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टिगोचर हुए। जहाँ इच्छा होती वहीं ठहर जाता था। जब इच्छा होती चल देता था । । मार्ग में जन जन के मुख से कुमार श्रीचन्द्र को अपने ही चरित्र-गान सुनाई पड़े। कहीं राधावेध के प्रबन्धन गीत, तो कहीं नृप नन्दिनी तिलकमञ्जरी के उलहने के पद । कहीं सुवेग-रथ और घोड़ों की अद्भुत दान लीला तो कहीं पद्मिनी चन्द्रकला के विवाहले । इस प्रकार बागों में झूले पर झूलती लीलावती-ललनाओं के कोकिल-कंठों से मीठे स्वर में गाये जाते यशो-मान और अनुपम जीवन घटनाएं सुनता कुमार आगे बढता जाता था।
इधर प्रातःकाल होते ही धीर-मंत्री राज-सभा में जा पहुँचा । उसने महाराज प्रतापसिंह के सामने बड़े विनीत
और राजकीय ढंग से कुमार श्रीचन्द्र के विवाह का प्रस्ताव रखा। ठीक उसी समय राजा दीपचन्द्र देव के सेनापति ने आकर पद्मिनी चन्द्रकला के विवाह की सारी मा. महाराजा से निवेदन की। प्रसन्न मनवाले महाराजा ने महारानी सूर्यवती को इन सुखद-समाचारों से अवगत कराया । महारानी ने इन समाचारों से भारी हर्ष प्रकट किया। अपनी बहन चन्द्रवती की पुत्री चन्द्रकला से मिलने के लिये महाराज से प्राज्ञा लेकर महारानी बजे