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महिने। किसी की भी सकत नर्स, जो जीपी राह पर सोरमारा कोई भी अंका कर सके। पिताजी! आपकी अंतिम बात स्व को वापस लेने के लिये है-क्षमा कीजियें। आपकी प्राज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य होते हुए भी मैं पालन नहीं कर सकुमा.। क्योंकि "दान को वापस लेना"-मैंने कहीं पढ़ा नहीं कभी सीखा भी नहीं। भाग्य से मिली वस्तुयें फिर भी भाग्य से ही आमिलेंगी । मुझे इसमें कोई संदेह नहीं। .. - पुत्र के प्रत्युत्तर को पाकर सेठ. इतप्रभ होकर चूमता हमा बोला-वत्स ! छोटे मुंह बड़ी बात नहीं करनी चाहिये ! ये घोड़े, ऐसा रथ अन्यत्र अप्राप्य है। इनका दान मुझे ठीक नहीं मालूम देता । अतः इनका मूल्य देकर ले लेना ही ठीक होगा। .
- पिता की बात सुनकर कुमार चुप होगया, और अपने महल में चला गया। एकान्त में सोचने लगा-अहो परतन्त्रता में कितना दुख है। इसी पराधीनता से प्रादमी किं.कर्तुन्य मूढ होकर कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाता है। अतः अब मुझे यहां नहीं रहना चाहिये। : अगर मैं यहां रहूँगा तो स्वाधीनता से सुमे घुमने-फिरने, लेने-देने और प्रत्येक काम में पड़ी कठिनाइयों का सामना करावा पखेमा । अब