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पहुँचने लगे । संध्या के शंख फूंके जाने लगे । पक्षी दिन भर चुगा करके अपने घौंसलों को और नन्हे २ बच्चों को चुगाने और प्यार करने लगे । गाय-भैंसों के टोले जंगलों से चर कर अपने मधुर दूध से अपने पालकों के पात्र भर कर जुगाली करने में लग गये । श्राकाश ताम्रवर्णी-लाल सूर्ख हो गया। बादले पहाड़ - हाथी-घोड़ा आदि रूपों में परिणत होते और बिखरते हुए संसार की असारता के पाठ पढ़ा रहे थे अर्थात् पूर्णतया संध्या वेला हो चुकी थी ।
कुमार श्रीचन्द्र अपने विदेश गमन के दृढ विचारों को कार्य रूपमें परिणत करने से पहिले, अपनी प्राण प्यारी चन्द्रकला के महल में उसकी श्राज्ञा पाने के लिये पहु ंच गया ।
हर्ष की अधिकता से उत्कण्ठित चित वाली चन्द्रमुखीचन्द्रकला ने अपने प्राणनाथ की पधरावणी में अपने चिरकाल के मनोगत संकल्पों की सिद्धि का साक्षात्कार किया । खूब घुल घुलकर मीठी प्यार भरी बातें की । आपस में उनका मनोमेल हुआ । वाणी में वे एक-रस हुए। काया से भी उनने अद्वेत का आनन्द लिया । चन्द्र को पाकर कला पूर्ण प्रसन्न हो रही थी तभी कुमार ने अपने मनोगत भाव उसे कहने शुरु किये ।