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रात्रि का द्वितीय प्रहर था । निस्तब्ध निशा के अन्धकार में नगर की बड़ी बड़ी सड़कें भी जनशून्य हो रहीं थीं। दिन की सी धूमत्राम बाजारों में नहीं थी, और न ही उमड़ता हुआ जनसमूह कहीं दिखाई पड़ रहा था । कहीं कोई इक्का दुक्का मानव तेजी से निज गृह की ओर लपकता हुआ दिखाई दे जाता था। बाजारों तथा गलियों का जगमगाता तेज प्रकाश भी मंद हो गया था, केवल चौराहे ही तेज प्रकाश युक्त थे । सब अपने अपने घरों में आराम कर रहे थे। घर के बाहर की दुनिया का किसे ध्यान था । सब अपने अपने राग में मस्त थे । ठीक इसी समय हमारा तेजस्वी कुमार श्रीचन्द्र सुगमता पूर्वक चला जा रहा था | मुख पर शान्ति विराज रही थी । किसी भी