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( २०० ) पति को विदेश यात्रा के लिएदृढ-संकल्प देख पति का हित चाहने वाली पद्मिनी चन्द्रकला ने गद् गद् स्वर में कहा:
मागा इत्यपमंगलं व्रज इति स्नेहेन हीनंवचस्तिष्ठेति प्रभुता यथा- रुचि कुरुष्वैषायुदासीनता । स्पर्थेऽन्वेमि तवेत्यसग्रह-वचो नैमीति वाक्तुच्छता प्रस्थानोन्मुख ! ते प्रयाण-समये वक्तु कथं वेद्यहम् ।।
यदि मैं ऐसा कहूँ कि मत जाओ तो यह अमंगल होगा। अगर कहूँ कि जाओ तो मेरा वचन बडा ही स्नेह हीन होगा। अगर कहँ कि ठहरो तो ऐसा कहना अपनी प्रभुता प्रकट करना है। यदि ऐसा कहूं कि आपकी इच्छा के मुताविक करो तो इसमें उदासीनता मालुम होती है। यदि साथ चलने का कहूं तो यह मेरा कदाग्रह होगा। अगर साथ न चलने का कहूं तो मेरी वाणी की तुच्छता प्रकट होगी। अतः हे स्वामिन् आपके प्रस्थान के समय में मैं कुछ भी नहीं बोल सकती । परन्तु फिर भी मैंने किसी समय अपने गुरु के मुखारविंद से नवकार मंत्र के बड़े भारी महत्व को सुना है, अतः आप इसे धारण कर लीजिए। यह आपको शिरस्त्राण, मुखपर कवच, आयुध और पदत्राण का काम देगा । सदैव यह आपकी प्राभ्यन्तर और बाह्य रक्षा करेगा। युद्ध में संकट