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( २० )
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व्यर्थ । सावन भादों में दूज के चांद के जैसे कुमार का कहीं पता न लगा । रंग में भंग हो भया। सभी दुःखी हो गये । गुणचन्द्र पागल सा बेचैन हो गया । जल विना मछली के जैसे छटपटाने लगा ।
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सेठ लक्ष्मीदरा अपने मन में पश्चात्ताप करने लगे । आंखों में आंसू भर भरकर कहने लगे अरे ! मैं बड़ा अभागा हूं। मैंने व्यर्थ ही बेटे को दुःखी किया । चूभती हुई बात कह दी । हे बेटा ! तू मुझे माफ कर दे, जहां कहीं हो वहां से चला था । अरे ! मैंने वीणारव से उसके दान किये रथ घोड़े मूल्य देकर वापस लेने के लिये जोर दिया, यह अच्छा नहीं किया । मेरे इसी कार्य से वह रुष्ट होकर कहीं चला गया। अब मैं क्या करू ? कहां जाऊं ? मेरा बेटा मुझे कहां मिलेगा ? हायरे ! मेरा लोभ | इस प्रकार सेठ ने विलाप और प्रलाप किये ।
पुत्र वियोग से दुःखी हुई सेठानी भी अपनी आंखों से बोर २ जितने आंसू गिराती हुई विलाप करती हुई कहती है "हाय आज दिन तक मेरे जिस बेटेने मुह से कभी कुछ नहीं मांगा था, उसीने कल मेरे से और अपने कुटुम्बियों में बांट कर स्वयं भी उस समय इस बात को मैं न समझ पाई कि मेरा लाल मेरी आंखों का तारा, हृदय का हार, भीचन्द्रकुमार बुझ
लड्डु मांगे, कुछ खाये ।