________________
( ३०४ )
।
.
SPA
1
शरीर क्या नासिका की तृप्ति का कारण समीर चल रहा था। भगवद्भजुन से जिड़ा वृप्ति पा रही श्री । समुस्त इन्द्रियों की लालसाओं की पूर्ति करने वाले इस मनोहर प्रातःकाल की वेला में मन प्रफुल्लित हो उठा । तबीयत हरी हो गई । राह के श्रम को दूर करने के लिए कुमार ने भी एक लघुपुष्करिणी के सुहावन तट पर सघन वृक्ष की छाया में अपना आसन जमाया। उसी स्थान पर एक कनफटा योगी पहले से ही विद्यमान था । योगी महाशय से इधर उधर की बातचीत के बाद कुमार ने कुछ धन देकर उसका साधु-वेश खरीद लिया। अपने कीमती वस्त्राभूषणों को वहीं किसी गुप्त स्थान पर छिपा कर कुमार ने वह साधु-वेश धारण किया और देखते देखते ही एक राजकुमार से कापटिक - बाबाजी के जैसा बन गया । कुछ समय वहीं पर विश्राम कर कुमार ने फिर उत्तर दिशा की तरफ प्रस्थान किया ।
(1):
विचित्र यस्तुओं से भरे इस संसार क्षेत्र में एकाकीकुमार अपने आप में सन्तोष अनुभव करता हुआ चला जो रहा था। मार्ग में कई नगर, ग्राम, नदी, तालाब, बाग-बगीचे, पहाड़, गुफायें, मनुष्य, स्त्री, पशु पक्षी, आदि अनेक साधारण असाधारण आश्चर्यकारी दृश्य