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इस प्रकार रोती-विलखती चन्द्रकला को आश्वासन देते हुए कुमार ने कहना प्रारम्भ किया :
कल्याणि ! तुम मेरे मन को जानने वाली, और बड़ी धीरज वाली होकर भी आज अपना धीरज खो रही हो, यह क्या ? देवि ! रोप्रो मत । तुम-वीर क्षत्रियानी हो । संसार के दुःखों को जानती हुई भी अनजान कैसे बन रही हो ? तुम्हारा कहना सब सच है, किन्तु जो कुछ सुसगल वगैरह से मिला है वह मुझे रुचिकर नहीं हो सकता । मेरी महत्ता तो मेरी भुजाओं से उपार्जित धन से एवं उसके दान से ही हो सकती है। तुम पर मेरा बड़ा भारी स्नेह है, इसीलिये मैं माता पिता और कुटुम्बियों को न पूछ कर केवल तुम्हें ही पूछने-आया हूँ । अतः तुम रोना छोड़कर धीर मन से मुझे अनुमति प्रदान करो। जिससे मैं अपना मन चाहा काम-विदेश-गमन कर सकू।
चन्द्रकला कहती है प्राणाधार ! आपकी विलक्षण बुद्धि और पुरुषार्थ के सामने मेरा अनुत्तर हो जाना कोई विशेष बात नहीं है लेकिन आप मेरी इस तुच्छ प्रार्थना को भी स्वीकार करें कि यदि आप किसी प्रकार भी नहीं रुक सकते हैं तो इस अभागिन एवं अकिंचन नारी को भी साथ लेते जावें । सुख दुःख में मैं आपकी सहगामिनी