा ! सेठ लक्ष्मीदत्त के उदार कुमार श्रीचन्द्र के दर्शन पाकर मेरे नेत्र मेरा जन्म और मेरा यह घर आंगन पवित्र होगये हैं। कुमार
आप कहां ठहरे हैं ? क्या आप मुझे नहीं जानते जो इस प्रकार अजनबी के रूप में दूर २ खडे हैं। यह विशाल वैभव सब आप लोगों की कृपा का ही तो फल है फिर इस प्रकार परायेपन का भाव क्यों प्रकट किया जा रहा है। आइये आज मेरे बच्चे के लेखशाला-प्रवेश संस्कार का समारोह चल रहा है। हे कुमार ! इस प्रकार अचानक
आपके पुण्य पदार्पण से मेरे घर में सोने के सूर्य का उदय हुआ मैं मानता हूं।
कुमार ने वरदत्त को पहचान लिया । यों ही क्रीडा